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Monday, September 18, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-28 अंधेर नगरी में सत्यानाश फौजदार का राजकाज! जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज। ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥ रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर भारतेंदु? क्या वैदिकी सभ्यता का प्रतीक न होने की वजह से अशोक चक्र को भी हटा देंगे? बंगाल में महिषासुर उत्सव की धूम से नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में खलबली हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अंत्यज आम अस्पृश्य जनता की पैदल फौजों के दम पर वर्तमान पर कब्जा कर लेने के बाद फासिस्टों के निशाने पर है अतीत और भविष्य,जिन्हें वैदिकी साहित्य और मनुस्मृति विधान के मुताबिक सबकुछ संशोधित करने का अश्वमेध अभियान जारी है। पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-28
अंधेर नगरी में सत्यानाश फौजदार का राजकाज!
जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥
रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर भारतेंदु?
क्या वैदिकी सभ्यता का प्रतीक न होने की वजह से अशोक चक्र को भी हटा देंगे?
बंगाल में महिषासुर उत्सव की धूम से नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में खलबली
हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अंत्यज आम अस्पृश्य जनता की पैदल फौजों के दम पर वर्तमान पर कब्जा कर लेने के बाद फासिस्टों के निशाने पर है अतीत और भविष्य,जिन्हें वैदिकी साहित्य और मनुस्मृति विधान के मुताबिक सबकुछ संशोधित करने का अश्वमेध अभियान जारी है।
पलाश विश्वास
डिजिटल इंडिया में इन दिनों जो वेदों,उपनिषदों,पुराणों,स्मृतियों,महाकाव्यों के वैदिकी साहित्य में लिखा है,सिर्फ वही सच है और बाकी भारतीय इतिहास,हड़प्पा मोहंजोदोड़ो सिंधु घाटी की सभ्यता, अनार्य द्रविड़ शक हुण कुषाण खस पठान मुगल कालीन साहित्य, आख्यान, वृत्तांत और विमर्श झूठ हैं।
ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति विधान सच हैं और महात्मा गौतम बुद्ध,उनका धम्म,महात्मा महावीर,गुरु नानक,बसेश्वर,ब्रह्म समाज,नवजागरण,सूफी संत बाउल फकीर आंदोलन झूठ हैं।
हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अंत्यज आम अस्पृश्य जनता की पैदल फौजों के दम पर वर्तमान पर कब्जा कर लेने के बाद फासिस्टों के निशाने पर है अतीत और भविष्य,जिन्हें वैदिकी साहित्य और मनुस्मृति विधान के मुताबिक सबकुछ संशोधित करने का अश्वमेध अभियान जारी है।
इस हिसाब से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास और भारतीय संविधान और अब तक चला आ रहा कायदा कानून,नागरिक और मानवाधिकार का सफाया तय है तो रवींद्रनाथ,गालिब, प्रेमचंद,पाश, इस्लामी राजकाज,मुसलमान तमाम लेखक,कवि और संत जिनमें शायद जायसी,रहीमदास और रसखान भी शामिल हों निषिद्ध है।
इस हिसाब से गैर वैदिकी राष्ट्रीय प्रतीक अशोक चक्र को देर सवेर हटाने का अभियान चालू होने वाला है।गौरतलब है कि सम्राट अशोक के बहुत से शिलालेखों पर प्रायः एक चक्र (पहिया) बना हुआ है। इसे अशोक चक्र कहते हैं। यह चक्र धर्मचक्र का प्रतीक है। उदाहरण के लिये सारनाथ स्थित सिंह-चतुर्मुख (लॉयन कपिटल) एवं अशोक स्तम्भ पर अशोक चक्र विद्यमान है। भारत के राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र को स्थान दिया गया है।भारतीय मुद्रा में बी अशोक चक्र है।अशोक चक्र में चौबीस तीलियाँ (स्पोक्स्) हैं वे मनुष्य के अविद्या से दु:ख बारह तीलियां और दु:ख से निर्वाण बारह तीलियां (बुद्धत्व अर्थात अरहंत) की अवस्थाओं का प्रतिक है।
रवींद्रनाथ की चंडालिका,रक्तकरबी,गीतांजलि,उनके उपन्यासों और निबंधों में राष्ट्रद्रोह पर शोध जारी करने वालों के लिए अगर प्रेमचंद का गोदान,रंगभूमि औकर कर्मभूमि जैसे उपन्यास और सद्गति,ईदगाह,पंच परमेश्वर जैसी कहानियां  खतरनाक हैं तो वाराणसी के भारतेंदु हरिश्चंद्र कम खतरनाक नहीं हैं,जिन्होंने वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति लिखकर राष्ट्रवाद को नये ढंग से परिभाषित किया तो राष्ट्रवाद पर रवींद्रनाथ के भाषणों,निबंधों की तरह अंधेर नगरी में राष्ट्र व्यवस्था का सच बेपर्दा कर दिया और इस पर तुर्रा उन्होंने भारत दुर्दशा भी लिख दिया। आपात काल के दौरान भारतेंदु की ये रचनाएं आम जनता के लिए रंगकर्म की मशालें बन गयी थीं तो नया आपातकाल में इऩसे खतरनाक रचनाएं मिलना मुश्किल है।

तो क्या रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर होंगे भारतेंदु?
रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद का विरोध पहलीबार 1889 में अपने उपन्यास राजर्षि में किया तो सभ्यता का संकट उनका आखिरी निंबध है,जिसे मई 1941 में उन्होंने शांतिनिकेतन में भाषण बतौर प्रस्तुत किया।जबकि इससे बहुत पहले भारत दुर्दशा नाटक की रचना 1875 इ. में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की थी। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अंत करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। वे ब्रिटिशराज और आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे कुरीतियाँ, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, धर्म, संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं।
जिस औपनिवेशिक राष्ट्रव्यवस्था का विरोध रवींद्रनाथ और भारतेंदु कर रहे थे,वह आज का निराधार डजिटल बुलेट सामाजिक यथार्थ है।
भारत दुर्दशा के इस दृश्य पर गौर करेंः
तीसरा अंक

स्थान-मैदान
(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं! भारतदुर्दैव ’ आता है)
भारतदु. : कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या क्या दुर्दशा होती है।
(नाचता और गाता हुआ)
अरे!
उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।
छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे...
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे...
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।
घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे...
काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे...
मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
(नाचता है)
अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें! लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोडं़गे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।
(नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है)
देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।
(सत्यानाश फौजदार आते हैं)
(नाचता हुआ)
सत्या. फौ : हमारा नाम है सत्यानास।
धरके हम लाखों ही भेस।
बहुत हमने फैलाए धर्म।
होके जयचंद हमने इक बार।
हलाकू चंगेजो तैमूर।
दुरानी अहमद नादिरसाह।
हैं हममें तीनों कल बल छल।
पिलावैंगे हम खूब शराब।
भारतदु. : अंहा सत्यानाशजी आए। आओे, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिल के चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ़ चलें।

सत्यानाश फौजदार का राजकाज है।
अतंरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका हिंदी समय में भारतेेंदु की तीनों महत्वपूर्ण रचनाएं भारत दर्दशा,अंधेर नगरी और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति पढ़ सकते हैं।
सच की कसौटी वैदिकी है और भारत में आदिवासी समाज का सच अगर भारतीय इतिहास का सच नहीं है तो सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के भगवान किन्हीं बीरसा मुंडा के पोते की बेटी के यहां खाना खाने का कार्यक्रम क्यों बनाया वैदिकी नस्ली राष्ट्रवाद के सिपाहसालार ने और फिर झारखंड के खूंटी जिले के उलीहातु गांव में  बीरसा वंशज चंपा मुंडा के माटी के घर में फर्श पर टाइल्स लगवाने के बाद परोसा भोजन खाये बिना कैसे लौट आये?
मुंडा विद्रोह की कथा जाहिर है कि वैदिकी साहित्य नहीं है और भक्तजनों ने बांचा भी नहीं होगा लेकिन आदिवासी किसानों के अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ निरंतर संग्राम का इतिहास जिन्होंने पढ़ा होगा,कम से कम जिन्होंने महाश्वेता देवी का लिखा उपन्यास जंगल के दावेदार पढ़ा होगा,उनके लिए उलगुनान की जमीन उलीहातु गांव अनचीन्हा नहीं है।
बीरसा मुंडा के गांव उलीहातु की आड़ में आदिवासी दुनिया  कब्जे के लिए आदिवासियों को उनके घरों से बेधकल करके ईंटों के दड़बे में कैद किया जा रहा है तो उनके इतिहास,उनकी अस्मिता और उनके अस्तित्व को भी जल जंगल जमीन पर उनके हकहकूक,उनकी नागरिकता,उनकी आजीविका,उनकी संस्कृति और उनके नागरिक और मनावाधिकार मनुस्मृति फौजों के अश्वमेधी सेना कुचलती जा रही है और नस्ली वर्चस्व के ब्राह्मणधर्म और वैदिकी संस्कृति के इस अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ कुछ भी कहना राष्ट्रद्रोह है और इस जनप्रतिरोध के दमन के लिए दैवी सत्ता का आवाहन है तो इस दैवी सत्ता के खिलाफ आदिवासी आख्यान,वृत्तांत और सामंतवाद साम्राज्यवाद के खिलाफ उनका निरंतर जारी संग्राम का सारा इतिहास वैैदिकी साहित्य के हवाले से खारिज हैं।
संस्कृत में लिखा सबकुछ पवित्र है और तमिल में लिखा साहित्य और इतिहास झूठ है।मनुस्मृति शिकंजे में फंसा हिंदुत्व सच है और इससे बाहर अनार्य असुर अछूतों और आदिवासियों के हजारों साल का इतिहास झूठ है।वैदिकी साहित्य के मिथकों का सच इतिहास है तो बाकी इतिहास मिथक है।
लोक संस्कृति और जनभाषाओं,गैर आर्य गैरहिंदू जनसमुदायों के तमाम आख्यान और वृत्तांत सिर्फ आदि अनंत शाश्वत वैदिकी साहित्य,व्याकरण और सौदर्यशास्त्र की कसौटी में मिथ्या है तो उनकी जीवन यंत्रणा ,उनकी अस्मिता और उनका अस्तित्व भी झूठ है।
रवींद्र नाथ वैदिकी साहित्य और उपनिषदों के आलोक में लिखें तो गुरुदेव ,विश्वकवि और उनके साहित्य का स्रोत बौद्ध दर्शन हो,अनार्य द्रविड़ संस्कृति हो लोकसंस्कृति हो तो उस पर चर्चा निषिद्ध है?
बंगाल में महिषासुर उत्सव को लेकर नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में भारी खलबली मची हुई है।यूं तो सैकड़ों सालों से भारत में आदिवासी समाज अपने को असुरों का वंशज मानते हुए नवरात्रि के दौरान शोक मनाता है और महिषासुर उत्सव भी मनाने का सिलसिला भी वर्षों पुराना है।कोलकाता और बंगाल के व्यापक हिस्सों में आदिवासी अछूत और शूद्र जनसमुदाय असुर उत्सव मनाते रहे हैं।इसे लेकर दुर्गोत्सव के दौरान अभी तक किसी टकराव की घटना नहीं हुई है।अब ये हालात सिरे से बदल गये हैं।
जेएनयू में महिषासुर उत्सव के काऱण जेएनयू के छात्रों को संसद से राष्ट्रद्रोही साबित करने के उपक्रम के बाद इसबार बंगाल में महिषासुर और दुर्गा के बारे में आदिवासी आख्यान को पहलीबार वैदिकी साहित्य की कसौटी पर कसते हुए उसका विरोध विद्वतजन कर रहे हैं और संघ परिवार इसे सीधे राष्ट्रविरोधी साबित करने पर तुला हुआ है।आज बांग्ला के प्रमुख दैनिक अखबार एई समये के पहले पेज पर महिषासुर विवाद पर विस्तृत समाचार छपा है।
इसी सिलसिले में फेसबुक पर यह पोस्ट गौर तलब हैः
मेरा सवाल देश के साहित्य जगत के दिग्गजों से हैअब क्या वो चुप रहेंगे??या इसी तरह अभी और बर्बादी देखेंगे???
फूहड़ मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने मुंशी प्रेमचंद को 'केंद्रीय हिंदी संस्थान' से बेदखल किया!
मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचना 'गोदान' को 'केंद्रीय हिंदी संस्थान' ने अपने पाठ्यक्रम से निकाल बाहर फेंका है। 'केहिसं' प्रशासन ने दलील दी है कि उपन्यास की ग्रामीण पृष्ठभूमि और इसमें प्रयुक्त अवधी भाषा का पुट विदेशी छात्रों को समझ में नहीं आता लिहाज़ा उन्हें भारी दिक्कत होती है(!) ग़ौरतलब है कि 'गोदान' न सिर्फ प्रेमचंद प्रतिनिधि रचना के रूप में जाना जाता है बल्कि हिंदी आलोचना के नज़रिये से इसे उनका सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना गया है। भारतीय भाषाओँ की साहित्यिक पुस्तकों में सर्वाधिक बिक्री के रिकार्ड का तमगा भी इसे ही हासिल है। इतना ही नहीं, विश्व की अन्य भाषाओँ में सबसे ज़्यादा अनुवाद होने वाली भारतीय भाषा की किताब भी 'गोदान' ही है। सन 1936 से लेकर अब तक इसके अन्यान्य प्रकाशनों की तुलना में संख्या की दृष्टि से केवल लियो तोलस्तोय का 'वॉर एंड पीस' ही इसकी टक्कर में खड़ा हो पाता है। 'हिंदी संस्थान की भोथरी राजनीतिक दलील स्पष्ट कर देती है कि मौजूदा शासन में देश की कालजयी रचनाओं का भविष्य सुरक्षित नहीं। ज़रुरत है कि सभी सचेत पाठकों को ऐसी अलोकतांत्रिक कार्रवाईयों का प्रबल विरोध करना चाहिए।
-नथमल शर्मा। Nathmal Sharma SSneha Bava
गौरतलब है कि  इससे पहले वर्तमान पर एकाधिकार नस्ली आधिपत्य कायम करने के बाद हिटलरपंथी संस्थागत  संघ परिवार की  मनुस्मृति विधान की सत्ता राजनीति अतीत को भी वैदिकी आर्य रक्त की विशुद्धता की अपनी विचारधारा के मुताबिक बदलने  के दुस्साहस में लगातार बढ़ रही है। इसलिए न सिर्फ ऐतिहासिक प्रतीकों बल्कि घटनाओं, विवरणों और शख्सियतों को भी पसंद के हिसाब से चुना जा रहा है - उनमें काट छांट की जा रही है।
इसी सिलसिले में सत्ताधारियों के निर्देशानुसार  देश में स्कूली शिक्षा प्रबंधन की केंद्रीय संस्था, एनसीईआरटी ने विषयवार सुझाव मांगे हैं कि किताबों में नई और आवश्यक तब्दीलियां क्या हो सकती हैं। इसी के तहत संघ परिवार से जुड़े संगठन और नेता फौरन हरकत में आ गये।
यह खबर पहले ही आप सभी को मालूम ही होगा कि शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नामक संगठन ने स्कूली किताबों में आमूलचूल बदलाव की सिफारिशें भेजी हैं। पांच पेज की इन सिफारिशों का लब्बोलुआब ये है कि भारत का इतिहास, हिंदुओं का इतिहास है और जो हिंदू नहीं है या हिंदू धर्म को लेकर कट्टर नहीं है, वो इस इतिहास का हिस्सा नहीं हो सकता है। सिफारिशों का आलम ये है कि मिर्जा गालिब और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों से जुड़े पाठ भी हटा देने को कहा गया है।



संघ परिवार से  जुड़े न्यास ने एनसीईआरटी को जो सुझाव दिए हैं उनमें कहा गया है कि किताबों में अंग्रेजी, अरबी या ऊर्दू के शब्द न हों, खालिस्तानी चरमपंथियों की गोलियों का शिकार बने विख्यात पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की कविता न हो, गालिब की रचना या टैगोर के विचार न हों, एमएफ हुसैन की आत्मकथा के अंश हटाएं जाएं, राम मंदिर विवाद और बीजेपी की हिंदूवादी राजनीति का उल्लेख न हो, गुजरात दंगों का विवरण हटाया जाए, आदि ,आदि। सिफारिशों के मुताबिक सामग्री को अधिक "प्रेरक” बनाना चाहिए।

Saturday, October 15, 2016

बाबू वृत्तांत में फ्रंटियर प्रसंग समर सेन अनुवादः पलाश विश्वास

बाबू वृत्तांत में फ्रंटियर प्रसंग:
समर सेन
अनुवादः पलाश विश्वास
Image result for Babu Brittanto by Samar Sen
समयांतर,अक्तूबर,2016 में प्रकाशित
(बाबू वृतांत समर सेन की आत्मकथा है,जो भारतीय सीहित्य में बेमिसाल है।  महज तीस साल की उम्र में कविताएं लिखना उन्होंने चालीस के दशक में छोड़ दी थी। स्टेट्समैन,नाउ और फ्रंटियर के मार्फत भारतीय पत्रकारिता में संपादन और लेखन के उत्कर्ष के लिए वे याद किये जाते हैं।बाबू वृतांत में आत्मकथा में अमूमन हो जाने वाली हावी निजी व्यथा कथा की चर्बी कहीं भी नहीं है और न उन्होंने पारिवारिक पृष्ठभूमि या परिजनों की कोई कथा लिखी है।वे मास्को में रहे हैं और वहां भी उन्होंने पत्रकारिता की है लेकिन बेवजह उस प्रसंग को भी उन्होंने ताना नहीं है।करीब सत्तर पेज के बाबू वृत्तांत में समकालीन सामाजिक यथार्थ को ही उन्होंने वस्तुनिष्ठ पद्धति से संबोधित किया है,जो आत्मकथामें आत्मरति की परंपरा से एकदम हटकर है। बमुश्किल चार पेज में उन्होंने फ्रंटियर निकालने की कथा सुनायी है और उसमें भी आपातकाल की चर्चा ज्यादा है। बाबू वृतांत अनिवार्य पाठ है।जिसमें से हम सिर्फ फ्रंटियर प्रसंग को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।- पलाश विश्वास)


फ्रंटियर 1968 में 14 अप्रैल को बांग्ला नववर्ष के दिन पहली बार प्रकाशित हुआ। पहले पहल आशंका थी कि हो सकता है पैसे के बिना यह अटक ही जायेगा,किंतु शुरु से जोरदार खपत हो जाने से मामला मछली के तेल से मछली तलने का जैसा हो गया। शुरु के दो एक साल में जान लगाकर मेहनत और निजी आर्थिक संकट को छोड़ दें तो विशेष कोई असुविधा नहीं हुई। (नाउ के लिए व्यवसाय का मामला और आर्थिक चिंता मेरी जिम्मेदारी नहीं थी)। नाउ की तुलना में पहले साल वेतन आधे से कम था।इसके बाद तो वेतन आर्थिक हालात के मद्देनजर सांप सीढ़ी का खेल हो गया,कभी बढ़ जाये तो कभी घटता रहे। दस साल निकल गये, अक्सर लगता था कि घर में खा पीकर वन में भैंस हांक रहे हैं- वैसे भारतीय भैंसों को हांकना किसी पत्रिका के सामर्थ्य में होता नहीं है। विशेष तौर पर जब विज्ञापन संस्थाओं के अनेक लोग कहने लगे,फ्रंटियर के लिए `आपका सम्मान करते हैं’,तब यह अहसास होता था,सम्मान से कोई बात बनती नहीं है।
वह दिनकाल उत्तेजना का था।1968 में चारों दिशाओं में गर्म हवा,देश में और विदेश में भी। देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन से नयी परिस्थिति बन गयी।1969 के चुनाव में फ्रंटियर में संयुक्त फ्रंट का समर्थन किया गया,लेकिन द्वितीय संयुक्त मोर्चा सरकार के कारनामे उजले नहीं लग रहे थे।बहुतों को अब याद ही नहीं होगा कि फ्रंट सरकार के घटकों में सत्ता पर वर्चस्व विस्तार के `संग्राम’ के साथ खून खराबा का वह दौर शुरु हुआ। इसके बाद नक्सलपंथियों के साथ संघर्ष शुरु हो गया।ज्योतिबाबू, प्रमोदबाबू अब भी मारे गये मार्क्सवादियों के बारे में बात बात में चर्चा करते रहते हैं। बाहैसियत गृहमंत्री ज्योतिबाबू के लिए यह जानना जरुरी था कि एक मार्क्सवादी के मारे जाने पर कमसकम चार नक्सलवादी खत्म हो रहे थे।इसके अलावा थाना  पुलिस उन्हीं के नियंत्रण में थे,जहां तक नक्सलियों के जाने का कोई रास्ता ही नहीं था।
फ्रंटियर की ख्याति कुख्याति नक्सल समर्थक पत्रिका बतौर अर्जित हो गयी। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद  पत्रिका के संपादकीय में इंदिरा समर्थक  उच्छ्वास पढ़कर अब मुझे परेशानी होती है।`बूढ़ों की टीम’ की विदाई से बुरा महसुस तो नहीं हुआ,लेकिन भद्र महिला को लेकर भावुकता का कोई मायने न था।
1970-71 के दौरान नक्सलपंथियों के सफाये के बारे में सीपीएम की भूमिका? वह बासी रायता फिर फैलाने का कोई फायदा नहीं है।किंतु मुजीब के मामले में भारतीय सशस्त्र वाहिनी के हस्तक्षेप के सिलसिले में रातोंरात सीपीएम के पलटी मारने के बारे एक बात कहना जरुरी है।अभ्यंतरीन मामलों में इंदिराविरोधी और किसी विदेशी राष्ट्र के साथ संघर्ष हो जाने की स्थिति में केंद्र सरकार को समर्थन- द्वितीय आंतर्जातिक की यह भूमिका सीपीएम ने काफी हद तक बनाये रखी है - हालांकि 1962 में चीन के साथ संघर्ष का मामला कुछ अपवाद जैसा है।
1972 के चुनाव में भारी गड़बड़ी हुई थी।किंतु इंदिरा गांधी का जय अवश्यंभावी था।तब वे इस महादेश की सुलताना थीं।उसकी गुणमुग्ध सीपीएम को निर्वाचन में कोई विशेष सुविधा नहीं मिलनी थी,पार्टी को जान लेना चाहिए था।किंतु मात्र 13-14 सीटें। इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
साठ सत्तर के दशक में वियतनाम युद्ध के महाकाव्य ने लोगों की आस्था को जिंदा रखा।चीन की सांस्कृतिक क्रांति से नये आदर्श की रचना हो गयी।उत्पादन क्षमता हाथों में आने से ही समाजवादी क्रांति का पथ अबाध नहीं हो जाता।हजारों साल की स्तुपीकृत मानसिक, राजनीतिक और आर्थिक कचरा की सफाई,मन की संरचना, अभ्यास में परिवर्तन के लिए संग्राम न करने से संशोधनवाद बार बार वापस चला आता है।
देश के हालात क्रमशः बिगड़ते चले गये।महान नेत्री की महिमा ज्यादा दिनों तक बनी नहीं रही।1974 की रेलवे हड़ताल के नृशंस दमन, कानकटा मिथ्याचार के जो संकेत थे, वे बहुतों की पकड़ में नहीं आये।हमारी राजनीतिक पार्टियों में मैं विशष दूरदर्शिता देखता नहीं हूं।किस वक्त किससे समझौता करना चाहिए,यह हम नहीं जानते। इसके अलावा इंदिरा के समर्थन में महान सोवियत देश खड़ा था, नेतृत्व भले संशोधनवादी रहा हो, लेकिन वैदेशिक कार्यकलाप अति विप्लवी थे!
पूर्व पाकिस्तान और श्रीलंका में आंदोलन के वक्त चीनी नेताओं के बयान निजी तौर पर मुझे अच्छे नहीं लगे। बांग्लादेश की परवर्ती घटनावली हांलांकि चीन के विश्लेषण का काफी हद तक समर्थन करती है क्योंकि चीन को भारतीय हस्तक्षेप पर मुख्य आपत्ति थी।`एक करोड़’ शरणार्थी आगमन से पहले,लगभग अप्रैल की शुरुआत से भारत सरकार ने पूर्व पाकिस्तान में हथियार भेजने शुरु कर दिये थे,इसके प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं।
देश में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन बिहार और अन्यत्र तेज होता रहा।इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला,गुजरात में कांरग्रेस सरकार की परायज- सब मिलाकर भद्रमहिला अत्यंत घिर चुकी थीं। तय था कि गणतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए जयप्रकाश नारायण के साथ सीपीएम पंथी चल सकते हैं। मैदान में विशाल रैली में इस नीति की घोषणा हो गयी। हांलांकि उस नीति का पालन नहीं हुआ।
26 जून को ट्राम से दफ्तर जाते हुए आपातकाल के ऐलान के बारे में सुनकर पहले तरजीह नहीं दी- एक आपातकाल तो जारी था,और एक कहां से आना था? काफी हाउस में मालूम पड़ा,प्री सेसंरशिप चालू हो रही है। फ्रंटियर तब प्रेस में था-तारीख 28 जून का लगना था।उस अंक में इंदिरा गांधी विषय पर एक अतिशय तीव्र संपादकीय (मेरा लिखा हुआ नहीं) जा रहा था।उसे तब भी रोका जा सकता था,लेकिन मैंने कोई  परवाह नहीं की। बाद में वह अंक जब्त हो गया।5 जुलाई के अंक में  प्रीसेंसरशिप की वजह से हो रही नाना असुविधाओं के बारे में एक नोटिस छापा गया।  प्रशासन ने लिखा वह highly objectionable है।दो एक को  छोड़कर सरकारी विज्ञापन बहुत पहले 1971 में रेडियो पाकिस्तान पर फ्रंटियर के संपादकीय से एक दो उद्धरण सुनाये जाने के बाद बंद हो गया था।
पहले एक दो दिन प्रीसेंसरसिप का मसला क्या है,कैसे लागू होगी,इस बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता था।इसके बाद कुछ हफ्ते लेख, वगैरह राइटर्स दे आता था,जो अगले दिन वापस मिलते थे।आखिरकार राइटर्स को लिखा,इस तरह कोई साप्ताहिक नियमित निकाला नहीं जा सकता,बहुत कुछ आखिरी पल छापना पड़ता है एवं संपूर्ण जिम्मेदारी संपादक की होती है।छापेखाने में विश्रृंखला और पैसों की किल्लत से कामकाज अच्छा हो नहीं पा रहा था।इसलिए राइटर्स को लेख भेजना  बंद कर दिया। विदेशी मामलों में अनेक मूल्यवान लेख निकलते थे, देश के संदर्भ में From the Press स्तंभ के तहत विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से उद्धरण छापे जाते थे।बीच बीच में जरुर लगता था,इस तरह पत्रिका चलाना निरर्थक है।किंतु मनुष्य अभ्यास और रोजगार का दास है।पत्रिका बंद होने पर कई लोग बेरोजगार हो जाते।
इमरजेंसी के वक्त पुराने लेखकों से संपर्क छिन्न हो गया।इसका मुख्य कारण यह था कि देश के बारे में खुलकर कुछ लिखने का उपाय नहीं था।किसी तरह एक संपादकीय लिख दिया तो वह पर्याप्त।इच्छा होती कि कुछ ऐसा छाप दूं, जिससे पत्रिका बंद हो जाये।किंतु यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हूं कि उत्तर भारत की तुलना  में पश्चिम बंगाल में सख्ती कम थी।यहां इंदिरा संजय के चेले चामुंडे अंग्रेजी खास समझते न थे, इस वजह से फ्रंटियर के लिए थोड़ी सुविधा थी।एक मंत्री ने तो रात में स्टेट्समैन के दफ्तर से निकलकर गर्व से कहा कि वे सबकुछ `census’ करके निकले हैं।
एकबार वियतनाम के गुरिल्ला युद्ध पर केंद्रित चार पृष्ठ की एक कहानी कंपोज कराकर प्रेस में निश्चिंत बैठा था कि खबर आ गयी,उसे छापा नहीं जा सकता- गुरिल्ला युद्ध की चर्चा न हो तो बेहतर।यह खबर दिल्ली स्थित वियतनाम दूतावास में एक विदेशी पत्रकार के मार्फत पहुंचने पर उन्होने हैरत जताई। `फासिस्टविरोधी ‘ संग्राम में बीच बीच में विचलन अस्वाभाविक नहीं है।संभवतः इसीलिए पटना के फासिस्टविरोधी  सम्मेलन में हनोई से प्रतिनिधि शामिल हो गये (यह अंश जब लिखा,तब चीन का वियतनाम से झमेला शुरु नहीं हुआ था)।
दिन कट रहे थे,दिन गत,पाप क्षय।1976 में मार्च के अंत में दफ्तर में बैठा था, फ्रंटियर का का एक फर्मा छप चुका थाऔर दूसरा मशीन पर लगने वाला था, हठात् सशस्त्र पुलिस वाहिनी ने आकर छापाखाना जब्त कर लिया। दर्पण पत्रिका की ओर से कोई लेख राइटर्स भेजा नहीं जाता था (हम भी नहीं भेजते थे),उस दर्पण के मुद्रण के अपराध में प्रेस को बंद कर दिया गया,सरकार ने दर्पण के संपादक को कोई पत्र लिखने की जरुरत भी महसूस नहीं की।छापेखाने पर चौबीसों घंटे पालियों में सशस्त्र पहरा। फ्रंटियर छपना बंद हो गया। डेढ़ महीने बाद सरकारी की इजाजत लेकर हम अपने  न्यूज प्रिंट,लेख इत्यादि निकालने पहुंचे तो वहां जाकर सुना कि छापेखाने में पीछे की ओर रखा कुछ भारी और कीमती यंत्र, वगैरह की तस्करी हो गयी।एक सशस्त्र प्रहरी ने कहा,`बाबा रात में उधर कौन जायेगा,रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ‘
अप्रैल में फ्रंटियर बंद रहा (बंद न रहता तो ऋत्विक घटक के कई फिल्में पहले देखने की आश्चर्यजनक अभिज्ञता न होती)।दूसरे छापाखाना जाना संभव नहीं था, क्योंकि तब उसी छापेखाने पर प्रशासन तोप दाग रहा होता। बाद में एक अत्यंत छोटे से छापेखाने की जिम्मेदारी लेने के लिए प्रशासन से निवेदन किया कि उन्हें जरुरी लगे तो वे अवश्य पत्रिका के खिलाफ action लें, छापेखाने के खिलाफ नहीं। पहले पहल उन्हें कुछ गैलि प्रूफ भेजते थे, मुंह बंद रखने के लिए! किंतु तब 24 घंटा नहीं,लेख, आदि वापस मिलने में 26 घंटे इंतजार करना होता।साप्ताहिक इस तरह नहीं चल  सकता। लेख भेजना फिर बंद कर दिया।तब तक इरजेंसी में कुछ शिथिलता आ गयी थी, कमसकम पूर्व भारत में।

आपातकाल में बुद्धिजीवियों की भूमिका
समरसेन
(यह बाबू वृत्तांत का अंश नहीं है,स्वतंत्र आलेख है)
आपातकाल की घोषणा से करीब पंद्रह दिन पहले लगभग दो सौ बुद्धिजीवियों ने एक फासिस्टविरोधी बयान जारी कर दिया।वे तमाम बुद्धिजीवी इंदिरा सरकार को प्रगतिशील मानते हैं-या मानते थे।इनके लिए जयप्रकाश का आंदोलन फासीवाद था। दस्तखत करने वालों में साहित्यकार,अध्यापक,पत्रकार,कलाकार वगैरह शामिल थे।26 जून को इंदिरा गांधी ने अपने भाषण में इन्हीं के वक्तव्य को दोहरा दिया।उस विशेष बुद्धिजीवी महल में आपातकाल से विशेष उल्लास का सृजन हो गया।
मुझे अब्यंतरीन आपातकाल की खबर दफ्तर जाते हुए ट्राम में मिली,तब ध्यान नहीं दिया। दफ्तर पहुंचने पर एक प्रख्यात प्रगतिशील फिल्म निर्देशक ने अत्यंत उत्तेजित भाव के साथ फोन किया।ब्यौरेवार वृत्तांत चित्तरंजन एवेन्यू के काफी हाउस में सुना, दोपहर एक बजे के बाद।वहां जो लोग थे,उनमें अनेक लोग बुद्धिमान थे।इंदिरा गांधी के किसी समर्थक को वहां नहीं देखा।
इसके  दो सप्ताह बाद अखबार में पढ़ा कि हमारे परिचित दो तीन प्रगतिशील बंगाली फिल्म निर्देशक और रंगकर्मी नेता श्रीमान सुब्रत मुखोपाध्याय के नेतृत्व में मास्को फिल्मोत्सव की यात्रा पर गये हैं। इनमें से एक की आर्थिक स्थिति अत्यंत अच्छी  थी- वे ना जाते तो भविष्य में उन्हें क्षति नहीं होती।दूसरे की हालत सुविधाजनक न थी।किंतु काम या किसी और बहाने वे भी नहीं जा सकते थे।
पहलेजिन बुद्धिजीवियों का उल्लेख किया है,उनमें अधिकांश  समाज और सरकार में विभिन्न स्तर पर प्रतिष्ठित थे,ये सीपीआई मास्को के समर्थक थे।यह सोचने की बात थी कि तथाकथित बुद्धिजीवियों की संख्या सबसे ज्यादा सीपीआई में थी। सांस्कृतिक क्षेत्र में,पुरस्कार वितरण या विदेश यात्रा के मामले में ये कांग्रेसी जमाने में कांग्रेसियों से भी आगे निकल गये थे। नवीन कांग्रेसियों में शिक्षित बाहुबली हावभाव वाले व्यक्तियों की संख्या ज्यादा थी।
सेंसरशिप और समाचार के बावजूद थोड़ी बहुत खबरें और अफवाहें बंद नहीं हुईं। अनीक पत्रिका के दीपंकरबाबू गिरफ्तार हो गये।उसके भी उपरांत `कोलकाता’ पत्रिका में लिखने के अपराध में गौरकिशोर घोष गिरफ्तार कर लिये गये।दीपंकर बाबू माओपंथी थे तो गौरकिशोर घोष कम्युनिस्टों की विरोधिता लगातार करते रहे, किंतु आर्थिक लाभ या अपने विकास के लिए नहीं।वरुण सेनगुप्त सिद्धार्थशंकर की आंखों की किरकिरी बने हुए थे,जेल में डाल दिये गये।उनके बहुत बाद भूमिगत `कोलकाता’  के संपादक ज्योतिर्मय दत्त।सीपीआई पंथियों के मुताबिक वामपंथी और दक्षिणपंथियों का यह गठजोड़ सीआईए के कार्यकलापों और प्रभाव का नतीजा था- जैसा इंदिरा गांधी का भी मानना था।विदेश में विशेष तौर पर समाजवादी देशों (चीन,उत्तर कोरिया और अलबेनिया को छोड़कर) ने इंदिरा गांधी का समर्थन कर दिया,वियतनाम ने भी।कितने वामपंथी जेल में ठूंस दिये गये,वह शायद इन देशों के जनगण को मालूम न था। जयप्रकाश के आंदोलन में जो दल एकजुट हुए,वे दक्षिणपंथी रुप में परिचित थे। इमरजेंसी से पहले कोलकाता मैदान में ज्योति बसु ने जयप्रकाश नारायण के साथ एक ही मंच पर खड़े होकर आश्वासन दे दिया कि जनता के अधिकार खत्म हुए तो उनकी पार्टी जयप्रकाश का समर्थन करेगी।भारतवर्षव्यापी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद,जन साधारण के सारे अधिकार जब खत्म होने लगे, तब भी पश्चिम बंगाल में किसी आंदोलन की कोई खबर हमें नहीं मिली।चुएन लाई की मृत्यु पर शोकसभा बुलाई गयी, पुलिस में इजाजत नहीं दी और आयोजक मान भी गये।माओ त्से तुंग की मृत्यु के बाद हालांकि छोटे छोटे हाल में कुछेक शोकसभाएं हुई थीं।
देश में अन्यत्र क्या हो रहा था, जानने का कोई उपाय नहीं था।विदेशी पत्र पत्रिकाएं काफी कम पाठकों तक पहुंचती थीं।पहले दौर में इंदिरा गांधी के लिए सेंसरशिप बहुत काम की चीज साबित हुई क्योंकि दूसरे स्थानोंसे आंदोलन की खबरें न मिलने से विरोधियों का मनोबल टूट जाता है,असहाय लगता है और यह भी लगता है कि शायद जनगण बछड़ों में तब्दील हैं। इसके अलावा संस्कृति में जो लोग खुद को अग्रगामी समझते थे,वे रेडियो,टेलीविजन एवं वृत्तचित्रों केमाध्यम से सरकार से सहयोग कर रहे थे।रवींद्रभक्त उनके नाना गान पर निषेधाज्ञा के बावजूद गला खुलकर उन्हीं के दूसरे गान गा रहे थे।विगत एक लेखक ने कहा था कि उन्हें उनकी लिखी एक निराशावादी कविता का पाठ रेडियो पर करने नहीं दिया गया।दूसरी कविता का पाठ उन्होंने क्यों किया,मैंने यह उनसे पूछा नहीं।
इमरजेंसी के दौरान वामपंथी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद नहीं हुआ।जोर था पार्टी की पत्रिका के बजाय संस्कृतिके मूल्यांकन पर।किंतु कविताओं में विद्रोह का स्वर था। तब बीच बीच में लगता था कि कड़े बंधन निषेध के नतीजतन जब स्पष्ट कुछ भी लिखा नहीं जा रहा है,तब पत्रिका निकालकर क्या फायदा?अवश्य ही मामा न हो तो कना मामा भी अच्छा है,यदि सही आंख भी सरकारी न हो जाये।
बुद्धिजीवियों की भूमिका जरुर होती है।किंतु कितनी? मोटे तौर पर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने कुछ विशेष किया ही नहीं,विशेष तौर पर पूर्व भारत में।हमारे देश में सत्तर प्रतिशत अनपढ़ हैं।रेडियो के मार्फत वामपंथियों के लिए उतक पहुंचना असंभव था। इसके अलावा यहां के बुद्धिजीवियों के साथ देश के लोगों का नाड़ी का कोई संबंध कहें तो है ही नहीं।वे गुटबद्ध हैं।मतामत में कोई खास फर्क है नहीं, लेकिन असंख्य पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है-इससे लोकबल और धनबल का सम्यक प्रयोग नहीं हो पाता।
निर्वाचन में बुद्धिजीवियों की कुछ भूमिका जरुर थी।शहरी इलाकों में बहुत बड़ी भूमिका छात्रों की थी.जो बिहार,उत्तर प्रदेश,पंजाब,हरियाणा,मध्यप्रदेश,राजस्थान में गांव गांव जाकर प्रचार अभियान चलाते रहे किंतु सबसे ज्यादा राजनीतिक बुद्धि का परिचय दे दिया-दक्षिण भारत के राज्यों को छोड़कर- किसानों और मजदूरों ने,जिन तक बुद्धिजीवियों का कोई संदेश नहीं पहुंचता।मेहनतकश इंसानों ने हड्डियों तलक अपने भोगे हुए यथार्थ का जबाव वोट के माध्यम से दे दिया। वोट से अवश्य ही क्रांति नहीं होती।उसके लिए दूसरा रास्ता जरुरी है।बुद्धिजीवियों को गांवों में जाकर काम करना चाहिए- लेकिन अभी तक यह स्वप्नविलास है।जिस देश में मातृभाषा के माध्यम में  सभी स्तरों पर शिक्षा अभी लागू हुई नहीं है, अंग्रेजी का मोह और वर्चस्व प्रबल है,वहां जनगणतांत्रिक क्रांति की तैयारी अत्यंत कठिन है,बुद्धिजीवियों की भूमिका वहां आत्मकंडुयन की तरह है।
मई,1977
अनुवादःपलाश विश्वास
(साभारःदेज पब्लिशर्स,13 बंकिम चटर्जी स्ट्रीट।कोलकाता700073
बाबू वृतात का पहला संस्करण 1978 में प्रकाशित हुआ है।देज पब्लिशर्स ने यह चौथा संस्करण टीका, टिप्पणी और विश्लेषण के साथ,समर सेन की कविताओं और रचनाओं के संकलन समेत प्रकाशित किया है।जो संग्रहनीय अनिवार्य पुस्तक है।

बाबू वृत्तांतःपेज 398,मूल्य 250 रुपये।)

Friday, August 5, 2016

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़ है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

Geeta Gairola
August 5 at 3:23pm
दलितों,आदिवासियों,महिलाओ,अल्पसंख्यको के हालातों को देखते हुए वीरेन दा की कविता आशा जगाती है

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे

यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे

आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे

Friday, July 15, 2016

अगर इतनी बड़ी तादाद में बच्चों का ब्रेनवाश हो रहा है और इकलौता आतंकवाद नई विधि प्राविधि है,तो विनाश किताना तेज और कितना भयंकर होगा?


अगर इतनी बड़ी तादाद में बच्चों का ब्रेनवाश हो रहा है और इकलौता आतंकवाद नई विधि प्राविधि है,तो विनाश किताना तेज और कितना भयंकर होगा?

पलाश विश्वास

कालजयी फ्रांसीसी साहित्यकार विक्टर ह्यूगो का क्लासिक उपन्यास ला मिजरेबल्स पढ़ लें तो फ्रांसीसी क्रांति के बारे में अलग से इतिहास पढ़ने की जरुरत नहीं होगी।इस उपन्यास की कथा बास्तिल दुर्ग को केंद्रित है।इसी बास्तिल दुर्ग के पतन के साथ फ्रांस सांतसाही से मुक्त होकर लोकतांत्रिक देश बना और दुनियाभर में स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए बास्तिल दुर्ग का पतन प्रस्थान बिंदू रहा है।इसी बास्तिल दुर्ग के पतन के दिन लोकतंत्र, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व का उतस्व मना रहे फ्रांस के पर्यटन स्थल नीस में इकलौते एक हमलावर ने जिस तरह से 84 लोगों को मार गिराया,वह आने वाली कयामतों की शुरुआत है।अगली सुबह इस्लामी दुनिया में प्रगतिशीलता ,आधुनिकता और लोकतंत्र का मरुद्यान तुर्की में तख्ता पलट की कोशिश हुई।सड़कों पर टैंक दौड़े और हेलीकाप्टर से गोलिया बरसायी गयीं।दुनिया के ये हालात है,जहां पल दर पल इंसानियत लहूलुहान है और अमन चैन सिरे से लापता है।यह एक बेहद खतरनाक दौर है।

अभी अभी में ब्रेक्सिट के जनमत संग्रह के बाद नई सरकार बनी है तो अमेरिका में सत्ता में फेरबदल होने जा रहा है।राजनीतिक अस्थिरता के शिकंजे में हैं बड़े से छोटे तमाम देश।ऐसे में हमारे लिए राहत सिर्फ इतनी है कि भारत में फिलहाल जैसे भी हो राजनीति,राजनीतिक अस्थिरता नहीं है।वैश्विक परिस्थितियों के मद्देनजर यह बहुत अहम है कि कुल मिलाकर भारत में तमाम चुनौतियों के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी हुई है।
पेरिस हमला और दुनियाभर में तमाम दहशतगर्द वारदातों के बारे में आर रात दिन टीवी पर देख रहे होंगे या अखबारों में सिलसिलेवार पढ़ भी रहे होंगे,इसलिए उनका ब्यौरा दोहराने की जरुरत नहीं है।

कुल मिलाकर इन हमलों से साफ जाहिर है कि सामान्य जनजीवन और सामाजिक गतिविधियों के कैंद्रों पर ये हमले बेहद तेज हो रहे हैं।सत्ता को जितनी  चुनौती है,कानून और व्यवस्था के लिए जितना सरदर्द का सबब है,उससे कहीं ज्यादा इंसानियत के वजूद को खतरा है और इस खतरे से कोई अछूता नहीं है।क्योंकि कहीं भी किसी भी वक्त घात लगाकर हमले की आशंका बनी हुई है।

सत्ता का तख्ता पलटने की कोशिश की अपनी दलील हो सकती है तो सियासती मजहब और मजहबी सियासत के तौर तरीके अलग हो सकते हैं।लेकिन यह मामाला अब पक्ष प्रतिपक्ष का रह नहीं गया है क्योंकि हमले में मारे जाने वाले बेगुनाह लोगों का कोई पक्ष प्रतिपक्ष नहीं होता।यह विशुद्ध संकट है मनुष्यता और सभ्यता का।सत्ताकेंद्रे पर हमले हमेशा होते रहे हैं।सभ्यता का यही इतिहास है।मध्ययुग से धर्मस्थलों पर भी हमले सत्तादखल का दस्तूर बन गया है और हम उत्तर आधुनिक मध्ययुग में जी रहे हैं इन दिनों।मुक्तबाजार में भोग की सारी समामग्री है लेकिन समाज और राजनीति और धर्म के नाम जो भी हो रहा है,वैज्ञानिक औक तकनीकी विकास के बावजूद वह प्रतिक्रियावादी मध्ययुगीन मानसिकता है।

विकास और प्रगति की अहम शर्त है अमन चैन।राष्ट्र व्यवस्था की बुनियाद कानून और व्यवस्था है।ये चीजें न हों तो न समाज संभव है,न आजीविका संभव है,न जान माल की कोई गारंटी है और यह अराजकता है।जो मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध है।

पेरिस हमले का मकसद सीधे फ्रासींसी राष्ट्रीयता और वहां के लोकतंत्र को ध्वस्त कर देने का है,यह समझना लाशों की गिनती से ज्यादा जरुरी है।दुनियाभर में ऐसा हो रहा है।यह आतंकवाद की नई विधा है।तकनीक और विधि है यह आतंकवाद की।किसी एक व्यक्ति के दलोदिमाग पर कब्जा करके उसे टरमिनेटर की तरह विध्वंसक बना दो तो वह अकेला सबकुछ तबाह कर देगा।आतंकवाद की यह संस्थागत प्रणाली राष्ट्रप्राणाली पर हावी होती जा रही है,यह सबसे बड़ा खतरा है।

मसलन बांग्लादेश में सत्तावर्ग के बच्चे बड़ी संख्या में गायब हैं।जिनमें से इक्के दुक्के ने बांग्लादेश के हालिया दहशतगर्द वारदातों को अंजाम दिया है।पेरिस के ताजा हमलों के मद्देनजर इस खतरे को समझने की जरुरत है कि अगर इतनी बड़ी तादाद में बच्चों का ब्रेनवाश हो रहा है और इकलौता आतंकवाद नई विधि प्राविधि है,तो विनाश किताना तेज और कितना भयंकर होगा!

यह सिर्फ कानून और व्यवस्था का संकट नहीं है।उससे कहीं परिवार और समाज का संकट है।जिसे तुरंत हल करने के बारे में जितनी जल्दी हम सोचें,उतना ही बेहतर है।

Saturday, July 2, 2016

दो करोड़ बांग्लादेशी शरणार्थी सीमापार घुसने के इंतजार में असम में अल्फा राज और बंगाल में उग्र हिंदुत्व के नजारे बांग्लादेश के हालात और मुॆस्किल बना रहे हैं यह संकट सुलझाने के लिए राजनीति से ज्यादा कारगर राजनय हो सकती है और फिलव्कत वह दिशाहीन है।भारतीय राजनीति के रंग में राजनय डूब गयी है या कारपोरेटहितों के मुताबिक कारोबारही राजनय है,ऐसा कहा जा सकता है।इसलिए भारत से बाहर भारतीयहितों के मद्देनजर हमारी राजनय सिरे से फेल है और बांग्लादेश ही नहीं,पाकिस्तान,नेपाल,श्रीलंका समेत इस महादेश में और बाकी दुनिया में भारतीयविदेश मंत्रालय,विदेसों में भरतीय दूतावास और कुल मिलाकर भारतीय राजनय प्राकृतिक संसाधनों की खुली नीलामी और अबाध पूंजी बेलगाम मुनाफावसूली के अलावा किसी काम की नहीं है।हालात इसलिए अग्निगर्भ है और भारतीय नागरिक इसीलिए कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। वे कौन से मुसलमान हैें जो पाक रमाजान माह में नमाज,रोजा और इफ्तार के अमन चैन के बाजाये कत्लाम में मशगुल है।बांग्लादेश की प्रधानमत्री शेख हसीना वाजेद की यह कथा व्यथा है जो निहायत दलित आत्मकथा नहीं ह।यह इस महादेश तो क्या,पूरी दुनिया का सच है। ढाका के राजनयिक इलाके गुलशन में आतंकी हमला,मुठभेड़ और फिर सबकुछ ठीकठाक का रोजनामचा है,मुंबई इसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दिल्ली में चाणक्यपुरी या व्ही आईपी जोन में अभी हमला नहीं हुआ पर भारतीय संसद में हमला हो गया है और देश में कोई भी ठिकाना,कोई भी शहर,कोई भी धर्मस्थल और कोई भी नागरिक अब सुरक्षित नहीं है। जो मारे नहीं गये,अंत में वे मारे जायेंगे।रोज रोज के तजुर्बे के बावजूद हम पल दर पल मौत का सामान बना रहे हैं और हमारा सामाजिक उत्पादन यही आत्मध्वंस है। हमारा बंगाली विभाजन पीडित शरणार्थियों से निवेदन है कि बंधुआ वोट बैंक बने रहकर उनका कोई भला नहीं हुआ है और वे आदिवासियों की तरह एकदम अलगाव में है।इसलिए बाकी जनता के साथ गोलबंदी से ही उन्हें इस नरक यंत्रणा से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा हम दलितों,पिछड़ो,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों से भी कह रहे हैं कि हम अब अकेले जिंदा रह नहीं सकते इस नरसंहारी अश्वमेध समय में जबकि राजनय,राजनीति और अर्थव्यवस्था में हमारा हस्तक्षेप असंभव है और लोकतंत्रा का अवसान है।समता और न्याय के लक्ष्य बहुत दूर हैं। पलाश विश्वास

दो करोड़ बांग्लादेशी शरणार्थी सीमापार घुसने के इंतजार में
असम में अल्फा राज और बंगाल में उग्र हिंदुत्व के नजारे बांग्लादेश के हालात और मुॆस्किल बना रहे हैं
यह संकट सुलझाने के लिए राजनीति से ज्यादा कारगर राजनय हो सकती है और फिलव्कत वह दिशाहीन है।भारतीय राजनीति के रंग में राजनय डूब गयी है या कारपोरेटहितों के मुताबिक कारोबारही राजनय है,ऐसा कहा जा सकता है।इसलिए भारत से बाहर भारतीयहितों के मद्देनजर हमारी राजनय सिरे से फेल है और बांग्लादेश ही नहीं,पाकिस्तान,नेपाल,श्रीलंका समेत इस महादेश में और बाकी दुनिया में भारतीयविदेश मंत्रालय,विदेसों में भरतीय दूतावास और कुल मिलाकर भारतीय राजनय प्राकृतिक संसाधनों की खुली नीलामी और अबाध पूंजी बेलगाम मुनाफावसूली के अलावा किसी काम की नहीं है।हालात इसलिए अग्निगर्भ है और भारतीय नागरिक इसीलिए कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं।
वे कौन से मुसलमान हैें जो पाक रमाजान माह में नमाज,रोजा और इफ्तार के अमन चैन के बाजाये कत्लाम में मशगुल है।बांग्लादेश की प्रधानमत्री शेख हसीना वाजेद की यह कथा व्यथा है जो निहायत दलित आत्मकथा नहीं ह।यह इस महादेश तो क्या,पूरी दुनिया का सच है।

ढाका के राजनयिक इलाके गुलशन में आतंकी हमला,मुठभेड़ और फिर सबकुछ ठीकठाक का रोजनामचा है,मुंबई इसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दिल्ली में चाणक्यपुरी या व्ही आईपी जोन में अभी हमला नहीं हुआ पर भारतीय संसद में हमला हो गया है और देश में कोई भी ठिकाना,कोई भी शहर,कोई भी धर्मस्थल और कोई भी नागरिक अब सुरक्षित नहीं है।

जो मारे नहीं गये,अंत में वे मारे जायेंगे।रोज रोज के तजुर्बे के बावजूद हम पल दर पल मौत का सामान बना रहे हैं और हमारा सामाजिक उत्पादन यही आत्मध्वंस है।

हमारा बंगाली  विभाजन पीडित शरणार्थियों से निवेदन है कि बंधुआ वोट बैंक बने रहकर उनका कोई भला नहीं हुआ है और वे आदिवासियों की तरह एकदम अलगाव में है।इसलिए बाकी जनता के साथ गोलबंदी से ही उन्हें इस नरक यंत्रणा से मुक्ति मिल सकती है।

ऐसा हम दलितों,पिछड़ो,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों से भी कह रहे हैं कि हम अब अकेले जिंदा रह नहीं सकते इस नरसंहारी अश्वमेध समय में जबकि राजनय,राजनीति और अर्थव्यवस्था में हमारा हस्तक्षेप असंभव है और लोकतंत्रा का अवसान है।समता और न्याय के लक्ष्य बहुत दूर हैं।


पलाश विश्वास

रंग बिरंगे आतंकवादी हमले अब इस दुनिया को रोजनामचा लाइव है।न्यूयार्क 9/11 के ट्विन टावर विध्वंस के बाद यह दुनिया अप इंसानियत का मुल्क नहीं है और सभ्यता अविराम युद्ध या फिर गृहयुद्ध है।तेलकुओं की आग से धधक रही है पृथ्वी और सोवियत संघ के विभाजन से लेकर ब्रेक्सिट तक विभाजन नस्ली रंगभेदी अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद है तो वही आतंकवाद है और फासिज्म का राजकाज भी वहीं।जम्हूरियत और इंसानियत दोनों जमींदोज है तो फिजां कयामत बहार है।

असम में अल्फा केसरिया राज है और बंगाल में संघ परिवार का कैडर भर्ती अभियान चल रहा है।यह संजोग है कि कोलकाता में बांग्लादेस हाईकमीशन पर हिंदू जागरण मंच और हिंदू संहति मच के प्रदर्शन और सीमा पर नाकेबंदी के साथ ही गुलशन ढाका में आतंकी हमला हो गया है।

भारत में हिंदुत्व का धर्मोन्मादी कार्यक्रम अपनाकर हम बांग्लादेश को तेजी से अपने शिकंजे में ले रहे इस्लामिक बाग्लादेश राष्ट्रवाद और इस्लामिक स्टेट का मुकाबला तो कर ही नहीं सकते बल्कि हमारी ऐसी कोई भी ङरकत बांग्लादेश के दो करोड़ अल्पसंख्कों को कभी भी शरणार्थी बना सकती है।

हमारी हर क्रिया की प्रतिक्रिया बांग्लादेश में कई गुमा ज्यादा आवेग और वेग के साथ होती है और ऐसे हालात में वहां धर्मनरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों के लिए भी भारत की तरह अल्पसंख्यकों  का रक्षाकवच बन पाना निहायत मुश्किल है।

भारत में सत्ता का केंद्रीयकरण हो चुका है और सत्ता यहां निरंकुश है तो इसके मुकाबले बांग्लादेश में सत्ता अस्थिर डांवाडोल है और वहां विपक्ष में मजहबी धर्मोन्माद भारत के सत्ता पक्ष के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से कहीं मजबूत है।

इसके अलावा जैसे रंगबिरंगे बजरंगियों पर न संघ परिवार और न भारत सरकार और न कानून व्यवस्था को कोई नियंत्रण है,उसीतरह बांग्लादेश में वहां की प्रधानमंत्री,सरकार और कानून व्यवस्था का कोई नियंत्रण पक्ष विपक्ष के धर्मोन्मादी आतंकी तत्वों पर नहीं  है।

इसके उलट हिंदुओं की बेदखली के अभियान में आवामी लीग के कार्यकर्ता और नेता रजाकर वाहिनी और जिहादियों के मुकाबले किसी मायने में कम नहीं है।हम सिलसिलेवार हस्तक्षेप पर ऐसी रपटें भी लगाते रहे हैं।

यह संकट सुलझाने के लिए राजनीति से ज्यादा कारगर राजनय हो सकती है और फिलवक्त वह दिशाहीन है।

भारतीय राजनीति के रंग में राजनय डूब गयी है या कारपोरेटहितों के मुताबिक कारोबारही राजनय है,ऐसा कहा जा सकता है।

इसलिए भारत से बाहर भारतीयहितों के मद्देनजर हमारी राजनय सिरे से फेल है और बांग्लादेश ही नहीं,पाकिस्तान,नेपाल,श्रीलंका समेत इस महादेश में और बाकी दुनिया में भारतीयविदेश मंत्रालय,विदेसों में भरतीय दूतावास और कुल मिलाकर भारतीय राजनय प्राकृतिक संसाधनों की खुली नीलामी और अबाध पूंजी बेलगाम मुनाफावसूली के अलावा किसी काम की नहीं है।

हालात इसलिए अग्निगर्भ है और भारतीय नागरिक इसीलिए कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं।

वे कौन से मुसलमान हैें जो पाक रमाजान माह में नमाज,रोजा और इफ्तार के अमन चैन के बाजाये कत्लाम में मशगुल है।बांग्लादेश की प्रधानमत्री शेख हसीना वाजेद की यह कथा व्यथा है जो निहायत दलित आत्मकथा नहीं ह।यह इस महादेश तो क्या,पूरी दुनिया का सच है।

ढाका के राजनयिक इलाके गुलशन में आतंकी हमला,मुठभेड़ और फिर सबकुछ ठीकठाक का रोजनामचा है,मुंबई इसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दिल्ली में चाणक्यपुरी या व्ही आईपी जोन में अभी हमला नहीं हुआ पर भारतीय संसद में हमला हो गया है और देश में कोई भी ठिकाना,कोई भी शहर,कोई भी धर्मस्थल और कोई भी नागरिक अब सुरक्षित नहीं है।

हमले किसी भी वक्त कहीं भी हो सकते हैं तो यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश की नहीं है।

जब कोई सुरक्षित नहीं है ऐसे में हम मुक्तबाजारी कार्निवाल में अपनी छीजती हुई क्रयशक्ति और गहराते रोजगार आजीविका संकट,कृषि संकट,उत्पादन संकट और हक हकूक के सफाये के दौर में कैसे सुरक्षित हो सककते हैं,फुरसत में ठंडे दिमाग सेसोच लीजिये।

बंगाल की आबादी नौ करोड़ हैं और इनमें कमसकम तीस फीसद मुसलमान हैं और बड़ी संख्या में गैरबंगाली हैं जो कोलकाता और आसनसोल दुर्गापुर शिल्पांचल से लेकर सिलिगुडीड़ी से लेकर दार्जिलिंग कलिम्पोंग  तक में गैरबंगाली आबादी बहुसंख्य है।

इस हिसाब से बंगाल में हिंदू तीन करोड़ भी होगे या नहीं,इसमें शक हैइसके विपरीत उत्तर प्रदेश और असम,छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा में दलित हिंदू विभाजन पीड़ित शरणार्थी, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश,आंध्र के शरणार्थी और बाकी देश में बंगाली हिंदू दलित विभाजन पीड़ित शरणार्थी दोगुणा तीन गुणा ज्यादा है,जो बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर विभिन्ऩ राज्यों के सत्तावर्ग और राजनीतिक दलों के गुलाम हैं।हमने लगातार उनसे सपर्क बनाये रखा है और हम उन्हें गोलबंद करने का जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं।

हमारा बंगाली  विभाजन पीडित शरणार्थियों से निवेदन है कि बंधुआ वोट बैंक बने रहकर उनका कोई भला नहीं हुआ है और वे आदिवासियों की तरह एकदम अलगाव में है।इसलिए बाकी जनता के साथ गोलबंदी से ही उन्हें इस नरकयंत्रणा से मुक्ति मिल सकती है।

ऐसा हम दलितों,पिछड़ो,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों से भी कह रहे हैं कि हम अब अकेले जिंदा रह नहीं सकते इस नरसंहारी अश्वमेध समय में जबकि राजनय,राजनीति और अर्थव्यवस्था में हमारा हस्तक्षेप असंभव है और लोकतंत्रा का अवसान है।समता और न्याय के लक्ष्य बहुत दूर हैं।

सच यह है कि 1947 से बंगाली हिंदू शरणार्थियों की  संख्या बिना नागरिकता,बिना नागरिक और मानव अधिकारों के लगातार बढ़ती रही है।राजधानी दिल्ली और मुंबई में कोलकाता से ज्यादा शरणार्थी है और उत्तर भारत के हर छोटे बड़े शहर में उनकी भारी तादाद है तो देश भर में मेहनत मशक्कत के तमाम कामकाज में वे ही लोग हैं

1977 में पराजय झेल चुकी इंदिरा गांधी से पिताजी पुलिनबाबू के बहुत अच्छे ताल्लुकात थे।हम होश संभालते ही पिताजी की अविराम सक्रियता की वजह से किसावन आदिवासी आंदोलन के अलावा शरणार्थी समस्या से भी दो दो हाथ करते रहे हैं और देश भर के शरणार्थियों की समस्या हमें बचपन से सिलसिलेवार मालूम है।

पिताजी से हमेशा हमारी बहस का यही मुद्दा रहा है कि सिर्फ बंगाली शरणार्थी के बारे में ही क्यों,हम बाकी लोगों को लेकर आंदोलन क्यों नहीं कर सकते और क्यों शरणार्थी समस्या का स्थाई हल नहीं निकाल सकते।

अपनी जुनूनी प्रतिबद्धता के बावजूद,सबकुछदांव पर लगाकर सबकछ खो देने के बावजूद  वे कुछ खास करने में नाकाम रहे और शरणार्थी समस्या और आतंक की समस्या अब एकाकार है और यह भारत के अंदर बाहर के सभी शरणार्थियों,सभी दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के जीवन मरण की समस्या है,बाकी नागरिकों के लिए भी।लगता है कि लडाई शुरु करने से पहले ही हम पिता की तरह फेल हैं।

इंदिराजी से पिताजी की हर मुलाकात से पहले उन्हें हमने बार बार आगाह किया कि वे उनपर दबाव डालें कि भारत सरकार की शरणार्थी नीति में पुनर्वास के अलावा भारतीय राजनय और राजनीति की दिशा दशा बदलने के लिए वे पहल करें।

इंदिरा गांधी तब इंदिरा गांधी थीं और तब बंगाली शरणार्थी आज की तरह संगठित भी नहीं थे।हम नहीं जानते कि गदगद भक्तिभाव के अलावा पिताजी अपने संवाद में दबाव डालने की स्थिति में थे या नहीं,क्योंकि उनके पास धन बल बाहुबल जनबल कुछ भी नहीं था।

वे अपने हिसाब से देश भर में जहां तहां दौड़ लगाते लगाते रीढ़ के कैंसर से दिवंगत हो गये 2001 में और तब से हम देख रहे हैं कि हालात लगातार बेकाबू होते जा रहे हैं और हमारे अपने लिए भी जिंदा रहना,सक्रियबने रहना कितना मुश्किल है।

1971 की तरह फिर बांग्लादेश से शरणार्थी सैलाब फूटा तो बंगाल में उनके लिए मरीचझांपी नरसंहार के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

भारत के दूसरे राज्यों में ही वे मरने खपने पहुंचेंगे और उन राज्यों में उनकी जो गत होगी सो होगी,उन राज्यों का क्या होगा,यह हसीना वाजेद की फौरी और स्थाई समस्याओं से भारी दीर्घकालीन समस्या हमारी है।

हम लगातार बताते रहे हैं कि बांग्लादेश में हालात कितने अग्निगर्भ है।पिछले साल आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अल्पसंख्यकों की बेदखली के लिए हत्या, लूटपाट, संघर्ष के अलावा 490 महिलाओं के साथ बलात्कार की वारदातें हुई हैं।

गौरतलब है कि बांग्लादेश में अब भी हिंदू,ईसाई,आदिवासी और बौद्ध समुदायों के करीब दो करोड़ अल्पसंख्यक हैं और वे लगातार निशाने पर हैं।भारत में कही भी कुछ घटित होता है तो उसकी तीखी प्रतिक्रिया यही होती है कि तुरंत बांग्लादेश में साफ्ट टार्गेट अल्पसंख्यकों पर हमले शुरु हो जाते हैं।

ऐसे व्यापक हमले हजरत बल प्रकरण के बाद 1964 के आसपास हुए जबकि 1960 में पूरे असम बांगाल खेदओ आंदोलन हुआ और फिर 1971 में भारत में 90 लाख शरणार्थी आ गये।

बांग्लादेश की आजादी की उपलब्धि के बावजूद उस घटना की छाप हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्ता में गहरी पैठी हुई है और 1971 से हमें निजात मिली नहीं है।जिसकी फसल हम अस्सी के दशक में बार बार काटते रहे हैं और बम धमाकों में हमारी सबसे प्रिय प्रधानमंत्री  इंदिरा गांधी की 31 अक्तूबर 1984 को हत्या हो गयीं और सिखों का नरसंहार हो गया।

उनका बेटा राजीव गांधी संघ परिवार के समर्थन से प्रधानमंत्री तो बने लोकिन श्रीलंका में शांति सेना भेजने की कीमत उन्हें भी बम धमाके में अपनी जान गवांकर अदा करनी पड़ी।अस्सी के दशक में ही असम में उल्फाई तत्वों की अगुवाई में छात्र युवा आंदोलन हुए और असम और त्रिपुरा में खून का समुंदर उमड़ने लगा।

अब वही असम अल्फा के हवाले है।

बाबरी विध्वंस के बाद बने हालात का दस्तावेज तसलिमा नसरीन का उपन्यास लज्जा है,जिनने अपने हालिया स्टेटस में भारत में गोमांस निषेध के संघ परिवार के आत्मगाती आंदोलन की हवाला देकर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद पर तीखे प्रहार किये और गुलशन में हुए हमले के दौरान जब नई दिल्ली में सभी भारतीयों के सुरक्षित होने के दावे किये जा हे थे,तभी तसलिमा ने ट्विटर पर संदेश दे दिया कि गुलशन में भारतीय किशोरी संकट में है,जिसे भारतीय राजनय आखिर कार बचा नहीं सकी।

आप हस्तक्षेप या हमारे ब्लागों को देख लीजिये,हम लगातार हिंदी,बांग्ला,अंग्रेजी और असमिया में भी सरहदों के आर पार कयामती फिजां के बारे में आपको आगाह करते रहे हैं।तसलिमा नसरीन पिछले तेइस साल से बांग्लादेश के हालात और अल्पसंख्यक उत्पीड़न की वजह से भारत में सबसे मशहूर शरणार्थी हैंं तो सीमा पार से शरणार्थी सैलाब थम ही नहीं रहा है।अब दो करोड़ और इंतजार में हैं

साल भर में कितने ब्लागरों,लेखकों,पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की हत्या बांग्लादेश में होती रहती है और वहां धर्मनिरपेश लोकतांत्रिक ताकतों की गोलबंदी कितनी और कैसी है,हम लगातार बताते रहे हैं।

असम चुनावों के बाद अल्फा का रंग केसरिया हो जाने के बाद असम में केसरिया अल्फाई राजकाज से गुजराचत नरसंहार से वीभत्स नरसंहारी माहौल सीमा के आर पार कैसा है,हम लगातार बता रहे हैं।लगता है कि आपने गौर नहीं किया।

हमारी औकात दो कौड़ी की है।प्रोफाइल है ही नहीं।कभी बड़ी नौकरी के लिए हमने एप्लाई नहीं की सरकारी चाकरी के लिए दस्तखत नहीं किया और बाजर में खुद को नीलमा करने के लिए बोली नहीं लगाई तो हम सीवी भी बना नहीं सके अब तक।बायोडाटा भी नहीं है अपना।1973 से जो लोग मुझे लगातार जानते रहे हैं,वे हमारे कहे लिखे को भाव नहीं देते तो कासे शिकवा करें।

पहले खाड़ी युद्ध से हम लगातार इस देश के अमेरिकी उपनिवेश बनने की चेतावनी देते रहे हैं और संपूर्ण निजीकरण और संपू्र्ण विनिवेश के विरुद्ध अपनी औकात के मुताबिक देशभर में जनमोर्चे पर सक्रिय रहे हैं। अपना बसेरा तक नहीं बना सके और अब एकदम सड़क पर हूं और हालात ऐसे बने रहे हैं कि राशन पानी के लिए भीख मांगने की नौबत आ सकती है लेकिन मेरा लिखना बोलना न थमा है और न थमेगा।

ताजा हालात ये है कि असम में अल्फा के राजकाज में भारत चीन युद्ध के बाद अरुणाचल की चीन से लगी सीमाओं पर जैसे चटगांव से बेदखल चकमा शरमार्थियों को ढाल के बतौर बसाया गया है,भारत बांग्ला सीमा सील कर देने के ऐलान के बावजूद बीएसएफ की मदद से सीमापार से हिंदू दलितों को असम के मुस्लिम बहुल इलाकों में बसाया जा रहा है ताकि उनका इस्तेमाल भविष्य में मुसलमानों के किलाफ दंगा फसाद में बतौर ढाल और हथियार किया जा सके।

हम हिटलरशाही की बात खूब करते हैं और यह हिटलरशाही क्या है,थोड़ा असम के डीटेंशन कैंपों में घूम लें तो पता चलेगा।यह भाजपा या संघ परिवार का कारनामा मौलिक नहीं है।कापीराइट कांग्रेसी मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का है।जिनने नागरिकता कानून के तहत अस में दशकों से रह रहे,सरकारी सेवा में काम कर रहे लोगों को कट आफ ईअर के लिहाज से संदिग्ध विदेशी होने के जुर्म में डीवोटर करके सपरिवार इन कैंपों में डालना शुरु किया और अब संघ परिवार के निशाने पर हैं असम के तमाम मुसलमान तो अल्फा की नजर में हैं बीस लाक हिंदू शरणार्थी औऱ भारतके दूसरे राज्यों से असम आकर दशकों से आजीविका कमा रहे लोग।


हम इस नये असम के नजारे देखते हुए भी नजरअंदाज करते रहे हैं।

आजकल रात के  दो बजे तक सो जाता हूं।फिर सुबह जल्दी उठकर कहीं कार्यक्रम न हुआ तो तत्काल पीसी पर मोर्चा जमा लेता हूं।

आज करीब सुबह साढ़े सात बजे हमारे आदरणीय गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने फोन किया और यक्ष प्रश्न के मुखातिब खड़ा कर दिया कि क्या जाति और वर्ग की राजनीति एकसाथ चल सकती है।

हमें उन्हें कैफियत देनी पड़ी कि जाति के नाम जिस तरह से राजनीति के शिकंजे में हैं बहुजन ,उसके मद्देनजर इस सामाजिक यथार्थ को नजरअंदाज करके हम कोई सामाजिक आंदोलन बदलाव के लिए खड़ा नहीं कर सकते और हमारा राजनीतिक सरोकार बस इतना है कि लोकतंत्र सही सलामत रहे और हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ तमाम सामाजिक शक्तियों को गोलबंद कर लें।

लंबी बातचीत में वैकल्पिक मीडिया और हस्तक्षेप के बारे में भी बातें हुईं और यह स्पष्ट भी करना पड़ा कि मेरा उत्तराखंड वापसी क्यों असंभव है और कोलकाता में बने रहना क्यों जरुरी है।

लगता है कि गुरुजी को मैंने संतुष्ट कर दिया।फोन रखते ही सविता बाबू ने टोक दिया कि व्यवहारिक बातचीत के बिना सैंद्धांतिक बहस से क्या बनना बिगड़ना है।

उनने कह दिया कि गुरुजी ने सबसे पहले हस्तक्षेप की मदद की पेशकश की थी तो उनने अपने शिष्यों से हस्तक्षेप के लिए कोई अपील जारी क्यों नहीं की या न्यूनतम मदद क्यों नहीं की,इस पर बात हमने क्यों नहीं की।

सही मायने में अमावस की अखंड रात है यह वक्त और काली अंधेरी सुरंग में कैद हूं.न रिहाई की राह निकलती दिख रही है और न जंजीरें टूटने की कोई सूरत है और न रेशांभर रोशनी कही नजर आ रही है।

दिशाबोध सिरे से गड्डमड्ड है।रासन पानी बंद होने का वक्त है यह और समाज में बने रहने के बावजूद अकेले चक्रव्यूह में मारे जाने का भी वक्त है यह।

हम मुकम्मल तेलकुंआ बने महादेश में दावानल के शिकंजे में हैं और बुनियादी जरुरतों से बड़ी प्राथमिकता अब कयामती यह फिजां जितनी जल्दी है ,उसे बदलने की है।आपदाओं से टूटने लगा है हिमालय और सारे के सारे किसानों,मजदूरों,बच्चों,युवाओं और स्तिरियों के हाथ पांव कटे हैं और दसों दिशाओं से खून की नदियां निकलती हुई दीख रही है,जबकि पीने को पानी और सांस लेने को आक्सीजन की भारी किल्लत है।

भारत विभाजन के वक्त हुई मारकाट हमारे पुरखों की स्मृतियों में से हमारे वजूद में पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रमित है और यह महादेश विभाजन की उस प्रक्रिया से अभीतक उबरा नहीं है।शरणार्थी सैलाब देस की सीमाओं से जितना उमड़ रहा है,उससे कही ज्यादा देश के अंदर है और अब तो गरीब बहुजनों की बेदखली हिमाचल जैसी देवभूमि में चलन हो गया है और उत्तराखंड की एक एक इंच जमीन बेदखल है।

अर्थव्यवस्था सिरे से अंततक शेयर बाजार है और उत्पादन प्रणाली है ही नहीं तो समाज भी फर्जीवाड़ा है और सामाजिक यथार्थ भी मुक्तबाजार का केसरिया जलजला है जो आत्मध्वंस के अलावा क्या है,परिभाषित करना मुश्किल है।

सारा सौंदर्यबोध मुक्त बाजार का सौंदर्यहबोध है।भाषाएं बोलियां,माध्यम,विधाएं सबकुछ इसी मुक्तबाजार में निष्णात।अपने समय,अपने स्वजनों और देश दुनिया को सूचना क्रांति के इस परलय समय में कैसे सच से आगाह करें,जिंदा बचे रहने से बड़ी चुनौती अभिव्यक्ति का यह अभूतपूर्व संकट है।

भारत विभाजन रोक ना पाना हमारी आजादी की लड़ोई को बेमतलब बना गया। आजादी भी फर्जी साबित होने लगी है और हम दरअसल भारत विभाजन से कभी उबरे ही नहीं है।

विभाजित कश्मीर में यह पल दर पल कुरुक्षेत्र का शोकस्तब्ध विलाप और अखंड सैन्यशासन है तो मध्यभारत में सलवा जुड़ुम।

पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को पुनर्वासित करने में कामयाबी मिल गयी लेकिन सिखों को नरसंहार 1984 में इतना भयानक हो गया कि विभाजन की त्रासदी फीकी हो गयी।

इसीतरह गायपट्टी में विभाजन की प्रक्रिया अभी धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण है और बहुजन आंदोलन तेज होते रहने के बावजूद सामाजिक बदलाव हो नहीं रहा है और राजनीति वही संघ परिवार की शक्ल में हिंदू महासभा बनाम अनुपस्थित मुस्लिम लीग है।

भारत पाकिस्तान द्विपाक्षिक संबंध सरहदों पर अविराम युद्ध है और इन्ही पेचीदा राजनीतिक राजनयिक संबंधों की वजह से प्रतिरक्षा खर्च के बहाने लोकतात्रिक लोक गणराज्य और लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पनाएं ध्वस्त है और यही ऩफरत,जंग और जिहाद हमारी आंतरिक सुरक्षा,राष्ट्रीय एकता और अंखडता,बहुलता और विविधिता मध्ये एकात्मकता को सिरे से खत्म कर रही हैं और हम कुछ
भी बचा लेने की हालत में नहीं है।

अपनी जान माल भी नहीं।
मौत सर पर नाच रही है।

कोई भी कहीं भी कभी भी बेमौत मारा जा सकता है।

जो मारे नहीं गये,अंत में वे मारे जायेंगे।रोज रोज के तजुर्बे के बावजूद हम पल दर पल मौत का सामान बना रहे हैं और हमारा सामाजिक उत्पादन यही आत्मध्वंस है।


 
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