Saturday, July 7, 2012
राष्ट्र आदिवासियों के विरुद्ध है, कानून और लोकतंत्र भी। पचहत्तर वर्ष का रिर्काड तो वनविभाग ही नहीं दे सकता जो चिरकाल से रहने वाले आदिवासियों से इस प्रमाण को मांग रहे हैं!
राष्ट्र आदिवासियों के विरुद्ध है, कानून और लोकतंत्र भी। पचहत्तर वर्ष का रिर्काड तो वनविभाग ही नहीं दे सकता जो चिरकाल से रहने वाले आदिवासियों से इस प्रमाण को मांग रहे हैं!
पलाश विश्वास
कैमूर और दूसरे वनक्षेत्रों में, देशभर में, बंगाल और छत्तीसगढ़ समेत पूरे मध्य भारत और पूर्वोत्तर , बाकी देश के आदिवासी इलाकों में वन, खनिज और वन संपदा पर वर्चस्व की लडाई ही तनाव और हिंसा की बुनियाद है, जिसमे राष्ट्र आदिवासियों के विरुद्ध है , कानून और लोकतंत्र भी। पचहत्तर वर्ष का रिर्काड तो यहां का वनविभाग ही नहीं दे सकता जो चिरकाल से रहने वाले आदिवासियों से इस प्रमाण को मांग रहे हैं।कैमूर की गुफाओं में हजारों वर्ष पूर्व के शैलचित्र मौजूद है। ये शैलचित्र यहां की प्राचीन शैली के गवाह हैं, पर संरक्षण के अभाव में ये जीवंत दस्तावेज विलुप्त होने के कगार पर है। इतिहासविद् शैलचित्रों के आरंभ को ईसा पूर्व से ही जोड़ते हैं। देश के आदिवासी इस देश के नागरिक नहीं हैं और न ही उन्हें कोई मानवाधिकार या नागरिक अधिकार हासिल है। सत्ता वर्ग और सैन्यकृत राष्ट्र कदम कदम पर यह साबित करने पर तुला है। हम जो देश के बाकी नागरिक हैं वे स्वयंभू आर्यसंतानें हैं, हिंदू राष्ट्रवाद में निष्णात, सुपरपावर पारमानविक अमेरिकापरस्त खुले बाजार के गुलाम नागरिक, जिन्हें इन आदिवासियों से कोई लेना देना नहीं है। देश के गेस्टापो प्रधान गृहमंत्री बेरहमी से बस्तर में नरसंहार को माओवादियों के साथ मुठभेड़ बता रहे हैं। पर आदिवासियों पर हमले सिरफ छत्तीसगढ़ में नहीं हो रहे हैं। देश के हर कोने में उन्हें खत्म करने में , उनके सपाये के लिए सत्ता कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है। इस अमानवीय कृत्य के प्रतिरोध के बजाय हम मूक दर्शक हैं। उत्तरप्रदेश में जहां मायावती राज के बाद युवा मुखयमंत्री अखिलेश राज में लैपटाप क्रांति को अंजाम दिया जा रहा है, वहां चंदौली में बारिश के मौसम में बुलडोजर से आदिवासियों का गांव उखाड़ दिया जाता है तो बिहार के धर्म निरपेक्ष, मोदी के नरसंहार कर्मकांड के घोर विरोधी नीतीश कुमार के राज में कैमूर जिले के अघौरा प्रखंड में ग्राम ताला के आदिवासी नागरिक रामदिहल को जंगलात के दो गार्ड दिनदहाड़े बिना किसी कसूर हथकड़ी लगाकर सरे बाजार दिनदहाड़े घसीटते रहे।ग्राम भरदुआ, नौगढ़, जनपद चन्दौली उत्तरप्रदेश में वनविभाग द्वारा 29 जून, 2012 को आदिवासियों और दलितों की झोपड़ीयों को बुलडोज़र द्वारा गिराए जाने से सैंकड़ों परिवार बारिश के मौसम में बेघर!चन्दौली जनपद के आदिवासियों को एक सरकार ने अनु0 जनजाति का दर्जा दिया और दूसरी सरकार ने इस दर्जे को छीन लिया. इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है कि अभी तक यहां के आदिवासियों को कोई भी सरकार उनके संवैधानिक अधिकार को बहाल नहीं कर पाई है.....!
भरदुआ तहसील चकिया में पिछले महीने 29 जून को जनपद चन्दौली के ग्राम भरदुआ तहसील चकिया में वनविभाग मय पुलिस फोर्स व कुछ बीएसएफ के जवानों के साथ बुलडोज़र लेकर पहुंचे और लगभग 50 झोपड़ियों को बिना किसी नोटिस दिए ढहा दिया। यह सभी झोपड़ियाँ गोंड़ आदिवासियों, मुसहर जाति, दलित व अन्य ग़रीब समुदाय की थी। इस घटना की जानकारी वनाधिकार कार्यकर्ता रोमा से प्राप्त हुई।
वनाधिकार कानून 2006 के की धारा 4 (5) के तहत जब तक दावों की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती तब तक किसी भी प्रकार की बेदखली की कार्यवाही नहीं हो सकती। लेकिन वनविभाग व प्रशासन ने कानून को अपने हाथ में लेकर उन्हीं लोगों के अधिकारों का हनन किया है जिनकी उन्हें सुरक्षा करनी चाहिए थी। अधिकारी वनाधिकार कानून से अवगत ही नहीं हैं। जिलाधिकारी को यह भी नहीं मालूम कि इस कानून के तहत जिला स्तरीय समिति के वे अध्यक्ष है। यह बेहद ही गंभीर घटना है, इस बरसात के मौसम में महिला व बच्चे खुले में रहने के लिए मजबूर किए जा रहे हैं। इस घटना के संदर्भ में राष्ट्रीय वन - जन श्रमजीवी मंच व ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री से पत्र के माध्यम से उच्च स्तरीय कार्यवाही की मांग की है व दोषी आधिकारीयों को वनाधिकार कानून की अवमानना व आदिवासीयों के जीने के अधिकार से वंचित करने के लिए प्राथमिकी दर्ज करने व जेल भेजने की मांग की है। इस घटना के विरोध में ग्राम भरदुआ की महिलाओं ने 6 जुलाई को नौगढ़ स्थित वनविभाग के कार्यलय को घेरने की योजना बनाई और चूंकि उनके घर उजड़ चुके हैं इसलिए उन्होंने तय किया है कि वे अपने बच्चों के साथ रेंज कार्यालय पर ही रहना शुरू करेगीं, जब तक उनके घरों को प्रशासन द्वारा दोबारा आबाद नहीं किया जाता। मंच ने जिलाधिकारी से बुलडोजर भेजने के आदेश के बारे में भी जानकारी मांगी है लेकिन जिलाधिकारी इस बात से मुकर गए कि प्रशासन द्वारा बुलडोजर भेजने के आदेश दिए गए है। इस घटना के बारे में संगठनों की चहल कदमी से वनविभाग व प्रशासन की नींद उड़ गई है व वे एक दूसरे पर घरों को ढहाए जाने के आरोप मढ़ रहे हैं। मंच ने ऐलान किया है कि इस मामले में जब तक दोषी अधिकारीयों को सज़ा नहीं मिलेगी तब तक नौगढ़ में आंदोलन जारी रहेगा।
सामाजिक,वनाधिका कार्यकर्ता रोमा,जो राष्ट्रीय वन - जन श्रमजीवी मंच की उत्तराखंड संयोजक ( पूर्व विशेष आंमत्रित सदस्य, राज्य निगरानी समिति, उत्तरप्रदेश,पूर्व विशेषज्ञ सदस्य, वनाधिकार कानून की समीक्षा के लिए गठित केन्द्रीय संयुक्त सक्सेना समिति, भारत सरकार) ने फोन पर इन दोनों प्रकरणों का आंखों देखा हाल सुनाया तो रोंगटे खड़े हो गये, जहां आदिवासियों के खिलाफ घोषित युद्ध चला रहा है, उसके बाहर देश के ङर कोने में यही सलूक हो रहा है आदिवासियों के साथ।हकीकत यह है कि १९४७ में अंग्रेजों ने जब मौजूदा सत्तावर्ग को सत्ता हस्तांतरण किया, तबसे लेकर अब तक न भूमि सुधार लागू हुए और न अर्थ व्यवस्था और राजनीति में बहिष्कृत समाज के अछूत आदिवासी समुदायों को प्रवेश मिला। संविधान के तहत आदिवासिटों को पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के जरिये जो हक हकूक की गारंटी दी गयी, नवउदारवादी कुले बाजार में तब्दील इस देश में सर्वत्र उसका खुला उल्लंघन हो रहा है। वन, पर्यावरण और खनन अधिनियम आदिवासियों के हितों के विरुद्ध हैं तो भूमि अधिग्रहण कानून भी उनके खिलाफ।उनके गांव राजस्व गांव बतौर पंजीकृत नहीं होते और जब मर्जी तब उन्हें बेदखल कर दिया जाता है। नागरिकता कानून, अभयारण्य , आधार कार्ड योजना, सेज से लेकर परमाणु संयंत्र तक के दायरे, बड़े बांध औक विकास के तमाम लटके झटके, समुद्रतट सुरक्षा अधिनियम , सबकुछ आदिवासियों के सर्वनाश के लिए हैं और उनकी बेदखली और नरसंहार को जायज ठहराने के लिए उनके हर प्रतिवाद को माओवादी नक्सलवादी घोषित कर दिया जाता है। वन और खनिज संपत्ति पर आदिवासियों का कानूनी हक है, जिसको सिरे से खारिज करके उनके खिलाफ तमाम कानून लागू कर दिये जाते हैं और इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए उनके पास कोई लोकतांत्रिक स्थान इस उत्तर आधुनिक संचारक्रांति के संकरमणकाल में नहीं है।
वन विभाग के लोग आदिवासियों को जब तब ऐसे ही गिरफ्तार करते रहते हैं और उनकी हिरासत की अवधि निर्धारित भी नहीं होती। यहां तक कि अभयारण्य और सामान्य जंगलात इलाके में प्रवेश के लिए आम लोगों को भुगतान के एवज में जो रसीद दी जाती है, वह चोरी के एवज में जुर्माने की रकम बतौर दर्ज होती है और पर्यटन के नशे में हमें इसे देखने का होश भी नहीं होता। तब हम आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन से बेदखल करने के औजार बतौर इस्तेमाल किये जा रहे जंगलात महकमे के कारनामों का क्या अंदाजा होगा!
ताला निवासी रामदिहल कब तक वन विभाग की हिरासत में रहेगा और उसके जैसे तमाम आदिवासी इस जिल्लत को कब तक झेलते रहेंगे , इस बारे में हमें क्यों फिक्र होनी चाहिए क्योंकि हम तो नागरिकता और मानव , नागरिक अधिकारों से लैस समझकर जीने को आदी हैं और बाजार में जीने के लिए जरूरी क्रयशक्ति बी हमारे पास है, जो न आदिवासियों के पास है और न दूसरे बहिष्कृत समुदायों के पास!
रोमा के मुताबिक जब वनजन श्रमजीवी मंच की टीम कल अघौरा प्रखंड के घनघोर जंगल में बसे एक बेचिराग गांव बारहबार में वनाधिकार कानून २००६ को लेकर बैठक करने गयी तो उस गांव से वापस लौटते हुए अघौरा बाजार में जंगलात वालों का यह कारनामा देखा। जंगलात गार्ड उस वक्त हथकड़ी लगाकर सरेबाजार रामदिहल को घसीचते हुए रेंज दफ्तर ले जा रहे थे।उनके साथ पुलिस नहीं थी।
शुक्र मनाइये रोमा जी, पुलिस होती या पिर अर्द्ध सैनिक बल के जवान मौजूद होते तो आपकी टीम शायद ही लौट पाती और तब गेस्टापो चीफ एक और मुठभेड़ को जनुइन बता रहे होते और मीडिया में फिर माइस्ट मीनेस के शिकंजे में नीतीश राज की खबर होती।बहरहाल, सामाजिक कार्यकर्ताओं की इस टीम को यह दृश्य कुछ अटपटा लगा होगा पर वन क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के लिए यह रोजमर्रे की जिंदगी है, आप बीती है, जिसका विरोध करने की बात तो रही दूर , प्रतिक्रिया जाहिर करने की हालत में भी नहीं होते वे लोग। विरोध करने की हालत में सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम की सकुशल वापसी भी शायद असंभव हो जाती। पूछताछ करने पर टीम को राम दिहल ने बताया कि उसे उसके गांव से जंगलात के मामले में फंसाकर उटा लाये हैं गार्ड।
रामदिहल की गिरप्तारी के खिलाफ वनजन श्रमजीवी मंच की टीम ने अघौरा से अधिकारियों से संपर्क साधने की कोशिश की , पर वे नाकाम हुए क्योंकि पता चला वहां तीन दिन से टावर नहीं मिला। अघौरा से सटे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के डीएम से संपर्क करने की कोशिश की गयी तो उनका फोन बंद था।जब किसी तरह एसपी से बात हुई तो उन्होंने बेरुखी से जवाब दिया कि यह मामला पुलिस के अखतियार में नहीं है, जंगलात का मामला है।उन्होंने कहा कि उन्हें वन कानून के मामले में कुछ नहीं मालूम। जंगलात वाले किसे कब क्यों गिरफ्तार करते हैं, इसका पुलिस से कुछ लेना देना नहीं है।उन्होंने जंगलात वालों की कार्रवाई को सही करार दिया।
मजा यह देखिये, राम दिहल के खिलाफ अंग्रेजी जमाने के १९२७ के वन अधिनियम के तहत यह कार्रवाई तब की गयी, जब पूरे देश में वनाधिकार कानून २००६ लागू होने का दावा किया जाता है!वनविभाग के लाकअप गैरकानूनी हैं और हथकड़ी पहनाकर सरेबाजार किसी को घसीटना सरासर मानवाधिकार का हनन है , पर आदिवासी इलाकों में जंगल माफिया, कारपोरेट, पुलिस और जंगलात वाले ही कायदे कानून के बनाने वाले और लागू करने वाले हैं। उन्हें न तो संसद, देश के कानून और न मानवाधिकार की कोई परवाह है और यह प्रचलित दस्तूर है।
अब रोमा ने इस सिलसिले में मुखय सचिव को पत्र लिखकर डीएफओ को निलंबित करने और डीएम और एसपी जैसे अफसरान को वनाधिकार २००६ के बारे में प्रशिक्षित करने की मांग की है। क्या इससे हालात बदल जायेंगे?
साल २००६ के १३ दिसंबर को लोकसभा ने ध्वनि मत से अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक(२००५) को पारित किया। इसका उद्देश्य वनसंपदा और वनभूमि पर अनुसूचित जाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों को अधिकार देना है।
यह विधेयक साल २००५ में भी संसद में पेश किया गया था, फिर इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए जिसमें अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ अन्य पंरपरागत वनवासी समुदायों को भी इस अधिकार विधेयक के दायरे में लाना शामिल है।
मूल विधेयक में कट-ऑफ डेट (वह तारीख जिसे कानून लागू करने पर गणना के लिए आधार माना जाएगा) ३१ दिसंबर, १९८० तय की गई थी जिसे बदलकर संशोधित विधेयक में १३ दिसंबर, २००५ कर दिया गया।
परंपरागत आदिवासी समुदाय का सदस्य वनभूमि पर अधिकार अथवा वनोपज को एकत्र करने और उसे बेचने का अधिकार पाने के योग्य तभी माना जाएगा, जब वह तीन पीढ़ियों से वनभूमि के अन्तर्गत परिभाषित जमीन पर रहता हो। कानून के मुताबिक प्रत्येक परिवार ४ हेक्टेयर की जमीन पर मिल्कियत दी जाएगी जबकि पिछले विधेयक में २.५ हेक्टेयर जमीन देने की बात कही गई थी।
दिनांक 29 जून, 2012 को जनपद चन्दौली के ग्राम भरदुआ तहसील चकिया में वनविभाग मय पुलिस फोर्स व कुछ बी0एस0एफ के जवानों के साथ बुलडोज़र लेकर इस गांव में पहुंचे और लगभग 50 झोपड़ीयों को बिना किसी नोटिस दिए ढहा दिया। यह सभी झोपड़ीयां गोंड़ आदिवासीयों, मुसहर जाति, दलित व अन्य ग़रीब समुदाय की थी। उनमें कुछ लोगों के नाम रामवृक्ष गोंड़, सीताराम पु़त्र रामेशर, बलीराम पुत्र सुकालु अहीर, सुखदेव पुत्र रामवृक्ष गोंड़, रामसूरत गोंड, कालीदास पुत्र मोतीलाल गोंड, मनोज पुत्र रामजीयावन गोंड, सुखराम पुत्र शिववरत गोंड, शिवकुमारी पत्नि रामदेव गोंड, माधो पुत्र टेगर मुसहर, विद्याप्रसाद पुत्र सुखई गडेरी, हीरालाल पुत्र गोवरधन मुसहर, बबुन्दर पुत्र मोती मुसहर, पुनवासी पत्नि टेगर मुसहर, कलावती पत्नि विक्रम मुसहर, राधेश्याम पुत्र रामप्यारे मुसहर, अंगद पुत्र रामप्यारे मुसहर, महरी पत्नि स्व0 रामवृक्ष मुसहर, राजेन्द्र पुत्र मोती मुसहर, कलावती पत्नि रामअवध अनु0 जाति, गंगा पुत्र सुखई गड़ेरी,कालीप्रसाद पुत्र तिवारी कोल, रामप्यारे पुत्र कतवारू मुसहर हैं।
वनविभाग द्वारा यह कहा जा रहा है कि यह लोग अतिक्रमणकारी है जिसके लिए उन्हें जिलाधिकारी द्वारा र्निदेश दिए गए है इन अतिक्रमण को हटाने के लिए। जब जिलाधिकारी से बात की गई तो उन्होंने इस तरह के किसी भी आदेश को देने से इंकार किया है। यह कार्यवाही उन परिवारों पर की गई है जो कि प्रदेश में लागू वनाधिकार कानून 2006 के अंतर्गत अपने अधिकारो को पाने के लिए हकदार है। और यह परिवार 15 दिसम्बर 2006 के पूर्व से यहां बसे हुए हैं।
रा0 वनजन श्रमजीवी मंच से जुड़े कायकर्ता इस क्षेत्र में कई वर्षो से वनाधिकारों के मामले में सघन अनुसंधान कर रह हैं जिसके कारण हम इन परिवारों से पिछले दस वर्षो से जुड़े हुए है। इन परिवारों को सन् 2003 में में भी वनविभाग द्वारा इस भूमि से बेदखल किया गया था, इनकी फसलें उजाड़ दी गई थी और इन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर आदिवासियों की ही भूमि पर वनविभाग द्वारा कब्ज़ा कर लिया। ये परिवार वनविभाग से लगातार संघर्ष करते रहे । फिर 2005 में इन परिवारों ने अपनी भूमि को वापिस हासिल कर ली। वनाधिकार कानून आने के बाद उनका उक्त भूमि पर दावा और भी मजबूत हुआ, लेकिन चन्दौली जनपद के आदिवासियों के साथ जनपद के बंटवारे के चलते एक बार फिर धोखाधड़ी हुई। सन् 2002 में सपा सरकार के ही दौरान प्रदेश के तेरह आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया गया था, उस समय चन्दौली जनपद वाराणसी में ही शामिल था। सन् 2004 में चन्दौली को अलग जनपद बनाया गया। अलग जनपद बनते ही चन्दौली जनपद में रहने वाले तमाम अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त दर्जा भी उनसे छीन लिया गया। जबकि अगर वे वाराणसी में अनु0 जनजाति में शामिल थे तो राज्य सरकार द्वारा उन्हें वहीं दर्जा जनपद चन्दौली में दिया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया जिसके कारण आज भी जनपद चन्दौली के निवासी अपनी पहचान से महरूम हैं। यह भी एक विडम्बना ही है कि इस जनपद के आदिवासियों को एक सरकार ने अनु0 जनजाति का दर्जा और दूसरी सरकार ने इस दर्जे को छीन लिया। इस से ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है कि अभी तक यहां के आदिवासियों को कोई भी सरकार उनके संवैधानिक अधिकार को बहाल नहीं कर पाई है।
सरकारों द्वारा यहां के आदिवासियों की संवैधानिक अधिकारों की बहाली न करने का खामियाजा आज भी यहां के आदिवासी चुका रहे हैं जिन्हें वनाधिकार कानून 2006 से वंचित किया जा रहा है । वहीं, वनविभाग द्वारा इस स्थिति का फायदा उठा कर मनमानी कार्यवाही की जा रही है और यहां रहने वाले आदिवासियों का उत्पीड़न किया जा रहा है, उनके घरों से उन्हें बेदखल किया जा रहा है, उनके उपर झूठे मुकदमें लादे जा रहे हैं व उन्हें जेल भेजा जा रहा है। जबकि 2010 में ग्राम बिसेसरपुर में तत्कालीन जिलाधिकारी रिगजिन सैंफल के साथ एक संयुक्त बैठक हुई थी, जिसमें मंच के प्रतिनिधि भी शामिल थे, जहां पर वनाधिकार कानून की प्रक्रिया उनके द्वारा शुरू कराई गई थी। लेकिन यह प्रक्रिया इसलिए अभी तक अधर में अटकी हुई है क्योंकि यहां के आदिवासियों के दावे यह कह कर खारिज किए गए कि वे 75 वर्ष का प्रमाण नहीं पेश कर पा रहे हैं। उनके दावों को स्वीकार ही नहीं किया गया व इस स्तर पर भी वनविभाग द्वारा अंड़गा लगा कर तमाम दावों को उपखंड़ स्तरीय समिति द्वारा ही खारिज कर दिया गया है। जबकि दावों को खारिज करने का अधिकार उपखंड स्तरीय समिति को कानूनी रूप से नहीं है।
29 जून को वनविभाग द्वारा बुलडोजर चला कर आदिवासियों व दलितों के घर गिराने की कार्यवाही पूर्ण रूप से गैरसंवैधानिक है व आपराधिक है व संसद व संविधान की अवमानना है। वैसे भी मानसून के मौसम में किसी भी प्रकार से घर तोड़ने की कार्यवाही आपराधिक है लेकिन वनविभाग, पुलिस व प्रशासन ने यह जो आपराधिक कार्यवाही की है व दण्डनीय है।
यहां तो यह कहावत चरित्रार्थ है कि ' उल्टा चोर कोतवाल को डांटे'। 75 वर्ष का रिर्काड तो यहां का वनविभाग ही नहीं दे सकता जो कि यहां पर चिरकाल से रहने वाले आदिवासीयों से इस प्रमाण को मांग रहे हैं। आदिवासी कैमूर की इन पहाड़ियों में कब से रह रहे हैं, इसका जीता जागता प्रमाण आज भी यहां की भृतिकाए ' राक पेंन्टिंग' हैं जो कि कई स्थानों पर पाई गई हैं।
नक्सलियों के लिए कभी सेफ जोन रही कैमूर पहाड़ी अब उनके लिए शामत लेकर आयी है। नक्सलियों का रेड कारिडोर माने जाने वाली पहाड़ी व इसके आसपास गांवों में पिछले डेढ़ वर्षो से बदल रही परिस्थितियों में एक तरह से उनके पांव उखड़ने शुरू हो गए हैं। पिछले 6 महीने के दौरान बीस नक्सली हार्डकोर पुलिस की जद में आ चुके हैं। नक्सली कमांडर मुन्ना विश्वकर्मा, अभय यादव, भानू यादव, संजय चेरो, मंगल चेरो, लल्लू पासी समेत कई बडे़ नक्सलियों के हथियार के साथ गिरफ्तारी पुलिस के लिए उल्लेखनीय सफलता बन गयी है। वर्ष 2012 शुरू होते ही 2 जनवरी को चुटिया थाना क्षेत्र के तिलहर टोला (मटिआंव) में नक्सलियों के साथ हुए मुठभेड़ में तीन नक्सली (काशीकोल, गुड्डु सिंह व संतोष यादव) मारे गये थे। मुठभेड़ में पुलिस ने नक्सलियों के पास से हथियार भी बरामद किया था। 18 जनवरी को महेन्द्र चौधरी, राहुल खरवार, 6 फरवरी को विनोद यादव, 26 फरवरी को वृष केतु सिंह, ईनामी राजेन्द्र उरांव उर्फ डीएफओ, 1 अप्रैल को दिनेश यादव, 18 अप्रैल को दिनेश उरांव, 2 मई को सुदर्शन भुईया को गिरफ्तार कर पुलिस सलाखों के पीछे भेज चुकी है। 3 मई को भानु यादव अपने तीन सहयोगियों के साथ सुअरमनवा के जंगल में पुलिस के हाथ लग गया। उसके पास से पुलिस की लूटी हुई पांच राइफलें भी बरामद हुए थे। ताबड़तोड़ मिल रही सफलता के क्रम में 13 मई को रामाशीष यादव, 17 मई को राइफल व विस्फोटक के साथ संजय चेरो को पुलिस ने दबोच अपनी दबिश कायम रखा। पहाड़ पर बढ़ी दबिश से घबराये ईनामी नक्सली कमांडर मुन्ना विश्वकर्मा 24 मई को अपने सहयोगी अजीत कोल के साथ उत्तर प्रदेश में आत्मसमर्पण कर डाला। संगठन के अस्तित्व को खतरा में पड़ते देख 27 मई को अभय यादव ने रोहतास पुलिस के समक्ष हथियार डाल दिया। जानकारों की मानें तो वर्ष 2011 में आपसी फूट के कारण जोनल कमांडर वीरेन्द्र राणा व विशुनदेव यादव की नागा टोली गांव में हत्या के बाद से ही संगठन लड़खड़ा रहा है। राणा की हत्या के बाद गांधीगिरी की राह पर उतरे अनिल कुशवाहा ने अपने 9 साथियों के साथ आत्मसमर्पण किया था। टर्निग प्वाइंट पर पहुंचा उग्रवाद की दशा व दिशा क्या होगी, इसको ले संगठन में भी आत्ममंथन चल रहा है। एसपी मनु महाराज के अनुसार पहाड़ के लोगों में आई जागरूकता से नक्सली संगठन कमजोर पड़ चुका है।
बिहार में रोहतास प्राचीन काल से ही विकसित संस्कृति का क्षेत्र रहा है। यहां बिखरीं पड़ीं धरोहरें इतिहास के कालखंडों के रहस्यों को अपने गर्भ में छिपाए हैं। कैमूर की गुफाओं में हजारों वर्ष पूर्व के शैलचित्र मौजूद है। ये शैलचित्र यहां की प्राचीन शैली के गवाह हैं, पर संरक्षण के अभाव में ये जीवंत दस्तावेज विलुप्त होने के कगार पर है। इतिहासविद् शैलचित्रों के आरंभ को ईसा पूर्व से ही जोड़ते हैं। इसकी खोज ब्रिटिश नागरिक एसी कारलाईल ने की थी। यूरोप में शैलचित्रों का उल्लेख 1868 ई. के आसपास किया गया। बाद में कारलाईल ने 1880-81 के बीच विंध्य पर्वत श्रृंखला के मिर्जापुर व रीवां जिले में शैलचित्रों की पहचान की। 1883 में मि. राकवर्न ने इस तरह के शैलचित्रों का उल्लेख करते हुए मिर्जापुर की गोड़, चेरो, बैंगा, खरवार, भूटिया आदि जनजातियों के चित्रांकन के साथ इसका तुलनात्मक विवरण दिया। इसके बाद देशभर में शैलचित्रों का अध्ययन प्रारंभ हुआ। सन 1922 में मनोरंजन घोष, 1933 में डीएच गोरडोन, 1952 में एसके पाण्डेय, अलंचिन, 1967 में एस बाकनकर व 1977 में शंकर तिवारी, केडी वनजी आदि विद्वानों ने इस कला का विस्तृत अध्ययन किया।
रोहतास जिले के शैलचित्रों का सर्वेक्षण सर्वप्रथम फरवरी 1999 में कर्नल उमेश प्रसाद के नेतृत्व में आए पर्वतारोही दल ने किया। जिसमें पूर्व निदेशक पुरातत्व विभाग बिहार डा. प्रकाशचंद प्रसाद, कैप्टन सुभाष धले, डा. कुमार आनंद व डा. विजय कुमार सिंह शामिल थे। रोहतास गढ़ के पास बाण्डा गांव की पूरब पहाड़ी की गुफाओं में चार शैलचित्र मिले है। इनके नाम मिठईयामान, मंगरूआ मान, चनाइनमान, इनरबिगहिया मान हैं। ये सभी शैलचित्र पहाड़ी की ऊंचाई पर गुफाओं में हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही मानव सबसे सुरक्षित स्थान पर आवास बनाता रहा है। इन सभी शैलचित्रों के नजदीक ही पानी के स्रोत हैं। शैलचित्रों में विभिन्न प्रकार के चित्ताकर्षक दृश्यों का अंकन है। सभी गहरे लाल रंग के है। कहीं पशु पक्षी तो कहीं मानवों को युद्ध करते दिखाया गया है। एक गुफा में शैलचित्र पर नृत्य करते तो एक में आदमी जानवर पर बैठा है। मिठईया मान में राइमो के मुख के कंकाल, सुअर व बंदर का चित्र बना है। कुछ चित्रों में भाला-बाण आदि शस्त्रों से पशु पक्षियों के शिकार का अंकन है। यह मानव के आखेटक जीवन की झांकी का मनोरम चित्रण है।
इसी तरह के शैलचित्र फुलवरिया घाट, गीता घाट के समीप की गुफा, कादिम कुंड, सिंगाय कुंड, बड़की कापरी, बुढ़ी खोह, जमुनिया मांद में भी पाए गए है। यहां की जनजातियों में आज भी दीवारों पर भालू, बंदर, हाथी, घोड़े, हिरण, बाघ, कुत्ते आदि के चित्र बनाने की परम्परा जीवित है।
सर्वेक्षण दल में रहे इतिहासविद् डा. विजय कुमार सिंह कहते है कि ये शैलचित्र प्राचीन इतिहास की अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाने में सहयोग कर सकते हैं। सरकार व पुरातत्वविदों को मध्यप्रदेश में भीमवेटिका की तरह पर्यटन की दृष्टि से यहां की गुफाओं को संरक्षित व विकसित कर पर्यटकों को इन राक पेंटिंग की गुफाओं तक पहुंचाना होगा। शैल चित्रों पर रेखाएं खींचकर चरवाहे इन्हे नुकसान पहुंचा रहे है।
वर्ष 2001 के 25 मई से 27 मई तक भभुआ में आयोजित राक आर्ट सोसाइटी आफ इंडिया के छठे सम्मेलन में स्क्रीन पर दिखाए गए कैमूर पहाड़ी के शैलचित्रों को पुरातत्व वेत्ताओं ने अद्भुत मानते हुए इसके संरक्षण की आवश्यकता जताई थी। डा. गुरुचरण ने कहा कि इन शैलचित्रों से इतिहासकार प्राचीन काल के कई सूत्र ग्रहण कर उस काल के रहन-सहन, कला-संस्कृति के नये अध्याय लिख सकते है। किन्तु दुखद स्थिति यह है कि इनकी संरक्षा पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। पुरातत्व अधिकारी नीरज सिंह कहते है कि केंद्र व प्रदेश सरकार को प्रस्ताव भेजा गया था। किन्तु कोई कार्रवाई नहीं हुई।
मानिकपुर (चित्रकूट)। अरसा बीता पर वनवासियों को वनाधिकार कानून का फायदा नहीं मिला। राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच ने खंड विकास अधिकारी के माध्यम से मुख्यमंत्री को ८ सूत्रीय ज्ञापन भेजा है, जिसमें वनाधिकार कानून को और प्रभावशाली बनाने का अनुरोध किया गया है। मंच का कहना है कि संसद ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासियों के लिए अधिनियम २००६ को मंजूरी दी। प्रदेश सरकार ने २००७ में नियम बनाकर इसे पूरे प्रदेश में लागू करने का निर्देश जारी किया। लेकिन क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ऐसे विभाग को मिली, जिसका स्वयं का कोई ढांचा भी नहीं है। मंच के लोगों का यह भी कहना है कि समाज कल्याण विभाग ने इसका किसी भी तरह कारगर प्रचार प्रसार नहीं कराया और सारी जिम्मेदारी वन विभाग के ऊपर डाल दी। आरोप लगाया कि वनाधिकार समिति का भी आज तक गठन नहीं कराया गया। मंच ने इस संबंध में खंड विकास अधिकारी के माध्यम से मुख्यमंत्री को मांगें भेजी हैं। इसमें वनाधिकार कानून २००६ के क्रियान्वयन को प्रभावी बनाने, वनाश्रित समुदाय को हक दिलाने, रानीपुर वन्य जीव जंतु विहार को राष्ट्रीय पार्क बनाने से रोकने, इसकी जमीन का नोटीफिकेशन राष्ट्रीय पार्क के रूप में न किए जाने, छोटे गांवों में वनाधिकार समिति बनाए जाने, वनाश्रित समुदाय दावा फार्म भरवाए जाने, पांच वन गांवों को राजस्व गांवों का दर्जा दिए जाने, तेंदू पत्ता की आमदनी पर पूरा हक दिए जाने की मांगें हैं। उधर, इस संबंध में दलित आदिवासी वनाश्रित समुदाय ने इस संबंध में खामियों पर चर्चा की। इस मौके पर मातादयाल, रामसजीवन, बापू, मंगल, दोखिया, बेलपतिया व शंकर आदि ने संबोधित किया।
जनजातीय इलाकों में तत्काल शांति स्थापना को लेकर राष्ट्रपति के नाम लिखे डॉ बी डी शर्मा के पत्र का हिन्दी तर्जुमा (और अंग्रेजी प्रति) पेश है:
डाक्टर बी डी शर्मा
पूर्व आयुक्त - अनुसूचित जाति-जनजाति
ए-११ नंगली रजापुर
निजामुद्दीन पूर्व
नई दिल्ली-११००१३
दूरभाष- 011-24353997 मई - १७ २०१०
सेवा में,
राष्ट्रपति, भारत सरकार
नई दिल्ली
महामहिम,
विषय- जनजातीय इलाकों में शांति-स्थापना
1. विदित हो कि आदिवासी मामलों से अपने आजीवन जुड़ाव के आधार पर (जिसकी शुरुआत सन् १९६८ में बस्तर से तब हुई जब वहां संकट के दिन थे और फिर अनुसूचित जाति-जनजाति का अंतिम आयुक्त (साल १९८६-१९९१) रहने की सांविधानिक जिम्मेदारी) मैं आपको यह पत्र एक ऐसे संकटपूर्ण समय में लिख रहा हूं जब आदिवासी जनता के मामले में सांविधानिक व्यवस्था लगभग ढहने की स्थिति में है, आबादी का यह हिस्सा लगभग युद्ध की सी स्थिति में फंसा हुआ है और उस पर हमले हो रहे हैं।
2. इस पत्र के माध्यम से मैं आपसे सीधा संवाद स्थापित कर रहा हूं क्योंकि जनता (और इसमें आदिवासी जनता भी शामिल है) आपको और राज्यपाल को भारत के सांविधानिक प्रधान के रूप में देखती है. संबद्ध राज्य संविधान की रक्षा-संरक्षा के क्रम में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए इस बाबत शपथ उठाते हैं। अनुच्छेद ७८ के अन्तर्गत राष्ट्रपति के रूप में आपके कई अधिकार और कर्तव्य हैं जिसमें एक बात यह भी कही गई है कि मंत्रिमंडल और प्रशासन की सारी चर्चा की आपको जानकारी दी जाएगी और यह भी कि आप मंत्रिमंडल के समक्ष मामलों को विचारार्थ भेजेंगे।
3. खास तौर पर संविधान की पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 3 में कहा गया है- "ऐसे प्रत्येक राज्य का राज्यपाल जिसमें अनुसूचित क्षेत्र हैं, प्रतिवर्ष या जब राष्ट्रपति अपेक्षा करे, उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा और संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य को उक्त क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में निर्देश देने तक होगा।"
इस संदर्भ में गौरतलब है कि कोई भी फलदायी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई है। आदिवासी मामलों की परामर्श-परिषद (पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 4) ने कोई प्रभावी परामर्श नहीं दिया।
4. विधि के अन्तर्गत राज्यपाल इस बात को सुनिश्चित कर सकता हैं कि संसद या राज्यों द्वारा बनाया गया कोई भी कानून आदिवासी मामलों में संकेतित दायरे में अमल में ना लाया जाय। मौजूदा स्थिति यह है कि भू-अर्जन और सरकारी आदेशों के जरिए आदिवासी का निर्मन दोहन और दमन हो रहा है। बावजूद इसके, कोई कार्रवाई नहीं की जा रही।
5. दरहकीकत, अगर गृहमंत्रालय के मंतव्य को मानें तो आदिवासी संघीय सरकार की जिम्मेदारी हैं ही नहीं। गृहमंत्रालय के अनुसार तो संघीय सरकार की जिम्मेदारी केवल राज्य सरकारों की मदद करना है। ऐसा कैसे हो सकता है? संघ की कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार पांचवी अनुसूची के विधान के अन्तर्गत समस्त अनुसूचित क्षेत्रों तक किया गया है। इसके अतिरिक्त विधान यह भी है कि ' संघ अपनी कार्यपालिका की शक्ति के अन्तर्गत राज्यों को अनुसूचित इलाके के प्रशासन के बारे में निर्देश देगा '
6. आदिवासी जनता के इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर मैं यह कहने से अपने को रोक नहीं सकता कि केंद्र सरकार आदिवासी जनता के मामले में अपने सांविधानिक दायित्वों का पालन नहीं करने की दोषी है। उसका दोष यह है कि उसने सन् साठ के दशक की स्थिति को जब आदिवासी इलाकों में छिटपुट विद्रोह हुए थे आज के 'युद्ध की सी स्थिति' तक पहुंचने दिया। संविधान लागू होने के साथ ही आदिवासी मामलों के प्रशासन के संदर्भ में एक नाराजगी भीतर ही भीतर पनप रही थी मगर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। साठ सालों में केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में एक भी निर्देश राज्यों को जारी नहीं किया। राष्ट्र के प्रधान के रुप में इस निर्णायक समय में आपको सुनिश्चित करना चाहिए कि केंद्र सरकार भौतिक, आर्थिक और भावनात्मक रुप से तहस-नहस, धराशायी और वंचित आदिवासियों के प्रति यह मानकर कि उनकी यह क्षति अपूरणीय है खेद व्यक्त करते हुए अपनी सांविधानिक जिम्मेदारी निभाये। आदिवासियों की इस अपूरणीय क्षति और वंचना समता और न्याय के मूल्यों से संचालित इस राष्ट्र के उज्ज्वल माथे पर कलंक की तरह है।
7. मैं आपका ध्यान देश के एक बड़े इलाके में तकरीबन युद्ध की सी स्थिति में फंसी आदिवासी जनता के संदर्भ में कुछेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर आकर्षित करना चाहता हूं। आपके एक सुयोग्य पूर्ववर्ती राष्ट्रपति श्री के आर नारायणन ने २६ जनवरी २००१ को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में बड़े जतन से उन महनीय कानूनों की तरफ ध्यान दिलाया था जिन्हें आदिवासी क्षेत्रों की रक्षा के लिए बनाया गया है और जिन कानूनों को अदालतों ने भी अपने फैसलें देते समय आधारभूत माना है। श्री नारायणन ने गहरा अफसोस जाहिर करते हुए कहा था कि विकास की विडंबनाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा गया है। उन्होंने बड़े मार्मिक स्वर में कहा था कि, ' कहीं ऐसा ना हो कि आगामी पीढियां कहें कि भारतीय गणतंत्र को वन-बहुल धरती और उस धरती पर सदियों से आबाद वनवासी जनता का विनाश करके बनाया गया।.'
8. कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो अपने देश के सत्ताधारी अभिजन अक्सर आदिवासियों को गरीब बताकर यह कहते हैं कि उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है। यह दरअसल आदिवासी जीवन मूल्यों के प्रति इनकी निर्मम संवेदनहीनता और समझ के अभाव का सूचक है। ऐसा कह कर वे उन सहज लोगों के मर्मस्थान पर आघात करते हैं जिन्हें अपनी इज्जत जान से भी ज्यादा प्यारी है। ध्यान रहे कि आदिवासी गरीब नहीं है। आदिवासी जनता को उसके ही देस में, उस देस में जहां धरती माता ने अपनी इस प्रिय संतान के लिए प्रकृति का भरपूर खजाना लुटाया है, दायवंचित किया गया है। अपनी जीवंत विविधता पर गर्व करने वाली भारतीय सभ्यता के जगमग ताज में आदिवासी जनता सबसे रुपहला रत्न है।
9. यही नहीं, आदिवासी जनता '.इस धरती पर सर्वाधिक लोकतांत्रिक मिजाज की जनता' है। राष्ट्रनिर्माताओं ने इसी कारण उनकी रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की। पांचवी अनुसूची को 'संविधान के भीतर संविधान' की संज्ञा दी जाती है। फिर भी, इस समुदाय का संविधान अंगीकार करने के साथ ही तकरीबन अपराधीकरण कर दिया गया। पुराने चले आ रहे औपनिवेशिक कानूनों ने उन इलाकों को भी अपनी जद में ले लिया जिसे संविधान अंगीकार किए जाने से पहले अपवर्जित क्षेत्र (एक्सक्लूडेड एरिया) कहा जाता था। औपनिवेशिक कानूनों में समुदाय, समुदाय के रीति-रिवाज और गाँव-गणराज्य के अलिखित नियमों के लिए तनिक भी जगह नहीं रही। ऐसी विसंगति से उबारने के लिए ही राज्यपालों को असीमित शक्तियां दी गई हैं लेकिन वे आज भी इस बात से अनजान हैं कि इस संदर्भ में उनके हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने से आदिवासी जनता के जीवन पर कितना विध्वंसक प्रभाव पड़ा है।
10. पेसा यानी प्राविजन ऑव पंचायत (एक्सटेंशन टू द शिड्यूल्ड एरिया - १९९६ ) नाम का अधिनियम एक त्राणदाता की तरह सामने आया। इस कानून की रचना आदिवासियों के साथ हुए उपरोक्त ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे के लिए किया गया था। पूरे देश में इस कानून ने आदिवासियों को आंदोलित किया। इस कानून को लेकर आदिवासियों के बीच यह मान्यता बनी कि इसके सहारे उनकी गरिमा की रखवाली होगी और उनकी स्वशासन की परंपरा जारी रहेगी। इस भाव को आदिवासी जनता ने 'मावा नाटे मावा राज' (हमारे गांव में हमारा राज) के नारे में व्यक्त किया। बहरहाल आदिवासी जनता के इस मनोभाव से सत्तापक्ष ने कोई सरोकार नहीं रखा। इसका एक कारण रहा सत्ताधारी अभिजन का पेसा कानून की मूल भावना से अलगाव। यह कानून कमोबेश हर राज्य में अपने अमल की राह देखता रहा।
11. आदिवासी जनता के लिए अपने देश में सहानुभूति की कमी नहीं रही है। नेहरु युग के पंचशील में इसके तत्व थे। फिर कुछ अनोखे सांविधानिक प्रावधान किए गए जिसमें आदिवासी मामलों को राष्ट्रीय हित के सवालों के रूप में दलगत संकीर्णताओं से ऊपर माना गया। साल १९७४ के ट्रायबल सब प्लान में आदिवासी इलाकों में विकास के मद्देनजर शोषण की समाप्ति के प्रति पुरजोर प्रतिबद्धता जाहिर की गई। फिर साल १९९६ के पेसा कानून में आदिवासी इलाके के लिए गाँव-गणराज्य की परिकल्पना साकार की गई और वनाधिकार कानून (साल २००६) के तहत आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे का वादा किया गया। तो भी, इन प्रतिबद्धताओं का सबसे दुखद पहलू यह है कि आदिवासियों के साथ किए गए वादों की लंबी फेहरिश्त में कोई भी वादा ऐसा नहीं रहा जिसे तोड़ा नहीं गया, कई मामलों में तो वादों को तोड़ने की हद हो गई। मैं तोड़े गए वादों की एक फेहरिश्त भी इस सूची के साथ संलग्न कर रहा हूं।
12. वादे टूटते रहे और प्रशासन स्वयं शिकारी बन गया तथा सत्तापक्ष के शीर्षस्थ आंखे मूंदे रहे। ऐसी स्थिति में वे विस्थापन के कारण उजड़ने वाले आदिवासियों की गिनती तक भी नहीं जुटा सके। इस क्रम में बेचैनी बढ़ी और बलवे लगातार बढते गए। जंगल में रहने वाले जिन लोगों पर अंग्रेज तक जीत हासिल नहीं कर पाये थे उनके लिए यह राह चुनना स्वाभाविक था। तथाकथित विकास कार्यक्रमों के जरिए आदिवासियों को अपने साथ मिलाने की जुगत एक फांस साबित हुई। ये कार्यक्रम समता के मूल्यों का एक तरह से माखौल थे। गैरबराबरी के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने वाले युवाजनों का एक हिस्सा आदिवासियों का साथी बना। साल १९९८ में मुझसे इन सहज-साधारण लोगों (आदिवासियों) ने कहा था- आसपास दादा (माओवादी) लोगों के आ जाने से हमें कम से कम दारोगा, पटवारी और फॉरेस्ट गार्ड के अत्याचारों से छुट्टी मिली है। फिर भी सत्तापक्ष इस बात पर डटा रहा कि आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद की समस्या सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या है। उसने अपनी इस रटंत में बदलाव की जरुरत नहीं समझी।
13. निष्कर्ष रुप में मेरी विनती है कि आप निम्नलिखित बातों पर तुरंत ध्यान दें-
(क) केंद्र सरकार से कहें कि वह आदिवासी जनता के प्रति अपनी विशेष जिम्मेदारी की बात सार्वजनिक रूप से व्यक्त करे।
(ख) आदिवासी इलाकों में तत्काल शांति बहाली का प्रस्ताव करें
(ग) निरंतर पर्यवेक्षण, पुनरावलोकन और कार्रवाई के लिए उपर तक जवाबदेही का एक ढांचा खड़ा किया जाय जिस तक पीडितों की सीधी पहुंच हो।
(घ) एक साल के अंदर-अंदर उन सारे वायदों का पालन हो जो आदिवासी जनता के साथ किए गए और जिन्हें राज्य ने तोड़ा है ।
(च) पेसा कानून के अन्तर्गत स्थानीय जनता की मंजूरी के प्रावधान का पालन दिखाने के लिए जिन मामलों में बलपूर्वक, धोखे-छल या फिर किसी अन्य जुगत से स्थानीय जनता की मंजूरी हासिल की गई और फैसले लिए गए उन फैसलों को पलटा जाये और उनकी जांच हो।
(छ) मौजूदा बिगड़े हालात के समग्र समाधान के लिए लिए व्यापक योजना बने और,
(ज) उन इलाकों में से कुछ का आप दौरा करें जहां सांविधानिक व्यवस्था पर जबर्दस्त संकट आन पड़ा है।.
सादर,
आपका विश्वासी
बी डी शर्मा
प्रति,
1.श्री मनमोहन सिंह जी ,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार
साऊथ ब्लॉक नई दिल्ली
2.श्री प्रणब मुखर्जी
वित्तमंत्री, भारत सरकार
नार्थ ब्लॉक नई दिल्ली
3. श्री वीरप्पा मोईली
विधि और न्यायमंत्री, भारत सरकार
शास्त्रीभवन, नई दिल्ली
4. श्री पी चिदंबरम्
गृहमंत्री, भारत सरकार
नार्थ ब्लॉक, नई दिल्ली
5 श्री कांतिलाल भूरिया
मंत्री आदिवासी मामले, भारत सरकार
शास्त्रीभवन, नई दिल्ली
6. डाक्टर सी पी जोशी
ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री,भारत सरकार
शास्त्रीभवन, नई दिल्ली
7 श्री जयराम रमेश
वन एवम् पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार
पर्यावरण भवन, लोदी रोड, नई दिल्ली
वनाधिकार
http://hindi.indiawaterportal.org/node/25745
Author: आईएम4 चैंज
Source: आईएम4 चैंज
• साल २००६ के १३ दिसंबर को लोकसभा ने ध्वनि मत से अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक(२००५) को पारित किया। इसका उद्देश्य वनसंपदा और वनभूमि पर अनुसूचित जाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों को अधिकार देना है।
• यह विधेयक साल २००५ में भी संसद में पेश किया गया था, फिर इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए जिसमें अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ अन्य पंरपरागत वनवासी समुदायों को भी इस अधिकार विधेयक के दायरे में लाना शामिल है।
मूल विधेयक में कट-ऑफ डेट (वह तारीख जिसे कानून लागू करने पर गणना के लिए आधार माना जाएगा) ३१ दिसंबर, १९८० तय की गई थी जिसे बदलकर संशोधित विधेयक में १३ दिसंबर, २००५ कर दिया गया।
• परंपरागत वनवासी समुदाय का सदस्य वनभूमि पर अधिकार अथवा वनोपज को एकत्र करने और उसे बेचने का अधिकार पाने के योग्य तभी माना जाएगा जब वह तीन पीढ़ियों से वनभूमि के अन्तर्गत परिभाषित जमीन पर रहता हो। कानून के मुताबिक प्रत्येक परिवार ४ हेक्टेयर की जमीन पर मिल्कियत दी जाएगी जबकि पिछले विधेयक में २.५ हेक्टेयर जमीन देने की बात कही गई थी।
एशियन इंडीजिनस एंड ट्राइबल पीपलस् नामक सूचना स्रोत के अनुसार- http://www.aitpn.org/Issues/II-09-06-Forest.pdf
वनाधिकार कानून का इतिहास
• २५ अक्तूबर १९८० की अर्धरात्रि को भारत सरकार ने वन-संरक्षण अधिनियम को मंजूर किया और इस कानून की मंजूरी के साथ ही हजारो वनवासी और जनजातीय लोग रातोरात उसी जमीन पर अवैध निवासी बन गये जिसपर वे पीढियों से रहते आ रहे थे। कुछेक वनवासियों के अधिकार बने रहे। लगभग २५ सालों तक हजारों लोग अपनी ही जमीन पर अवैध निवासी बने रहे मगर सरकार ने वनभूमि पर वनवासी समुदायों के परंपरागत अधिकार की न तो पहचान की और ना ही उसे मंजूर किया। वन संरक्षण कानून और इसी से जुड़े वन और पर्यावरण मंत्रालय के दिशानिर्देशों में वनभूमि पर वनवासी समुदायों के जिन परंपरागत अधिकार को मान्यता दी गई थी उन्हें भी सरकार ने सीमित करने के प्रयास किये।
• सुप्रीम कोर्ट ने गोदावर्मन तिरुमलपद बनाम भारत सरकार के मुकदमे में फैसला दिया था कि जनजातीय राजस्व-जिलों(रेवेन्यू विलेज) का नियमितीकरण नहीं किया जाए।इसी फैसले के प्रत्युत्तर में अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक लाया गया।
• सुप्रीम कोर्ट ने जनजातीय राजस्व-जिलों के नियमतीकरण पर स्थगन का आदेश २३ नवंबर २००१ को सुनाया। इस फैसले से एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हुई। सभी वनवासी चाहे १९८० के वन-संरक्षण कानून में उनके अधिकारों को मान्यता दी गई हो या नहीं, कानूनी तौर विलुप्त की श्रेणी में आ गये।
• विधेयक १३ दिसंबर २००५ को द शिड्यूल्ड ट्राइव्स् (रिकॉग्नीशन ऑव फॉरेस्ट राइट्स्) बिल नाम से संसद में पेश हुआ. एक साल तक इस पर बड़ी तीखी बहस चली और इसका नाम बदलकर द शिड्यूल्ड ट्राइव्स् एंड अदर टेड्रीशनल फ़ॉरेस्ट डेवेलरस (रिकॉग्नीशन ऑव फॉरेस्ट राइट्स्),२००६ रखा गया। देश के निचले सदन(लोकसभा) ने इसे १३ दिसंबर २००६ को पास किया। २९ दिसंबर २००६ को भारत के राष्ट्रपति ने इसपर मुहर लगायी और यह कानून प्रभावी हो गया।
• साल २००५ में विधेयक संसद में पेश किया गया था और साल २००६ के दिसंबर में यह कानून की शक्ल में आ सका। इस बीच जो बहस इस विधेयक को लेकर चली उससे साप स्पष्ट हो गया कि जनजातीय समुदाय को लेकर गैर-जनजातीय समुदाय में बड़े गहरे पूर्वग्रह मौजूद हैं और जमीन पर उनकी हकदारी की मंजूरी में आड़े आ रहे हैं।
• वनाधिकार कानून के पुराने प्रारुप(२००५) का दो हितसमूहों ने विरोध किया। कुछ प्रयावरणवादियों का कहना था कि जैव-विविधता, वन्य-जीव और वन का पर्यावरण के लिहाज से प्रबंधन जनजातीय लोगों और अन्य वनवासी समुदायों के बिना किया जाना चाहिए। यह बात रियो घोषणा के ठीक उलट थी। दूसरी तरफ वन और प्रयावरण मंत्रालय का तर्क था कि अगर जनजातीय और अन्य परंपरागत वनसमुदाय को वनभूमि और वनोपज पर अधिकार दिए गए तो देश के वनाच्छादन (फॉरेस्टकवर) में १६ फीसदी की कमी आयेगी। यह तर्क भी बड़ा लचर था क्योंकि देश का ६० फीसदी वनाच्छादन कुल १८७ जनजातीय जिलों में पड़ता है जबकि इन जिलों में देश की महज ८ फीसदी जनसंख्या निवास करती है। इससे पता चलता है कि जनजातीय लोगों ने जंगल को बचाकर रखा है और उनकी संस्कृति में जंगल को बचाने के गुण हैं।
• एक तरफ जनजातियां हैं जिनकी संस्कृति जंगल बचाने की है, दूसरी तरफ है वन और पर्यावरण मंत्रालय जिसने कुल अधिगृहीत वनभूमि का ७३ फीसदी हिस्सा (९.८१ लाख हेक्टेयर) गैर-वनीय गतिविधियों यानी औद्योगिक और विकास परियोजनाओं के खाते में डाल रखा है।
• साल २००५ में पेश किए गए मसौदे पर जब आपत्तियां उठीं तो इसे एक संयुक्त पार्लियामानी समिति के हाथो सौंप दिया गया जिसकी अध्यक्षता वी किशोर चंद्र एस देव(कांग्रेस पार्टी) कर रहे थे।
• २३ मई २००६ को इस समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें कट-ऑव डेट, प्रत्येक परिवार को दी जाने वाली जमीन की माप, ग्राम सभा की मजबूती सहित अन्य परंपरागत वनवासी समुदायों को विधेयक के दायरे में शामिल करने के बारे में सुझाव दिए गए थे।
क्या मिला-क्या नहीं मिला?
• पुराने विधेयक के नाम से सूचना मिल रही थी कि जनजातीय समुदाय और वन के बीच एक आत्यांतिक रिश्ता है। इस रिश्ते को साल १९८८ की वननीति में भी रेखांकित किया गया था। मौजूदा अधिनियम इस रिश्ते को कमजोर करता है क्योंकि इसमें अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय नामक पद जोड़ दिया गया है। मौजूदा कानून अब सिर्फ जनजातीय की अधिकारिता पर केंद्रित नहीं है जैसा कि इस कानून का मसौदा तैयार करते वक्त मंशा जतायी गई थी।
• जंगल और जनजातीय समुदाय एक तरह से प्रयायवाची के रुप में इस्तेमाल होते हैं यानी दोनों को अलगाया नहीं जा सकता जबकि यही बात अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय के बारे में नहीं कही जा सकती।
• जनजातीयों का जंगल से भावनात्मक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक जुड़ाव है। वे हमेशा से वनवासी रहे हैं जबकि गैर जनजातीय अन्य पंरपरागत वनवासी समुदाय वनोपज को अपनी आजीविका का आधार तब बनाते हैं जब उनके पास और कोई उपाय शेष नहीं रह जाता।
मौजूदा कानून में अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय को बढ़त देने के लिए कट ऑव डेट बढ़ा दी गई है।
• पहले के मसौदे में यह तारीख २५ अक्तूबर १९८० थी मगर अब के कानून में यह तारीख १३ दिसंबर २००५ है।
• बढ़ी हुई तारीख से अन्य परंपरागत वनसमुदाय के नाम से परिभाषित समूहों को फायदा मिलेगा। कानून में कहा गया है कि इस समुदाय के लोगों को वनोपज या वनभूमि पर मिल्कियत की दावेदारी के लिए साबित करना होगा कि वे तीन पीढियों से वनभूमि पर रह रहे हैं। तारीख के बढ़ने से ऐसे समुदायों को पूरी एक पीढ़ी का फायदा पहुंचा है।
• साल १९८० के वन-संरक्षण कानून के प्रावधानों के कारण हजारों जनजातीय लोग आपराधिक आरोपों के दायरे में आ गए हैं। इस कानून के कारण उनपर वनोपज को चुराने और अवैध कब्जा करने के आरोप लगे हैं। साल २००६ में जो वनाधिकार कानून पास हुआ उसमें इस बात की पहचान ही नहीं की गई है कि वन-संरक्षण कानून जनजातीयों के अधिकारों को छीनता है और उन्हें अपराधी करार देता है। साल २००६ का कानून जनजातीय को वनोपज और वनभूमि पर अधिकारलतो देता है लेकिन उन पर लगे आरोपों से मुक्ति नहीं।नये कानून में ऐसा कोई विधान नहीं है कि जनजातीय समूहों पर लगे आरोपों को हटा लिया जाएगा।

No comments:
Post a Comment