| Saturday, 18 May 2013 11:17 |
सुनील रेडीमेड वस्त्र उद्योग में विभिन्न देशों की मजदूरी के आंकड़े देखने से बहुत कुछ बातें साफ हो जाती हैं और वैश्वीकरण का रहस्य खुल जाता है। रेडीमेड वस्त्र उद्योग में मजदूरी जर्मनी में पचीस डॉलर, अमेरिका में सोलह डॉलर प्रतिघंटा है। दूसरी ओर यही मजदूरी चीन में पचास सेंट, पाकिस्तान में इकतालीस सेंट, भारत में पैंतीस सेंट और बांग्लादेश में पंद्रह सेंट है। अमीर देशों की मजदूरी और गरीब देशों की मजदूरी में दस से लेकर सौ गुने तक का फर्क है। बांग्लादेश की मजदूरी सबसे कम है; अमेरिका की मजदूरी के तो सौवें हिस्से से भी कम। जर्मनी के मुकाबले यह 166वां हिस्सा है। इसीलिए अब पश्चिमी देशों के बजाय गरीब देशों में उत्पादन करवाना बहुत सस्ता पड़ता है। रेडीमेड वस्त्र जैसे श्रम-प्रधान उद्योग में तो यह फायदा और ज्यादा है। इसीलिए पिछले तीन-चार दशकों में बड़ी मात्रा में उद्योग पश्चिमी अमीर देशों से गरीब देशों को स्थानांतरित हुए हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्र्रीय मुद्राकोष इसे 'निर्यात आधारित विकास' बता कर गरीब देशों की सरकारों और वहां के अर्थशास्त्रियों के गले उतारने में लगे रहे हैं। असली बात है कि दुनिया के गरीब देशों के सस्ते मजदूरों का शोषण करके अमीर देशों की कंपनियों के मुनाफे बढ़ाना और इन देशों के उपभोक्ताओं को सस्ता माल उपलब्ध कराना। इसी से पूंजीवादी सभ्यता का यह भ्रम भी बनाए रखने में मदद मिली है कि 'उपभोक्ता' राजा है और उपभोग को अंतहीन रूप से बढ़ाया जा सकता है। 'आउटसोर्सिंग' का भूमंडलीकरण नई व्यवस्था की विशेषता है। रेडीमेड वस्त्र कंपनी नायके के कपड़े दुनिया भर में फैले आठ सौ कारखानों में बनते हैं। वालमार्ट, एचएंडएम, जारा, ली, रेंगलर, डिस्ने, गेप, मेंगो, बेनेट्टन, लोबलो जैसी तमाम कंपनियां दुनिया में जहां सबसे सस्ता माल बन सके, वहां बनवाती हैं। बहुराष्ट्रीय खुदरा कंपनियों की सफलता का यही राज है। इसमें मेहनत गरीब देशों के मजदूरों की होती है, कंपनियों का केवल ब्रांड का ठप्पा होता है, जिसका एकाधिकार उनका होता है। मजदूरों को नाममात्र की मजदूरी देकर असली कमाई ये 'ब्रांडधारी' कंपनियां हड़प लेती हैं। नई व्यवस्था के समर्थन में अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि इसमें गरीब देशों के 'तुलनात्मक लाभ' का उपयोग हो रहा है। इससे लागतें कम होती हैं, उत्पादकता बढ़ती है और सबका भला होता है। इसमें अमीर देशों को सस्ता माल मिल रहा है, गरीब देशों का औद्योगीकरण हो रहा है, उनका निर्यात बढ़ रहा है और वहां के लोगों को रोजगार मिल रहा है। इसी के तहत यह भी पाठ पढ़ाया गया कि गरीब देशों को प्रतिस्पर्धी बने रहने और अपनी लागतें कम रखने के लिए 'श्रम सुधार' करना चाहिए, यानी मजदूरों के हित में बने कानूनों को शिथिल करते हुए, मजदूर आंदोलन को दबाते हुए, उनके शोषण की पूरी छूट देना चाहिए। निर्यात बढ़ाने के नाम पर इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में दुनिया के गरीब देश लग गए हैं। निर्यात आधारित विकास और औद्योगीकरण की इस योजना में लागतों में कमी का ही एक हिस्सा है कि उद्योगपतियों और कंपनियों को काम की दशाओं और सुरक्षा के प्रति लापरवाह होने की छूट दी जाए। पर्यावरण के विनाश की छूट देना भी इसका एक हिस्सा है। अमीर देशों में कड़े नियमों और जागरूकता के कारण यह संभव नहीं है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कचरा हम पैदा करें और उसे पड़ोसी के आंगन में डालते जाएं। पूंजीवाद के नए दौर ने यह सुविधा भी अमीर पूंजीवादी देशों को दे दी है। लेकिन बांग्लादेश के सावर जैसे हादसे बीच-बीच में हमें बताते हैं कि यह स्थिति सबके फायदे और भले की नहीं है। इसमें अमीर देशों के हिस्से में तो समृद्धि, मुनाफा और उपभोग का अंबार आता है, लेकिन गरीब देशों के हिस्से में शोषण, काम की अमानवीय दशाएं, पर्यावरण का क्षय और ऐसे भीषण हादसे आते हैं। जिसे 'उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं' कह कर शाबासी दी जा रही है और औद्योगीकरण और विकास बताया जा रहा है, वह पूंजीवादी व्यवस्था का नव-औपनिवेशिक चेहरा है। इसके तहत गरीब देश अपने श्रम और अन्य संसाधनों का इस्तेमाल अपनी जनता के लिए न करके अमीर देशों के लिए सस्ता माल पैदा करने में करते हैं। इससे रोजगार और आय का जो सृजन होता है, वह भी इन देशों की बहुसंख्यक आबादी को फायदा नहीं पहुंचा पाता है। केवल उसके कुछ टापू बनते हैं। विदेशी मांग पर निर्भर रहने के कारण अमीर देशों में मंदी आने पर ये टापू भी डूब सकते हैं। मैक्सिको से लेकर चीन तक और दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत और बांग्लादेश तक की यही कहानी है। इस मायने में सावर हादसे के अपराधी केवल उस इमारत का मालिक, कारखाना मालिक, खरीदार कंपनियां या बांग्लादेश सरकार नहीं है। असली अपराधी 'निर्यात आधारित औद्योगीकरण' का वह मॉडल है जो पूंजीवाद ने पिछले चालीस-पचास सालों में गरीब देशों को निर्यात किया है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44935-2013-05-18-05-48-50 |
Saturday, May 18, 2013
फैशन उनका त्रासदी हमारी
फैशन उनका त्रासदी हमारी
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