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दलितों,आदिवासियों,महिलाओ,अल्पसंख्यको के हालातों को देखते हुए वीरेन दा की कविता आशा जगाती है
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़ है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे
यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ हर सपने के पीछे सच्चाई होती है हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस इसके आगे भी चलते ही जाएँगे
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे |
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