Monday, February 27, 2012

परवाज का संकट

परवाज का संकट


Monday, 27 February 2012 10:29

अरविंद कुमार 
जनसत्ता 27 फरवरी, 2012: सेन भारतीय विमानन क्षेत्र का बुरा वक्त बीतने का नाम नहीं ले रहा है। सरकारी विमानन कंपनी एअर इंडिया आर्थिक रूप से खस्ताहाल हो चुकी है, वहीं निजी क्षेत्र की किंगफिशर एअरलाइंस दिवालिया होने के कगार पर खड़ी है। किंगफिशर-प्रबंधन राहत-पैकेज के लिए सरकार के सामने गिड़गिड़ा रहा है और बिगड़ती वित्तीय सेहत के कारण कंपनी ने कई वायुमार्गों पर परिचालन रोक दिया है। देश की सबसे बड़ी निजी विमानन कंपनी जेट एयरवेज को लेखा-परीक्षकों ने चेतावनी दी है कि देनदारियां पूरी करने के लिए कंपनी को पूंजी जुटाने की जरूरत है और अगर समय रहते पूंजी का प्रबंध नहीं किया गया तो जेट एयरवेज को भी किंगफिशर एअरलाइंस की बीमारी लग जाएगी। बढ़ते कर्ज के कारण जेट एयरवेज की अनुषंगी कंपनी जेटलाइट की आर्थिक स्थिति डांवांडोल हो चुकी है। राहुल भाटिया के मालिकाना हक वाली इंडिगो को छोड़ कर देश की बाकी सारी विमानन कंपनियां भारी घाटे में फंसी हुई हैं। बीते ग्यारह महीनों के दौरान भारतीय विमानन बाजार अठारह फीसद की दर से बढ़ा है, मगर देश की छह में से पांच विमानन कंपनियां घाटे में चल रही हैं। पक्षपातपूर्ण सरकारी दखल ने 2005-09 के बीच पैंतीस फीसद की तेज रफ्तार दर्ज करने वाले विमानन क्षेत्र की ऐसी दुर्दशा की है कि देश में नागर विमानन के सौ बरस पूरे होने का जश्न मनाने की हिम्मत और फुरसत किसी के पास नहीं है।  
दुनिया के नौवें सबसे बडेÞ विमानन बाजार भारत में 1990 के आर्थिक सुधारों के दौरान ही घरेलू विमानन उद्योग के संकट की आधारशिला रख दी गई थी। 1990 में भारत का विमानन क्षेत्र पहली बार निजी निवेश के लिए खोला गया था और सरकार ने विमानन क्षेत्र में उनचास फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति भी दी थी। रतन टाटा, सिंगापुर एअरलाइंस के साथ साझेदारी करके विमानन कंपनी शुरू करना चाहते थे। जेट एयरवेज के मालिक नरेश गोयल ने टाटा समूह की विमानन कंपनी के खिलाफ जोरदार लॉबिंग की और गोयल के दबाव में सरकार ने विमानन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का फैसला बदल दिया। बदले हुए कानून के मुताबिक विदेशी निवेशक भारतीय विमानन कंपनियों में उनचास फीसद तक निवेश कर सकते थे, लेकिन विमानन कारोबार से जुड़ी किसी विदेशी कंपनी को निवेश की अनुमति नहीं दी गई। यह फैसला शायद टाटा समूह और सिंगापुर एअरलाइंस को बाजार से बाहर रखने के लिए किया गया था। नतीजन भारतीय विमानन कंपनियां वैश्विक तकनीक, प्रबंधन, परिचालन के उम्दा तरीकों और विमानन क्षेत्र की बारीकियों से अवगत वास्तविक निवेशकों से महरूम रहीं। समूचे विमानन क्षेत्र को उस फैसले की ऊंची कीमत चुकानी पड़ रही है। घरेलू कंपनियों का मर्ज बेकाबू होने के बाद अब सरकार ने विदेशी विमानन कंपनियों को निवेश की अनुमति देने का फैसला किया है, मगर विडंबना यह है कि इस समय विदेशी कंपनियां कर्ज के दलदल में गले तक डूबी भारतीय कंपनियों पर दांव लगाने को तैयार नहीं हैं।
करों का बोझ इस उद्योग की बदहाली की दूसरी सबसे बड़ी वजह है। वैश्विक विमानन कंपनियों की लागत में विमानन र्इंधन (एअर टरबाइन फ्यूल- एटीएफ) का हिस्सा बीस फीसद है, जबकि गुणवत्ता में कमी के चलते भारतीय विमानन कंपनियों की लागत में साठ फीसद से ज्यादा हिस्सा विमानन र्इंधन की भेंट चढ़ जाता है। पिछले साल भारत में विमानन र्इंधन की कीमतें चालीस फीसद तक बढ़ी हैं वहीं वैश्विक बाजार में यह बढ़ोतरी पचीस फीसद तक रही है। बीते साल डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में आई चौबीस फीसद की गिरावट ने विमानन क्षेत्र के संकट की आग में घी का काम किया है। 
इन विमानन कंपनियों का पचहत्तर फीसद से ज्यादा कर्ज डॉलर में है, लिहाजा रुपए की विनिमय दर में होने वाले उतार-चढ़ाव का सीधा असर विमानन कंपनियों के बजट पर पड़ता है। दिक्कत की बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल लगातार महंगा होने के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारों ने विमानन र्इंधन पर लगाए गए बेजा करों में कोई कटौती नहीं की है। हमारे देश के चोटी के दस शहर विमानन क्षेत्र की कुल आमदनी में पैंसठ फीसद योगदान करते हैं और इनमें से सात शहरों के हवाई अड््डों का नवीनीकरण किया गया है। हवाई अड््डों का नवीनीकरण सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के आधार पर किया है, इसीलिए लागत वसूलने के लिए यात्रियों और विमानन कंपनियों से भारी-भरकम हवाई अड््डा विकास शुल्क लिया जाता है।
हमारे यहां विमानन र्इंधन की कीमत इसकी वास्तविक उत्पादन लागत से जुड़ी हुई नहीं  है। घरेलू कंपनियों द्वारा विमानन र्इंधन की चुकाई जाने वाली कीमत में तेल कंपनियों के मार्जिन के अलावा खाड़ी देशों से भारत तक का जहाजी भाड़ा, घरेलू परिवहन, केंद्र और राज्य सरकारों के कर और हवाई अड््डा विकास शुल्क शामिल हैं। यही वजह है कि भारत में विमानन र्इंधन की कीमत दुनिया के बाकी बाजारों की तुलना में बावन फीसद ज्यादा है। यही नहीं, भारतीय कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय उड़ान के समय विदेशी हवाई अड््डों से विमानन र्इंधन भरवाने की अनुमति भी नहीं है। 
भारतीय हवाई अड््डों की लचर वायुमार्ग यातायात नियंत्रण प्रणाली भी कोढ़ में खाज का काम कर रही है। आधारभूत ढांचे के अभाव में विमानों को ज्यादा समय तक हवाई अड््डे पर रुकना पड़ता है,   इससे उड़ानों के समय में इजाफा होता है और आखिरकार विमानन कंपनियों को ज्यादा र्इंधन-खपत के रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। घरेलू बाजार में कडेÞ मुकाबले के कारण विमानन कंपनियां यात्री-किरायों में इजाफा नहीं कर पाती हैं, वहीं बढ़ती र्इंधन-कीमतों से बहीखाते की हालत पतली हो जाती है। ऐसे में, विमानन कंपनियां अपने कर्मचारियों के वेतन-भत्ते रोक देती हैं, कर्ज की अदायगी सही समय पर नहीं हो पाती है और र्इंधन आपूर्ति करने वाली कंपनियों का भुगतान लटक जाता है। भारतीय विमानन कंपनियों में अक्सर होने वाली हड़तालें वेतन और भत्तों की मांग को लेकर ही होती हैं। किंगफिशर प्रकरण में भी समय पर भुगतान नहीं होने के कारण हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने कंपनी को विमानन र्इंधन की आपूर्ति रोक दी थी।

उदारीकरण के बाद भारतीय विमानन क्षेत्र में हुए विफल विलय-अधिग्रहणों ने भी इस क्षेत्र की कब्र खोदने का काम किया है। 1990 में विमानन क्षेत्र में निजी निवेश की अनुमति मिलते ही एसके मोदी समूह ने जर्मनी की लुफ्थहांसा एअरलाइंस से विमान किराए पर लेकर मोदीलुफ्थ नाम से विमानन कंपनी शुरू की, वहीं किराए के विमानों के सहारे ही तकीयुद्दीन वाहीद की ईस्ट-वेस्ट एअरलाइंस और दमानिया एअर जैसी कंपनियों ने उड़ान भरना शुरू कर दिया। कमजोर पूंजीगत आधार वाली इन कंपनियों ने ज्यादा से ज्यादा बाजार-हिस्सेदारी हथियाने के लिए लागत से कम कीमत पर सस्ती उड़ानों का संचालन किया। लिहाजा एक साल के भीतर ही तीनों कंपनियां दिवालिया हो गर्इं। 2003 में सस्ते किरायों के जरिए मशूहर होने वाली एयर डेक्कन भी थोडेÞ समय बाद ही आर्थिक बवंडर में फंस गई और 2007 में विजय माल्या की किंगफिशर एअरलाइंस ने एअर डेक्कन का अधिग्रहण कर लिया। खस्ताहाल सहारा एअरलाइंस का अधिग्रहण नरेश गोयल की जेट एयरवेज ने कर लिया, वहीं 2009 में दक्षिण भारत के मीडिया मुगल कलानिधि मारन ने एक और बीमार कंपनी स्पाइस जेट में 1,300 करोड़ रुपए चुका कर निर्णायक हिस्सेदारी खरीद ली। भारतीय विमानन क्षेत्र के संकट की जड़ें इन्हीं विलय-अधिग्रहणों में फैली हुई हैं। विमानन क्षेत्र को निजी निवेश के लिए खोलने के बाद इस क्षेत्र की आधारभूत जानकारी लिए बिना ही कई कारोबारियों ने विमानन कंपनियां शुरू कर दीं और संकट में फंसने पर अपना फंदा दूसरी कंपनियों के गले में डाल कर चलते बने। मिसाल के तौर पर एयर डेक्कन-किंगफिशर एअरलाइंस और जेट एयरवेज-सहारा एअरलाइंस सौदों को लिया जा सकता है।
अपने यहां विमानन कंपनियों की बदहाल माली हालत के बचाव में तर्क दिया जा रहा है कि विमानन कारोबार पूरी दुनिया में घाटे का सौदा है, जबकि हकीकत यह है कि मंदी के बावजूद विमानन उद्योग ने वैश्विक स्तर पर उम्दा प्रदर्शन किया है। क्वांटस, लुफ्थहांसा, एयर अरेबिया, सिंगापुर एअरलाइंस, साउथवेस्ट और एमिरेट्स जैसी बड़ी विमानन कंपनियां फायदे में हैं। दरअसल, भारतीय विमानन कंपनियों के बढ़ते घाटे का एक कारण बेहद प्रतिस्पर्द्धा भी है। बाकी देशों में एक या दो विमानन कंपनियों का आसमान पर अधिकार है वहीं भारतीय आकाश में छह विमानन कंपनियों के बीच कड़ा मुकाबला है। कोई भी कंपनी अपनी बाजार-हिस्सेदारी खोने के लिए तैयार नहीं है और इसी वजह से ग्राहकों को लुभाने के लिए लागत से भी कम कीमत पर हवाई यात्रा की पेशकश की जाती है। पिछले साल विमानन र्इंधन की कीमतों में चालीस फीसद का इजाफा हुआ है, जबकि इसी अवधि में हवाई किरायों में दस फीसद की गिरावट आई है। सस्ते किरायों की जंग का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के कई हवाई मार्गों पर विमान-किराए प्रथम श्रेणी के रेल भाडेÞ और पांचसितारा बसों के किरायों से भी कम हैं।   
कर्ज के दलदल में फंसने पर किंगफिशर एअरलाइंस ने सहायता के लिए सरकार के सामने हाथ फैला रखे हैं, मगर जनता के पैसे से निजी कंपनी को राहत देने की कोशिशों का जोरदार विरोध हो रहा है। दरअसल, निजी कंपनी को राहत पैकेज देने से अर्थव्यवस्था में गलत संदेश जा सकता है और कई कंपनियां 'मानसिक आघात' की ओर तरफ बढ़ सकती हैं। 'मानसिक आघात' पूंजीवादी कारोबार का सिद्धांत है जिसमें कंपनियां बेहतर दिनों में किसी भी तरह के सरकारी नियंत्रण का विरोध करते हुए मुनाफा कमाती हैं, लेकिन संकट में फंसने पर सरकार की शरण में जाती हैं। 2008 की आर्थिक मंदी और उसके बाद दुनिया भर में करदाताओं के पैसे से शुरू हुआ राहत पैकेजों का सिलसिला इसी सिद्धांत की व्यावहारिकता पर मोहर लगाता है। जर्जर आर्थिक हालत वाली भारतीय विमानन कंपनियों के पास देश में बढ़ रही मांग को पूरा करने के संसाधन नहीं हैं। 2011 में भारतीय विमानन कंपनियों की क्षमता में तीन फीसद का इजाफा हुआ है वहीं इस दरम्यान यात्रियों की संख्या में सत्रह फीसद की बढ़ोतरी हुई है। भोपाल, कोयंबटूर, आगरा, बरेली, पटना और गुवाहाटी जैसे दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों में अब भी विमानन सेवाओं का पूरी तरह विस्तार नहीं हो पाया है और भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ने के साथ ही विमानन सेवाओं की मांग भी बढ़ती जाएगी। चीन में जहां इस समय 1,100 यात्री विमान हैं वहीं भारत में महज सात सौ। 
भारतीय विमानन उद्योग की सफलतम उड़ान के लिए सरकार को कई मोर्चों पर काम करने की जरूरत है। सबसे बडेÞ सुधार के रूप में   विमानन उद्योग पर लागू कर प्रणाली को तार्किक बनाए जाने की जरूरत है। विमानन र्इंधन पर लगा भारी-भरकम शुल्क, हवाई अड््डा विकास शुल्क, किरायों पर ऊंचा कर और विदेशी हवाई अड्डों से र्इंधन भरवाने पर लगी रोक जैसे नियमों में समयानुकूल बदलाव करने की जरूरत है। 
देश में हवाई यात्रा की बढ़ती मांग के साथ तालमेल बिठा कर आधारभूत ढांचे मसलन हवाई अड््डों की क्षमता में विस्तार, विमानों की खरीद में सबसिडी, देश के प्रमुख हवाई अड््डों पर विमान-मरम्मत सुविधाओं का विस्तार, वायुमार्ग परिवहन नियंत्रण प्रणाली में सुधार और छोटे शहरों में विमानन सेवाओं के विस्तार पर काम करना होगा। विमानन उद्योग के सही संचालन के लिए देश में एक स्वतंत्र विनियामक बनाए जाने की जरूरत है। यह विनियामक इस क्षेत्र के विकास की योजनाएं बनाने के साथ ही विमानन कंपनियों की गलत नीतियों पर भी नजर रख सकेगा।

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