Tuesday, 03 April 2012 10:44 |
चंदन प्रताप सिंह इसमें कोई शक नहीं कि ममता बनर्जी की छवि चमकाने में पश्चिम बंगाल के मीडिया ने अहम भूमिका निभाई। स्थानीय मीडिया ने इस बात को भी छिपाया कि ममता ने अपने राजनीतिक गुरु सुब्रतो मुखर्जी के साथ क्या सलूक किया। एक समय पश्चिम बंगाल में सुब्रतो के नाम का डंका बजता था। उन्हीं सुब्रतो ने ममता को सियासत सिखाई। लेकिन जब सुब्रतो के दिन लदे तो ममता ने उनसे मुंह फेर लिया। बेशक अपनी पार्टी में उन्हें जगह दी लेकिन उन पर भरोसा कभी नहीं किया। सुब्रतो मुखर्जी जब कोलकाता के मेयर चुने गए तो अपने खास पार्थो चटर्जी से जासूसी करवाई। हद तो यह हो गई कि लोकसभा के लिए चुने गए तृणमूल कांग्रेस के कई नेता ममता से बहुत वरिष्ठ हैं, सियासत में भी और उम्र में भी, एक-दो तो 1971 में सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन जब केंद्र में मंत्री बनाने की बात आई तो उनमें से किसी को नहीं बनाया। यहां तक कि सौगत राय भी राज्यमंत्री ही बनाए गए। लेकिन मीडिया ने इस मामले को तूल नहीं दिया। समर्थक अखबार दीदी के गुणगान में ही लगे रहे। ममता के ताजा फैसले को लेकर यहां तक कहा जा रहा है कि जो पाबंदियां आपातकाल के दौरान नहीं लगीं, वे अब लगाई जा रही हैं। दरअसल, सत्ता में आने से पहले मीडिया से घुल-मिल कर रहने वालीं ममता बनर्जी मीडिया को समझ ही नहीं पार्इं। किसी भी आंदोलन से पहले अपने सहयोगियों के जरिए मीडिया से संपर्क साधने वाली ममता को यह लगने लगा था कि मीडिया तो उन्हीं के इशारे पर नाचेगा। लेकिन उन्हें जल्द ही समझ में आ गया कि यह होने से रहा। क्योंकि मीडिया को जो दिखेगा, वह उसे छापेगा और दिखाएगा। उसका काम ही सरकार की खामियों को जनता के सामने लाना और यह बताना है कि जिसे उसने चुन कर भेजा है, वह उसके साथ क्या कर रहा है। उसकी गाढ़ी कमाई का कैसे बेजा इस्तेमाल कर रहा है। अखबारों और समाचार चैनलों में अपनी आलोचना देखना ममता को गवारा नहीं हुआ। पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में जब बच्चों की मौत हुई तो मीडिया ने इसे प्रमुखता से दिखाया और छापा। मीडिया का यह तेवर मुख्यमंत्री को रास नहीं आया। गुस्से में आकर वे जो बोल गर्इं, वह एक मुख्यमंत्री को कतई नहीं कहना चाहिए। तमतमाई ममता बनर्जी ने कहा कि बच्चों की मौत तो वाममोर्चा सरकार के दौरान भी होती थी। उनके इस बयान को पश्चिम बंगाल की जनता ने पसंद नहीं किया। हद तो तब हो गई, जब अपनी पढ़ाई-लिखाई पर नाज करने वाले बांग्लाभाषी समाज ने दसवीं की परीक्षा में खुलेआम 'टुकली' यानी नकल होते हुए देखी। इसके चित्र देखने के बाद लोगों को शिक्षा का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। इन दोनों घटनाओं से सरकार की बहुत किरकिरी हुई। इसलिए ममता ने यह कहने में तनिक गुरेज नहीं किया कि मीडिया वाले धड़धड़ाते हुए अस्पतालों में चले जाते हैं, स्कूलों में चले जाते हैं, और खबर बेचने के लिए फर्जी खबरें बना कर दिखाते हैं। असल में ममता बनर्जी को अहसास हो गया है कि उनकी छवि बिगड़ने लगी है। पर वे अपनी कार्यशैली के प्रति सचेत होने के बजाय मीडिया पर गुस्सा उतार रही हैं। पुस्तकालय तो बहाना है। शायद वे यह बताना चाहती हैं कि जो अखबार और पत्रकार सरकारी भोंपू नहीं बनेंगे, उनके साथ यही होगा। क्योंकि ढाई हजार पुस्तकालयों में इन अखबारों के जाने या न जाने से इनके मालिकों और पत्रकारों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे प्रसार और पाठकों की संख्या पर भी फर्क नहीं पडेÞगा। फर्क पडेÞगा तो विज्ञापनों पर। किसी भी अखबार या चैनल के लिए विज्ञापन बेहद अहम होता है। गैर-सरकारी और सरकारी विज्ञापन एक तरह से मीडिया की रीढ़ होते हैं। इसलिए ममता ने संकेतों से जाहिर कर दिया है कि आने वाले दिनों में रेल के विज्ञापन, राज्य सरकार के विज्ञापन और निविदाओं के विज्ञापन से हाथ धोने के लिए ये अखबार अभी से मन बना लें। |
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निर्ममता का पाठ
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