Tuesday, 24 September 2013 10:45 |
खुर्शीद अनवर अट्ठाईस फरवरी को अपने बयान में निजामी ने कहा कि जमात-ए-इस्लामी सजा-ए-मौत की मुखालफत करती है और दुनिया के कई देशों की तरह बांग्लादेश में भी सजा-ए-मौत पर पाबंदी लगनी चाहिए। अजीब रुख अपनाया जमात-ए-इस्लामी ने। दिलावर हुसैन सईदी को सजा-ए-मौत न हो इसलिए जमात-ए-इस्लामी ने सजा-ए-मौत की ही मुखालफत शुरू कर दी। सत्रह सितंबर को कादिर मुल्ला को सजा-ए-मौत सुनाए जाने के बाद अठारह और उन्नीस सितंबर को जमात-ए-इस्लामी के सहयोगी हिफाजत-ए-इस्लाम और छात्र शिबिर ने सजा-ए-मौत के खिलाफ ढाका और बांग्लादेश के अन्य शहरों में प्रदर्शन शुरू कर दिए। कौन हैं ये लोग, जिन्हें मौत की सजा दी गई? इसके अगले ही दिन जमात-ए-इस्लामी ने शेख हसीना की भर्त्सना करते हुए इसे इस्लाम-विरोधी कदम करार दिया और एलान किया कि वे ऐसे कार्यक्रम लागू नहीं होने देंगे। इनके सहयोगी संगठन हिफाजत-ए-इस्लाम ने इसके विरोध में ढाका में एक विशाल रैली की, जिसमें न केवल सरकारी संस्थाओं पर हमले हुए बल्कि सड़क पर मौजूद किसी भी महिला को पकड़ कर उसे बेइज्जत किया गया। लेकिन फिलहाल इनके तांडव का मुख्य केंद्र उत्तरी बांग्लादेश है। उत्तरी बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी, हिफाजत-ए-इस्लाम और छात्र शिबिर ने पिछले छह महीनों से बेहद आक्रामक रुख अपना रखा है। शाहबाग आंदोलन की शुरुआत के साथ ही जमात-ए-इस्लामी ने फरवरी से लेकर अब तक ढाका समेत पूरे बांग्लादेश को हड़ताल की गिरफ्त में ले रखा है। युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने जिन बारह आरोपियों पर कार्रवाई की है वे सभी जमात-ए-इस्लामी से ही संबद्ध हैं। शाहबाग आंदोलन के दौरान जब पूरे मार्च महीने में मुक्ति वाहिनी के योद्धाओं की विधवाएं, बूढ़ी मांएं, बेटियां, बूढ़े बाप या जवान बेटे इंसाफ की मांग लेकर दिन-रात शाहबाग चौक पर आंदोलन कर रहे थे तो उसी समय छात्र शिबिर और हिफाजत-ए-इस्लाम के 'नए रजाकार' इन लोगों के घरों पर हमले कर रहे थे। शाहबाग आंदोलन के लिए ब्लॉग चलाने वाला नौजवान अहमद राजीव हैदर छात्र शिबिर के हाथों मौत के घाट उतार दिया गया। आंदोलनकारियों ने हैदर की लाश शाहबाग चौक के बीचोंबीच लाकर रख दी। पंद्रह मार्च को तीन लाख से ज्यादा लोग ब्लॉगर हैदर को श्रद्धांजलि देने शाहबाग चौक पहुंचे। इसी दौरान शाहबाग आंदोलन शाहबाग चौक से भी आगे बढ़ कर ढाका की सड़कों और गलियों तक फैल गया। रजाकारों ने इन बहादुरों के खिलाफ जगह-जगह मार्चे तैयार किए। जमात-ए-इस्लामी के ये रजाकार गुंडे इंसाफ की मांग कर रहे लोगों पर देसी बम और पत्थरों की बारिश करते रहे। लाखों लोगों के कत्ल के लिए जिम्मेवार दिलावर हुसैन सईदी को मौत से बचाने के लिए ये इस्लामी ठेकेदार फिर मौत का खेल खेलने लगे, और दुहाई मानवाधिकार की! एलान इस बात का कि हम मौत की सजा के खिलाफ हैं! जमात-ए-इस्लामी के अत्याचारों की पराकाष्ठा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बांग्लादेश का नारी आंदोलन, जो शुरू से ही सजा-ए-मौत के खिलाफ रहा है, उसने बयान दिया कि हां हम सजा-ए-मौत के खिलाफ आज भी हैं लेकिन जमात के रजाकारों के गुनाह इतने बड़े हैं कि हम दिलावर हुसैन सईदी की सजा-ए-मौत का विरोध नहीं करेंगे। शाहबाग आंदोलन के जन-जागरण मंच ने चौक से एलान किया कि जीने का हक सबको है लेकिन हम इन बारह जघन्य अपराधियों के लिए फांसी की सजा का समर्थन करते हैं। इस संगठन का इतिहास खून में डूबा हुआ है। 1941 से लेकर आज तक भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी यही खूनी खेल खेलती आई है। इनके मदरसे मासूम बच्चों के दिमागों में जहर भरते हैं जो आगे चल कर कट््टरपंथ की राह पकड़ लेते हैं। इसे संयोग कहा जाए या कुछ और, कि इनके काम करने का तरीका ठीक वैसा ही है जैसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। हिफाजत-ए-इस्लाम का काम वही है जो हमारे यहां बजरंग दल करता है। छात्र शिबिर का काम वही है जो भूमिका अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद निभाती है। हिफाजत-ए-इस्लाम के लोग बजरंग दल की तर्ज पर हथियारों से लैस चलते हैं और किसी भी हद तक जाने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती। छात्र शिबिर के लोग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में आतंक मचाते हैं और वह भी खुलेआम हथियारबंद होकर। कादिर मुल्ला को सजा-ए-मौत सुनाए जाने के बाद एक बार फिर जमात-ए-इस्लामी ने हड़तालों का दौर शुरू किया है। दो दिन की हड़ताल में ढाका के अंदर दो मौतें हुर्इं, वह भी गरीब रिक्शाचालकों की। उनका कसूर यह था कि हड़ताल के दिन भी वे रोजी कमाने निकले थे। जमात-ए-इस्लामी वहाबियों की तर्ज पर भी इस्लाम की नए सिरे से व्याख्या कर रही है, जिसके सूत्र मौदूदी की किताब जिहाद-ए-इस्लामी में मौजूद हैं। हुकूमत-ए-इलाहिया के नाम पर ये इंसानियत के मुंह पर कालिख पोतने निकले हैं और नारा है मानवाधिकार का। एलान है कि हम सजा-ए-मौत के खिलाफ हैं! जिन लोगों के हाथ सिर्फ एक देश के अंदर तीस लाख लोगों के खून से रंगे हों, जो पाकिस्तानी सेना के साथ मिल कर कराए गए, जिनके माथे पर लिखा हो कि तीन लाख औरतों के बलात्कार के मुजरिम हैं, वे निकले हैं मानवाधिकार का लिबास पहन कर सजा-ए-मौत की मुखालफत हथगोलों, चाकुओं और अन्य असलहों के सहारे करने! अगर इनकी कोशिशें कामयाब हुर्इं तो बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन की सारी कुर्बानियां बेकार जाएंगी और उसका गौरवशाली इतिहास स्याह भविष्य में डूब जाएगा।
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बांग्लादेश के युद्ध अपराधी
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