Tuesday, April 22, 2014

डॉक्टर बनाम संत: अरुंधति रॉय के निबंध का अंश

डॉक्टर बनाम संत: अरुंधति रॉय के निबंध का अंश

Posted by Reyaz-ul-haque on 4/16/2014 06:14:00 PM


यह कारवां पत्रिका में छपे अरुंधति रॉय के उस लेख का एक अंश है, जो बाबासाहेब आंबेडकरकी किताब एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट की प्रस्तावना के रूप में प्रकाशित हुआ है. इसका अनुवादजितेंद्र कुमार ने किया है. हाशिया के लिए विशेष रूप से उपलब्ध कराने के लिए हम जितेंद्र के आभारी हैं. यह पूरी प्रस्तावना का महज एक छोटा सा अंश है और हाशिया की कोशिश होगी कि यहां पूरी प्रस्तावना पोस्ट की जाए.


एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का उन्मूलन) लगभग अस्सी साल पुराना भाषण है जो कभी दिया नहीं गया। जब मैंने इसे पहली बार पढ़ा था तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई घुप्प अंधेरे कमरे में दाखिल हुआ और इसकी खिड़कियां खोल दी हों। डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर को पढ़ना उस खाई को भरना है, जो ज्यादातर भारतीयों को सिखाए गए विश्वासों और उनके द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में किए गए अनुभवों की सच्चाई के बीच मौजूद है. 

मेरे पिता एक हिंदू थे, एक ब्रह्मो हिंदू। मैं उनसे युवा होने तक नहीं मिली। मैं कम्युनिस्ट पार्टी के शासनवाले राज्य केरल के एक छोटे से गांव आयमनम के एक सीरियन क्रिश्चियन परिवार में अपनी मां के साथ रहते हुए बड़ी हुई। तब भी मेरे चारों ओर जाति की दरारें मौजूद थीं। आयमनम में एक अलग 'परयन' चर्च था जहां 'परयन' पादरी 'अछूत' भक्तों को उपदेश देते थे। जाति की पैठ लोगों के नामों में थी, उनको एक दूसरे को बुलाने के तरीके में, उनके द्वारा किए गए कामों में, उनके पहने जाने वाले कपड़ों में, शादी रचाने में जाति, यहां तक कि भाषा में भी जाति थी। फिर भी जाति का जिक्र हमारी स्कूली किताबों में कहीं नहीं मिलता था। आंबेडकर को पढ़ते हुए मुझे इस बात का पता चला कि हमारी शिक्षा और हमारे व्यवहार के बीच कितनी गहरी खाई मौजूद है। उनको पढ़कर मुझे इसका भी एहसास हुआ कि हमारे समाज में यह दरार क्यों है? साथ ही, यह भी स्पष्ट हो गया कि यह दरार उस वक्त तक वहां मौजूद रहेगी जब तक कि भारतीय समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन न आए।

क्रांतियों की शुरुआत पढ़ने के साथ हो सकती है और ऐसा अक्सर हुआ भी है।  

***

आंबेडकर ने बहुत लिखा। लेकिन दुर्भाग्य से उनकी रचनाएं, गांधी, नेहरू या विवेकानंद की तरह पुस्तकालयों या किताब की दुकानों में उतनी ही आसानी से आपके हाथों में नहीं आ पाती हैं।

विभिन्न खंडों में लिखी गई रचनावली में एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट उनकी सबसे क्रांतिकारी रचना है। अपनी इस रचना में वे सीधे तौर पर हिंदू कट्टरपंथियों या हिंदू अतिवादियों से बहस नहीं करते हैं, बल्कि वह उन उदारवादी हिंदुओं से उलझते हैं जिसे आंबेडकर हिंदुओं में श्रेष्ठतम मानते थे या फिर जिसे अकादमिक जगत में वामपंथी हिंदू कहा जाता है। आंबेडकर कहते थे कि हिंदू शास्त्रों में विश्वास करते हुए अपने को उदार या उदारवादी कहना आपस में विरोधाभासी है। 

जब एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट प्रकाशित हुआ तो जिन्हें समान्यतया 'सबसे महान हिंदू' कहा जाता है यानी महात्मा गांधी, ने आंबेडकर के इस चुनौती पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी। हालांकि उनके बीच की यह कोई नई बहस नहीं थी। यह सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक सोच को लेकर ना खत्म होती बहस की एक पुरानी परंपरा है, जिसके ये दोनों व्यक्ति अपनी पीढ़ी के लिए एक दूत भर थे। 

आंबेडकर, जो खुद अछूत थे, जाति विरोध की उस बौद्धिक परंपरा के वारिस थे जो 200-100 ईसा पूर्व पहले शुरू हुई थी। जाति के बारे में कहा जाता है कि इसका जिक्र ऋग वेद (1200-900 ईसा पूर्व) के पुरुष सूक्त में है और वहीं से इसकी उत्पत्ति हुई है। जाति को पहली चुनौती इसे इसकी उत्पत्ति के एक हजार साल बाद बौद्धों ने दी। इसमें उन्होंने जाति की जगह संघ बनाया जिसमें सभी जाति के लोग शामिल हो सकते थे। बावजूद इसके जाति व्यवस्था फलती-फूलती रही। दक्षिण भारत में बारहवीं शताब्दी के मध्य में बासव के नेतृत्व में वीरशैवों ने जाति को चुनौती दी थी लेकिन उसे कुचल दिया गया। 14वीं शताब्दी से ही भक्ति काल के प्रमुख कवि-संतगण, जैसे- कोखमेला, रविदास, कबीर, तुकाराम, मीरा, जनाबाई- जाति तोड़ो परंपरा के महत्वपूर्ण व लोकप्रिय कवि हुए और आज भी इतने ही महत्वपूर्ण हैं। उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के शुरू में पश्चिम भारत में ज्योतिबा फूले और उनका सत्यशोधक समाज सामने आया था। पंडिता रमाबाई एक मराठी ब्राह्मण थी, शायद भारत की पहली नारीवादी, जिन्होंने हिंदू धर्म को नकारकर ईसाई धर्म को अंगीकार कर लिया था (और बाद में उन्होंने उसे भी चुनौती दी)। स्वामी अछूतानंद हरिहर ने आदि हिंदू आंदोलन के साथ-साथ भारतीय अछूत महासभा की शुरूआत की और पहली दलित पत्रिका अछूत का संपादन भी किया। अय्यनकलि और श्री नारायण गुरु ने मालाबार और त्रावणकोर में पुरानी जाति व्यवस्था की चूलें हिलाकर कर रख दी थी। तमिलनाडु के ज्योति थास जैसे मूर्तिभंजक और उनके बौद्ध अनुयायियों ने तमिल समाज में ब्राह्मण वर्चस्व की जबरदस्त खिल्ली उड़ाई।

आंबेडकर के समकालीनों में जाति विरोधी परंपरा में मद्रास प्रेसिडेंसी के ई वी रामास्वामी नायकर भी थे जिन्हें लोग पेरियार के नाम से जानते हैं, जबकि बंगाल के जोगेन्द्रनाथ मंडल और पंजाब में आदि धर्म की स्थापना करने वाले बाबू मंगू राम ने सिख और हिंदू, दोनों धर्मों को खारिज कर दिया था। यही सब आंबेडकर के लोग थे।

गांधी जाति से वैश्य थे जो हिंदू गुजराती बनिया परिवार में पैदा हुआ थे। वह विशेषाधिकार प्राप्त हिंदू जाति के सुधारकों की लंबी परंपरा के सबसे नवीनतम अवतार थे। सन 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना करने वाले राजा राम मोहन राय, 1875 में आर्य समाज की स्थापना करने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती, 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना करने वाले स्वामी विवेकानंद जैसे अन्य कई समकालीन सुधारवादियों में उनकी गिनती होती है। 

जिन्हें उन दोनों के इतिहास और उसके मुख्य किरदार के बारे में जानकारी नहीं है उन्हें आंबेडकर-गांधी की बहस को समझने के लिए उनके विभिन्न राजनैतिक आयामों को समझने की आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए दो लोगों के बीच की सैद्धांतिक बहस सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच की बहस भर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति बहुत ही अलग हित समूहों का प्रतिनिधित्व करता है और उन दोनों की यह लड़ाई भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण कालखंड में सामने आया। उन्होंने जो कुछ कहा और किया उसका समकालीन राजनीति पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा है और आगे भी पड़ेगा।

उनकी असहमतियां परस्पर विरोधी थे (और रहेंगी भी)। दोनों को अक्सर उनके अनुयायी पूजते भी हैं। दोनों के अपने-अपने गढ़ हैं, जहां एक पक्ष की कहानी दूसरा पक्ष नहीं बताता है जबकि दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।  आंबेडकर गांधी के सबसे दुर्जेय प्रतिवादी थे। उन्होंने गांधी को न सिर्फ राजनीतिक या बौद्धिक रूप से, बल्कि नैतिक रूप से भी चुनौती दी थी। जिस गांधी की कहानी को सुनकर हम लोग पले-बढ़े हैं, उसमें से आंबेडकर को काटना अनर्थ करने जैसा है। उसी तरह आंबेडकर के बारे में लिखते समय गांधी को नजरअंदाज करना आंबेडकर को ही नुकसान पहुंचाना है। क्योंकि आंबेडकर की दुनिया पर गांधी का साया भांति-भांति और अजीबोग़रीब ढंग से पड़ता ही रहा।

***

जैसा कि हम जानते हैं भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के पास एक शानदार नायक था। यहां तक कि उस पर आठ ऑस्कर पुरस्कारों से सम्मानित हॉलीवुड की हिट फिल्म भी बन चुकी है। भारत में, जनमत सर्वेक्षण करना एक प्रिय शगल बन गया है और उन सर्वेक्षणों से हम अपने राष्ट्र के संस्थापक पिताओं (माताओं को नहीं) के दर्जे को मापते हैं और पत्र-पत्रिकाओं में उस लिस्ट को छापते हैं। महात्मा गांधी के कड़े आलोचक हैं लेकिन वे अभी भी चार्ट में सबसे ऊपर विराजमान हैं। दूसरों को इसमें एक बार जगह तक पाने के लिए राष्ट्रपिता को अलग करके एक नई श्रेणी बनानी पड़ती हैः महात्मा गांधी के बाद महानतम भारतीय कौन?

हर जगह डॉ. आंबेडकर को खींच-तान कर अंतिम राउंड में रेस का हिस्सा बनाया जाता है। (रिचर्ड एटेनबरो,जिसने भारत सरकार के आर्थिक सहयोग से गांधी फिल्म बनाई उसमें संजोग से भी आंबेडकर के बारे में जिक्र नहीं है) उन्हें भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए चुना जाता है लेकिन उनकी राजनीति और उस जुनून के लिए नहीं चुना जाता जो उनके जीवन और सोच के मूल में था। आपको निश्चित रूप से इसका एहसास हो जाएगा कि उनकी लिस्टों में उनकी उपस्थिति आरक्षण का नतीजा है यह दिखाने के लिए कि हम वंचितों का भी ध्यान रखते हैं। 

पर जगह देने के वावजूद दबी आवाज़ मे सही उन्हें उपाधियाँ भी दी जाती हैं जैसे: 'अवसरवादी', (क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश वायसराय की कार्यकारी परिषद में 1942-46 के बीच श्रम सदस्य के रूप में सेवा दी थी) 'अंग्रेजों का पिट्ठू' (क्योंकि 1930 के पहले गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने ब्रिटिश सरकार का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था जब कांग्रेसी नमक सत्याग्रह करके कानून तोड़ रहे थे) 'अलगाववादी', (क्योंकि वो अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडल चाहते थे) 'राष्ट्र विरोधी', क्योंकि वह मुस्लिम लीग के पाकिस्तान की मांग और जम्मू-कश्मीर के विभाजन की मांग का समर्थन कर रहे थे।

जिस किसी भी नाम से उन्हें पुकारें, हकीकत यह है कि हम आंबेडकर और गांधी को केवल 'साम्राज्यवाद समर्थक' या 'साम्राज्यवाद विरोधी' कहकर अपना पल्लू नहीं झाड़ सकते। उनके बीच का विवाद, साम्राज्यवाद और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के बारे में हमारी समझ को एक नया नजरिया देती है।

गांधी के प्रति इतिहास काफी उदार रहा है। उनके जीवनकाल में ही लाखों लोगों ने उनकी पूजा की। लगता है कि गांधी को देवता मानने की प्रथा शाश्वत और सार्वभौमिक सी हो गई है। ऐसा ही नहीं कि रूपक ने गांधीनामी मनुष्य को पीछे ही नहीं छोड़ दिया बल्कि रूपक ने तो उस मनुष्य को एक नए रूप में ही ढाल दिया (इसलिए गांधी की आलोचना को सभी गांधीवादियों की स्वतः आलोचना के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए)। गांधी सबके लिए कुछ न कुछ नया बन गये हैं: ओबामा उनसे मोहित है और अमरीकी विरोधी पूंजीवाद आंदोलन भी। अराजकतावादी भी उससे प्यार करते हैं और सत्ता प्रतिष्ठान भी उससे उतना ही प्यार करता है। नरेंद्र मोदी भी उससे प्यार करते हैं और राहुल गांधी को भी उनसे प्यार है। उनसे जितना प्यार गरीब करते हैं उतना ही प्यार अमीर भी करते हैं।

वे यथास्थितिवाद के संत हैं। 

गांधी का जीवन और उनकी लेखनी- उनके 98 खंडों के 48,000 पेजों में सुसंगत कथा की तरह घटना दर घटना, पेज दर पेज, पंक्ति दर पंक्ति लोगों ने 'उपयोग' कर लिया है, जिसमें कि अब कुछ भी सुसंगत नहीं रह गया है (अगर सचमुच ऐसा है तो)। गांधी के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि उन्होंने सब कुछ कहा है और इसके ठीक विपरीत भी कहा है। फलों की तरह उद्धरण बटोरने वालों के लिए गांधी के लेखन में ऐसे-ऐसे विविध तरह फल हैं कि अचरज होने लगता है कि यह कैसा पेड़ है कि एक ही पेड़ में हर तरह के फल हैं!  

उदाहरण के लिए 1946 में उन्होंने बहुप्रचारित लेख 'द पिरामिड वर्सेज द ओशनिक सर्किल' में एक देहाती स्वर्ग का प्रसिद्ध वर्णन है: 

आजादी सबसे नीचे से शुरू होती है। इस प्रकार हर गांव एक पूरा गणराज्य होगा या पंचायत (जिसके पास पूरा अधिकार होगा)। यह हर गांव को आत्मनिर्भर बनाएगा यहां तक कि उसके पास पूरी दुनिया के खिलाफ खुद की रक्षा करने की हद तक प्रबंधन क्षमता होगा… असंख्य गांवों से बनी यह संरचना को कभी आरोही क्रम में चौड़ा तो किया जा सकता है लेकिन उसे अवरोही क्रम में ऊर्ध्वाधर नहीं किया जा सकता है। जीवन नीचे से निरंतर शीर्ष के साथ एक पिरामिड नहीं होगा। इस समुद्रीय सर्किल के केन्द्र में हमेशा व्यक्ति रहेगा जो गांव के लिए अपनी जान कुर्बान कर देगा।... इसलिए सबसे बाहरी परिधि इनर सर्कल को कुचलने के लिए इतना शक्तिशाली नहीं होगा लेकिन भीतर सर्किल सभी को शक्ति देगा और उसे खुद से ही शक्ति भी मिलेगी।

इसके बाद उन्होंने दूसरी जगह जाति व्यवस्था का समर्थन भी किया है। उन्होंने जाति व्यवस्था को नवजीवन में 1921 में अपनी स्वीकृति दी। इस लेख का आंबेडकर ने गुजराती से अनुवाद किया (आंबेडकर ने कई बार कहा कि लोगों के साथ गांधी ने धोखा किया है क्योंकि गांधी की अंग्रेजी और गुजराती लेखनी में काफी अंतर है, जिसकी तुलना करनी चाहिए)।

जाति नियंत्रण का दूसरा नाम है। जाति आनंद में खलल डालती है। जाति एक व्यक्ति को अपने भोग की खोज में जाति की सीमा को लांघने की अनुमति नहीं देती है। जाति का यही नियत्रंण साथ में खाना खाने और आपस में शादी-ब्याह करने से रोकता है। इसलिए मेरी नजर में जो लोग जाति व्यवस्था को खत्म करना चाहते है, मैं उनका विरोध करता हूं।

क्या यह उनके 'हमेशा चौड़ा होने वालो और कभी भी उर्ध्वाधर क्रम नहीं' के विपरीत नहीं है? 

यह अलग बात है कि इन बयानों के बीच पच्चीस वर्ष का लंबा अंतराल है। तो इसका क्या मतलब हुआ कि गांधी में परिवर्तन हुआ है? क्या जाति पर उनका विचार बदल गया? हां, बदला है लेकिन पत्थर पर पड़ी लकीर की तरह काफी धीमे बदला। वह जाति व्यवस्था में पूरी तरह विश्वास करने से केवल इतना ही आगे बढ़े कि उन्होंने यह कहा कि चार हजार जातियाँ, चार वर्णों में (इसे आंबेडकर जाति व्यवस्था का 'जनक' कहते हैं) स्वयं को समाहित कर लें। अपने जीवन के अंतिम दिनों में (जब उनके विचार सिर्फ विचार ही रह गए थे, उनके विचार का राजनीतिक कार्रवाई से कोई मतलब नहीं रह गया था) उन्होंने कहा था कि अब उन्हें जातियों के बीच अंतर-भोजन और अंतरजातीय विवाह से कोई आपत्ति नहीं है। उन्होंने कहा भी कि वह वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते हैं, हालांकि एक व्यक्ति की जाति उसके काम से तय होनी चाहिए न कि उसके जन्म से (यही बात आर्य समाजी भी मानते थे)। आंबेडकर ने गांधी के इस विचार को मूर्खतापूर्ण बताया: 'आप किसी व्यक्ति को उस जगह से नीचे कैसे लाएंगे जिसे उसने जन्म के आधार पर पैदा होने के कारण हासिल किया है। आप उसे नीचे आने के लिए कैसे मजबूर कर सकते हैं?' आप कैसे किसी को जन्म के आधार पर एक कमतर स्थिति में रहने वाले व्यक्ति के लायक की स्थिति में डालने के लिए मजबूर कर सकते हैं? उन्होंने महिलाओं का हवाला देते हुए उनसे पूछा कि आखिर उनकी स्थिति की जानकारी उनसे तय होगी या उनके पति के रुतबे से तय होगी।

गांधी के अछूत प्रेम और अंतरजातीय विवाह के बारे में उनके अनुयायियों और चाहनेवालों के बीच के किस्से-कहानियों को अलग रख दिया जाए तो उन्होंने अपने लेखन के 98 खंडों में कहीं भी बहुत ही निर्णायक रूप से चतुर्वर्ण पर विश्वास करना नहीं छोड़ा। अपनी यौन इच्छा पर नियंत्रण न कर पाने की खामियों के लिए सार्वजनिक और निजी रूप से माफी भी मांगी, लेकिन जाति के बारे में कहकर जो हानि पहुंचाई उसके लिए उन्होंने कभी खेद नहीं जताया।

फिर भी, गांधी के बारे में नकारात्मक बातों को छोड़कर क्यों न उनकी अच्छाई को बाहर लाई जाए और लोगों के अच्छाई को ही प्रोत्साहित किया जाए? यह एक वैध सवाल है। जिन लोगों ने गांधी के नाम का मठ बना लिया है उन्होंने शायद खुद ही इसका जवाब भी दे दिया है। आखिर हम महान संगीतकारों, लेखकों, आर्किटेक्ट, खिलाड़ियों और संगीतकारों के काम की प्रशंसा तो करते ही हैं, भले ही हमारे विचार उनसे न मेल खाते हों। लेकिन यहां फर्क यह है कि गांधी एक संगीतकार लेखक, आर्किटेक्ट या खिलाड़ी नहीं थे।

उन्होंने एक दूरदर्शी, एक फकीर, एक नीतिज्ञ, एक महान मानवतावादी, एक ऐसा मानव जिन्होंने केवल सच्चाई और धर्म के बल पर हथियारों से लैस एक शक्तिशाली साम्राज्य को झुकानेवाले मानव के रूप में हमारे सामने खुद को पेश किया। हम अहिंसक गांधी, सत्यवादी गांधी, भद्र गांधी, उभयलिंगी गांधी, मां स्वरूप गांधी, वो गांधी जिनके बारे में (आरोप) है कि उन्होंने राजनीति का नारीकरण कर दिया जिसके चलते महिलाओं को राजनीति में आने का अवसर मिला,पर्यावरणवादी गांधी, हाजिरजवाब गांधी, एक पंक्ति में कुछ महान विचार कह देनेवाले गांधी के जाति पर विचारों (और कर्मों) के साथ हम कैसे सामंजस्य बैठा सकते हैं? हम क्रूरतम संस्थागत अन्याय की नींव पर सहजता से टिकी हुई नैतिक धर्म की इस संरचना से कैसे पार पा सकते हैं? यह कहना कि गांधी जटिल थे और उसे बस यह कहकर जाने दिया जाना चाहिए? इस बात में शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है कि गांधी एक असाधारण और आकर्षक व्यक्तित्व थे लेकिन क्या उन्होंने स्वतंत्रत आंदोलन के दौरान सत्ता के सच को ललकारा? क्या उन्होंने सचमुच गरीबों में सबसे गरीब लोगों के साथ अपने को जोड़ा था?

आंबेडकर ने कहा था, 'यह सोचना बेवकूफी होगा कि चूंकि कांग्रेस भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ रही है, इसीलिए वह भारत की जनता, ख़ासकर उसकी सबसे गरीब जनता की स्वतंत्रता के लिए भी लड़ रही है।' आंबेडकर ने इसमें आगे जोड़ा, 'इस बात की बहुत अहमियत नहीं है कि कांग्रेस आजादी के लिए लड़ रही है, यह प्रश्न ज्यादा अहमियत रखती है कि वह किसकी आजादी के लिए लड़ रही है।'

1931 में, जब पहली बार आंबेडकर गांधी से मिले तो गांधी ने उनसे कांग्रेस की कड़ी आलोचना करने के कारण के बारे में पूछा (जो शायद उन्होंने यह मानकर पूछा था कि यह आचोलना तो मातृभूमि की लड़ाई की आलोचना है), इसपर आंबेडकर ने अपना मशहूर जवाब दिया था, 'गांधी जी, मेरी कोई मातृभूमि नहीं है।' उन्होंने आगे कहा, 'किसी भी अछूत को ऐसी मातृभूमि पर गर्व का एहसास कैसे हो सकता है?'

इतिहास आंबेडकर के प्रति क्रूर रहा है। पहले उनको सीमित कर दिया और बाद में उन्हें गौरवान्वित किया। इतिहास ने उन्हें भारत के अछूतों का नेता बनाकर रख दिया, कोने में धकेल दी गई बस्तियों (घेटो) का राजा। इसमें उनकी पूरी लेखनी छुप गई। उनकी प्रखर बौद्धिकता और तीक्ष्ण अखड़प्पन को उनसे दूर हटा दिया गया है।

जो भी हो, आंबेडकर के अनुयायियों ने उनकी विरासत को रचनात्मक तरीके से जिंदा रखा है। उन तरीकों में से एक है व्यापक स्तर पर उनकी लाखों प्रतिमाओं का निर्माण करना। आंबेडकर की प्रतिमा एक क्रांतिकारी और जीवंत वस्तु है। यह मूर्त्ति दलितों के लिए उनके हिस्से की जगह ढूंढ़ती है-वास्तविक और आभासी, सार्वजनिक और निजी। दलित आंबेडकर की प्रतिमा लगाकर अपने नागरिक अधिकार की मांग करते हैं, अपनी जमीन की मांग करते हैं, उस पानी की मांग करते हैं जो उनका है, उस समुदायिकता की बात करते हैं जिसमें उनका प्रवेश वर्जित है। जहां कहीं भी आंबेडकर की प्रतिमा स्थापित है, उनके हाथ में किताब मौजूद है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वह एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट नामक किताब नहीं है, जो उन्हें उससे मुक्ति दिलाती है, क्रांतिकारी आवेश पैदा करती है। उनके हाथ में भारत का संविधान है जिसे बनाने में आंबेडकर ने महति भूमिका निभाई थी। ये वो दस्तावेज है- अच्छा या बुरा, जिससे हर भारतीय की जिन्दगी निर्धारित होती है।

संविधान को बदलाव लाने में एक सहायक वस्तु के रूप में इस्तेमाल करना अलग बात है। लेकिन उससे बंध जाना दूसरी बात। आंबेडकर को परिस्थिति ने क्रांतिकारी बना दिया था और इसी के साथ साथ जब भी उन्हें अवसर मिला उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर मजबूत दखलंदाजी की और अपना दावा पेश किया। उनकी विलक्ष्णता उस बात में थी कि उन्होंने दोनों ही पहलूओं को बहुत ही फूर्ति और बेहतरीन क्षमता से इस्तेमाल किया। हालांकि उसे आज के परिपेक्ष्य में देखें तो इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने दोहरी और पेचीदा विरासत छोड़ दिया हैःएक, क्रांतिकारी आंबेडकर और दूसरा संविधान निर्माता आंबेडकर। संविधानवाद क्रांतिकारिता के बीच में अटक सकता है। और दलित क्रांति तो अभी तक हुई ही नहीं है। हम अभी भी उसका इंतजार कर रहे हैं। उससे पहले कोई भी दूसरी क्रांति नहीं हो सकती, भारत में तो नहीं। 

इसका मतलब यह नहीं है कि संविधान लिखना क्रांति नहीं है। यह हो सकता है, यह हो सकता था और आंबेडकर ने वैसा ही करने की बेहतरीन कोशिश भी की। यद्यपि उन्होंने खुद ही स्वीकार भी किया कि इसमें वह पूरी तरह सफल नहीं हुए।

जब देश स्वतंत्रता मिलने की कगार पर पहुंचा तो गांधी और आंबेडकर, दोनों ही अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों और अछूतों के भविष्य को लेकर काफी चिंतित थे, लेकिन एक नए राष्ट्र के उत्पत्ति को लेकर दोनों व्यक्तियों के नजरिए में काफी अंतर था। गांधी राष्ट्र के उत्पति की प्रक्रिया से अपने को लगातार काटते जा रहे थे। उनके लिए कांग्रेस पार्टी का काम पूरा हो गया था। वह पार्टी को भंग कर देना चाहते थे। उनका मानना था (जो सही भी था) कि राजसत्ता का मतलब केंद्रीकृत संगठित हिंसा है। क्योंकि राज्य में इंसानियत नहीं है, आत्मा नहीं है, उसका अस्तित्व ही हिंसा पर आधारित है। गांधी के स्वराज की समझदारी लोगों के आत्मा में बसे होने की है, हालांकि उन्होंने यह माना कि उनके आदमी का मतलब सिर्फ बहुसंख्यक जनता नहीं हैः 

यह कहा जा रहा है कि हिंद स्वराज का मतलब बहुसंख्यक आबादी का शासन होगा, यानी कि हिंदुओं का। यह सबसे बड़ी भूल होगी। अगर यह घटित हो जाता है तो मैं सबसे पहला व्यक्ति होउंगा जो उसे स्वराज मानने से इन्कार कर देगा और इसके खिलाफ पूरी ताकत लगा दूंगा। क्योंकि मेरे लिए हिंद स्वराज का मतलब जनता का शासन है, न्याय का शासन है।

आंबेडकर के लिए, जनता कोई समरूपी श्रेणी नहीं है जो पवित्रता से ओत-प्रोत होती है। वे जानते थे कि गांधी कहने को कुछ भी कहें, उनका मतलब बहुसंख्यक हिंदू है और वही तय करेगा कि स्वराज का स्वरूप क्या होगा। भारत के अछूतों का भविष्य हिंदुओं के उस नैतिक ढकोसले के अलावा और कुछ नहीं होगा, इसका पूर्वाभास आंबेडकर को था। आंबेडकर इससे काफी चिंतित और परेशान भी थे इसलिए वह किसी भी तरह संविधान सभा के सदस्य बन जाना चाहते थे। उस संविधान सभा का सदस्य, जहां वह अपनी बात रख सकें, उस संविधान के प्रारूप में अपनी बात शामिल करा पाएं, जो आने वाले भारत को सचमुच और हकीकत में दिशा निर्धारित करेगा। इसके लिए वह अपने स्वाभिमान को परे करने और अपनी पुरानी विरोधी कांग्रेस पार्टी के प्रति अपने संदेहों को नजरअंदाज करने को तैयार थे। 

आंबेडकर की सबसे बड़ी चिंता संविधान की नैतिकता को जाति रूपी सामाजिक परंपरा के उपर स्थापित करना था। संविधान सभा में भाषण देते समय 17 दिसबंर 1946 को उन्होंने कहा भी था, संविधान की नैतिकता एक सामान्य भावना नहीं है। इसे विकसित करना पड़ेगा। हमें यह स्वीकार करनी चाहिए कि हमारी जनता को इसका आदी होना पड़ेगा। भारत में लोकतंत्र यहां की जमीन पर बारीक परत भर है, जो अपने-आप में अलोकतांत्रिक है।

आंबेडकर सचमुच संविधान के अंतिम प्रारूप से निराश थे। बावजूद इसके उन्हें उसमें अधीनस्थ कुछ जातियों के लिए अधिकार और सुरक्षा डालने का अवसर मिला। ये कुछ चीजें डालकर उन्होंने उसे एक ऐसा दस्तावेज बनाया जो समाज से ज्यादा प्रबुद्ध था (जबकि दूसरों के लिए, जैसे भारत के आदिवासी के लिए वह औपनिवेशिक प्रक्रिया भर थी, लेकिन इसपर बाद में चर्चा करूंगी।) आंबेडकर के विचार का संविधान आज भी बनने की प्रक्रिया में है। टॉमस जेफरसन की तरह उनका भी मानना था कि हर पीढ़ी को अपने लिए अलग संविधान निर्माण करने का अधिकार होना चाहिए अन्यथा इस धरती पर 'जिंदा नहीं मरे लोग ही रह पाएंगे।' समस्या यह है कि जीवित लोगों के बारे में अनिवार्य रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि वे मरे हुए से ज्यादा प्रगतिशील और प्रबुद्ध हैं। आज राजनीतिक और आर्थिक रूप से ऐसे अनेक ताकतें मौजूद हैं, जो इस संविधान को प्रतिगामी तरह से बदलना चाहते हैं।

हालांकि आंबेडकर वकील थे, लेकिन उन्हें कानून बनाने की प्रक्रिया के बारे में कोई गलतफहमी नहीं थी। स्वतंत्र भारत के कानून मंत्री के रूप में उन्होंने हिंदू कोड बिल पर महीनों काम किया। उनका मानना था कि जाति व्यवस्था में महिलाओं को दबा कर रखा जाता है, और इसलिए उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि हिंदू कोड बिल को ऐसा बनाया जाए जिसमें महिलाओं को बराबर का अधिकार हो। उन्होंने अपने बिल में महिलाओं को तलाक देने के प्रस्ताव के अलावा विधवा और बेटी को संपत्ति में अधिकार देने का प्रस्ताव रखा था। संविधान सभा ने इसमें अंड़गा डाल दिया (1947 से 1951 तक) और बाद में तो इसे रोक ही दिया गया। 

राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने धमकी दी कि वह इस बिल को कानून नहीं बनने देगें। हिंदू साधुओं ने संसद पर धरना दे दिया। उद्योगपतियों और जमींदारों ने धमकी दी कि वे अगले चुनाव में सरकार से समर्थन वापस ले लेगें। परिणामस्वरूप आंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। अपने इस्तीफे का कारण बताते हुए उन्होंने कहाः 

जाति और वर्ग की असमानता, लिंग और लिंग के बीच भेदभाव, जो हिंदू समाज की आत्मा है, के बीच की असमानता को खत्म करने की बजाए आर्थिक समस्या के बारे में कानून बनाकर संविधान की खिल्ली उड़ाई जा रही है। ऐसा कानून बनाना लीद के पहाड़ पर महल बनाने जैसा है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आंबेडकर एक ऐसे जटिल, बहुमुखी राजनीतिक संघर्ष में जिसमें, संकीर्णतावाद, संप्रदायवाद, अंधकारवाद और चालबाजियाँ भरी हुई थी, प्रबुद्धता लाने में सफल रहे।

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