Saturday, December 13, 2014

TaraChandra Tripathi मझेड़ा प्रवासी भ्रातृमंडल, हल्द्धानी


मझेड़ा प्रवासी भ्रातृमंडल, हल्द्धानी
पूर्वपीठिका

उत्तराखंड के नैनीताल जनपद में कोशी, खैरना, कालीगाड़ नदियों से परिवृत मझेड़ा गाँव, कभी संस्कृताचार्यों के लिए मध्य ग्राम रहा होगा. कभी यह महर और मजेड़ी जातियों का सन्निवेश था. 17वीं शताब्दी में चन्द नरेश द्वारा अपनी राजसभा के किसी शास्त्रज्ञ विद्वान को यह गाँव और उसके आस-पास का क्षेत्र उपहार में दे दिये जाने पर इस गाँव के महर और मजेड़ी भू-स्वामी इस शास्त्रज्ञ के परिवार के भूदास हो जाने से बचने के लिए अपनी पैतृक भूमि की मिट्टी का एक ढेला राजा के चरणों में अर्पित कर गाँव से चले गये और उक्त शास्त्री ने अपने सम्बन्धियों को इस गाँव में बसा दिया. तब से यह पौरोहित्य­प्रधान ब्राह्मणों का सन्निवेश बन गया. 
मझेड़ा पिछ्ली दो तीन शताब्दियों से क्षेत्र का सबसे सुशिक्षित गाँव रहा है. इस गाँव ने पीढ़ी दर पीढ़ी पूरे इलाके को अनेक शास्त्रज्ञ पंडित, ज्योतिषाचार्य, आयुर्वेदाचार्य, शिक्षक, और जागरूक नागरिक दिये हैं. आजादी के पहले भी इस गाँव ने शत प्रतिशत साक्षरता का प्रतिमान स्थापित किया था. स्वाधीनता आन्दोलन में यहाँ के युवकों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था. भारत रत्न पंडित गोविन्दल्लभ पन्त भी इस गाँव से इतने जुड़े रहे कि रहे कि उन्होंने इस गाँव को अपनी राजनीतिक जन्मभूमि माना .
पर्वतीय क्षेत्र के अन्य गाँवों की तरह इस गाँव की कृषि भी महिलाओं के श्रम पर निर्भर रही है. पौरोहित्य प्रधान होने के कारण हल चलाने को निषिद्ध मानने के कारण पुरुषों ने कभी भी कृषि में सहयोग दिया हो ,ऐसा नहीं रहा. परिणामतः यजमानों के साथ जाड़ों में भाबर की और संक्रमित होने और गर्मियों में अपने मूल ग्रामों की ओर लौटने की परम्परा स्वाधीनता के पूर्व तक बनी रही. पर स्थायी संक्रमण को जो प्रकोप आज दिखाई दे रहा है, इस से पहले कभी नहीं रहा.
विकास और शिक्षा के प्रसार के साथ­-साथ गाँवों से नगरों की ओर प्रव्रजन आज एक विश्वव्यापी समस्या बन चुका है. लोग अपनी शैक्षिक उपलब्धि और आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार ग्रामों से नगरों की ओर, नगरों से महानगरों की ओर और महानगरों से विश्व के विकसित देशों की ओर अनवरत संक्रमित होते जा रहे है. पिछले 30-­40 वर्षों में मझेड़ा से भी लगभग 75 प्रतिशत परिवार हल्द्वानी तथा देश के अन्य नगरों में बस गये हैं. 
ग्रामीण जीवन में शताब्दियों के अन्तराल में पल्लवित पारस्परिकता, जन्मभूमि से जुड़ाव, विशिष्ट पहचान, आत्मीयता और सामाजिक सौमनस्य और क्षेत्रीय समरसता के स्थान पर अपरिचय और अलगाव बढ़्ता जाता है. प्रवासी जनों की पहली पीढ़ी में अपनी मूल भूमि, संगी­साथियों, उत्सवों, परम्पराओं से बिछुड जाने की जो कसक दिखाई देती है वह उन की अगली पीढि़यों में अनवरत क्षीण होती जाती है और दो एक पीढि़यों के बाद लगभग समाप्त हो जाती है. अत: हल्द्वानी में बस गये इस गाँव के प्रवासियों द्वारा अपनी
अगली पीढि़यों में, अपने पैतृक गाँव, उसके निवासियों और परम्पराओं से जुड़ाव को बनाये रखने, और वहाँ रह रहे बन्धु-­बान्धवों की ऐहिक और आमुस्मिक समुन्नति मे यथा सामर्थ्य सहयोग देने के लिए इस संस्था 'मझेड़ा प्रवासी भ्रातृमंडल', का गठन किया गया है.मझेड़ा प्रवासी भ्रातृमंडल, हल्द्धानी
पूर्वपीठिका
उत्तराखंड के नैनीताल जनपद में कोशी, खैरना, कालीगाड़ नदियों से परिवृत मझेड़ा गाँव, कभी संस्कृताचार्यों के लिए मध्य ग्राम रहा होगा. कभी यह महर और मजेड़ी जातियों का सन्निवेश था. 17वीं शताब्दी में चन्द नरेश द्वारा अपनी राजसभा के किसी शास्त्रज्ञ विद्वान को यह गाँव और उसके आस-पास का क्षेत्र उपहार में दे दिये जाने पर इस गाँव के महर और मजेड़ी भू-स्वामी इस शास्त्रज्ञ के परिवार के भूदास हो जाने से बचने के लिए अपनी पैतृक भूमि की मिट्टी का एक ढेला राजा के चरणों में अर्पित कर गाँव से चले गये और उक्त शास्त्री ने अपने सम्बन्धियों को इस गाँव में बसा दिया. तब से यह पौरोहित्य­प्रधान ब्राह्मणों का सन्निवेश बन गया. 
मझेड़ा पिछ्ली दो तीन शताब्दियों से क्षेत्र का सबसे सुशिक्षित गाँव रहा है. इस गाँव ने पीढ़ी दर पीढ़ी पूरे इलाके को अनेक शास्त्रज्ञ पंडित, ज्योतिषाचार्य, आयुर्वेदाचार्य, शिक्षक, और जागरूक नागरिक दिये हैं. आजादी के पहले भी इस गाँव ने शत प्रतिशत साक्षरता का प्रतिमान स्थापित किया था. स्वाधीनता आन्दोलन में यहाँ के युवकों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था. भारत रत्न पंडित गोविन्दल्लभ पन्त भी इस गाँव से इतने जुड़े रहे कि रहे कि उन्होंने इस गाँव को अपनी राजनीतिक जन्मभूमि माना .
पर्वतीय क्षेत्र के अन्य गाँवों की तरह इस गाँव की कृषि भी महिलाओं के श्रम पर निर्भर रही है. पौरोहित्य प्रधान होने के कारण हल चलाने को निषिद्ध मानने के कारण पुरुषों ने कभी भी कृषि में सहयोग दिया हो ,ऐसा नहीं रहा. परिणामतः यजमानों के साथ जाड़ों में भाबर की और संक्रमित होने और गर्मियों में अपने मूल ग्रामों की ओर लौटने की परम्परा स्वाधीनता के पूर्व तक बनी रही. पर स्थायी संक्रमण को जो प्रकोप आज दिखाई दे रहा है, इस से पहले कभी नहीं रहा.
विकास और शिक्षा के प्रसार के साथ­-साथ गाँवों से नगरों की ओर प्रव्रजन आज एक विश्वव्यापी समस्या बन चुका है. लोग अपनी शैक्षिक उपलब्धि और आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार ग्रामों से नगरों की ओर, नगरों से महानगरों की ओर और महानगरों से विश्व के विकसित देशों की ओर अनवरत संक्रमित होते जा रहे है. पिछले 30-­40 वर्षों में मझेड़ा से भी लगभग 75 प्रतिशत परिवार हल्द्वानी तथा देश के अन्य नगरों में बस गये हैं. 
ग्रामीण जीवन में शताब्दियों के अन्तराल में पल्लवित पारस्परिकता, जन्मभूमि से जुड़ाव, विशिष्ट पहचान, आत्मीयता और सामाजिक सौमनस्य और क्षेत्रीय समरसता के स्थान पर अपरिचय और अलगाव बढ़्ता जाता है. प्रवासी जनों की पहली पीढ़ी में अपनी मूल भूमि, संगी­साथियों, उत्सवों, परम्पराओं से बिछुड जाने की जो कसक दिखाई देती है वह उन की अगली पीढि़यों में अनवरत क्षीण होती जाती है और दो एक पीढि़यों के बाद लगभग समाप्त हो जाती है. अत: हल्द्वानी में बस गये इस गाँव के प्रवासियों द्वारा अपनी
अगली पीढि़यों में, अपने पैतृक गाँव, उसके निवासियों और परम्पराओं से जुड़ाव को बनाये रखने, और वहाँ रह रहे बन्धु-­बान्धवों की ऐहिक और आमुस्मिक समुन्नति मे यथा सामर्थ्य सहयोग देने के लिए इस संस्था 'मझेड़ा प्रवासी भ्रातृमंडल', का गठन किया गया है.मझेड़ा प्रवासी भ्रातृमंडल, हल्द्धानी
पूर्वपीठिका
उत्तराखंड के नैनीताल जनपद में कोशी, खैरना, कालीगाड़ नदियों से परिवृत मझेड़ा गाँव, कभी संस्कृताचार्यों के लिए मध्य ग्राम रहा होगा. कभी यह महर और मजेड़ी जातियों का सन्निवेश था. 17वीं शताब्दी में चन्द नरेश द्वारा अपनी राजसभा के किसी शास्त्रज्ञ विद्वान को यह गाँव और उसके आस-पास का क्षेत्र उपहार में दे दिये जाने पर इस गाँव के महर और मजेड़ी भू-स्वामी इस शास्त्रज्ञ के परिवार के भूदास हो जाने से बचने के लिए अपनी पैतृक भूमि की मिट्टी का एक ढेला राजा के चरणों में अर्पित कर गाँव से चले गये और उक्त शास्त्री ने अपने सम्बन्धियों को इस गाँव में बसा दिया. तब से यह पौरोहित्य­प्रधान ब्राह्मणों का सन्निवेश बन गया. 
मझेड़ा पिछ्ली दो तीन शताब्दियों से क्षेत्र का सबसे सुशिक्षित गाँव रहा है. इस गाँव ने पीढ़ी दर पीढ़ी पूरे इलाके को अनेक शास्त्रज्ञ पंडित, ज्योतिषाचार्य, आयुर्वेदाचार्य, शिक्षक, और जागरूक नागरिक दिये हैं. आजादी के पहले भी इस गाँव ने शत प्रतिशत साक्षरता का प्रतिमान स्थापित किया था. स्वाधीनता आन्दोलन में यहाँ के युवकों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था. भारत रत्न पंडित गोविन्दल्लभ पन्त भी इस गाँव से इतने जुड़े रहे कि रहे कि उन्होंने इस गाँव को अपनी राजनीतिक जन्मभूमि माना .
पर्वतीय क्षेत्र के अन्य गाँवों की तरह इस गाँव की कृषि भी महिलाओं के श्रम पर निर्भर रही है. पौरोहित्य प्रधान होने के कारण हल चलाने को निषिद्ध मानने के कारण पुरुषों ने कभी भी कृषि में सहयोग दिया हो ,ऐसा नहीं रहा. परिणामतः यजमानों के साथ जाड़ों में भाबर की और संक्रमित होने और गर्मियों में अपने मूल ग्रामों की ओर लौटने की परम्परा स्वाधीनता के पूर्व तक बनी रही. पर स्थायी संक्रमण को जो प्रकोप आज दिखाई दे रहा है, इस से पहले कभी नहीं रहा.
विकास और शिक्षा के प्रसार के साथ­-साथ गाँवों से नगरों की ओर प्रव्रजन आज एक विश्वव्यापी समस्या बन चुका है. लोग अपनी शैक्षिक उपलब्धि और आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार ग्रामों से नगरों की ओर, नगरों से महानगरों की ओर और महानगरों से विश्व के विकसित देशों की ओर अनवरत संक्रमित होते जा रहे है. पिछले 30-­40 वर्षों में मझेड़ा से भी लगभग 75 प्रतिशत परिवार हल्द्वानी तथा देश के अन्य नगरों में बस गये हैं. 
ग्रामीण जीवन में शताब्दियों के अन्तराल में पल्लवित पारस्परिकता, जन्मभूमि से जुड़ाव, विशिष्ट पहचान, आत्मीयता और सामाजिक सौमनस्य और क्षेत्रीय समरसता के स्थान पर अपरिचय और अलगाव बढ़्ता जाता है. प्रवासी जनों की पहली पीढ़ी में अपनी मूल भूमि, संगी­साथियों, उत्सवों, परम्पराओं से बिछुड जाने की जो कसक दिखाई देती है वह उन की अगली पीढि़यों में अनवरत क्षीण होती जाती है और दो एक पीढि़यों के बाद लगभग समाप्त हो जाती है. अत: हल्द्वानी में बस गये इस गाँव के प्रवासियों द्वारा अपनी
अगली पीढि़यों में, अपने पैतृक गाँव, उसके निवासियों और परम्पराओं से जुड़ाव को बनाये रखने, और वहाँ रह रहे बन्धु-­बान्धवों की ऐहिक और आमुस्मिक समुन्नति मे यथा सामर्थ्य सहयोग देने के लिए इस संस्था 'मझेड़ा प्रवासी भ्रातृमंडल', का गठन किया गया है.

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Census 2010

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors