Saturday, July 3, 2010

खबर बनाते हुए सुनाने की आदत

खबर बनाते हुए सुनाने की आदत

http://bhadas4media.com/article-comment/5587-naunihal-sharma.html

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: भाग 25 : पलाश दादा अपनी प्रखरता से जल्द ही पूरे संपादकीय विभाग पर छा गये। उनकी कई खूबियां थीं। पढ़ते बहुत थे। जन सरोकारों से उद्वेलित रहते थे। जुनूनी थे। सिस्टम से भिडऩे को हमेशा तैयार रहते। शोषितों-वंचितों की खबरों पर उनकी भरपूर नजर रहती। उनके अंग्रेजी ज्ञान से नये पत्रकार बहुत आतंकित रहते थे। बोऊदी (सविता भाभी) की शिकायत रहती कि उनकी तनखा का एक बड़ा हिस्सा अखबारों-पत्रिकाओं-किताबों पर ही खर्च हो जाता है। पलाश दा के संघर्ष के दिन थे वे। नया शहर, नया परिवेश, मामूली तनखा और ढेर सारा काम। पर उन्होंने कभी काम से जी नहीं चुराया। वे पहले पेज के इंचार्ज हुआ करते थे। उनके साथ नरनारायण गोयल, राकेश कुमार और सुनील पांडे काम करते थे। इनमें से कोई एक डे शिफ्ट में होता। वह अंदर का देश-विदेश का पेज देखता। उनके साथ होता कोई नया उपसंपादक।


कभी पहले पेज की टीम का कोई छुट्टी पर होता, तो किसी और डेस्क से किसी उपसंपादक को पेज एक पर भेजा जाता। आम तौर पर लोग उससे बचने की कोशिश करते, क्योंकि पलाशदा अनुवाद बहुत कराते थे। अगर कोई उनसे कहता कि भाषा या वार्ता का तार (टेलिप्रिंटर पर आने वाली खबर) आने का इंतजार कर लिया जाये, तो वे कहते, 'जो खबर आ गयी है, उसे आगे बढ़ा दिया जाये। सबके हिन्दी टेक (तार का ही एक और नाम) का इंतजार करते रहे, तो सारी खबरें बनाने के लिए इकट्ठी होती रहेंगी।'

अनुवाद करने से रमेश गोयल और विवेक शुक्ला पीछे नहीं हटते थे। विवेक की अंग्रेजी अच्छी थी। गोयलजी का तो दावा था कि उन्होंने 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के अनिल माहेश्वरी को भी अंग्रेजी सिखायी है। पलाशदा पीटीआई, यूएनआई, भाषा और वार्ता एजेंसियों के टेलिप्रिंटरों के तार बहुत तेजी से छांटते थे। मैंने नौनिहाल को तार छांटते देखा था और जल्दी छंटाई की तरकीब भी उनसे सीखी थी। पर पलाशदा का कोई मुकाबला नहीं था। उनके सामने तारों का ढेर होता। बिजली की तेजी से उन पर आंखें घूमतीं और साथ-साथ चलते हाथ। सैकड़ों खबरों को मिनटों में छांट डालते।
सबको खबरें बांटकर लीड खुद बनाने बैठ जाते। लिखते भी बहुत तेज थे। उनकी लिखावट घसीट वाली थी। ऑपरेटरों को उसका आदी होने में जरा वक्त लगा। पर उसके बाद तो उनमें और उनकी खबर चला रहे ऑपरेटर में कई बार होड़ लग जाती। छपते-छपते कोई बड़ी खबर पीटीआई पर आ जाती, तो पलाशदा उसका अनुवाद करते जाते। रमेश या ओमप्रकाश चपरासी एक-एक पेज ऑपरेटर को दे आता। जब तक ऑपरेटर उसे कंपोज करता, तब तक उसके पास दूसरा पेज आ जाता।

सुनील पांडे बहुत मनोयोग से अनुवाद करते। पहले पूरी खबर पढ़ डालते। फिर महत्वपूर्ण अंशों को अंडरलाइन करते। उसके बाद अनुवाद करना शुरू करते। रमेश गौतम बहुत साफ कॉपी लिखते थे। छोटे-छोटे अक्षरों की अपनी सुंदर लिखावट में वे पहले बहुत नफासत से पेज नंबर और कैच वर्ड डालते। फिर अपना ओरिजिनल इंट्रो लिखते। खूब सोचकर। एकदम क्रिएटिव इंट्रो। इसमें उन्हें आधा घंटा लगता। फिर 600-700 शब्द की खबर लिखने में 20 मिनट से ज्यादा नहीं लगते थे।

2 सितंबर, 1985 को संत हरचंद सिंह लौंगोवाल की हत्या पर गौतमजी की लिखी खबर का इंट्रो मुझे अब तक याद है- 'संत हरचंद सिंह लौंगोवाल ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से शांति समझौता करके जो पहल की थी, आज उसका कत्ल कर दिया गया।  अपने गांव लौंगोवाल के पास शेरपुर गांव के गुरुद्वारे में खालिस्तानी उग्रवादियों की बंदूकों से निकली गोलियों ने केवल लौंगोवाल की ही  जान नहीं ली, बल्कि उग्रवाद से जूझ रहे इस राज्य की शांति की उम्मीद पर भी जानलेवा हमला किया। खुशियों के सूरज की आस लगा रहे पंजाब के सामने एक बार फिर लंबी अंधेरी सुरंग आ गयी है।'

यह खबर किसी एजेंसी की नहीं थी। गौतमजी ने एजेंसियों की तमाम खबरें पढ़कर इसे अपने मन से लिखा था। उन्होंने यह इंट्रो सबको पढ़कर सुनाया। नौनिहाल ने उनसे कॉपी लेकर देखी। और मुझसे बोले, ये देख, ये है इंट्रो। आज दिल खुश हो गया। सबको मेरी तरफ से चाय। उन दिनों जागरण में कैंटीन नहीं थी। चाय पीने हमें गोल मार्केट जाना पड़ता था। यह सामूहिक चाय होती। मतलब सब कंट्रीब्यूट करते। पर कभी-कभी किसी की तरफ से चाय की पार्टी होती, तो रमेश चपरासी गोल मार्केट से केटली में चाय ले आता। तो गौतमजी के उस इंट्रो ने सबको दफ्तर में ही चाय पिलवा दी।

रतीश झा खबर लिखते हुए बहुत गंभीर दिखते। वे इंट्रो और हैडिंग लिखने के बाद उन्हें अलग-अलग कोण से मुंह बनाकर पढ़ते। वह देखने लायक सीन होता। वे एक पैरा लिखते और फिर जांघ पर खुजाते। यह उनकी आदत थी। कभी-कभी खबर लिखने के दौरान ही उन्हें ख्याल आता कि सब्जियां महंगी हो गयी हैं। (वे तब मेरठ में अकेले ही रहते थे। खाना खुद बनाते। एक वक्त तो दही-चूड़ा तय ही था। पर एक वक्त पूरा खाना बनाते। इसलिए उन्हें सब्जियों के ताजा दाम हमेशा रटे रहते।) और फिर वे हर चीज की कीमत बताते। इसका मुझे यह फायदा होता कि जब मम्मी से महंगाई के बारे में बताता, तो वे चकित रह जातीं कि पत्रकार बनकर सब चीजों का पता कैसे चल जाता है!

विभाग में कुछ लोग ऐसे भी थे, जिनकी अंग्रेजी कमजोर थी। वे मन ही मन मनाते रहते कि पलाशजी या नन्नू भाई की शिफ्ट में ना पड़ जायें। आखिर वे ही अंग्रेजी से सबसे ज्यादा अनुवाद कराते थे। अशोक त्रिपाठी और द्विवेदी जी भाषा और वार्ता की खबरें बहुत तेजी से बनाते थे। रमेश गोयल को खबर बनाते हुए सबको खबर सुनाने की आदत थी। एक नमूना देखिए - अरेत्तेरे की! चंडीगढ़ में एक औरत को चार बच्चे हुए। राम-राम! हे भगवान! कैसे पालेगी बेचारी। यहां हमारे दो ही नाक में दम किये रहते हैं।

लोकल डेस्क के इंचार्ज अभय गुप्त बहुत गंभीरता से खबर लिखते। उन्हें बीच में किसी की आवाज जरा भी पसंद नहीं थी। कोई बोलता, तो वे कहते, 'बंधु, बातें बाद में। पहले काम। काम खत्म हो जाये, तो हम सब मिलकर बातें करेंगे।'

विश्वेश्वर कुमार अपनी मूंछों को सहलाते हुए खबरें बनाता। ओ. पी. सक्सेना गुनगुनाते हुए। उसे अचानक कोई गीत सूझ जाता और वह उसकी लाइनें भी साथ-साथ लिखता जाता।

मंगलजी हर पेज का काम देखते रहते। लेकिन उनकी नजर रहती लोकल पर ही। वे लोकल खबरों को पाठकों की नब्ज मानते थे। पर वे हर पेज की खबरों में रुचि रखते। हैडिंग देखते। उनमें बदलाव कराते। किसी का काम समझ में न आता, तो कहते, 'तुमने कर ली पत्रकारी!' लेकिन सबसे मजेदार होता नौनिहाल को खबर लिखते देखना। चूंकि वे सुन नहीं सकते थे, इसलिए बिना किसी बाधा के वे काम में लगे रहते। उनकी खूबी यह थी कि वे सबसे पहले हैडिंग लिखते। वैसे खबर का हैडिंग आखिर में लिखा जाता है।

लेकिन नौनिहाल का स्टाइल अलग था। हैडिंग वे बहुत कलात्मक ढंग से लिखते। मानो कोई पेंटिंग बना रहे हों। सभी शब्दों के ऊपर शिरोरेखा एक ही लाइन के रूप में होती। वक्राकार। कुछ पल हैडिंग को देखकर वे खबर लिखना शुरू करते। बहुत छोटे और खूबसूरत अक्षरों में। मैंने आज तक इतनी सुंदर लिखावट नहीं देखी। एक पेज पर बाकी लोग करीब 300 शब्द लिखते।

नौनिहाल के एक पेज पर कम से कम 800 शब्द होते। उनकी लिखी खबर पढ़कर ऐसा लगता, मानो किसी बहुत टेस्टी डिश का स्वाद लिया जा रहा हो, या कोई शानदार पेंटिंग देखी जा रही हो। और इस सबको वे खुद भी बहुत एंजॉय करते थे!

लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क bhuvtyagi@yahoo.comThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए किया जा सकता है.


जार्ज, जया और लैला... तमाशा जारी है....

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:  पिंजड़े में बूढ़े 'शेर' की सूनी आंखें! :  कई बार वक्त ऐसा त्रासद मोड़ लेता है कि दहाड़ लगाने वाला शेर भी 'म्याऊं-म्याऊं' बोलने के लिए मजबूर हो जाता है। जब कभी ऐसे मुहावरे किसी की जिंदगी के यथार्थ बनने लगते हैं, तो उलट-फेर होते हुए देर नहीं लगती। शायद ऐसा ही बहुत कुछ स्वनाम धन्य जार्ज फर्नांडीस की जिंदगी में इन दिनों घट रहा है। इमरजेंसी के दौर में शेर कहे जाने वाले इस शख्स को लेकर 'अपने' ही फूहड़ खींचतान में जुट गए हैं। अल्जाइमर्स और पार्किंसन जैसी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे जार्ज एकदम लाचार हालत में हैं। जो कुछ उनके आसपास हो रहा है, उसका कुछ-कुछ अहसास उन्हें जरूर है। इसका दर्द उनकी सूनी-सूनी आंखों में अच्छी तरह पढ़ा भी जा सकता है।

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खबर बनाते हुए सुनाने की आदत

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: भाग 25 : पलाश दादा अपनी प्रखरता से जल्द ही पूरे संपादकीय विभाग पर छा गये। उनकी कई खूबियां थीं। पढ़ते बहुत थे। जन सरोकारों से उद्वेलित रहते थे। जुनूनी थे। सिस्टम से भिडऩे को हमेशा तैयार रहते। शोषितों-वंचितों की खबरों पर उनकी भरपूर नजर रहती। उनके अंग्रेजी ज्ञान से नये पत्रकार बहुत आतंकित रहते थे। बोऊदी (सविता भाभी) की शिकायत रहती कि उनकी तनखा का एक बड़ा हिस्सा अखबारों-पत्रिकाओं-किताबों पर ही खर्च हो जाता है। पलाश दा के संघर्ष के दिन थे वे। नया शहर, नया परिवेश, मामूली तनखा और ढेर सारा काम। पर उन्होंने कभी काम से जी नहीं चुराया। वे पहले पेज के इंचार्ज हुआ करते थे। उनके साथ नरनारायण गोयल, राकेश कुमार और सुनील पांडे काम करते थे। इनमें से कोई एक डे शिफ्ट में होता। वह अंदर का देश-विदेश का पेज देखता। उनके साथ होता कोई नया उपसंपादक।

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मीडिया को रोक रहे हैं पुलिस व नक्सली

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पुलिस और नक्सली, दोनों अब मीडिया पर शिकंजा कसने में लगे हैं. इसकी बानगी छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में औड़ाई में हुई नक्सली घटना के बाद देखने को मिली. वहां मीडियाकर्मियों को जाने से रोक दिया. एक तरफ तो नक्सलियों का तालिबानी चेहरा साफ नजर आ रहा है दूसरी ओर पुलिस ने भी मीडियाकर्मियों को रोक कर अपने अलोकतांत्रिक चेहरे का दर्शन कराया है.

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फिर लौटेंगे छोटे से ब्रेक के बाद

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कई बार लगने लगता है कि चीजें यूं ही चलती चली जा रही हैं, बिना सोचे-विचारे. तब रुकना पड़ता है. ठहरना पड़ता है. सोचना पड़ता है. भड़ास4मीडिया को लेकर भी ऐसा ही है. करीब डेढ़-दो महीने पहले भड़ास4मीडिया के दो साल पूरे हुए, चुपचाप. कोई मकसद, मतलब नहीं समझ आ रहा था दो साल पूरे होने पर कुछ खास लिखने-बताने-करने के लिए. पर कुछ सवाल जरूर थे, जिसे दिमाग में स्टोर किए हुए आगे बढ़ते रहे, चलते रहे. पर कुछ महीनों से लगने लगा है कि जैसे चीजें चल रही हैं भड़ास4मीडिया पर, वैसे न चल पाएंगी. सिर्फ 'मीडिया मीडिया' करके, कहके, गरियाके कुछ खास नहीं हो सकता. बहुत सारे अन्य सवाल भी हैं.

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आरु तन्ग पदक्कम वेल्लुवदर्कु नन्द्री...

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नौनिहाल शर्मा: भाग 24 : मेरठ में अखिल भारतीय ग्रामीण स्कूली खेल हुए, तो मेरे लिए वह मेरठ में सबसे बड़ा खेल आयोजन था। एक हफ्ते चले इन खेलों की मैंने जबरदस्त रिपोर्टिंग की। मैं सुबह आठ बजे स्टेडियम पहुंच जाता। चार बजे तक वहां रहकर रिपोर्टिंग करता। वहां से दफ्तर जाकर पहले दूसरे खेलों की खबरें बनाता। फिर मेरठ की खबरें। सात बजे तक यह काम पूरा करके फिर स्टेडियम जाता। लेटेस्ट रिपोर्ट लेकर आठ बजे दफ्तर लौटता। इन खेलों की खबरें अपडेट करता। पेज बनवाकर रात 11 बजे घर पहुंचता।

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लाइबेरिया - सोमालिया सा भारतीय मीडिया

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हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं तो इसके जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सरकुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सरकुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सरकुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी।

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सेठजी, मीडिया ना बन जाइए

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Alok Tomar : करोड़ों रुपये फूकेंगे पर लाभ चवन्नी का ना मिलेगा : यकीन न हो तो मीडिया के इस इतिहास को पढ़िए : टीवी चैनलों की दुनिया में इतनी भीड़ हो गई है कि उसका हिसाब नहीं। जिसके पास जिस धंधे से दस बारह करोड़ रुपए बचते हैं, टीवी चैनल खोल देता है। एक साहब ने तो बाकायदा उड़ीसा में चिट फंड घोटाला कर के मुंबई का एक चलता हुआ टीवी चैनल हथियाने की कोशिश की मगर सफल नहीं हुए।

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पत्रकारिता या दलालीकारिता

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चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया का जो स्वरूप अब देखने को मिलता है उससे लगता है अब ये पेशा सिर्फ उन लोगों के लिये है जो कम पढ़े लिखे हैं और उनको कोई अन्य काम नहीं मिलता. ऐसे लोगों का सोचना ये है कि किसी तरह से पत्रकार बन जाओ, फिर जेब गर्म ही गर्म. दिल्ली और नोएडा से प्रसारित होने वाले ज्यादातर न्यूज चैनल्स में सेलरी पर कार्य करने वाले रिपोर्टर्स को छोड़ कर जिले स्तर पर काम वाले जितने भी स्ट्रिंगर रखे जाते हैं, ज्यादातर की न तो कोई शैक्षिक योग्यता होती है और ना ही उन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव होता है.

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भारतीय मीडिया

खबर बनाते हुए सुनाने की आदत

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: भाग 25 : पलाश दादा अपनी प्रखरता से जल्द ही पूरे संपादकीय विभाग पर छा गये। उनकी कई खूबियां थीं। पढ़ते बहुत थे। जन सरोकारों से उद्वेलित रहते थे। जुनूनी थे। सिस्टम से भिडऩे को हमेशा तैयार रहते। शोषितों-वंचितों की खबरों पर उनकी भरपूर नजर रहती। उनके अंग्रेजी ज्ञान से नये पत्रकार बहुत आतंकित रहते थे। बोऊदी (सविता भाभी) की शिकायत रहती कि उनकी तनखा का एक बड़ा हिस्सा अखबारों-पत्रिकाओं-किताबों पर ही खर्च हो जाता है। पलाश दा के संघर्ष के दिन थे वे। नया शहर, नया परिवेश, मामूली तनखा और ढेर सारा काम। पर उन्होंने कभी काम से जी नहीं चुराया। वे पहले पेज के इंचार्ज हुआ करते थे। उनके साथ नरनारायण गोयल, राकेश कुमार और सुनील पांडे काम करते थे। इनमें से कोई एक डे शिफ्ट में होता। वह अंदर का देश-विदेश का पेज देखता। उनके साथ होता कोई नया उपसंपादक।

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Palash Biswas
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