Saturday, October 29, 2011

तासीर की हत्या और फासीवाद की आहटें

तासीर की हत्या और फासीवाद की आहटें

April 27th, 2011
http://www.samayantar.com/2011/04/27/tasira-ki-hatya-aur-phasiwad-ki-aahaten/

विचार

अशोक कुमार पाण्डेय

फासीवादी और गैरफ ासीवादी दक्षिणपंथ में असली अंतर यह है कि फ ासीवाद निचले तबके की भीड़ को आंदोलित करके अस्तित्वमान होता है। यह निश्चित तौर पर लोकतांत्रिक और लोकलुभावन राजनीति के युग से जुड़ा हुआ है। पारंपरिक प्रतिक्रियावादी इन राजनैतिक व्यवस्थाओं का फ ायदा उठाते हैं और 'जैविक राज्य' के समर्थक इनके अतिक्रमण का प्रयास करते हैं। फ ासीवाद अपने पीछे जनता को भारी संख्या में ले आने में गौरवान्वित महसूस करता है। "फ ासिस्ट समाज के उस तबके को संबोधित करते हुए जो खुद को सामाजिक नीतियों का शिकार समझते हैं, समाज के पूर्ण रूपांतरण की मांग करते हुए, यहां तक कि अपनी संस्थाओं के नाम और चिन्ह सामाजिक क्रांतिकारियों के तर्ज पर रखते हुए (ध्यान रहे कि हिटलर की पार्टी का नाम 'सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी' और झंडा लाल था तथा सत्ता में आने पर इसने 1933 में पहली मई को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया था) प्रतिक्रांति के क्रांतिकारी होते हैं। ( एरिक हाब्सबाम, द एज आफ एक्सट्रीम्स, पृ.117-118)''
ओरहान पामुक के उपन्यास स्नो में एक प्रसंग है। देश में सर उठा रहे दक्षिणपंथ के दौर में एक छोटे से कस्बे में 'हिजाब पहनने वाली लड़कियों को कालेज में प्रतिबंधित करने' वाले सरकारी आदेश का सख्ती से पालन करने वाले कालेज के निदेशक की हत्या के इरादे से आया एक धर्मांध युवा उनसे पूछता है, 'क्या संविधान के बनाये नियम खुदा के बनाये नियम से ऊपर हैं?' निदेशक के तमाम तर्कों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता और वह उसकी हत्या कर देता है। पिछले दिनों दिल्ली की एक पत्रकार निरुपमा पाठक के अपने विजातीय प्रेमी से विवाह के फैसले से नाराज उसके पिता ने भी अपने पत्र में लिखा था कि 'संविधान तो बस 60 वर्ष पुराना है, हमारा जीवन तो हजारों वर्ष पुरानी मनुस्मृति तथा पुराणों से संचालित होता है।' बाद में निरुपमा की भी रहस्यपूर्ण स्थितियों में मृत्यु हो गयी। सलमान तासीर की हत्या के विवरण पढ़ते हुए ये संदर्भ मुझे बेहद मानीखेज लगे। 1947 में उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना के साथ जिन उदारवादी मूल्य-मान्यताओं के आधार पर हमारी राजनैतिक संरचना निर्मित हुई थी, आधी सदी बीतने के साथ-साथ उन आधारों में बड़ी गहरी और स्पष्ट दरारें साफ देखी जा सकती हैं। पाकिस्तान में जिया उल हक के समय जिस तरह उदारवाद को निर्णायक रूप से तिरोहित कर इस्लामी कट्टरवाद को स्थापित किया गया उसके परिणाम आज साफ तौर पर देखे जा सकते हैं और भारत के लिये, खासतौर पर आर एस एस के नेतृत्व में पिछली सदी से उभरे आक्रामक दक्षिणपंथ के मद्देनजर इस परिघटना के गंभीर निहितार्थ हैं।
सलमान तासीर और आशिया बीबी वाले प्रकरण पर पहले थोड़ा विचार कर लेते हैं। 31 मई, 1944 को शिमला में जन्मे सलमान तासीर पाकिस्तान के एक उदारवादी प्रगतिशील परिवार से ताल्लुक रखते थे। पाकिस्तान के प्रमुख प्रगतिशील नेता एम डी तासीर उनके पिता थे। उनकी मां बिलकिस तासीर एक ब्रिटिश थीं और फैज अहमद फैज की पत्नी एलिस फैज की सगी बहन। पिता की मृत्यु के बाद उनका लालन-पालन फैज अहमद फैज की सरपरस्ती में ही हुआ। इसका असर उनकी मानसिक बनावट पर भी पड़ा और वह शुरू से उदारवादी विचारों के रहे। वियतनाम के हमले के समय वह अमेरिकी दूतावास पर पत्थर फेंकने वालों में शामिल रहे तो अयूब खान की तानाशाही के खिलाफ उन्होंने लाहौर की दीवारों पर नारे लिखे। उनका राजनैतिक कैरियर जुल्फि कार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ 1960 के दशक के अंतिम वर्षों में शुरू हुआ और जिया उल हक ने जब भुट्टो को गिरफ्तार किया तो उसके खिलाफ चले आंदोलन में सलमान तासीर ने प्रमुख भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने भुट्टो की राजनीतिक जीवनी भी लिखी और बेनजीर भुट्टो के साथ मिलकर पीपुल्स पार्टी का आधार फि र से खड़ा करने में प्रमुख भूमिका निभाई। इस दौरान वह कई बार नजरबंद और गिरफ्तार किये गये तथा एक बार उन्हें लाहौर किले में छह महीनों तक जंजीरों में जकड़ कर भी रखा गया। 1988 के आम चुनावों में वह पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार के रूप में लाहौर से चुनाव जीते और फिर 2007 में वह केंद्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाये गये। 5 मई, 2008 को उन्हें पीपुल्स पार्टी गठबंधन सरकार में पंजाब प्रांत का गवर्नर बनाया गया। राजनीति के साथ-साथ उन्होंने व्यापार में भी काफी सफलताएं प्राप्त कीं और वह कई चैनलों तथा अंग्रेजी दैनिक पीपुल्स डेली के मालिक थे। पाकिस्तान की राजनीति में वह एक उदारवादी नेता के रूप में जाने जाते थे जिन्होंने हमेशा कट्टरपंथ का विरोध किया और देश के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की खुलकर वकालत की। इसकी वजह से वह हमेशा ही कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे। आशिया बीबी के मसले से पहले भी वह अहमदियों को गैर मुस्लिम करार देने वाली संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठा चुके थे। लेकिन आशिया बीबी के मसले पर उन्होंने एक टीवी चैनल पर दिये साक्षात्कार में जिस तरह कुख्यात 'ईशनिंदा कानून' की मुखालफत की वह कट्टरपंथियों को बेहद नागवार गुजरा। जिस समय पाकिस्तान में इस मुद्दे पर कट्टरपंथियों ने पूरे देश में एक पागलपन का माहौल बना रखा था और वहां के राजनैतिक दल तथा तमाम प्रगतिशील तबकों ने होठ सिले हुए थे, उस दौर में सलमान तासीर का आशिया बीबी के पक्ष में खुलकर सामने आना, उससे मिलने के लिये जेल में जाना तथा उसकी प्राण रक्षा के लिये कानूनी पहल करना इन ताकतों के लिये असहनीय था। माहौल का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दक्षिणी वजीरिस्तान के एक तालिबानी कमांडर ने अपने बयान में कहा कि 'अगर तासीर की हत्या कादरी ने न की होती तब भी उनका जल्दी ही मारा जाना तय ही था' और कभी तालिबान के कट्टर शत्रु रहे बरेलवी संप्रदाय के प्रतिनिधि संगठन जमात अहले सुन्नत ने तासीर को काफि र करार देते हुए न केवल उनके हत्यारे को 'इस्लाम के नायक' के रूप में महिमा मंडित किया बल्कि उनकी शवयात्रा तथा अंतिम प्रार्थना में शामिल होने से रोकने के लिये फ तवा भी जारी किया। आश्चर्य है कि इन सबके खिलाफ पाकिस्तान के संवैधानिक शासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। इन हालात में राबर्ट मैकनामरा की वह बात याद आती है कि 'लोकतंत्र को असली खतरा आवश्यकता से अधिक प्रबंधन से नहीं बल्कि इससे कम प्रबंधन से है। वास्तविकता का आवश्यकता से कम प्रबंधन इसे स्वतंत्र रखना नहीं है। इसका बस इतना मतलब है कि आप तर्क के अलावा कुछ दूसरी ताकतों को वास्तविकता गढऩे का काम दे देते हैं। अगर लोग तर्कों से संचालित नहीं होंगे तो वे अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पायेंगे। यह लोकतंत्र के लिये घातक होगा। ( देखें नोम चाम्स्की की किताब फॉर रीजन्स आफ स्टेट )'
आसिया बीबी का किस्सा भी हैरतअंगेज है और यह पाकिस्तान की कानून व्यवस्था के खोखलेपन के साथ-साथ धर्म के राजनीति के नेतृत्वकर्ता होकर उभरने या फि र तर्क के ऊपर आस्था को सम्मान देने से पैदा हो सकने वाली स्थितियों की ओर साफ इशारा करता है। अब जबकि भारत में भी आस्था घरों की दहलीज लांघकर न्यायालय के बार रूम से न्यायधीश के फैसलों के पन्नों तक पहुंच चुकी है तो इसे समझना तथा इसके खतरों से आगाह होना हमारे लिये एक नष्ट होते पड़ोसी की निंदा का पड़ोसी धर्म निभाना नहीं बल्कि अपने भविष्य को उस जैसा होने से रोकने की तैयारी का हिस्सा है।
आसिया बीबी एक ईसाई महिला है। एक गरीब खेतिहर मजदूर। जून-2008 में एक दिन काम के दौरान उसकी किसी साथी ने पानी लाने के लिये कहा। वह ले आई। लेकिन उसकी कुछ मुस्लिम मजदूर साथियों ने उसे गैर मुस्लिम होने के नाते नापाक कहकर उसके हाथ से पानी पीने से मना कर दिया। इस बात पर उनकी आपस में कुछ कहा-सुनी हो गयी और उसके विरोधी पक्ष ने उसके ऊपर पैगंबर के अपमान का आरोप लगा दिया। मामले ने सांप्रदायिक रूप ले लिया, भीड़ ने उसके साथ मारपीट की, निर्वस्त्र करके गांव में घुमाया तथा बलात्कार भी किया गया। लेकिन पुलिस ने संरक्षण देने की जगह उसे गिरफ्तार कर लिया और पाकिस्तान की शेखपुरा अदालत ने उसे 'ईशनिंदा कानून' के तहत फ ांसी की सजा दे दी। मामला अभी लाहौर हाई कोर्ट में है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा हुई है। मजेदार बात यह है कि आशिया ने अपनी कथित 'ईशनिंदा' में कहा क्या था, यह किसी को नहीं मालूम। क्योंकि उन शब्दों को दुबारा कहने वाला भी उस कानून की जद में आ जाता है। लेकिन इसके बावजूद दूसरे पक्ष के आरोप को सही तथा पर्याप्त मानते हुए जिला अदालत ने उसे सजा दी है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि 'ईशनिंदा कानून' पाकिस्तान में भुट्टो के तख्तापलट के बाद जिया उल हक के शासनकाल में बनाये गये थे। जिया उल हक ने पाकिस्तान को एक इस्लामी मुल्क बनाने के लिये संविधान में व्यापक तब्दीलियां कीं। गरीबी, अशिक्षा, बेकारी और आर्थिक तबाही से जूझते लोगों के आक्रोश को दबाये रखने के लिये धर्म का बेतहाशा प्रयोग किया गया। स्कूली पाठ्यक्रमों में इस्लामी शिक्षा को शामिल करने से लेकर देश के प्रगतिशील तबकों की आवाज दबाने के लिये मध्यकालीन बर्बर कानूनों की पुनस्र्थापना तक की गयी और पाकिस्तान के पूरे राजनैतिक-सामाजिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया गया। अफ गानिस्तान की रूस समर्थित उदारवादी सरकार के खिलाफ लड़ रहे तालिबान कट्टरपंथियों को पाकिस्तान का समर्थन इसी दौर में शुरु हुआ जिसके फ लस्वरूप 'जिहाद' जैसी धार्मिक शब्दावली के सहारे वहां गरीब-बेरोजगार पाकिस्तानी युवाओं को लडऩे के लिये भेजा गया, इसकी धमक अफ गानिस्तान से कश्मीर तक सुनाई दी। आज तासीर की हत्या का उत्सव मनाते युवा उसी दौर की ट्रेनिंग और कंडिशनिंग की उपज हैं। इसे पढ़ते हुए आपको आर एस एस द्वारा संचालित शिशु मंदिरों में बच्चों की की जा रही कंडिशनिंग, समाज में आस्था के शोर के बरक्स तार्किकता के स्पेस के लगातार घटते जाने, हिन्दू धर्म की रक्षा के उन्मादी नारों और प्रज्ञा ठाकुर से लेकर असीमानंद तक की याद आना स्वाभाविक है। सत्ता में होने पर वह किस तरह सारी संस्थाओं को नष्ट करके उनका धार्मिककरण करना चाहता है उसकी झलक भाजपा शासित राज्यों में लागू की गयी तमाम नीतियों में साफ देखी जा सकती है। बावजूद इसके कि भारत का लोकतंत्र पाकिस्तान की तुलना में अधिक प्रौढ़ और परिपक्व है, के ंद्रीय सत्ता पर अनन्य अधिकार आर एस एस को अपनी योजनायें फ लीभूत करने का मौका प्रदान कर सकता है तथा यहां भी उसके वैसे ही भयावह प्रतिफ ल देखे जा सकते हैं।
खैर, बात 'ईशनिंदा कानून' की हो रही थी। पाकिस्तान के संविधान में ईशनिंदा के विभिन्न प्रावधानों में आर्थिक दंड से लेकर मौत की सजा तक के प्रावधान हैं। इस कानून में सरकारी धर्म की किसी भी तरह की निंदा दंडनीय है। धारा 295 के तहत कुरान के अपमान के लिये आजीवन कारावास तक की सजा दी जा सकती है और 295-सी के तहत मुहम्मद साहब का अपमान करने पर सजा ए मौत दी जा सकती है। धारा 298 में अहमदियों को मुसलमानों की तरह व्यवहार करने पर भी सजा का प्रावधान है। अन्य धाराओं में धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाने, किसी व्यक्ति की धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने आदि आरोपों में अलग-अलग सजाओं का प्रावधान है। साथ ही पाकिस्तान के संविधान का आर्टिकिल – 45 राष्ट्रपति को न्यायालय या किसी ट्रिब्यूनल द्वारा दी गयी ऐसी सजा को कम करने या माफी देने का भी अधिकार देता है। वैसे अब तक इन कानूनों के तहत किसी को भी सजा ए मौत नहीं दी गयी है लेकिन 1986 से 2007 के बीच में 647 लोगों पर इस कानून के तहत मुकदमा चलाया गया। इनमें से आधे से अधिक पाकिस्तान के तीन फ ीसदी अल्पसंख्यक समुदाय से आते थे। यहां यह चौंकाने वाला तथ्य भी है कि इनमें बड़ी संख्या महिलाओं की है तथा मुकदमे का फैसला आने से पहले ही इनमें से बीस का कत्ल कर दिया गया। ऐसे ही एक घटनाक्रम में 2010 के जुलाई महीने में फैसलाबाद के एक व्यापारी ने अपने एक कर्मचारी को मुहम्मद साहब की निंदा करते हुए पर्चे मिलने की शिकायत कराई। पुलिस के अनुसार उन पर्चों पर दो सगे ईसाई भाईयों के हस्ताक्षर थे। उन्हें जब गिरफ्तार करके ले जाया जा रहा था तभी उनकी हत्या कर दी गयी। बताया जाता है कि मामला व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा का था। जब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी ने इसकी निंदा की तो पाकिस्तान के एक मौलाना ने उन पर ही ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए उनका सर कलम कर दिये जाने की मांग की। ऐसे ही 4 अगस्त, 2009 को नजीबुल्लाह नामक एक व्यापारी की एक भीड़ ने यह आरोप लगाकर हत्या कर दी कि उसने अपनी मेज पर एक पुराना कैलेंडर बिछाया हुआ है जिस पर कुरान की आयतें लिखी हुई थीं। इस मामले की जड़ में भी व्यक्तिगत रंजिश थी। ऐसे ही तमाम मसलों में अल्पसंख्यकों की संपत्ति कब्जाने तथा व्यक्तिगत दुश्मनियां निकालने के लिये इस कानून का भारी पैमाने पर दुरुपयोग किया गया।
तासीर बुद्धिजीवियों तथा उदारवादियों के उस तबके का प्रतिनिधित्व करते थे जो इस कबीलाई, मध्यकालीन और बर्बर कानून का पुरजोर विरोध कर रहा था। उनका कहना था कि इसका व्यापक दुरुपयोग हो रहा है और इसे संविधान से हटा दिया जाना चाहिये। जाहिर है कि किसी आधुनिक लोकतांत्रिक देश में ऐसे कानूनों की कोई जगह नहीं होनी चाहिये। आसिया बीबी के संदर्भ में दिये गये इस निर्णय के खिलाफ भी वहां का प्रगतिशील तबका तथा अल्पसंख्यक संगठन अभियान चला रहे थे। इसी के तहत तासीर ने भी उसे बचाने तथा पूर्वोक्त आर्टिकल-45 के तहत उसकी सजामाफी का प्रयास किया था। वह उससे मिलने लाहौर जेल में भी गये थे और उसके साथ एक प्रेस कांफ्रेंस भी की थी। लेकिन आमतौर पर पाकिस्तानी शासक वर्ग में इस मसले पर एक गहरी चुप्पी है। जब यह मसला सामने आया तो राष्ट्रपति जरदारी सहित पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने भी तासीर का कतई साथ नहीं दिया। कानून मंत्री बाबर अवान ने तो साफ तौर पर कहा कि किसी को भी ईशनिंदा कानून में किसी तब्दीली की इजाजत नहीं दी जा सकती। सरकार के भीतर सलमान तासीर के अलावा देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्री शेरी रहमान और वहां के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी ही ऐसे शख्स हैं जिन्होंने खुले तौर पर इन कानूनों की मुखालफत की हिम्मत की है। तासीर की तरह उन्हें भी लगातार धमकियां मिल रही हैं और कट्टरपंथी संगठनों ने उन्हें 'काफिर' तथा 'वाजिब-उल-कत्ल' घोषित किया हुआ है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन कानूनों का खुलेआम समर्थन कर रहा है तथा जो कुछेक अखबार अपने प्रगतिशील नजरिये के लिये जाने जाते हैं वे कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। तासीर को अपनी इसी इंसाफ पसंदगी के लिये जान देनी पड़ी। गत 4 जनवरी को इस्लामाबाद के अपने घर के पास कोहसर बाजार में अपने एक मित्र के साथ दोपहर का भोजन करके लौटते समय उन्हें उनके ही एक अंगरक्षक मलिक मुमताज कादरी ने मार डाला। पंजाब के रहने वाले कादरी ने उनकी हत्या के बाद स्वीकार किया कि इसके पीछे तासीर द्वारा ईशनिंदा कानून का विरोध किया जाना ही था। डान में छपी एक खबर के अनुसार कादरी के संबंध बरेलवी आंदोलन से जुड़े एक धार्मिक संगठन 'दावत-ए-इस्लामी' से थे।
सबसे परेशान करने वाला वाकया उनकी हत्या के बाद का है जब पूरे पाकिस्तान में हत्यारे कादरी को 'इस्लाम के नायक' के रूप में पेश करने की कवायदें शुरु हो गयीं। तालिबानों के विरोधी रहे और उनके खिलाफ लड़ाई में अपने सर्वोच्च नेता सहित तमाम महत्वपूर्ण लोगों की जान गंवा चुके बरेलवी संप्रदाय के मौलवियों सहित देश के 500 से अधिक धार्मिक नेताओं ने कादरी के समर्थन में बयान जारी किया। कभी लोकतंत्र की वापसी के लिये निर्णायक लड़ाई लडऩे वाले वकीलों के बड़े तबके ने कादरी के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान में शिरकत की। देश भर के ब्लाग्स और दूसरे माध्यमों पर तासीर के खिलाफ घृणा अभियान चलाया गया और कादरी के कृत्य को सही साबित करने का प्रयास किया गया। कादरी को आतंकवाद विरोधी अदालत में ले जाने से रोका गया और कुछ लोगों ने तो रास्ते में उस पर गुलाब की पंखुडिय़ां भी बरसाईं। तासीर की अंतिम यात्रा में शामिल होने तक पर प्रतिबंध लगाया गया और तमाम मौलवियों ने उनकी अंतिम प्रार्थना पढऩे से इंकार कर दिया। यह पाकिस्तान के भीतर धार्मिक उन्माद से उपजी घृणा की चरम अभिव्यक्ति थी। इन हालत के बरक्स शेक्सपीयर के उपन्यास जूलियस सीजर में भीड़ का वह उन्मादी आचरण याद आता है जिसमें उन्मादी भीड़ एक षडय़ंत्रकारी कास्का की तलाश करते हुए उसके हमनाम एक सीधे-साधे कवि की हत्या जानते-बूझते कर देती है! खैर इसके बावजूद पूरे पाकिस्तान में सलमान तासीर के पक्ष में आवाजें उठीं और सारी धमकियों के बावजूद प्रधानमंत्री गिलानी सहित हजारों लोग उनकी शवयात्रा में शामिल हुए। खासतौर पर अंग्रेजी मीडिया ने भी उनके पक्ष में स्टैंड लिया। इतने मुश्किल दौर में भी पाकिस्तान के भीतर एक उदारवादी सिविल सोसाइटी की उपस्थिति थोड़ा संतोष तो देती ही है।
भारत के लिये इस पूरे वाकये के बेहद महत्वपूर्ण मायने हैं। पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार हामिद मीर जब तासीर की तुलना अरुंधती राय और बिनायक सेन से करते हैं तो यह साफ हो जाता है। हमारे देश में स्थितियां तुलनात्मक रूप से काफ ी बेहतर होने के बावजूद पिछले कुछ समय से एक ऐसे ही कट्टरपंथी फासीवाद की आहट साफ सुनाई दे रही है। नब्बे के दशक में नव उदारवादी नीतियों के लागू होने के साथ ही लगातार बढ़ती जा रही गरीबी और बेरोजगारी के साथ-साथ लोकतंत्र से होते जा रहे मोहभंग जैसी स्थितियों ने देश के भीतर दक्षिणपंथी ताकतों को फलने-फूलने के लिये जरूरी खाद-पानी उपलब्ध कराया है। आजादी के बाद से ही समाज के भीतर वैमनस्यता भरने के अपने धीमे अभियान को इस दौर में आर एस एस को आक्रामक आंदोलन में तब्दील करने का पर्याप्त अवसर मिला। वामपंथ तथा अन्य प्रगतिशील तबकों के जनता को आंदोलित कर पाने में भयावह असफलता ने उसे बेरोजगार नौजवानों की 'पीली बीमार फौज' को धार्मिक कट्टरपंथ के हाथों का खिलौना बनाने की अतिरिक्त सुविधा प्रदान की। परिणाम स्वरूप न केवल उसके सामाजिक आधार का विस्तार हुआ बल्कि चुनावी राजनीति में भी वह एक ताकतवर राजनैतिक इकाई के रूप में उभरी। अपने सत्ताकाल में उसने लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट करने के पूरे प्रयास किये तथा न्यायपालिका से लेकर प्रशासन, पुलिस से लेकर सेना तक में घुसपैठ की। अयोध्या फैसले से लेकर तमाम दूसरी जगहों पर इसके असर साफ देखे जा सकते हैं और किसी सक्रिय प्रतिरोध के अभाव में यह आज भी बदस्तूर जारी है। बहुसंख्या के इस सांप्रदायिक उभार के प्रतिक्रियास्वरूप धार्मिक अल्पसंख्यकों के भीतर के कट्टरपंथियों को भी सर उठाने का भरपूर मौका मिला है। इन तबकों के भीतर व्याप्त भय और असुरक्षा ने उनके उदारवादी बुद्धिजीवियों तथा नेताओं की आवाज को कमजोर किया है। कभी मुंबई में रोहिंटन मिस्त्री की किताब जलाकर, कभी केरल में शिक्षक के हाथ काटकर, कभी बुरका न पहनने पर शिक्षिका को कालेज से प्रतिबंधित करके और सेकुलर जैसे तमाम शब्दों को एक घटिया मजाक में तब्दील करके धार्मिक कट्टरपंथ ने आने वाले समय की आहट सुनानी शुरु कर दी है। गैर भाजपाई सरकारों का भी इनके दबाव में आकर समर्पण करते जाना स्थितियों को और विकट तथा जटिल बना रहा है।

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