Wednesday, February 11, 2015

मुहब्बत नहीं है,नहीं,नहीं है किसीसे किसी से किसीकी! मुहब्बत के बहाने बलात्कार ,सामूहिक बलात्कार और निर्मम हत्या की तैयारी है! वैलेंटाइन डे को फूलों के साथ साथ कांटों का भी हिसाब रख लें कि गिनती शुरु कर दें कि धर्मगुरुओं ने वाजिब संख्या बच्चों या पिल्लों


मुहब्बत नहीं है,नहीं,नहीं है किसीसे किसी से किसीकी!
मुहब्बत के बहाने बलात्कार ,सामूहिक बलात्कार और निर्मम हत्या की तैयारी है!
वैलेंटाइन डे को फूलों के साथ साथ कांटों का भी हिसाब रख लें कि गिनती शुरु कर दें कि धर्मगुरुओं ने वाजिब संख्या बच्चों या पिल्लों की अभी तय नहीं की है।वह आपका प्रेम है।
आखेर में एक अदद आम आदमी की चेतावनी है,गौर कर कि कांठालेर आठा लागले परे छाड़े ना कि
मुहब्बत का हर मसीहा दगाबाज है!
तू दगाबाजों पर मुहब्बत जाया न कर!


पलाश विश्वास
नहीं, किसी से किसी को मुहब्बत लेकिन इस मुक्त बाजार में नहीं है।

मुहब्बत नहीं है।नहीं,नहीं है किसी से किसी की।

मुहब्बत के ख्याल में मुहब्बत की मुहब्बत में दीवानगी और जुनून लेकिन हर किसी की जिंदगी की दास्तां हैं।लेकिन सीने में हाथ रखकर ईमानदारी के साथ शायद किसी के लिए भी यह कहना मुश्किल होगा कि अपने सिवाय किस किस के साथ उनकी मुहब्बत रही है।या कभी किसी से हुई मुहब्बत देहगंध के आर पार कीचड़,गोबर माटी में।

हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि हम रसगुल्ले के दीवाने होंगे।

हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि सारे के सारे इंद्रधनुष हमारे लिए है।
हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि सारी की सारी हिमपाती शामें हमारी मुहब्बत के नाम दर्ज है।
हम हर नीली आंखों की जोड़ी पर कुर्बान हो सकते हैं और परियों के पांख से चस्पां हो सकते हैं।
कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि गुलमोहर की छांव में कहीं पल रही होगी हमारी मुहब्बत।
हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि कनेर के फूल में छुपी है  हमारी मुहब्बत।
हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि किसी की एक झलक,किसी खास खिडकी से नैनीझील में प्रतिबिंबित कोू कतरां रोशनी का हमारे नाम लिखा होगा।
कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि सारी नदियां बहती हैं हमारी मुहब्बत के नाम।
कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि घुटनों तक धंसकर धान की रोपाई में होगी कहीं न कहीं मुहब्बत।
कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि गेंहू का गहाई में होगी कहीं न कहीं मुहब्बत।
कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि खेतों की निराई के वक्त उलझे कांटों में होगी मुहब्बत।

किकिकि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि आममान में उमड़ते बादलों में,गहराते मानसून में होगी बरसात मुहब्बत की कभी न कभी।

कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि अंतरिक्ष में उपग्रह प्रक्षेपण से लेकर परमाणु धमाकों और हरित क्रांति में होगी मुहब्बत।

कि हम भोपाल गैस त्रासदी,बाबरी विध्वंस,मुंबई और देश विदेश के दंगों में,तबाह इराक अफगानिस्तान में,फिलीस्तीन में हसीन चेहरों की इबारत पढ़ते रहे बेपनाह कयामत के मंजर में दस दिगंत गुजारात नरसंहार के मध्ये कि कि कि कि कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि मरु आंधी में होगी कोई कहकशां और कहेगी लफ्जों के फूलों में मुसकुराकर कि मुहब्बत है,मुहब्बत है।लेकिन किसी ने नहीं कहा।हर्गिज नहीं कहा।

कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि कृष्णकन्हैया की बांसुरी में होगी मुहब्बत,तो वहां रासलीला के तुरंत बाद शंख निनाद और फिर वही गीता महोत्सव,मनुस्मृति विधान।

हमने सोचा कि चौदह साल के वनवास के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम की देहगंध में होगी मुहब्बत लेकिन सीता तो क्या यशोदा का वनवास देखते रहे हम।

हम सालोंसाल नैनीझील के मिजाज,बदलकते रंग और झीलकिनारे बहती लहलहाती बयार में मुहब्बत खोजते रहे हम और मंहगे होटलों में हानीमून देखते रहे हम।

हमने हर फिल्मी चेहर से मुहब्बत की,हर गोरापन के विज्ञापन से मुहब्बत की ,हम हर आइकन के फैन बन गये हम,हर एंबेसैडर से लेकर बाराक ओबामा और नरेंद्र मोदी तक मुहब्बत के दरवज्जे पर दस्तक देते रहे हम और परमाणु विध्वंस की कगार पर खड़े हो गये हम और गांधी,अंबेडकर और लेनिन से लेकर तमाम पुरखों, कबीर, रहीम, लालन, दादू, गालिब,प्रेमचंद,मुक्तिबोध,गोर्की,मार्टिन लूथर किंग से लेकर नेल्सन मंडेला के कातिल बनकर रह गये हम।

किकिकि मुहब्बत के घनचक्कर में हम पेजथ्री हो गये रहे।

कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि लू में होगी महब्बत की भूस्खलन और भूकंप में होगी मुहब्बत कि सुनामी में होगी मुहब्बत और हम रंग गये नख से सिर तक केसरिया केसरिया।हमें डूब मिली,मिला जलप्रलय,मिली तबाही की सौगात बार बार।

कि कि कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि सुंदरवन या समुदंर में होगी मुहब्बत तो सुंदरवन उजाड़ है और हमारे आदिवासी उखाड़ है और सारे के सारे समुंदर और बंदरगाह बेदखल हैं।

हम सोच रहे थे कि कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि खेतों खलिहानों की हरियाली और फसलों की खुशबू में होगी मुहब्बत लेकिन देश भर में किसान खुदकशी करने लगे।

कि हम सोच रहे थे कि कल कारखानों में होगी मुहब्बत कहीं  न कहीं,एक एक करके कल कारखाने बंद होते रहे और हम तमाशबीन भूख से बिलबिलाते चेहरों पर राजनीति करते रहे।

स्कूलों,कालेजों में कहीं नहीं थी कभी नहीं थी मुहब्बत कि हम बाजारों में खोजते रहे मुहब्बत लेकिन सारा का सारा खुदरा एफडीआई हो गया,सारे बाजार बेदखल।सारा देश एफडीआई हो गया।बिका देश मेरा।बिक गया देश हमारा  हम मुहब्बत में इस कदर बेखबर हो गये।

हमने सोचा कि कि कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि दफ्तरों में होगी मुहब्बत कि निजीकरण विनिवेश से सारे साथी बिछुड़ते रहे,मुहब्बत के ख्वाब बिखरते रहे और हम दिवास्वप्न में हनुमान चालीसा पढ़ते रहे अपनी बारी के इंतजार में।


कि हमें खुशफहमी रही कभी कभार कि तमाम ग्लेशियरों पर मुहब्बत के तमाम गाने दर्ज होंगे और उत्तुंग हिमशिखरों के पार कहीं न कहीं होगा वह स्वर्ग,जहां मुहब्बत की कोई दास्तां मुकम्मल होगी।

मुहब्बत के किस्सों पर हमारे अति प्रिय पंजाब के रंगकर्मी गुरशरण सिंह उंगलियों के आकार से  जो बिंदास तरीक से अपनी नुक्कड़ प्रस्तुतुयों में बताते रहे हैं या अपने अख्तरुज्जमान इलियस या नवारुण दा के किस्सों में जो मुहब्बत की चीड़ फाड़ सामाजिक यथार्थ है या जो तसलिमा नसरीन की आपबीती है,उसका कुल जमा हिसाब लेकिन फिर वही फसाना है कि किसी न किसी बहाने औरत को मुहब्बत के बहाने फंसाना है।

बांग्लादेशी दूसरी आधुनिक  लेखिकाओं मसलन जहांनारा और सेलिना हुसैन ने इसकी आगे चीरफाड़ बेरहम कि है और बताया है कि कैसे घात लगाये मुहब्बत खड़ी है हर नुक्कड़ पर कि अंदरमहल की चहारदीवारी में कि पल छिल पल छिन स्त्री आखेट पुरुषत्व का,पुरुषतंत्रउत्सव गीतामहोत्सव का दिग्विजयी राजसूय है।

निजी कारनामों और कारस्तानियों से जो महामहिम हुजूरान चिराग रोशन हैं हर कहीं दिलोदिमाग में उनकी मुहब्बत की दास्तां का किस्सा भी कुल जमा किस्सा यही है।

हम नाम नहीं करना चाहते,जो अवतार लाखों करोड़ बाजार के मुहब्बती मीनार चारमीनार हैं,उनके पताकाओं को गौर से देखें तो वहां से बह नकिलेगी स्त्री योनि से निकलती असंख्य रक्तनदियां।जिस योनी को हमारा धर्म नरक का द्वार कहे हिचकता नहीं है,मुहब्बत की चाशनी से उसे सराबोर करते हुए उसी पर लिख दिया गया है सभ्यता की इतिहास और जो कार्निवाल है मुक्त बाजार का यह ,वह रंग बिरंगा कंडोम का कारोबार है।

राजनीति उस कारोबार की सबसे बेहतरीन शापिंग माल है।विधाएं कोठे हैं।तो माध्यम भी कोठे बना दिये गये हैं।

यही मुहब्बत निफ्टी है।यही मुहब्बत सेनस्क्स है।यही मुहब्बत हीरक विकास,विकास दर है।उत्तरआधुनिक पाठ है।विशुद्ध धर्म अधर्म है।

कास्टिंग काउच कही भी हैं।दप्तरों और घरों में भी।

हम सबूत बतौर किस्से उघाड़ने लगें तो न जाने किस किस की पाक साफ चादर बीच सड़क खून की नदियां उगल दें।रहने भी दें।

वैलेंटाइन डे को फूलों के साथ साथ कांटों का भी हिसाब रख लें कि गिनती शुरु कर दें कि धर्मगुरुओं ने वाजिब संख्या बच्चों या पिल्लों की अभी तय नहीं की है।वह आपका प्रेम है।

आपके हुजूर में,खास तौर पर हमारी अति प्रिय स्त्रियों को आगाह करने की गरज से कि जाल बिछ चुका है ऐ हसीन परिंदों,अपनी पांख का ख्याल रखना हर उड़ान से पहले।

बच्चा पैदा करने की मशीन के अलावा सभ्यता में नारी की गरिमा कुछ भी नहीं है।

किसी औरत से दरअसल किसी को कोई मुहब्बत नहीं है।

जिन स्त्रियों के साथ उनके प्रिय  पुरुषों का जनम जनम साथ है आस्था औऱ धर्म के मुताबिक,दरअसल वह फतवे को तामील करने की रस्म है और इस रिश्ते में आजादी की कोई खुशबू कहीं नहीं है।हम लिव इन कर रहे हैं।किसी से किसी को मुहब्बत नहीं है।

हमने इस सिलसिले में द्रोपदी दुर्गति लिखा है,उसे नये सिरे से बांच भी लेंः
द्रोपदी दुर्गति गीता महोत्सव

द्रोपदी दुर्गति गीता महोत्सव



दरअसल मुहब्बत के बहाने बलात्कार,सामूहिक बलात्कारऔर निर्मम हत्या की तैयारी है।

वैलांटाइन धर्मांतरण उत्सव से पहले मुझे ऐसा आगाह करना पड़ रहा है क्योंकि धार्मिक आयोजनों,उत्सवों,त्योहारों,धर्मस्थलों में सबसे ज्यादा विश्वासघात का शिकार होना पड़ता है स्त्री को।

दुर्गोत्सव और सरस्वती पूजा में पुरुषसंगे अबाध घूमने की जो आजादी मिलती रही है,उसके नतीजों से रंग जाती है अखबारी सुर्खियां और धर्म आस्था को चोट पहुंचाना चूंकि हमारा मकसद नहीं है,इसलिए प्रसंग विस्तार में नहीं जा रहे हैं।अपने अपने अनुभवों से जांच परख लें।

यह समझने के लिए बागी तसलिमा नसरीन को पढ़ना जरुरी नहीं है।
धर्मग्रंथों में ही बलात्कार संस्कृति के अनंत पाठ है।

आदरणीया सुकुमारी भट्टाचार्य ने सिलसिलेवार तरीके से वैदिकी साहित्य में इस स्त्री आखेट महाभारते कुरुक्षेत्र के बारे में तसलिमा नसरीन से काफी पहले,उत्तर आधुनिक देहमुक्ति आंदोलन से भी पहले लिखा है।

बेआवाज आशापूर्णा देवी और बेगम रोकेया और बाबुलंद आवाज अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती ने लिखा है तो स्त्री सत्ता के पक्ष में खड़े शरतचंद्र आवारा मसीहा बन गये।मंटो ने बिंदास तरीके से अंदर महल के मांस के दरिया को दिखाया है।

मनुस्मृति अनुशासन से लेकर मुक्तबाजार कार्निवाल,सर्वत्र उदात्त अवधारणाओं और विचारधाराओं की आड़ में पुरुष वर्चस्व स्त्री अस्मिता के उत्पीड़न ,दमन और अनंत शोषण के लिए है।

सबसे पहले गुगल महाशय का धन्यवाद के लगता है ,वर्षों पुराना रिश्ता निभाते हुए कल मेरा कमसकम एक मेल आईडी उनने खोल दिया है जो आप तक मेरा लिखा फिर पहुंचने लगा है।अब मेरे मेल का इंतजार न करें।न करते हों तो शुक्र मनायें कि अब हम मेल नहीं भेजेंगे।रोज रोज एक ही वाकये से परेशां हूं।मेल जब तब डीएक्टिवेट हो रहा है।फिर उन्हें वही निवेदन कि महाशय ःयह सूचना है,खबर है और हम आपके प्राचीन सेवक हैं,पुरातन पत्रकार है और फिर उनकी कृपा।

इस झमेले में अंग्रेजी में लिखना नहीं हो सका।जबकि कल से फिर ब्लाग पोस्ट चालू आहे।

कवि अंबेडकरी वामपंथी अनिल सरकार का अवसान,उन्हें लाल सलाम।नीला सलाम।

इसी बीच नौ फरवरी को दिल्ली आयुर्वेदिक महासंस्थान में हमारे मित्र,नेता और प्रियकवि अनिल सरकार का अवसान हो गया।

वे करीब एक दशक से बीमार चल रहे हैं।जब हमने उनके साथ असम और त्रिपुरा के दूर दूराज इलाकों में 2002 और 2003  में भटक रहे थे ,तब भी वे मधुमेह के प्रलंयकर मरीज  थे।

अनिल सरकार छोटे से अछूत राज्य त्रिपुरा के वरिष्ठतम मंत्री थे।माणिक सरकार से भी सीनियर।नृपेन चक्रवर्ती उनके गुरु थे।वे वामपंथी थे और उससे कट्टर बहुजन समाज के नेता वे रहे हैं।उससे बड़े वे अंबेडकर के अनुयायी रहे हैं।

2002 में जब मैं आगरतला में त्रिपुरा के लोकोत्सव में मुख्यअतिथि बनाकर कोलकाता से ले जाया गया तो उनने बाकायदा मुझे भविष्य में अंबेडकरी आंदोलन की बागडोर इस नये अंबेडकर के हाथों में है,ऐसा डंके की चोट पर कहा।

आज भी मैं उनके इस बयान की शर्मिंदगी से उबर नहीं पाया हूं।

एक मेरे पिता मुझपर यह बोझ लाद गये कि अपने लोगो के हक में हर हाल में खड़ा होना है कि क्षमता प्रतिभा नहीं कि प्रतिबद्धता जरुरी बा कि अपने लोगो की लड़ाई अकेले तुम्हीं को लड़ना है।उसी बोझ ने बौरा दिया है।गालियां खाकर भी आखिरी सांस तक रीढ़ में कैंसर ढोने वाले पिता की विरासत की लड़ाई लड़ रहा हूं।

किसी गांधी या अंबेडकर का कार्यभार के लायक हम हरगिज नहीं हैं।

अंबेडकर एकच मसीहा आहे।एकल मसीहा आहे।
हम उनकी चरण धूल समान नहीं हैं और न हमें किसी नये अंबेडकर,नये गांधी या नये लेनिन की जरुरत है।

मूलतः राजनेता अनिलदा कवि बहुत बड़े थे और इमोशन पैशन के कारोबाार के बड़े कारीगर थे।वे हमारी नींव पर कोई बड़ी इमारत तामीर करना चाहते थे,जिस लायक हूं नहीं मैं।

असम में तमाम मुख्यमंत्रियों राज्यपालों के बीच ब्रह्मपुत्र बिच फेस्टिवेल में मुझे  अतिथियों के आसन पर उनने बिठाया और मेरे पिता और डाक्टर चाचा असम के जिन हिस्सों में साठ के दशक में दंगापीड़ितों के बीच काम करते रहे हैं,उनके बीच मुझे वे ही ले गये।पूर्वोत्तर और पूर्वोत्तर के लोगों से मुझे उनने जोड़ा।

वे अनाज नहीं लेते थे।आलू का चोखा उनका भोजन रहा है।वे कहते थे कि चावल से आलस आता है।मुझे तब भी मधुमेह था और अनिलदा ने कहा था कि चावल छोड़ दो,आलू खाओ।हमराे डाक्टर शांतनु घोष भी हाल में ऐसा बोल चुके हैं।

असम दौरे के दौरान वे दिल का आपरेशन करा चुके थे।पिछले पूरे दशक वे कोलकाता और नई दिल्ली के अस्पतालों में पेंडुलम की तरह झूलते रहे हैं लेकिन वे निष्क्रिय नहीं रहे हैं।वे हमेशा सक्रिय रहे हैं।बेपरवाह भी रहे हैं।

हमें ताज्जुब है कि पार्टी के अंदर वे तजिंदगी बने कैसे रहे हैं।क्योंकि अपने रिश्ते वे खूब निभाते थे एकदम हमारे कामरेड सुभाष चक्रवर्ती की तरह,जिनसे उनकी खास दोस्ती रही है।वे पोलित ब्यूरो की परवाह करते नहीं थे।

मसलन नंदीग्राम और सिंगुर प्रकरण के दौरान हम जब वामपंथी पूंजीवाद और वाम जनसंहार संस्कृति पर तेज से तेज प्रहार कर रहे थे,बारंबार मरीचझांपी प्रसंग में कामरेड ज्योति बसु को घेर रहे थे और नागरिकता कानून संशोधन विधेयक पास कराने में पूर्वीबंगाल के शरणार्थियों के साथ वाम विश्वास घात और वाम हेजेमनी की खुलकर निंदा कर रहे थे,तब आगरतला में मेरे साथ प्रेस कांफ्रेंस करने से वे हिचकते न थे।
लोककवि विजय सरकार के बहाने पूरे पूर्वोत्तर को वे लोककवि विजय सरकार के गांव और महानगर कोलकाता ले आये थे।उन्हें बार बार चेतावनी दी गयी कि हमसे ताल्लुकात न रखें जबकि हम वामपक्ष से एकदम अलग होकर अंबेडकरी आंदोलन में देश भर में भटकने लगे थे।हर चेतावनी के बाद कभी भी देर रात या अलस्सुबह उनका फोन आता था,जिसे सविता बाबू उठाया करती थी और पहले उन्हें अपनी ताजा लंबी कविता सुनाने के बाद वे मेरे मुखातिब होकर बेफिक्र कहते थे,फिर चेतावनी मिली है और हमने कहा है कि वे मेरे पत्रकार मित्र हैं।कुछ भी लिख सकते हैं।

दलित कवि अनिल सरकार ने मुझे ही नहीं,वैकल्पिक मीडिया के सिपाहसालार हमारे बड़े भाई समयांतर के संपादक,बेमिसाल हिंदी उपन्यासकार पंकज बिष्ट को भी त्रिपुरा बुलाकर सम्मानित किया था।

उनने मायावती की प्रशंसा में कविताएं लिखीं तो फूलन देवी उनके लिए महानायिका रही हैं।

उनने बंगाल की नरसंहार संस्कृति पर भी कविताएं लिखी है।

उनकी लिखी हर पंक्ति में अंबेडकर की आवाज गूंजती रही है।वे अंबेडकरी वामपंथी रहे हैं।
यकीनन वे हमारे वजूद में शामिल हैं।हम उन्हें भूल नहीं रहे हैं।

इसके साथ ही प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी और विमान बोस के साथ मिलकर वाम दलित एजंडा को भी वर्षों से आकार देते रहे हैं लेकिन अमल में नहीं ला सके ,पर इस कारण पार्टी उनने छोड़ी नहीं है।मतभेद और विचारधारा के नाम पर पार्टी से किनारा करने वाले कामरेडों से सख्त नफरत रही है दलित कवि अनिल सरकार को।हालांकि उनका हर बयान अंबेडकरी रहा है।
लाल सलाम अनिल दा।
नीला सलाम अनिल दा।

वे लगातार मंत्री रहे हैं।वे मरते दम तक राज्ययोजना आयोग के सर्वेसर्वा थे और पिछली विधानसभा चुनावों के दौरान उनने फोन पर कहा कि वे वामपंथ पर अपनी चुनाव सभाओं में कुछ भी नहीं बोल रहे थे बल्कि सर्वत्र चैतन्य महाप्रभु के प्रेम लोक माध्यमों से वितरित कर थे।वह चुनाव भी उनने जीत लिया।

वे वैष्णव आंदोलन को प्रेमदर्शन कहा करते थे।
वे कहा करते थे बंगाल में कोई वैष्णव नहीं है।बाकी भारत में कोई वैष्णव नहीं है।शाकाहार से वैष्णव कोई होता वोता नहीं है।वैष्णव तो मणिपुर है।

इतने वर्षों में देश के जिस भी कोने में गया हूं,अनिवार्य तौर पर उनका फोन कहीं भी,किसी भी वक्त पर आता रहा है।
अब रात बिरात जहां तहां उनके फोन का इंतजार न होगा।

कोलकाता के जिस उदयन छात्रावास में उनकी छात्र राजनीति का आगाज हुआ,वहीं आज उनकी याद में स्मृति सभा है।टाइमिंग शाम की है और तब मुझे दफ्तर में पहुंच जाना है।मेरा दिलोदिमाग मगर वहीं रहेगा।

उन्हें हमारी श्रद्धांजलि।अंग्रेजी में पूर्वोत्तर के लिए उनके व्यक्तित्व कृतित्व पर फुरसत में फिर लिखुंगा ।अब फिलहाल उनके बारे में इतना ही।

लाल सलाम अनिल दा।
नीला सलाम अनिल दा।


घर में राष्ट्रद्रोही

सुबहोसुबह राष्ट्रद्रोही होने का तमगा मिल गया।
अखबार पढ़ते हुए टीवी चैनल ब्राउज कर रहा था कि इंग्लैंड और पाकिस्तान का अभ्यास मैच पर ठहर गया।

अहसान ने जब अपनी दूसरी ही गेंद पर विकेट उखाड़ दिया और शोएब अख्तर पंजाब में जनमे तेज गोलंदाजों के बारे में बताने लगे तब सविता बाबू चादर बदलने के फिराक में घात लगाये बैठी थी।

मैंने बस इतना ही कहा कि भारत के लिए ऐसी पिच पर भारी चुनौती है और पहला मैच पाकिस्तान के खिलाफ ही है।

सविता बाबू बोली,तुम राष्ट्रद्रोही हो।
कुछ भी अच्छा सोच नहीं सकते देश के बारे में।

मैंने कहा तुम्हारे सुर में मोदी का सुर मिला हुआ है।मोदी भी जिस किसी को राष्ट्रद्रोही बताने से पहले हिचकते नहीं है और जो उनकी सरकार है वह तो हर किसी को राष्ट्रद्रोही बना रही है।

उनने कहा कि देश के विकास के लिए मोदी ठीकै है।तुम लोग क्या कर रहे हो आलोचना के सिवाय और बीच बहस में उनेन चादर बदल दी।हम आसन जमाकर फिर बइटल वानी कि ठुमककर अपने किले रसोई में दाखिल हो गयी।

नेटवा मा वैसे फतवा हमारे खिलाफ जब तब जारी होता रहता है।अब घर में भी।
लीक से हटकर

कल हमने पहलीबार एनडीटीवी पर अपने संपादक ओम थानवी को गौर से सुना।आज पहलीबार अखबार बांचते हुए पहले पेज पर उनका विशेष संपादकीय पढ़ा।क्योंकि कल मेरा अवकाश रहा है और छपने से पहलेकोज की तरह मैंने अखबार देखा नहीं है।

इस संपादकीय में जो खास बात मुझे नजर आयी वह कांग्रेस और संघपरिवार के तिलिस्म टूटने का मुद्दा है,जो धर्म राष्ट्रीयता के सबसे बड़े सौदागर है।लीक से हटकर,ओम थानवी का लिखा यह संपादकीय जरुर पढें जनसत्ता के पहले पेज पर।

हमने जब लिखा कि हम प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक मानते हैं ओम थानवी को।लोगों को लगा होगा कि हम चमचई पर उतारु हैं।हमने प्रभाष जी के प्रधान संपादक होते हुए उनके ब्राह्मणत्व पर हंस में लिखा है।प्रभाष जी से इंडियन एक्सप्रेस समूह के हर व्यक्ति का निजी संबंध रहा है।वैसे संबंध शायद किसी और संपादक के हों।

हम लोग जनसत्ता में आये तो उनके अत्यंत अंतरंग संवाद की वजह से ही।आगे पीछे कुछ नहीं देखा।वे हर किसी का ख्याल रखते थे।हालांकि वे आखिरी दिनों में मुझे मंडल जी मंडल जी कहते रहे हैं,तब दिलीप मंडल हमारे साथ न थे।

यकीनन ओम थानवी के साथ हम लोगों का वैसा कोई संबंध नहीं रहा है।न वे जनसत्ता कोलकाता में प्रभाषजी की तरह जब तब आते रहे हैं।न वे हममें से किसी की खोज खबर रखते हैं और न वे हमारा लिखा कुछ भी पढ़ते हैं।

थानवी लेकिन केसरिया सुनामी से जनसत्ता को बाकी अखबारों की तरह रंगे नहीं हैं।हम समझ सकते हैं कि कितना मुश्किल है यह करिश्मा।देश भर में बाहैसियत पत्रकार सिर हमारा ऊंचा रखने के लिए उनका आभार।

थानवी ने लेकिन किसा आपरेशन ब्लू स्टार का समर्थन नहीं किया है।
न सती प्रथा के समर्थन में या श्राद्ध के महत्व पर कोई संपादकीय आया है।

कांग्रेस और संघ परिवार समान रुप से देश के दुश्मन हैं और दोनों शिविर धर्म कर्म के गढ़ हैं और दोनों को ध्वस्त करने की शुरुआत दिल्ली में युवाशक्ति का शंखनाद है।उनका संपादकीय पढ़कर मुझे ऐसा लगा है और इसलीए उनका आभार।

हमने पहले भी लिखा है कि ओम थानवी से हमारी कोई खास मुहब्बत नहीं है।लेकिन लगता है कि थोड़ी थोड़ी मुहब्बत भी होने लगी है।इनने और क्यों खूब नहीं लिखा,प्रभाष जोशी की तरह इसका मुझे अफसोस रहेगा।

मुझे अफसोस रहेगा अगर मेरे मित्र शैलेंद्र कोलताका में और हमारे न मित्र न दुश्मन,हमारे बास ओम थानवी अगर हमसे पहले ही शिड्यूल के मुताबिक रिटायर हो गये।इन्हें मैं खूब जानता हूं और इनके साथ काम करते हुए मुझे कमसकम लिखने पढ़ने और बोलने में कभी कोई अड़चन न हुई।ये हमसे पहले रिटायर हो गये तो पता नहीं किस किसके मातहत दो चार महाने और बिताने होंगे,फिक्र इसकी होती है।डर के बिना मुहब्बत दरअसल होती नहीं है।

बाकी हमारा स्टेटस यह है कि हमें प्रभाष जी नें बैकडेटेड इंडियन एक्सप्रेस के सबएडीटर का नियुक्ति पत्र जारी किया था कोलकाता आने के छह महीने बाद,जब मेरे वापसी के सारे रास्ते बंद हो गये थे।मजीठिया की कृपा से हम जो तेइस साल से जनसत्ता में सेवा कर रहे हैं,उन सबको इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य उपसंपादक ओहदे तक कमसकम दो दो प्रमोशन के प्रावधान के तहत मिल रहा है।लेकिन नये सिरे से न नियुक्ति पत्र मिला है और न परिचयपत्र बदला है और न बदलने के आसार हैं।

वेतनमान चाहे जो हो,मजीठिया का फतवा चाहे जो हो, हम बाहैसियत उपसंपादक ही रिटायर करने वाले हैं।

हमें इसकी शिकायत होती तो हम य़शवंत बाबू के कहे मुताबिक अब तक कबके सुप्रीम कोर्ट के दरवज्जे खटखटा दिये होते।हमारे प्रेरणा स्रोत तो बेचारे मुक्तिबोध हैं जो द्रोणवीर कोहली के संपादकत्व में प्रूफ रीडर काम करते रहे।

हमने सरकारी नौकरी का रास्ता इसीलिए नहीं चुना कि हम अपनी आजादी पर गुलामी चस्पां नहीं करना चाहते थे।
हम पत्रकार भी इसी वजह से बने हुए हैं।
प्रभाष जोशी से लेकर ओम थानवी ने हमारे फैसले को उचित ठहराया है।

सविता बाबू की ओपन हर्ट सर्जरी देवी शेट्टी ने 1995 में की थी जबकि उनके दिल के भीतर कैंसर का ट्यूमर बन गया था।वहीं एकमात्र आपरेशन कोलकाता में इस रोग का सफल रहा है।ऐसा हमारे तबके स्थानीय संपादक श्याम आचार्य की पहल पर प्रधान संपादक प्रभाष जोशी के सौजन्य से हुआ है।जिन अमित प्रकाश सिंह से हमारी कभी बनी नहीं,वे बाकायदा इस काम के मैनेजर से जैसे रहे।

तब चूंकि एक्सप्रेस समूह के एक एक कर्मचारी ने पैसे जोड़कर वह खर्चीला आपरेशन कराया,सविता बाबू ने हमें जनसत्ता छोड़ने के बारे में सपने में भी सोचने की इजाजत नहीं दी है।जैसे अपने मोहल्ले के लोगों ने आंधी पानी में कोलकाता आधीरात के वक्त दौढ़कर देवी सेट्टी के तत्काल आपरेशन के लिए ताजा खून देने को दौड़े बिना किसी रिश्ते के,वे रिश्ते अब इतने मजबूत हो गये हैं पिछले तेइस साल में कि हमारे लिए यह बंधन तोड़कर निकलना बेहद मुश्किल हो रहा है।

हमने बसंतीपिर वालों को कानोंकान खबर नहीं होने दी।पिताजी जब देशाटन के मध्य महीनों बाद अचनाक आ धमके तो हमारे घर वालों को पता चला कि क्या विपदा आन पड़ी थी।हम एक्सप्रेस समूह का यह कर्ज उतार नहीं सकते।

जिन महिलाओं के साथ टीम बनाकर सविता काम कर रही हैं वे न केवल धमकी दे रही हैं कि सोदपुर छोड़ने की सोची तो मार देंगे,वे जोर शोर से जुट गयी हैं हमारे लिए सस्ता मकान की खोज में।हमें तो यह कहने की इजाजत भी नहीं है कि सस्ते से सस्ते मकान में बसने की भी हमारी हैसियत नहीं है।

यह जो अनिश्चयता का तिलिस्म है,इसमें असुरक्षा बोध इतना प्रबल है कि तजिंदगी धर्म कर्म से अलहदा रही हमसे ज्यादा भौतिक वादी,हमसे ज्यादा धर्म निरपेक्ष सविता बाबू विशुद्ध हिंदुत्व की भाषा बोलने लगी है।
बाकी जनता के हिंदुत्व का राज भी कुछ कुछ सविताबाबू तकाजैसा हाल है।

मेरा निजी अनुभव है कि मुक्त बाजार अर्थ व्यवस्था से महान कोई हिंदुत्व या कोई और धर्म मत नहीं है।

असुरक्षा और भय ही धर्म की सबसे बड़ी पूंजी है और उसी की नींव पर तमाम तंत्र मंत्र यंत्र कारोबार है।धर्म ससुरा भयऔर असुरक्षा से निपटने का हनुमान चालीसा है।

इस मुक्तबाजारी कारपोरेट केसरिया अर्थव्यवस्था में पल छिन पल छिन भारतीय नागरिक हनुमान चालीसा का पाठ करने को मजबूर है।

आखेर में एक अदद आम आदमी की चेतावनी है,गौर कर कि कांठालेर आठा लागले परे छाड़े ना कि
मुहब्बत का हर मसीहा दगाबाज है!
तू दगाबाजों पर मुहब्बत जाया न कर!

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