Tuesday, February 10, 2015

जश्न का नहीं,चीख का समय है यह। एक पुरजोर मुकम्मल चीख नरसंहार के खिलाफ। जश्न नहीं,देश जोड़ने और राजनीति बदलने का मौका! मोदी के खिलाफ जनादेश लेकिन और तेज दौड़ेंग अश्वमेध के घोड़े! युवाशक्ति को,बदलाव की ताकतों को सलाम,लेकिन अस्मिताओं को तोड़ने के चमत्कार से जबतक सबक न लें लोकतंत्र,तबतक जनसंहार की संस्कृति बेलगाम! तबाही के बीचोंबीच मलबे सेघिरे हुए हम किसे आवाज दें,आवाज कुचली जा रही है! पलाश विश्वास


जश्न का नहीं,चीख का समय है यह।
एक पुरजोर मुकम्मल  चीख नरसंहार के खिलाफ।

जश्न नहीं,देश जोड़ने और राजनीति बदलने का मौका!
मोदी के खिलाफ जनादेश लेकिन और तेज दौड़ेंग अश्वमेध के घोड़े!
युवाशक्ति को,बदलाव की ताकतों को सलाम,लेकिन अस्मिताओं को तोड़ने के चमत्कार  से जबतक सबक न लें लोकतंत्र,तबतक जनसंहार की संस्कृति बेलगाम!
तबाही के बीचोंबीच मलबे सेघिरे हुए हम किसे आवाज दें,आवाज कुचली जा रही है!
पलाश विश्वास
#DelhiDecides में #AAPSweep ने दो साल में बदला #Delhi का नक्‍शा!  #KiskiDilli #Congress #Modi
‪#‎DelhiDecides‬ में ‪#‎AAPSweep‬ ने दो साल में बदला ‪#‎Delhi‬ का नक्‍शा!

जश्न नहीं,देश जोड़ने और राजनीति बदलने का मौका!

मोदी के खिलाफ जनादेश लेकिन और तेज दौड़ेंग अश्वमेध के घोड़े!

युवाशक्ति को,बदलाव की ताकतों को सलाम,लेकिन अस्मिताओं को तोड़ने के चमत्कार  से जबतक सबक न लें लोकतंत्र,तबतक जनसंहार की संस्कृति बेलगाम!

तबाही के बीचोंबीच मलबे से घिरे हुए हम किसे आवाज दें,आवाज कुचली जा रही है!

एक दम निःशस्त्र खड़ा हू भारत महाभारत कुरुक्षेत्र मध्ये।
पहले से कोई छाप नहीं रहा है कि बाजार की अर्थव्यवस्था के खिलाफ हैं हम।

हस्तक्षेप के जरिये,अपने ब्लागों के जरिए,कुछ मित्रों को ईमेल के जरिये हम अपनी आवाज आप तक पहुंचाने की कोशिश दिनरात करते रहे हैं।1991 से यही सिलसिला चला आ रहा है।

अमेरिका से सावधान के बाद कोई साहित्य लिखने की कोशिश भी हमने नहीं की है।

हम देश के कोने कोने में अपने स्वजन परिजन देश वासियों को आवाज लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि कहीं से तो अस्मिताएं टूटें और देश की जनता देश बचाने के लिए मोर्चाबंद हो।

इंडियन एक्सप्रेस समूह का धन्यवाद कि इसके प्रबंधन ने हमारे बोलने लिखने पर अबतक रोक नहीं लगाई है और पत्रकारिता में बाजार के शरणागत हुए बिना हमारी रोजी रोटी चल रही है।

कल से मेरे सारे ईमेल आईडी डीएक्टिवेट हैं।
न ब्लाग में पोस्ट कर पा रहे हैं और न फेसबुक में लागातार संवाद साध पा रहे हैं।
अजब गजब ब्लाकिंग हैं।

हमने दो दिन पहले हस्तक्षेप पर अंग्रेजी में निवेदन किया थाः

Let us not celebrate. Cry my country, cry!

इससे पहले निवेदन किया थाः

Indian People lost the Waterloo in the Indian capital irrespective of election result!

कल ही लिखाः

द्रोपदी दुर्गति गीता महोत्सव

संजोग ऐसा कि कल के लिखे के बाद मैं चारों तरफ से घिरा हुआ हूं।

मुझे नहीं मालूम कि मैं कैसे यह रोजनामचा अमलेंदु तक पहुंचा सकुंगा और कमसकम हस्तक्षेप पर आपसे संवाद बना रहे।

संजोग है कि कल यह आलेख पोस्ट होने के बाद हस्तक्षेप में एक के बाद एक स्त्री उत्पीड़न की ताजा वारदातें दर्ज करानी पड़ी।

हस्तक्षेप का हाल भी अच्छा नहीं चल रहा है।

हम सारी भाषाओं का प्लेटफार्म बनाना चाह रहे थे इसे और पंद्रह महीने बाद सड़क पर आ जाने के बाद हस्तक्षेप जरिये अपना संवाद जारी रखने का सपना संजो रहे थे।

रोजाना अपील करने के बावजूद जनपक्षधर ताकतें हमारे साथ नहीं हैं और संसाधन छीजते जा रहे हैं,यानी कि हमारे रिटायर होने से पहले बंद हो सकता है हस्तक्षेप भी।किसी से मदद की उम्मीद भी नहीं है।

दिल्ली की राजनीतिक बिसात पर एक करोड़ की जेगुआर गाड़ी और पंद्रह लाख की सूट न्यूयार्क टाइम्स के आकलन मुताबिक,को कड़ी शिकस्त दी है जनता ने।

जनता दरअसल उतनी बुरबक होती नहीं है जैसा जनजीवन से,सामाजिक यथार्थ से कटे,जड़ों से उखड़े हवा हवाई हम लोग मानने की जुर्रत करते हैं।

अब भी हमारे पांव चूंकि जमीन में धंसे हुए हैं और चूंकि अबभी हम अपने गांव बसंतीपुर में अपने लोगों के बीच पहुंचकर आखिरी सांस लेने की उम्मीद बांधे हुए हैं,इस हकीकत के उजागर होने से हमसे ज्यादा खुश किसी और  को नहीं होना चाहिए।क्योंकि हमारी देह में अब भी गोबर माटी पानी जंगल और पहाड़ की बदबू बाकी है और अब भी हम बाजार के मध्य नहीं हैं।

हम तो बाजार के व्याकरण के खिलाफ समाज,देश जोड़कर तमाम विधाओं,तमाम भाषाओं,तमाम जनपदों,खेतों और खलिहानों,जल जंगल जमीन पहाड़ और समुंदर,आसमान और हवाओं, पानियों, ग्लेशियरों,मरुस्थल और रण के हक हकूक की लड़ाई जीतने का मंसूबा बांधे हुए हैं।

दिल्ली के चुनावों में किसे कितनी सीटें मिल रही हैं और रवीश कुमार जिस दिल्ली की तस्वीर हमें दिखा रहे हैं,जो वायदा आतिश मार्लिन और उनसे भी युवातर युवाओं के दृढ़ निश्चय में आम आदमी की जिंदगी के साथ साथ पूरी राजनीति बदलने का दिख रहा है,जो राजनीतिक लफ्फाजियां है,दाव पेंच है,उसमें मारी दिलचस्पी उतनी नहीं है,माफ करें।

हम भी चाहते हैं कि रोजमर्रे की जिंदगी के स्थानीय मुद्दे सुलझने चाहिए।लेकिन इस जनसंहारी संस्कृति के अश्वेमेधी घोड़ों की दौड़ और तेज हो जाने की बढ़ती आशंकाओं के मद्देनजर ही मैंने लिखा है,जश्न का नहीं,चीख का समय है यह।

चाहिए अब तुरंत एक पुरजोर मुकम्मल  चीख नरसंहार के खिलाफ।

सामने बजट है और आर्थिक नीतियों के बारे में,संपूर्ण निजीकरण,विनिवेश,अबाध विदेशी पूंजी,अल्पसंख्यकों और स्त्रियों के नरमेध,दमन उत्पीड़न,नस्ली भेदभाव और भौगोलिक भेदभाव के बारे में दिल्ली जीत चुकी युवाशक्ति देश भर में आम जनता को कैसे गोलबंद कर पायेगी,अरविंद केजरीवाल की ताजपोशी से इसकी कोई दिशा अभी तय नहीं हो सकी है।जो हमारे चिंताओं का सबब है।

इमाम बुखारी के फतवे के जरिये मुसलमानों को वोटबैंक बनाने के सत्ता समीकरण को खारिज करने की हिम्मत लेकिन हमारे हिसाब से दिल्ली में आप की प्रलयंकर जीत से बड़ी कामयाबी है।
इसीतरह बारी अब हर अस्मिता को धव्सेत करने की है।

इसीतरह वक्त अब इस मुक्तबाजार के खिलाफ युद्धघोषणा का है।

इसी तरह बराी अब देश जोड़ने की है।समाज जोड़ने की है।

इसी तरह बारी अब पागल दौड़ परिदृश्य बदलने की है।

इसीतरह बारी अब सेज,स्मार्ट,डिजिटल,बायोमैट्रिक, एफडीआई,प्रोमोटर बिल्डर माफिया केसरिया कापोरेट कुरुक्षेत्र में तब्दिल देश में अमन चाने बहाल करने की है।

इसीतरह बारी अब नरमेधी अश्वमेध के घोड़ों के लगाम थामने की है।
तब जीते तो जश्न मनाना खूब।

प्रतिरोध महोत्सव में खिलेंगे हमारे मुहब्बत के फूल कि बाजुओं में जोर हो इतना की कयामत सुनामी की बांह हम मरोड़ दें।

जश्न अगर मनाना ही है तो कृपया जश्न इस उम्मीद की मनाइये कि हम चाहें तो अस्मिता के कारोबार पर आधारित विचारधाराओं के घात के गीता महोत्सव,स्त्री आखेट पुरुष वर्चस्व समय में अस्मिता तोड़ने की पहल कहीं से न कहीं से कर सकते हैं।दिल्ली ने साबित कर दिया।

युवाशक्ति की इस पहल पर उनका सादर अभिनंदन।

अगर दिल्ली तक यह बदलाव ठहर गया, राजनीति वही कारपोरेट फंडिंग और अर्थव्यवस्था वही कारपोरेट लाबिइंग और सत्ता उसी बिवियनर मिलियनर प्रजाति के लोगों की बनी रही,अगर संसद और संविधान,लोक,लोकतंत्र और जनपदों को कुचलने का,बेदखली और सर्वनाश का ,फौजी हुकूमत का,धोखाधड़ी औऱ फर्जीवाड़े का पोंजी नेटवर्क यह राज्यतंत्र जारी रहा तो अकेले अरविंद केजरीवाल भी अगर ईमानदार निकलें तो सूरत बदलने वाली नहीं हैं।

चमत्कार कोई हो जाये कि राज्यों के अगले चुनावों में आम आदमी हर राज्य में चमत्कार कर दें,तो भी शायद न देश जुड़ेगा और न देश बदलेगा और न कातिलों के शिकंजे में फंसी हमारी गरदन के सही सलामत रहने की हालत बनने वाली है।

पूरे राज्यतंत्र को बदलने और अर्थव्वस्ता को अर्थशास्त्रियों और विदेशी एजंसियों, संस्थाओं के कब्जे से निकालकर गांधी के कहे मुताबिक इस पागल दौड़ को रोकने की कोई पहल अगर यह युवाशक्ति नहीं कर सकी तो यह जीत और यह जश्न बेमायने हैं।

अगर अंबेडकर के जाति उन्मूलन एजंडे को हम लागू कर नहीं सकते,तो यह जीत बेमायने है।

अगर मेहनतकश निनानब्वे फीसद आवाम जिंदा रहने की हाल में न हो तो यह जीत बेमायने है।

अगर खेत खलिहान,कल कारखाने जागे नहीं तो यह जीत बेमायने है।

अगर पुरुष तंत्र का वर्चस्व बहाल रहा,मनुस्मृति शासन  रहा और देहमुक्ति के बावजूद स्त्री उत्पीड़न और दमन और वध का सिलसिला जारी रहा तो यह जीत बेमायने है।
अगर बच्चे हमारे बंधुआ मजदूर बनते रहे और आदिवासी विस्थापन के शिकार हों,अगर अल्पसंख्यकों पर हमले जारी रहें और किसानों मजदूरों का सफाया जारी रहें सुदारों के नाम,विकास के नाम और विचारधाराओं के बहाने हमारे पुरखों की विरासत को लूटखसोट का तंत्र मजबूत करने के काम में लगाया जाता रहे,तो यह जीत बेमायने है।

अगर दलितों पर अत्याचार का सिलसिला जारी रहे और सैन्यतंत्र मजबूत होता रहे,सलवा जुड़ुम जारी रहे,सिख संहार,बाबरी विध्वंस,गुजरात नरसंहार और भोपाल गैस त्रसदी के अपराधी सत्ता में बने रहें,तो यह जीत बेमायने हैं।

एक अकेले अरविंद केजरीवाल ,एक अकेली आम आदमी पार्टी से यह व्यवस्था बदलेगी,इस उम्मीद का बोझ बहरहाल हम इन नाजुक जवान कंधों पर न डालें।

एक अकेले कंधे पर देश बदलने की जिम्मेदारी डालेंगे तो वह कल्कि अवतार का उससे बड़ा अवतार होगा।
ईश्वर होगा वह।
मसीहा होगा वह।
लेकिन देश न जुड़ेगा और न बदलेगा देश।

वे दिल्ली की बहुसंख्य जनता की नर्क हुई जिंदगी को स्मार्ट सिटी या वर्ल्ड सिटी के सपनों के तिलिस्म से निकालकर एक राहतभरी खुशनुमा जिंदगी दे सकें तो यह जरुर कोई पहल हो सकती है।   

जैसे केंद्र की सत्ता की धौंस हर प्रतिक्रिया में मिल रही है,जैसा बेलगाम अल्पसंख्यक विरोधी,बहुजन विरोधी गैरन्सल विरोधी स्त्री विरोधी श्रम विरोधी कृषि विरोधी विकास के शोर में दिल्ली के जमनादेश को बेमतलब कर देने की जोर आजमाइश चल रही हैं और जैसे दिल्ली जैसे आधे राज्य का हिसाब बंगाल,बिहार,यूपी जीतकर निकलाने का कार्यक्रम है और उनपर जो केसरिया कारपोरेट रंग है,जो हिंदुत्व की सेनाओं का दिग्विजयी अभियान है,केंद्र का सहयोग नमो महाराज की बधाई और वायदे के बावजूद नहीं मिला तो अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मसीहा बनकर भी क्या कुछ कर पायेंगे,अगले पांच साल तक हम देखेंगे।

युवाशक्ति ने एकजुट होकर दिल्ली का जनादेश यह निकाला है और मोदी की शाहसवारी को पहला बड़ा झटका दिया है तो उनके हजार सलाम.उनके साथ जो देशभर के हमारे निजी नये पुराने मित्र हैं,उनको बधाई।

हमारी दिलचस्पी लेकिन यह कि ये युवा और खासतर पर स्त्री शक्ति मेहनतकश तबके के खिलाफ जारी साजिशों के खिलाफ  मध्यवर्गीय सहूलियतों के दायरे तोड़कर अस्मिताओं को तहसनहस करके कैसे देश और समाज जोड़कर देश और जनपदों को बचाने की राष्ट्रव्यापी मुहिम में तब्दील करने में कामयाब होंगे।

हमने द्रोपदी दुर्दशा कोई मजे लेने के लिए नही लिखा है,यह आज का सामाजिक यथार्थ है।

जो वैलेंटाइन डे धर्मांतरण महोत्सव के तहत अरविंद के शपथ लेने से एकदिन पहले मनाया जाना है,उसपर अरविंद का बाइट नहीं मिला है।

आधार जरिये लोकल्याणकारी राज्य को डिजिटल बायोमेट्रिक क्लोन देश बनाने का जो तंत्र मंत्र यंत्र हैं,उसपर भी अरविंद चुप हैं।

ऐसे हालात में देश की कारपोरेट राजनीति के प्रतिरोध में हमसे ईमानदार,हमसे कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध,हमसे कही सक्षम और दक्ष यह युवाशक्ति केसे कैसे गुल खिलायेगी,उस गुलबहार के इंतजार में हैं हम।
मेहनतकश तबके के व्यापक गोलबंदी के बिना यह असंभव है।
धर्मोन्माद के खिलाफ वर्गीय ध्रूवीकरण के बिना भी यह असंभव है।

अंबेडकरी आंदोलन को जनता के बुनायादी मुद्दों पर हांके बिना यह असंभव है।समाजवाद के बेसिक आदर्शोॆ के बिना यह असंभव है।

साम्यवादी इतिहासबोध और भौतिकवादी व्याख्याओं को जमीन से जोड़े बिना यह असंभव है।

गांधी के दर्शन को समझे बिना यह असंभव है।

परमाणु चूल्हों के बजाये जनपद जनपद साझा चूल्हों के बिना यह असंभव है।

जाति उन्मूलन के बिना यह असंभव है।
नस्ली भेदभाव खत्म किये बिना यह असंभव है।भौोगोलिक दूरियां खत्म किये बिना यह असंभव है।

बच्चे जीवन में कर दिखाने से पहले बहुत सारी परीक्षाओं से गुजरते हैं।
दिल्ली के चुनाव पहला अवरोध है,जहां उनने अस्मिताओं की दीवारों को तहस नहस कर दिया है।

बाकी देश में भी यह करिश्मा कर दिखाना है।
यह अकेले उनकी जिम्मेदारी है नहीं,यह समझते हुए हम उनसे कोई उम्मीद पालें तो बेहतर है।

जश्न मनाने का समय यह नहीं है।

अश्वमेध की कातिल फौजें अब बेरहम कुचलेंगी जनपदों को,जिन्हें रोकने के लिए देश के हर कोने से मुकम्मल चीख जरुरी है।

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