Monday, May 21, 2012

ममता के पापुलिज्म का बाईप्रोडक्ट है रेडीकल मध्यवर्ग

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ममता के पापुलिज्म का बाईप्रोडक्ट है रेडीकल मध्यवर्ग

ममता के पापुलिज्म का बाईप्रोडक्ट है  रेडीकल मध्यवर्ग

By  | May 21, 2012 at 11:21 am | No comments | सियासत

ममता के जनसंपर्क अधिकारी लग रहे थे जस्टिस काटजू

जगदीश्वर चतुर्वेदी

राजनीति में पापुलिज्म कैंसर है। पापुलिज्म के आधार पर सरकार गिराई जा सकती है लेकिन सरकार चलायी नहीं जा सकती। पापुलिज्म के आधार पर इमेज बना सकते हैं लेकिन इस इमेज को टिकाऊ नहीं रख सकते। आज यही पापुलिज्म मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ा है।  पश्चिम बंगाल की सत्ता की कमांड संभाले उन्हें एक साल हो गया है। इस एक साल में उनकी कार्यशैली के मिथ टूटे हैं। इसके बाबजूद ममता बनर्जी की एक व्यक्ति के रूप में आम लोगों में अपील बरकरार है। उनकी सादगी और बेबाक अभिव्यक्ति में आम आदमी आज भी आनंद लेता है।

     प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने 12 मई को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात करने के बाद प्रेस से कहा कि मीडिया को ममता के सकारात्मक गुणों जैसे उनकी सादगीपूर्ण जीवनशैली और ईमानदार व्यक्तित्व के प्रचार पर जोर देना चाहिए। काटजू के इस बयान में एक अच्छे गुण के प्रति जो सम्मानभाव व्यक्त हुआ है वह महत्वपूर्ण है।  वैसे कायदे से देखा जाए तो प्रेस परिषद के अध्यक्ष का यह काम नहीं है कि वह मीडिया को यह बताए कि ममता बनर्जी के बारे में मीडिया क्या करे। दुर्भाग्य से काटजू जब यह बोल रहे थे तो वे ममता के जनसंपर्क अधिकारी लग रहे थे।
      जस्टिस काटजू शायद भूल गए कि मीडिया ने ममता बनर्जी की ईमानदार छवि और सादगीभरी जिंदगीशैली का जमकर प्रचार किया है। राज्य का मीडिया यह काम विगत कई सालों से यही काम कर रहा है। ममता बनर्जी ने जो कहा उसे बिना जांच- परख के बिना अकाट्य सत्य मानकर छापता रहा है। संभवतः इस तरह का अंध मीडिया समर्थन देश में हाल के वर्षौं में किसी राजनेता को नसीब नहीं हुआ।
      लंबे समय से मीडिया तो ममता बनर्जी का दीवाना रहा है। दीवानगी की यह पराकाष्ठा है कि मीडिया ने खबर और प्रौपेगैण्डा के बीच के अंतर को भी खत्म कर दिया और ममता बनर्जी के प्रौपेगैण्डा को खबर बना डाला। मीडिया की अंधभक्ति ने दुतरफा संकट पैदा किया है। पहला संकट मीडिया के सामने है कि वह मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को वर्चुअल इमेजों के रूप में देखे या रीयल मुख्यमंत्री की इमेजों में देखे। ममता की मीडियानिर्मित इमेजों ने ममता बनर्जी के सामने यह संकट पैदा किया है कि वे अपने बनाए सपनों में कैद होकर रह गयी हैं। आज ममता बनर्जी के लिए उनके सपने हासिल करना कठिन हो गया है।
   जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने असल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के निजी गुणों पर जोर देकर प्रकारान्तर से यह भी कहा है कि ममता सरकार ने विगत एक साल में कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। वरना काटजू साहब के बयान में ममता सरकार की किसी उपलब्धि का जिक्र जरूर होता। जब किसी राजनेता के राजनीतिक कार्यकलापों की बजाय उसके निजी गुणों पर कहा जाने लगे तो राजनीतिक भाषा में कमजोरी के रूप में देखा जाता है।
   विगत  एक साल के शासन में ममता बनर्जी की कार्यशैली में सबसे बड़ी बाधा वे स्वयं बनकर सामने आई हैं। यह सच है कि वाममोर्चे को पराजित करके ममता सरकार को राज्य में लोकतांत्रिक माहौल को प्रतिष्ठित करने का श्रेय जाता है। वाममोर्चे ने जिस तरह की दमघोंटू संस्कृति राज्य में पैदा की थी उससे आम नागरिकों को निजात मिली। अमूमन दमघोंटू संस्कृति में पापुलिज्म संजीवनी होता है। यही वजह है कि ममता बनर्जी जब एक साल पहले जीतकर आईं तो आमलोगों ने दिल खोलकर उनका स्वागत किया।
         ममता बनर्जी ने एकसाल पहले वाममोर्चा को नकली और स्वयं को असली वामपंथी कहते हुए जीत हासिल की थी। मजेदार बात यह है कि वे पापुलिस्ट स्टायल में बोलती हैं और आमलोगों को आकर्षित करती हैं। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के पहले और  बाद वाली इमेज में जमीन-आसमान का अंतर है। मुख्यमंत्री बनने के पहले उन्होंने मानवाधिकारहनन से जुड़ी समस्याओं को पापुलिज्म के कलेवर में पेश किया। इससे आमलोगों में यह मिथ बना कि ममता बनर्जी मानवाधिकार हनन के खिलाफ लड़ने वाली जंगजू महिला नेत्री है।  राजनीतिक सवालों को पापुलिज्म की चाशनी में डुबोकर देने से उनको लाभ मिला उनके भाषणों में पापुलिज्म को आमलोग रियलिज्म समझने लगे। उवके भाषण और मीडिया उन्माद को आनेवाली सच्चाई समझने लगे और यह उम्मीद करने लगे कि ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनेंगी तो राज्य की समस्याएं तत्काल हल कर हो जाएंगी। लेकिन सारी दुनिया का तजुर्बा बताता है पापुलिज्म से जनता को सड़कों पर उतारा जा सकता है,वोट हासिल किए जा सकते हैं, युद्ध लड़े जा सकते हैं लेकिन जनहित के काम नहीं किए जा सकते।
    विगत एक साल में संभवतः ममता बनर्जी बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस करती रही हैं कि वे जिस गति और शैली में काम कर रही हैं उसके अभीप्सित परिणाम सामने नहीं आए हैं। राजनीति विशेषज्ञों का एक वर्ग यह मानता है कि ममता बनर्जी को पापुलिज्म की गिरफ्त से बाहर आकर काम करने की जरूरत है। राज्य सरकार के मुखिया के रूप में पापुलिज्म अनेक किस्म के खतरों को जन्म दे सकता है।  मसलन् पापुलिज्म में एक नेता का शासन चलता है लेकिन सरकार सामूहिक नेतृत्व से चलती है। पापुलर नेता के रूप में ममता बनर्जी अपने दल के लोगों को एक खास किस्म की राजनीतिक भाषा और मुहावरे में प्रशिक्षित करके सत्ता के शिखर तक पहुँची हैं। तृणमूल कांग्रेस ने एक खास किस्म की पापुलिस्ट भाषा विकसित की है जिसमें सामाजिक-राजनीतिक बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं है। यानी वे सरकार की भाषा और दल की भाषा में पहले से चले आरहे घालमेल को अभी तक दूर नहीं कर पायी हैं। लेकिन अनेक मामलों में प्रशासन को स्वतंत्र अभिव्यक्ति और स्वतंत्र रूप से काम करने का उन्होंने मौका दिया है। लेकिन मौटे तौर पर प्रशासन और दल तंत्र में वाम मोर्चे के शासनकाल में बना गठजोड़ ज्यों का त्यों बना हुआ है। ममता बनर्जी की यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह राज्य प्रशासन और दलतंत्र के गठजोड़ को तोड़ें। प्रशासन को पेशेवर ढ़ंग से चलाएं। अभी तक इस संदर्भ में ममता बनर्जी की पहलकदमी एकदम नजर नहीं आ रही है। लेकिन एक अच्छा काम हुआ है कि सत्ता और विपक्ष के बीच में वाममोर्चे के जमाने में टूटा संवाद फिर से बहाल हुआ है। इस संदर्भ में ममता बनर्जी ने अपनी पहले वाली एंटी वाम इमेज को विदाई दी है। अनेक प्रमुख मसलों पर सरकार और विपक्ष में सहयोग और समर्थन का वातावरण बना है।
     ममता बनर्जी को आने वाले दिनों में अपने बनाए पापुलिज्म को तोड़ना होगा और यह महसूस करना होगा कि मीडिया के अंध प्रचार ने उनकी जो इमेज बनी थी वह सत्य से कोसों दूर थी। मसलन् उदारता और अपव्यय में अंतर करना सीखना होगा। राज्य जिस तरह के आर्थिक संकट में फंसा है उसमें फिजूलखर्ची पर रोक लगाने की जरूरत है। पापुलिज्म और फिजूलखर्ची का गहरा संबंध है। आज समूचे राज्य की आर्थिक प्राथमिकताओं को नए सिरे से निर्धारित करने की जरूरत है। विगत एक साल में ममता सरकार अपनी आर्थिक प्राथमिकताएं तय नहीं कर पायी है।
ममता बनर्जी ने अपनी पापुलर इमेज बनाने के लिए सिंगूर से आंदोलन आरंभ किया था, इस आंदोलन ने ममता की इमेज के साथ पूंजीपति विरोधी की इमेज भी बनी है। टाटा के नैनो कारखाने का विरोध अंततः पुख्ता एंटी कैपिटलिस्ट इमेज बनाने में सफल रहा।  इस इमेज के सहारे आंदोलन करके जनता को भड़काया जा सकता है। लेकिन सरकार में आने के बाद यही इमेज आज राज्य में औद्योगिक विकास के मामले में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी हो गयी है। इस इमेज से ममता की मुक्ति बेह जरूरी है।
     ममता बनर्जी की रेडीकल इमेज के निर्माण की प्रक्रिया में किंगूर-नंदीग्राम आंदोलन के दौरान पश्चिम बंगाल में नए सिरे से रेडीकल मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का उभार आया था।उल्लेखनीय है इस रेडीकल मध्यवर्ग का वामशासन में लोप हो गया था।
     रेडीकल मध्यवर्ग ममता के पापुलिज्म का बाईप्रोडक्ट है। दुर्भाग्य की बात है कि रेडीकल मध्यवर्ग से ममता सरकार आने के बाद अंतर्विरोध बढ़े हैं। वामशासन के दौरान विभिन्न पद्धतियों के जरिए पश्चिम बंगाल के रेडीकल मध्यवर्ग को नपुंसक बनाया गया और अंत में उसे महज भोक्ता और पेसिव दर्शक में तब्दील करने में वाममोर्चा सफल रहा। लेकिन ममता बनर्जी की पापुलर राजनीति ने रेडीकल मध्यवर्ग के सपनों और आकांक्षाओं को जगाकर नए किस्म की संभावनाओं को पैदा किया है। कायदे से ममता सरकार को पश्चिम बंगाल के प्रगतिशील विकास के लिए रेडीकल मध्यवर्ग और पूंजीवादी आकांक्षाओं के बीच में नए संबंध सूत्र बिठाने होंगे।

डा जगदीश्वर चतुर्वेदी, जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार और विचारक हैं. इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर

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