Monday, June 25, 2012

यूनान संकट के सबक

यूनान संकट के सबक

Monday, 25 June 2012 11:05

कुमार प्रशांत 
जनसत्ता 25 जून, 2012: कई चुनावों का तनाव झेलने के बाद अंतत:अनतोनिस समरास को यूनान ने प्रधानमंत्री बना दिया है। समरास क्या करेंगे, पता नहीं। उनके हाथ में एक ऐसा देश आया है जो दिवालिया ही नहीं हो चुका बल्कि एकदम विमूढ़ अवस्था में पड़ा हुआ है। एक लुटा हुआ देश, जिसे आज सारी दुनिया में चहुंमुखी विफलता का पर्यायवाची माना जा रहा है, आगे किधर और कैसे चलता है यह देखना बहुत जरूरी है, क्योंकि आज नहीं तो कल, ऐसा ही संकट सारी दुनिया को अपनी लपेट में लेने जा रहा है। 
चीन ने कह दिया है कि यूरोप इस बार उसकी तरफ न देखें। 2008 के आर्थिक संकट के वक्त चीन ने चार खरब युआन (586 अरब डॉलर) का बाजार और ऐसी ही बड़ी रकम का कर्ज देकर यूरोप की जैसी मदद की थी, वैसी कोई मदद देने की हालत में आज वह नहीं है। जर्मनी की प्रधानमंत्री एंजेला मर्केल ने भी साफ कर दिया है कि उनका देश दुनिया की अर्थव्यवस्था को संभालने की ताकत नहीं रखता है। बकौल मर्केल- हमारी अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है लेकिन उसकी मजबूती की भी सीमा है। पिछले हफ्ते मैक्सिको में संपन्न हुआ जी-20 देशों का सम्मेलन भी अपनी सीमा का संकेत देकर बिखर गया। वहां कहा गया कि सत्ताईस देशों का यूरोपीय संघ या यूरोजोन अपने संकट का हल खुद ढूंढेÞ- अलबत्ता हम उसकी मदद करने को तैयार रहेंगे। 
यूनान जिस संकट के सामने घुटने टेक चुका है और इटली, स्पेन जिस दिशा में तेजी से फिसलते जा रहे हैं, वह संकट क्या है और कैसे पैदा हुआ है, इस बारे में जी-20 का कोई भी नेता बोलने को तैयार नहीं है। इलाज तो सभी खोजते-सुझाते रहे लेकिन बीमारी क्यों हुई और कहां से आई, इस बारे में सबने चुप्पी रखने में ही भलाई समझी। इटली के प्रधानमंत्री मारियो मोंटी ने कहा कि आपको कर्ज की कीमत कम करने के बारे में विचार करना चाहिए, खासकर उन देशों के संदर्भ में जो अपनी नीतियां आपके एजेंडे के अनुरूप सुधारते जा रहे हैं। पता नहीं, मारियो मोंटी ने यह समझा या नहीं कि वे जो कह रहे हैं वही तो बीमारी की जड़ है। 
जिस अनर्थशास्त्र को सारी दुनिया में आधुनिक अर्थशास्त्र कहा जाता है उसके प्रकांड पंडितों के नेतृत्व में ही हमारा देश भी चल रहा है और स्थिति यह है कि हम दिनोंदिन आर्थिक संकट के दलदल में धंसते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, योजना आयोग, रिजर्व बैंक सबकी तरफ से संकेत यही आ रहे हैं कि आने वाले दिन बहुत कठिन होंगे। सरकार यह कहते भी सुनाई देती है कि पिछले संकट से हमने देश को बचाया था, इस बार हमें भी उसका स्वाद चखना पड़ेगा। लेकिन कोई आगे आकर यह नहीं कहता कि यह संकट आया क्यों है और यह बार-बार लौट कर क्यों आता रहता है? 
यूनान की कहानी से हम इसे समझने की कोशिश कर सकते हैं। यूरोपीय संघ बनाने और इस संघ की एक मुद्रा रखने की कल्पना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी गुट और डॉलर के दबदबे को चुनौती देने के इरादे से की गई थी। लेकिन नई संभावनाओं को पहचानने वाली आंख और उन्हें सिद्ध करने वाला मन अगर न हो तो सारी संभावनाएं धूल हो जाती हैं। यह त्रासदी हम भारतीयों से बेहतर कौन समझ सकता है! जवाहरलाल नेहरू और तब के राष्ट्रीय नेतृत्व के पास वह आंख भी नहीं थी और मन भी नहीं, इसलिए महात्मा गांधी जितनी संभावनाएं पैदा कर गए थे वे सब-की-सब धूल हो गर्इं और हम इधर-उधर की उतरनें पहन कर खुद को भरमाते रहे।
ऐसा ही यूरोपीयन संघ के साथ भी हुआ। अमेरिका और उसके डॉलर की दादागिरी को चुनौती देने की पूरी परिकल्पना एक और अमेरिका बनाने और एक दूसरा डॉलर खड़ा करने से आगे नहीं जा सकी। ब्रुसल्स, फ्रैंकफर्ट और बर्लिन में बैठे उन आर्थिक विशेषज्ञों ने यूरोपीय संघ और यूरो की परिकल्पना में रंग भरे जिनके सामने एक ही नक्शा था जो अमेरिका से उधार लिया गया था। उनके सामने एक ही बात थी कि अमेरिका की जगह हम और डॉलर की जगह यूरो स्थापित किया जाए। उन्होंने वैसी ही आदमखोर व्यवस्था खड़ी की जैसी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने की थी।
यूनान जब यूरोपीय संघ में शामिल हुआ तब उसकी हालत वैसी ही थी जैसी आज की दुनिया में किसी भी विकासशील देश की है, हो सकती है। तब यूनान की अर्थव्यवस्था में अपनी कोई ताकत नहीं थी, उसकी राजनीति सत्ता के खेल से आगे नहीं जाती थी, समाज भी एकदम बिखरा-भटका हुआ था। भ्रष्टाचार भी था, टैक्स चोरी आम बात थी, और अपनी शानोशौकत का दिखावा करने वाली सरकार का खर्च उसकी कमाई से कहीं ज्यादा था। तो कहें कि पंद्रह साल पहले, जब यूनान यूरोपीय संघ में नहीं था तो उसकी हालत अच्छी नहीं थी। लेकिन आज यूनान का जैसा रूप पेश किया जा रहा है, सच्चाई वैसी भी नहीं थी। बेरोजगारी थी लेकिन वैसी भयंकर नहीं जो देशों की कमर तोड़ देती है। दुनिया के बाजार में भी यूनान की उपस्थिति थी और वह वहां से अपनी जरूरत भर कमाई कर लेता था। पर्यटन, जहाजरानी, निर्यात और दूसरे रास्तों से भी वह इतनी कमाई कर ही लेता था कि अपनी जरूरतें पूरी कर सके। मध्यम दर्जे के दुनिया के अधिकतर देशों की तस्वीर तब ऐसी ही तो थी। 

इसके बाद यूनान यूरोपीय संघ में आया। यूरो की मुद्रा उसने स्वीकार कर ली। और अचानक ऐसी बाढ़ आई यूनान में कि वह कुछ समझ ही न पाया। इस बार डॉलर नहीं, यूरो लेकर ब्रुसल्स, फ्रैंकफर्ट और बर्लिन के धनकुबेर यूनान पर टूट पडेÞ। यूनान को सबने निवेश का सबसे   सुरक्षित क्षेत्र मान लिया। निवेश कभी भी किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बन सकता है। अधिक-से-अधिक वह ऐसी बैसाखी बन सकता है जिसका विवेक से इस्तेमाल किया जाए तो वह आपके पांव मजबूत कर सकता है। आपाधापी बरती जाए तो वह आपको लकवाग्रस्त कर देता है, आपके पांव उखाड़ फेंकता है। 
यूरोपीय संघ में आने के साथ ही यह जो बड़ा धनाक्रमण यूनान पर हुआ उससे सरकारी कर्ज नहीं पाटा गया, सरकारी खर्च पर लगाम लगाने की कोशिश नहीं की गई। एक धोखे की टट््टी खड़ी की गई! आंकड़ों में साबित किया गया कि यूनान का अर्थतंत्र अचानक ही बलवान हुआ जा रहा है, उसके ग्रोथ की दर इस कदर बढ़ रही है जैसी पहले कभी नहीं थी। जिसे इंफ्रास्ट्रक्चर कहते हैं उसका जाल सारे यूनान में बिछाया जाने लगा। नतीजा जल्दी ही सामने आने लगा। पूंजी तो आई लेकिन वह यूनान वालों की संपत्ति में नहीं बदली। 
महंगाई बढ़ने लगी, लोगों को काम मिलना मुश्किल होने लगा, बिना मेहनत और योजना के आया अनाप-शनाप धन सरकारी और सामाजिक तड़क-भड़क में बहाया जाने लगा। महंगी ब्याज-दर से आता कर्ज यूनान के गले की फांस बनने लगा। भूखे समाज में निवेश का पहला जादू टूटा तो यूनान धीरे-धीरे निवेशकों पर बोझ बनने लगा। जब ऐसा लगने लगा कि यहां निवेश का जितना फायदा उठाया जा सकता था उठा लिया गया, तो ब्रुसल्स, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन आदि सभी अपना-अपना पैसा समेटने लगे। यूनान की राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने में शक्ति होती तो वह इस बीच आए अपार निवेश का अपनी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल करता और जब निवेश वापस खींचने की घड़ी आई तो अपने संरक्षित कोष से उस स्थिति का मुकाबला करता। 
लेकिन ऐसा तभी संभव था जब यूरोपीय संघ बनाने और यूरो की एक ही मुद्रा स्वीकार करने के पीछे के सारे सोच और रणनीति में यूनान और यूनान जैसे ही दूसरे देशों की भी भागीदारी होती। ऐसा तो कुछ हुआ ही नहीं! यूनान के समाज को निचोड़ कर जब यूरोपीय संघ के आका वहां से चलने लगे तो उसकी स्थिति वैसी हुई जैसी कभी लातिन अमेरिकी या अफ्रीकी देशों की हुई थी जब वहां से डॉलर समेटा जाने लगा था।
चीन और भारत, जो विभिन्न कारणों से पूंजी के पहले दावानल से झुलसे भर थे, जले नहीं थे, इस बार सीधी मार के सामने खड़े हैं। जिसे ग्रोथ कहा जा रहा है और जिसे इस संकट से निकलने का रामबाण बताया जा रहा है दरअसल वह मरीचिका है। चीनी और भारतीय अर्थतंत्र में आप कैसे ग्रोथ की तलाश करेंगे जिसे वहां का समाज पचा नहीं सके? क्या वैसा कोई अभिक्रम आप शुरू कर सकते हैं और उसे सफल भी बना सकते हैं? तानाशाही आदेश से चलने वाला चीनी तंत्र भी अब समझ चुका है कि बांध, बिजली, नहर, कारखाने, भवन, सड़कें, हवाई अड््डे आदि का निर्माण अब आगे नहीं बढ़ाया जा सकता क्योंकि इनसे लोगों की भूख, गरीबी, जीने की प्राथमिक आवश्यकताओं का हल नहीं निकलता है। अपने अशिक्षित-असंगठित मजदूरों-कारीगरों को निचोड़-निचोड़ कर, दुनिया भर के बाजारों में अपना सस्ता माल भर देने की सीमा वहां आ ही जाती है जहां बाजार में ग्राहक नहीं आता क्योंकि उसकी जेब में पैसा नहीं होता! 
सरकार की कमाई को समाज की कमाई समझने की मूर्खता या ऐसा समझाने की चालाकी अब अपनी उम्र पूरी कर चुकी है। जी-20 का उनका अर्थ क्या है यह तो वे ही जानें लेकिन आज के संकट की जड़ पहचानने वाले जानने लगे हैं कि जी-20 का मतलब है दुनिया के दिशाहीन बीस राष्ट्राध्यक्ष क्योंकि ये सभी डॉलर की, यूरो की युआन जैसी मुद्राएं बना या बदल रहे हैं, जबकि जरूरत है कि आप अपनी नीयत बदलें! नीयत लालच की हो या दूसरे की लूट की, पूंजी वह शैतान है जो मौका देख कर अपनी औलादों को ही खाने लगती है। 
इसलिए पूंजी का श्रम से बंधा होना जरूरी है और इस गठबंधन पर सामाजिक नियंत्रण भी। पूंजी का यह चरित्र न समझने के कारण साम्यवाद का भव्य प्रयोग विफल हुआ, माओ के चीन को पूंजी की अभ्यर्थना में घुटने टेकने पड़े, भारत को आर्थिक समता का जवाहरलाल का आधा-अधूरा दर्शन भी इतना भारी पड़ने लगा कि वह अब गलती से भी उसका नाम नहीं लेता है। पूंजीवाद के पुरोधा सारे मुल्क आज अपनी संपन्नता के सारे कंगूरे टूटते देख रहे हैं और अधिकाधिक नोट छापने से अधिक या अलग कुछ नहीं कर पा रहे हैं न सोच पा रहे हैं तो हमें समझना चाहिए कि संकट कितना गहरा है।   
यूनान की बदहाली यूरोपीय संघ की बुरी नीयत के कारण हुई है। जब तक सरकारों का एक मन नहीं होगा, पूंजी का एक होना कमजोरों को शेर के हवाले करने जैसा होगा। यही हुआ है। इसलिए यूनान से सारी दुनिया को माफी मांगनी चाहिए और दूसरा कोई यूनान न बने, इसकी व्यवस्था बनाने में जुटना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो यूनान किसी देश का नाम नहीं होगा, एक बीमारी का नाम बन जाएगा. जो आज यहां फैली है तो कल वहां फैलेगी।

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