Sunday, May 19, 2013

लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता के बीज उग्रतम धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद में नहीं, मातृभाषा के लिये दीवानगी में ही हैं

लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता के बीज उग्रतम धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद में नहीं, मातृभाषा के लिये दीवानगी में ही हैं


आज भी मातृभाषा दिवस है पर देश को कछाड़ के भाषा शहीदों को श्रद्धाञ्जलि देने का अवकाश कहाँ?

पलाश विश्वास

बिन निज भाषा-ज्ञान के मिटत न हिय को सूल॥

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने न जाने कब लिखा था। अब भारतेन्दु  को पाठ्यक्रम के अलावा कितने लोग पढ़ते होंगे? उनको पढ़कर मोक्ष लाभ होने की कोई सम्भावना भी तो नही है!

दरअसल देश को यह सच मालूम ही नहीं है कि आज के दिन असम के बराक उपत्यका में स्वतन्त्र भारत में मातृभाषा के अधिकार के लिये एक नहीं, दो नहीं, बल्कि ग्यारह स्त्री पुरुष और बच्चों ने अपनी शहादत दी है। 19 मई को असम के बराक उपत्यका के सिलचर रेलवेस्टेशन पर असम के बंगाली अधिवासियों के मातृभाषा के अधिकार के लिये सत्याग्रह कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियाँ बरसायीं और ग्यारह सत्याग्रही शहीद हो गये। इससे पहले 10 मई को असम विधानसभा में असमिया भाषा को राजभाषा की मान्यता दी गयी। इसी सन्दर्भ में असम में रहने वाले बंगालियों को भी मातृभाषा के अधिकार दिये जाने की माँग पर सत्याग्रह चल रहा था। कछार में उस दिन मातृभाषा के लिये जो शहीद हो गये, उनमें सोलह साल की छात्रा कमला भट्टाचार्य,19 वर्षीय छात्र शचींद्र पाल, काठमिस्त्री चंडीचरण और वीरेंद्र सूत्रधर, चाय की दुकान में कर्मचारी कुमुद दास, बेसरकारी नौकरी में लगे सत्ये्र देव, व्यवसायी सुकोमल पुरकायस्थ, सुनील सरकार और तरणी देवनाथ, रेल करमचारी कनाईलाल नियोगी और रिश्तेदार के यहाँ घूमने आये हितेश विश्वास शामिल थे।

यह राष्ट्रीय गौरव जितना हैउतना ही राष्ट्रीय लज्जा का विषय है क्योंकि आज भी इस स्वतन्त्र भारत में मातृभाषा का अधिकार बहुसंख्य जनता को नहीं मिला है। अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फरवरी को मनाया जाता है। 17 नवंबर, 1999 को यूनेस्को ने इसे स्वीकृति दी। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले। यूनेस्को द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिली, जो बांग्लादेश में सन् 1952 से मनाया जाता रहा है। बांग्लादेश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश होता है। 2008 को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित करते हुये, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्व को फिर महत्त्व दिया था।

अब हमें इसकी खबर भी नहीं होती कि मातृभाषा की ठोस जमीन पर बांग्लादेश में मुक्तियुद्ध की चेतना से प्रेरित शहबाग पीढ़ी किस तरह से वहाँ मुख्य विपक्षी दल खालिदा जिया के नेतृत्व वालीबीएनपीहिफाजते इस्लाम और पाकिस्तान समर्थक इस्लामी धर्मोन्मादी तत्वों के राष्ट्रव्यापी ताण्डव का मुकाबला करते हुये मातृभाषा का झण्डा उठाये हुये लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ रहे हैं! किस तरह बांग्लादेश में अब भी रह गये एक करोड़ से ज्यादा अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर धर्मोन्माद का कहर बरपा है! सीमावर्ती असम, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, बंगाल और बिहार की राज्य सरकारों और भारत सरकार को होश नहीं है। जबकि वहाँ हालात दिनोंदिन बिगड़ते जा रहे हैं। आये दिन जमायत और हिफाजत समर्थक ढाका समेत पूरे बांग्लादेश को तहस नहस कर रहे हैं। कल ही नये ताण्डव के लिये इस्लामी कानून लागू करने के लिये बेगम खालिदा जिया ने हसीना सरकार को 48 घण्टे का अल्टीमेटम दिया है। इस पर तुर्रा यह कि बंगाल की ब्राहम्णवादी वर्चस्व के साये में कम से कम बारह संगठन जमायत और हिफाजत के पक्ष में गोलबन्द हो गये हैं और वे खुलेआम माँग कर रहे हैं कि भारत सरकार हसीना की आवामी सरकार से राजनयिक व्यापारिक सम्बंध तोड़ ले। कोई भी राजनीतिक दल बंगाल में मजबूत अल्पसंख्यक वोट बैंक खोने के डर से बांग्लादेश की लोकतान्त्रिक ताकतों के पक्ष में एक शब्द नहीं बोल रहा है। अब हालत तो यह है कि ये संगठन अगर भारत में इस्लामी कायदा लागू करने की माँग भी करें तो भी वोट समीकरण साधने के लिये राजनीति हिन्दू राष्ट्र के एजेण्डे के भीतर ही उसका समर्थन करने को राजनीतिक दल मजबूर हैं। यह इसलिये सम्भव है कि बांग्ला संस्कृति और भाषा का स्वयंभू दावेदार बंगाल ने अपनी ओर से एकतरफा तौर पर बांग्ला व्याकरण और वर्तनी में सुधार तो किया है, लेकिन मातृभाषा के लिये एक बूँद खून नहीं बहाया है। बाकी भारत के लिये भी यही निर्मम सत्य है, भाषा आधारित राज्य के लिये उग्र आन्दोलन के इतिहास में मातृभाषा प्रेम के बजाय यहां राजनीतिक जोड़ तोड़ ही हावी रही है।

असम के बराक उपत्यका में मातृभाषा के अधिकार दिये जाने की माँग एक लोकतान्त्रिक व संवैधानिक माँग थी, पर उग्रतम क्षेत्रीय अस्मिता ने इससे गोलियों की बरसात के जरिये ही निपटाना चाहा। उसी उग्रतम क्षेत्रीयता का उन्माद धर्मोन्माद में तब्दील करके आज भी समूचे पूर्वोत्तर और सारे भारत को लहूलुहान कर रहा है। जहाँ अल्पसंख्यकों को मातृभाषा का अधिकार देने की कोई गुँजाइश नहीं है। उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्प्रयदेश, महाराष्ट्र, राजधानी नई दिल्ली जैसे अनेक राज्यों में आज भी बांग्लाभाषियों को मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार नहीं है, जिसके लिये वे निरन्तर लड़ रहे हैं। असम और कर्नाटक में उन्होंने यह हक लड़कर हासिल किया तो बिहार, झारखण्ड और उड़ीसा में सामयिक व्यवधान के बावजूद यह अधिकार शुरु से मिला हुआ है। उत्तराखण्ड और महाराष्ट्र में पहले बंगालियों को मातृभाषा का अधिकार था जो अब निलम्बित है।

दरअसल साठ के दशक में नैनीताल में मातृभाषा के अधिकार के लिये शरणार्थी उपनिवेश दिनेशपुर में जबर्दस्त आन्दोलन भी हुआ। दिनेशपुर हाई स्कूल में 1970 में में आन्दोलन के दौरान मैं कक्षा आठ का छात्र था और आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा था। इस स्कूल में कक्षा आठ तक बांग्ला में पढ़ाई तो होती थी पर प्रश्नपत्र देवनागरी लिपि में दिये जा रहे थे। हम बांग्ला लिपि में प्रश्न पत्र की माँग कर रहे थे। स्कूल जिला परिषद की ओर से संचालित था और जिला परिषद के अध्यक्ष थे श्यामलाल वर्मा, जो पिताजी पुलिन बाबू के अभिन्न मित्र थे। हमने हड़ताल कर दी और जुलूस का नेतृत्व भी मैं ही कर रहा था। पिताजी स्कूल के मुख्य प्रबन्धकों में थे। उन्होंने सरेआम मेरे गाल पर इस अपराध के लिये तमाचा जड़ दिया। वे हड़ताल के खिलाफ थे। मातृभाषा के नहीं। संघर्ष लम्बा चला तो पिताजी ने मुझे त्याज्य पुत्र घोषित कर दिया। बाद में हमारे साथ के तीन सीनियर छात्रों को विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। उस डावाँडोल में मेरी मित्र रसगुल्ला फेल हो गयी। मेरा मन विद्रोही हो गया। मैं आठवीं की बोर्ड परीक्षा पास तो हो गया, लेकिन अगले साल नौवीं की परीक्षा जानबूझकर फेल करने की मैंने कोशिश भी की ताकि पढ़ाई छोड़कर मैं पिताजी को सजा दिला सकूँ। पर मैं फेल भी न हो सका। मेरे तेवर को देखते हुये पिताजी ने मुझे करीब 36 मील दूर जंगल से घिरे शक्ति फार्म भेज दिया ताकि नक्सलियों से मेरा सम्पर्क टूट जाये। उसका जो हुआ सो हुआ रसगुल्ला हमसे हमेशा के लिये बिछुड़ गयी। जिसका आज तक अता पता नहीं है। उससे फिर कभी मुलाकात नहीं हुयी। किशोरवय का वह दुःख मातृभाषा प्रसंग सो ओतप्रोत जुड़ा हुआ है। आज रसगुल्ला जीवित है कि मृत, मुझे यह भी नहीं मालूम। इसे लेकर पिताजी से मेरे मतभेद आजीवन बने रहे। पर हम भी कछाड़ के बलिदान के बारे में तब अनजान थे बाकी देशवासियों की तरह।

palashji, Palash Vishwas, पलाश विश्वास

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

आज भी सरकारी कामकाज की भाषा विदेशी है। महज उपभोक्ताओं को ललचाने के लिये हिंग्लिश बांग्लिश महाइंग्लिश जैसा काकटेल चालू है। आज भी अच्छी नौकरी और ऊँचे पदों के लिये, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लिये अनिवार्य है अंग्रेजी का ज्ञान। आज भी भारतीय भाषायें और बोलियाँ अस्पृश्य हैं बहुसंख्य बहुजनों की तरह। समाज और राष्ट्र में एकदम हाशिये पर। भारतीय संविधान निर्माताओं की आकाँक्षा थी कि स्वतन्त्रता के बाद भारत का शासन अपनी भाषाओं में चले ताकि आम जनता शासन से जुड़ी रहे और समाज में एक सामञ्जस्य स्थापित हो और सबकी प्रगति हो सके।

सच मानें तो हमें मातृभाषा दिवस मनाने का कोई अधिकार नहीं है। बांग्लादेश में लाखों अनाम शहीदों की शहादत से न केवल स्वतन्त्र बांग्लादेश का जन्म हुआ बल्कि विश्ववासियों के लिये राष्ट्रीयता की पहचान बतौर धर्म और क्षेत्रीय अस्मिता के मुकाबले सबको एक सूत्र में पिरोने वाली धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक मातृभाषा को प्रतिष्ठा मिली।

यह साबित हुआ कि उग्रतम धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद या क्षेत्रीय अस्मिता नहीं,बल्कि मातृभाषा के लिये शहीद हो जाने की दीवानगी में ही लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता के बीज हैं, जो इस लोक गणराज्य भारत में संवैधानिक शपथ वाक्य तक ही सीमित एक उदात्त उद्गार मात्र है और कुल मिलाकर बेशकीमती आजादी का बोझ सात दशकों तक ढोते रहने के बावजूद हम एक बेहद संकुचित धर्मोन्मादी नस्लवादी जमात के अलावा कुछ नहीं बन पाये! इसलियेक्योंकि अपनी माँ और मातृभाषा के लिये हममें वह शहादती जुनून अनुपस्थित है!

हम जांबी संस्कृति में निष्णात अतीतजीवी एक सौ बीस करोड़ भारतीय खुद जांबी में तब्दील हैं और हम एक दूसरे को काटने और उन तक वाइरस संक्रमित करने में ही जीवन यापन करके सूअर बाड़े की आस्था में नरक जी रहे हैं और हमें अपनी सड़ती गलती पिघलती देह की सड़ांध, अपने बिखराव, टूटन का कोई अहसास ही नहीं है। हम कंबंधों में तब्दील हैं और आइने में सौन्दर्य प्रसाधन या योगाभ्यास के मार्फत धार्मिक कर्मकाण्डों के बाजारु आयोजन में अपनी प्रतिद्वंदतामूलक ईर्षापरायण खूबसूरती निखारने की कवायद में रोज मर-मर कर जी रहे हैं, जबकि बाजार में तब्दील है राष्ट्र और हमारे राष्ट्रनेता देश बेच खा रहे हैं। हम जैविक क्षुधानिर्भर लोग हैं, जिनकी सांस्कृतिक पहचान धार्मिक आस्था और कर्मकाण्ड, नरसंहार, अस्पृश्यता, खूनी संघर्ष, बहिष्कार और नस्ली भेदभाव के अलावा कुछ भी नहीं है।

इक्कीस फरवरी को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की मान्यता दी है। पर उस दिन और सरकार प्रायोजित हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में उछल कूद मचाने के अलावा हमारा मातृभाषा प्रेम साल भर में यदा कदा ही अभिव्यक्त हो पाता है। मातृभाषा से जुड़े वजूद का अहसास हमें होता ही नहीं है।

अभी पिछले दिनों कर्नाटक में पुनर्वासित बंगाली शरणार्थियों ने वहाँ मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार मिल जाने पर मातृभाषा विजय दिवस मनाया। यह खबर भी कहीं आयी नहीं। बंगाल में भी नहीं। भारत विभाजन के बाद देश भर में छिटक गये शरणार्थी और प्रवासी बंगालियों के लिये बंगाल के इतिहास से बहिष्कृत होने के बाद भूगोल का स्पर्श से वंचित होने के बाद मातृभाषा के जरिये अपना अस्तित्व और  पहचान बनाये रखने की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुयी कर्नाटक में, जहाँ इस उत्सव में देश भर से उन राज्यों के तमाम प्रतिनिधि हाजिर हुये, जहाँ उन्हें मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार नहीं है।

नेहरू के समय में एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था। इसके लिये राज्य पुनर्गठन क़ानून (1956) पास किया गया। आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ यह सबसे बड़ा बदलाव था। इसके तहत 14 राज्यों और छह केन्द्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुयी। इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला। संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला। इसी वर्ष पॉंण्डिचेरी, कारिकल, माही और यनम से फ्रांसीसी सत्ता का अन्त हुआ।

क्षेत्रीय भाषायें और बोलियाँ हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं। इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने इन्हें हम तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं! इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषायें हैं, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं। सन् 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली ऐसी सात हजार से भी ज्यादा भाषायें हैं जो विलुप्त हो सकती हैं।


'नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एण्ड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजज' के अनुसार हरेक पखवाडे एक भाषा की मौत हो रही है। यूनेस्को द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषायें हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। नई पीढ़ी क़े सरोकार असमिया, हिन्दी और अङग्रेजी तक सिमट गये हैं। इसके बावजूद 28 हजार लोग देवरी भाषी, मिसिंगभाषी साढ़े पाँच लाख और बेइटे भाषी करीब 19 हहजार लोग अभी भी हैं। इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाओं के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं।

http://hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2013/05/19/matri-bhasha-divas-by-palash-vishwas#.UZjqYKKBlA0


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