जैसे आदिवासी गांव राजस्व गांव बतौर दर्ज नहीं होते , ठीक वैसे ही हिमालयी गांव भी लावारिश !
हिमालय की त्रासदी की चर्चा करते हुये लोग मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को कोस रहे हैं लेकिन अपने पुरखों के किये कराये को भूल रहे हैं।
पलाश विश्वास
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को मैं निजी तौर पर नहीं जानता। उनकी बहन रीता बहुगुणा कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ की उपाध्यक्ष थीं, उनके बारे में थोड़ी धारणा है। उनके पिता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को हम थोड़ा बहुत जानते हैं। आपातकाल के विरोध के कारण हम लोग जनता पार्टी का समर्थन कर बैठे और तब हेमवतीनंदन बहुगुणा जनता पार्टी की सरकार में मंत्री हो गये। आखिरीबार हमने बाहैसियत छात्रनेता हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र से जनता सरकार बनने के बाद तत्काल हुये विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में चुनाव प्रचार की कमान संभालने कारण राजनेताओं की नंगी सत्तालिप्सा को नजदीक से देखा। तब हम बीए द्वितीय वर्ष के छात्र थे। हमारी वोट डालने की भी उम्र नहीं थी। पिताजी कांग्रेस का समर्थन कर रहे थे औरकेसीपंत और नारायणदत्त तिवारी के साथ बने हुये थे। इस कारण उन दिनों जिले भर में हमारी खूब चर्चा और लोकप्रियता दोनों थी। लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता लायक चूंकि हमारी उम्र नहीं थ, हम तठस्थ भाव से राजनीतिक तमाशा देखने की स्थिति में थे। तब संघी भी जनता पार्टी के साथ थे। हम लोग जयप्रकाश नारायण की अकांग्रेसी संपूर्ण क्रांति के कायल थे। तब हल्द्वानी से इंदिरा ह्रदयेश को टिकट देने की वजह से समाजवादी नेता नंदन सिंह बिष्ट ने विद्रोह कर दिया था। हल्द्वानी में जनसभा थी और हम इंदिराजी के साथ उनकी गाड़ी में थे। हमारे सामने की गाड़ी में बहुगुणा जी थे। प्रदर्शनकारियों ने उनकी गाड़ी रोक दी और उनकी टोपी जमीन पर गिराने के बाद तुमुल प्रदर्शन शुरु कर दिया। हम लोग किसी तरह मंच पर पहुंचे तो जमकर पथराव हो शुरु हो गया और देर रात तक हल्द्वानी में लाठीचार्ज होता रहा। इसके बाद हमने अपनी राजनीतिक पारी हमेशा के लिये खत्म कर दी। उसके बाद नैनीताल में वनों की नीलामी के खिलाफ हुये भयंकर प्रदर्शन के बाद अकेले हम ही नहीं, उत्तराखंड के तमाम छात्र युवा नेता चिपको आंदोलन और उत्तराखंड संघर्षवाहिनी में शामिल हो गये। नैनीताल समाचार का प्रकाशन हो गया था और हम उस टीम के अभिन्न हिस्सा बन चुके थे।
हेमवती नंदन बहुगुणा बहुत शक्तिशाली नेता थे, पर पहाड़ के लिये उन्होंने क्या कुछ किया, यह हिमालयी लोग अच्छी तरह जानते हैं। पिताजी के साथ बहुगुणा का उतना अंतरंग सम्बंध नहीं था जितना कि नारायण दत्त तिवारी और कृष्ण चंद्र पंत के साथ। उनका हमेशा विरोध करते रहने के बावजूद उनके साथ पारिवारिक सम्बंध बने हुये थे। पंत जी तो नहीं रहे। पर तिवारी जी से पिताजी के मृत्युपर्यंत सम्बंध बने रहे। लेकिन हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि पहाड़ के इन तीन महान नेताओं के विकास अभियान का फल आज उत्तराखंड भुगत रहा है। जब टिहरी बांध और दूसरी परियोजनाओं का आरम्भ हुआ, तब इन तीनों नेताओं की तूती बोलती थी। इन तीनों ने अपनी राष्ट्रीय हैसियत के बावजूद हिमालय या हिमालयी जनता के लिये कुछ भी नहीं किया। इनकी सारी कारीगरी पहाड़ को पूँजी के हवाले करने की थी और इनकी राजनीति न पहाड़ और न तराई से चलती थी, वे दिल्ली, लखनऊ और मुंबई के प्रतिनिधि थे।
हिमालय की त्रासदी की चर्चा करते हुये लोग मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को कोस रहे हैं लेकिन अपने पुरखों के किये कराये को भूल रहे हैं। विजय बहुगुणा और रीता बहुगुणा की सारी राजनीति और हैसियत पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसी पृष्ठभूमि के तहत वे मुख्यमंत्री बनाये गये हैं। सितारगंज विधानसभा उपचुनाव भी वे किरण मंडल को तोड़कर जीत नहीं सकते थे, अगर वहां निर्णायक बंगाली वोट बैंक का पहाड़ से बेहतरीन अपनापे का इतिहास नहीं होता और वे नारायण दत्त तिवारी, कृष्णचंद्र पंत, प्रताप भैय्या और डूंगर सिंह बिष्ट को अपने साथ खड़ा नहीं देखते। किरण मंडल को मंत्रित्व का दर्जा देने के सिवाय तराई और शरणार्थियों के लिये उन्होंने कुछ किया हो , ऐसा हम नहीं मानते।
सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, अनुपम मिश्र, भारत डोगरा जैसे लोग, पूरा का पूरा चिपको आंदोलन और उसके तमाम कार्यकर्ता सत्तर के दशक से लगातार वे मुद्दे उठाते रहे हैं, जिन्हें आज मीडिया विशेषज्ञों के हवाले से प्रकाशित प्रसारित कर रहा है। डॉ. खड़ग सिंह वाल्दिया तो अपने डीएसबी कालेज में भूग्रभ शास्त्र विभाग के अध्यक्ष थे, जब हम पढ़ रहे थे। तब भी वे लगातार चेतावनियां जारी कर रहे थे। नैनीताल समाचार की फाइलें उलट लीजिये या पहाड़ और उत्तरा के तमाम अंक देख लीजिये, वहां आपको रामचंद्र गुहा और ज्ञानरंजन भी मिल जायेंगे।
आपदा प्रबंधन कोई तदर्थ व्यवस्था नहीं है। तात्कालिक फौरी बचाव व राहत अभियान से बहुत पहले उसकी व्यवस्था की निरंतरता होती है। रातोंरात हिमालय के हालात बदले नहीं जा सकते। न मौसम बदल सकता है और न जलवायु। नदियों के बहाव में भी तब्दीली नहीं हो सकती। प्राकृतिक संरचना के विरुद्ध विकास अश्वमेध के नाम पर पूंजी और खुले बाजार के खेल में आपदा प्रबंधन असंभव है। 2006 में ग्लेशियर कमिटी बना लेने का दावा किया जा रहा है। कमेटियां बनती रहती हैं। विशेषज्ञ भी राय देते रहते हैं। पर आपदा प्रबंधन के लिये प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट और हिमालय के पर्यावरण और भूगर्भीय संरचना, नदियों के बहाव , घाटियों के आाकार प्रकार, ग्लेशियरों की सेहत से छेड़छाड़ पहले तुरंत प्रभाव से बंद होनी चाहिए। पूरे हिमालय में कृषि पर निर्भरता खत्म की गयी है। कृषि आधारित समाज ही पर्यावरण संरक्षण कर सकता है। कृषि विरोधी विकास के आधार पर पर्यावरण संरक्षण हो नहीं सकता।
दरअसल, चिपको आंदोलन भी स्वभाव से एक कृषि आंदोलन ही था, जिसका शोर तो बहुत हुआ लेकिन असर हुआ नहीं। पूरा हिमालय ठूंठ का जंगल बन गया है। गांतोक हो या दार्जिलिंग, नैलीताल हो या शिमला सब प्रकृति विरोधी निर्माण और विनिर्माम के शिकार हैं। मंदाकिनी घाटी अत्यंत संवेदनशील इलाका है, जहां पंच प्रयाग हैं। पांच नदियों की जलधारा अलकनंदा में मिलती हैं जहां। इन नदियों के बहाव के विरुद्ध और केदार बद्री से लेकर गंगोत्री यमुनोत्री के ऊपर ग्लेशियरों के चरित्र को समझे बिना जो निर्माण विनिर्माण धर्म कर्म के नाम पर बेरोकटोक चलता रहा, उसमें आपदा प्रबंधन की गुंजाइश कहां बनती है? हमारे पर्यावरण प्रेमी धार्मिक लोग गंगा की अविरल धारा की रट लगाये रहते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि गंगा कोई एक नदी नहीं है पहाड़ में। पंजाब और अब पाकिस्तान होकर जो पंचनदियां प्रवाहित होती हैं, वे आखिर हिमालय से ही निकलती हैं। चीन से निकलकर अरुणाचल और असम होकर जो महानद ब्रह्मपुत्र बांगलादेश और म्यांमार को सींचता है, वह भी आखिर हिमालय से जुड़ता है। गंगा उत्तराखंड से निकलकर बंगाल होकर बाग्लादेश पहुंचता है तो तिस्ता के जल पर भी निर्भर है बांग्लादेश। इसी तरह कोसी, काली और शारदा नदियों के जरिये भारत और नेपाल जुड़ते हैं।
आपदा प्रबंधनके लिये इसलिये सबसे जरुरी है साझा जल संसाधनों का प्रबंधन। जबकि हमारे यहां तो कश्मीर और हिमाचल, उत्तराखंड और हिमाचल, बंगाल और सिक्किम के बीच भी कोई तालमेल नहीं है।
उत्तराखंड की कृषि पर निर्भरता महज चौवालीस प्रतिशत तक सिमट गयी है जबकि उसके पास भारत भर में सबसे उपजाऊ जमीन तराई में है। इसके मुकाबले हिमाचल में छियासठ प्रतिशत कृषि निर्भरता है। मीडिया ने महज केदारघाटी पर फोकस किया, इसलिये वहां की आपदा पर इतनी बड़ी चर्चा हो रही है। इसी के आलोक में शतपंथ झील से जलविस्फोट के कयास के तहत बद्रीनाथ पर भी केदारनाथ जैसे जलप्रलय के संकट की चर्चा हो रही है। लेकिन लगभग हरसाल भागीरथी, भिंलगना, टौंस, व्यास, दरमा, सोमेश्वर घाटियों परमचने वाली तबाही की कोई चर्चा नहीं होती। जलप्रलय का असर कोई गंगोत्री क्षेत्र में कम नहीं था, जहां भारत चीन सीमा पर आखिरी गांव धाराली तबाह हो गयी। वहां करीब चार सौ मंदिर ध्वस्त हुये लेकिन हम लोग एक एक मंदिर की चर्चा कर रहे हैं क्योंकि वे धाम हैं। हमें ग्रामदेवताओं के हत्व और उनकी लोक विरासत के बारे में कोई् अंदाजा नहीं है, जिसकी गर्भ में जनमती है नैसर्गिक पर्यावरण चेतना। जो अब भी हिमाचल में बची हुई है लेकिन उत्तर आधुनिक उत्तराखंड, कृषि विमुख उत्तराखंड में मृतप्राय है।
पर्यावरण की बात करें तो तो विकास का विरोध मान लिया जाता है। पर्यटन औरत तीर्थाटन की खिलाफत मान ली जाती है। सवाल यह है कि तीर्थाटन और पर्यटन का जो कारोबार है औरम मुक्त बाजार में जो विकास कार्यक्रम हैं, उनपर कब्जा किनका है? सातमंजिली जो आधुनिकता केदारनाथ तीर्थटन के प्राण की नदीप्रवाह को खंडित प्रतिष्ठा हुई, उनमें हिमालयी लोगों का कितना हित सधा? पर्यटनस्थलों और तीर्थस्थलों, तमाम यात्राओं में हिमालयी जनता का हिस्सा कितना है? पहाड़ में भूकंप, जलप्रलय और निरंतर भूस्खलन को न्यौता देकर किनका है यह निर्माण विनिर्माण? गांतोक, नैनीताल, मंसूरी, देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश से लेकर शिमला, केदार बदरी तक सर्वे करा लीजिये! समझा जा सकता है कि किन दबावों के तहत मुख्यमंत्री ने तीर्थपथ आपदा व आपदा प्रबंधन की जांच कराने से सिरे से इंकार करते हुये झटपट खोल देने की घोषणा कर दी। ऱाजधानी देहरादून में ही नदी की हत्या करके सिडकुल और आईटीपारक बसान का काम हुआ। हम गंगा. यमुना और हद से हद ब्रह्मपुत्र की चर्चा करते रहते हैं, लेकिन रामगंगा, कोसी, टौंस, तिस्ता, तोर्सा, काली, शारदा,कोसी जैसी नदियं के प्रवाह को लेकर कतई चिंतित नहीं होते। हम पर्यटन और तीर्थाटन से कारोबार तो चलाना चाहते हैं और उसमें कोई कोताही नहीं बरतते, लेकिन पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा और सहूलियतों, उनकी जन माल के बारे में थोड़ी सी वैज्ञानिक व्यवस्था बनाने को तैयार नहीं है।
क्या सिर्फ गंगोत्री और केदार बद्री के ग्लेशियरों से हिमालय, हिमालयी जनता और इस महादेश को खतरा है पिंडर जैसे बाकी ग्लशियरों का क्या जब नैनी झील की सेहत का ख्याल किये बिना उसे मलबे से पाट रहे हैं आप तो शतपंथ को कैसे संभालेंगे फिर टिहरी बांध और सैकड़ों छोटे बड़े बांधों का बम परमाणु बम भी तो आपने लगाया हुआ है।
सार तो यह है कि पर्यावरण चेतना के बिना कोई आपदा प्रबंधन नहीं हो सकता। यह मौसम चेतावनी के मद्देनजर फौरी बचाव व राहत अभियान का मामला है नहीं, बल्कि विपर्यय की स्थाई समस्याओं के समाधान का मामला है। वह विकास और वह कारोबार ही कैसा, जो मंदाकिनी घाटी और गंगोत्री की तो परवाह करें, पर बाकी नदियों, शिखरों, घाटियों और नगरों के आर पार ग्रामीण जनता को बेमौत मरने के लिये छोड़ दें। तबाही का आलम उत्तराखंड, हिमाचल और नेपाल तक में समान विध्वंसक रहा, लेकिन कारोबारी गरज के तहत बाकी इलाकों और स्थानीय जनता की सुधि नहीं ली गयी। हिमालयी लोगों के विस्थापन, बेदखली, मौतों और गुमशुदगी का कोई आंकड़ा कभी दर्ज नहीं हुआ है और न होंगे। जैसे आदिवासी गांव राजस्व गांव बतौर दर्ज नहीं होते , ठीक वैसे ही हिमालयी गांव भी लावारिश हैं।
हम विजय बहुगुणा को नहीं जानते। पर अल्मोड़ा के सांसद प्रदीप टमटा और पिथौरागढ़ से उत्तराखंड क्रांतिदल के शीर्ष नेता काशीसिंह ऐरी को जानते हैं। विधानसभा में अनेक लोग हैं, जिन्हें हम छात्र जीवन से जानते रहे हैं। इंदिरा ह्रदयेश से लेकर यशपाल आर्य तक को हम जानते हैं। क्या वे लोग भी आपदा प्रबंधन में विफलता के लिये समान रुप से जिम्मेवार नहीं हैं ? और वे लोग जिनकी पहचान उनकी पर्यावरण चेतना और पर्यावरण आंदोलन के कारण ही है?
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