Monday, July 15, 2013

मनुष्य की लापरवाही प्रकृति के व्यवहार को त्रासद बनाती है

मनुष्य की लापरवाही प्रकृति के व्यवहार को त्रासद बनाती है

खड्ग सिंह वल्दिया

uttarakhand_catastrophy_reutersउत्तराखंड की त्रासद घटनाएँ मूलतः प्राकृतिक थीं। अतिवृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक है। लेकिन इनसे होने वाला जान-माल का नुकसान मानव-निर्मित हैं। अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार जिम्म्मेदार है। वह अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती। यहाँ तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है। वैज्ञानिक नजरिये से समझने की कोशिश करें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार नदियाँ इतनी कुपित क्यों हुईं ?

नदी घाटी काफी चौड़ी होती है। बाढ़ग्रस्त नदी के रास्ते को 'फ्लड वे' (वाहिका) कहते हैं। यदि नदी में सौ साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके उस मार्ग को भी 'फ्लड वे' माना जाता है। इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है। इस छूटी हुई जमीन पर निर्माण कर दिया जाए तो खतरा हमेशा बना रहता है। केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो 'फ्लड वे' हैं। कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी। लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी। जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपने पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी, जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए।

केदारनाथ मंदिर इस लिए बच गया, क्योंकि ये मंदाकिनी की पूर्वी और पश्चिमी पथ के बीच की जगह में बहुत साल पहले ग्लेशियर द्वारा छोड़ी गई एक भारी चट्टान के आगे बना था। नदी के 'फ्लड वे' के बीच मलबे से बने स्थान को 'वेदिका' या 'टैरेस' कहते हैं। पहाड़ी ढाल से आने वाले नाले मलबा लाते हैं। हजारों साल से ये नाले ऐसा करते रहे हैं।

पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे। पहले के किसान वेदिकाओं पर घर नहीं बनाते थे। वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे। लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल इत्यादि बना दिए गए हैं। यदि आप नदी के स्वाभाविक, प्राकृतिक पथ पर निर्माण करेंगे तो नदी के रास्ते में हुए इस अतिक्रमण को हटाने के लिये बाढ़ अपना काम करेगी ही। यदि हम नदी के 'फ्लड वे' के किनारे सड़कें बनाएँगे तो वे बहेंगे ही।

मैं इस क्षेत्र में होने वाली सड़कों के नुकसान के बारे में भी बात करना चाहता हूँ। पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं, जहाँ दरारें होने के कारण भूस्खलन होते रहते हैं। इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते। चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता। यह काफी महंगा भी होता है। भूस्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है। इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं। ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे। ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू इत्यादि से बने होते हैं। ये अंदर से ठोस नहीं होते। काटने के कारण ये मलबे और ज्यादा अस्थिर हो गए हैं।

इसके अलावा यह भी दुर्भाग्य की बात है कि इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय नहीं किया। उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था और जो नालियाँ पहले से बनी हुई हैं, उन्हें साफ रखना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। हिमालय अध्ययन के अपने पैंतालीस साल के अनुभव में मैंने आज तक भूस्खलन के क्षेत्रों में नालियाँ बनते या पहले के अच्छे इंजीनियरों की बनाई नालियों की सफाई होते नहीं देखा है। नालियों के अभाव में बरसात का पानी धरती के अंदर जाकर मलबों को कमजोर करता है। मलबों के कमजोर होने से बार-बार भूस्खलन होते रहते हैं।

इन क्षेत्रों में जल निकास के लिए रपट्टा (काज वे) या कलवर्ट (छोटे-छोटे छेद) बनाए जाते हैं। मलबे के कारण ये कलवर्ट बंद हो जाते हैं। नाले का पानी निकल नहीं पाता। इंजीनियरों को कलवर्ट की जगह पुल बनाने चाहिए, जिससे बरसात का पानी अपने मलबे के साथ स्वतंत्रता के साथ बह सके। पर्यटकों के कारण दुर्गम इलाकों में होटल इत्यादि बना लिए गए हैं। ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने होते हैं, जो मलबों से बनी होती है। नाले से आए मलबे पर मकानों का गिरना तय था।

हिमालय और आल्प्स जैसे बड़े-बड़े पहाड़ भूगर्भीय हलचलों (टैक्टोनिक मूवमेंट) से बनते हैं। हिमालय एक अपेक्षाकृत नया पहाड़ है और अभी भी उसकी ऊँचाई बढ़ने की प्रक्रिया में है। हिमालय अपने वर्तमान बृहद् स्वरूप में करीब दो करोड़ वर्ष पहले बना है। भूविज्ञान की दृष्टि से किसी पहाड़ के बनने के लिए यह समय बहुत कम है। हिमालय अब भी उभर रहा है, उठ रहा है। यानी अब भी वे हरकतें जारी हैं, जिनके कारण हिमालय का जन्म हुआ था। हिमालय के इस क्षेत्र को 'ग्रेट हिमालयन रेंज' या 'बृहद् हिमालय' कहते हैं। संस्कृत में इसे 'हिमाद्रि' कहते हैं। यानी सदा हिमाच्छादित रहने वाली पर्वतश्रेणियाँ। इस क्षेत्र में हजारों-लाखों सालों से ऐसी घटनाएँ हो रही हैं। प्राकृतिक आपदाएँ कम या अधिक परिमाण में इस क्षेत्र में आती ही रही हैं।

केदारनाथ, चौखम्बा या बद्रीनाथ, त्रिशूल, नन्दादेवी, पंचाचूली इत्यादि श्रेणियाँ इसी बृहद् हिमालय की श्रेणियाँ हैं। इन श्रेणियों के निचले भाग में, करीब-करीब तलहटी में कई लम्बी-लम्बी झुकी हुई दरारें हैं। जिन दरारों का झुकाव 45 डिग्री से कम होता है, उन्हें झुकी हुई दरार कहा जाता है। वैज्ञानिक इन दरारों को 'थ्रस्ट' कहते हैं। इनमें से सबसे मुख्य दरार को भूवैज्ञानिक 'मेन सेंट्रल थ्रस्ट' कहते हैं। इन श्रेणियों की तलहटी में इन दरारों के समानांतर और उससे जुड़ी हुई ढेर सारी थ्रस्ट हैं। इन दरारों में पहले भी कई बार बड़े पैमाने पर हरकतें हुईं थी। धरती सरकी थी, खिसकी थी, फिसली थी, आगे बढ़ी थी, विस्थापित हुई थी। परिणामस्वरूप इस पट्टी की सारी चट्टानें कटी-फटी, टूटी-फूटी, जीर्ण-शीर्ण, चूर्ण-विचूर्ण हो गईं हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये चट्टानें बेहद कमजोर हो गई हैं। इसीलिए बारिश के छोटे-छोटे वार से भी ये चट्टानें टूटने लगती हैं, बहने लगती हैं। और यदि भारी बारिश हो जाए तो बरसात का पानी उसका बहुत सा हिस्सा बहा ले जाता है। कभी-कभी तो यह चट्टानों के आधार को ही बहा ले जाता है। भारी जल बहाव में इन चट्टानों का बहुत बड़ा अंश धरती के भीतर समा जाता है और धरती के भीतर जाकर भितरघात करता है। धरती को अंदर से नुकसान पहुँचाता है।

इसके अलावा इन दरारों के हलचल का एक और खास कारण है। भारतीय प्रायद्वीप उत्तर की ओर साढ़े पाँच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से सरक रहा है, यानी हिमालय को दबा रहा है। धरती द्वारा दबाये जाने पर हिमालय की दरारों और भ्रंशों में हरकतें होना स्वाभाविक है।

(बी.बी.सी. से साभार)

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