Wednesday, 10 July 2013 10:14 |
अनिल चमड़िया आखिर नंदी को भ्रष्टाचार में जाति और वह भी केवल पिछड़ी, अछूत और आदिवासी जातियां क्यों दिखीं? दूसरी तरह से यह भी सोचा जा सकता है कि अगर आशीष नंदी का पालन-पोषण और परिवेश भिन्न होता तो क्या वे इस तरह से भ्रष्टाचार को देखते? जाहिर-सी बात है कि उन्होंने 1990 से पहले की स्थिति में भ्रष्टाचार को इस रूप में नहीं देखा होगा। दिक्कत यह है कि अकादमिक क्षेत्र में भी संसदीय राजनीति की तरह ही आरोप और साफ-सफाई की जाती है। अकादमिक क्षेत्र अपने विषय को परत-दर-परत खंगालने की कोशिश करने का नाम है। वरना वह दूसरी किस बात के लिए अकादमिक होने का दर्जा प्राप्त कर सकता है? आशीष नंदी एक समाजशास्त्री हो सकते हैं, लेकिन वे भारतीय समाज में जन्मे, पले-बढ़े और शैक्षणिक क्षेत्र में सक्रिय व्यक्ति हैं। व्यक्ति के जातिवादी होने और जातीय भावना के बीच एक फर्क करना जरूरी लगता है। इस फर्क को अरुण उरांव के प्रोफेसर की टिप्पणी और उषा जाधव की उपेक्षा के कारणों में भी देखा जा सकता है। आखिर अरुण के प्रोफेसर को क्या जातिवादी नहीं कहेंगे? वे समझते हैं कि आदिवासी की जिस तरह की शक्ल-सूरत और उसका नाम होना चाहिए उसी तरह से उसके बोलने-बतियाने की एक सीमित भाषा निश्चित है। वे उस सीमारेखा को पार होते देख तिलमिलाते हैं। लक्ष्मण रेखा उसी का नाम है। यानी उनके पूरे सोच में जाति का एक ढांचा है। उसे टूटते देख उन्हें दर्द होता है। इस टूटन के दर्द की अभिव्यक्ति को जातिवाद नहीं तो और क्या कहेंगे?आखिर उषा जाधव के नाम और धूल-धूसरित चेहरे से फिल्म निर्माताओं को क्यों लगा कि वह घर की बाई की ही भूमिका अदा कर सकती है? सौंदर्य बोध क्या जातिवाद से अलग है? यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि बहुत सारे लोगों के बारे में ऐसे ही बात की जाती है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में एक नाटक के दौरान शुरुआती दृश्यों को देख आगे की पंक्ति में खड़े दर्शक बहुत खुश थे। उन दृश्यों में यह बताया गया था कि कैसे आरक्षण की वजह से शिक्षा का बुरा हाल हो रहा है। लेकिन नाटक के आगे बढ़ने के साथ-साथ उनकी खुशी एक खामोशी में तब्दील होती चली गई और आखिरकार उनके पास खामोशी के अलावा कुछ नहीं था। नाटक में यह दिखाया गया कि एक सवर्ण को एक दिन के लिए दलित बना दिया गया। एक दिन में ही उसे अपने जीवन से ऊब होने लगी। उसने दलित के चेहरे को उतार फेंका। वह अपनी जाति में वापस लौट आया। शुरुआती दृश्यों पर दर्शकों की खुशी भरी प्रतिक्रिया का विश्लेषण करते हुए एक शिक्षक ने कहा कि दरअसल खुश होने वाले दर्शक जातिवादी नहीं हैं। चूंकि उन्हें ऐसा ही बताया गया है कि आरक्षण और शिक्षा के स्तर में गिरावट का सीधा संबंध है, अब वे उसी तरह से अपने शिक्षण संस्थानों को देखने लगे हैं कि विशेष अवसर की व्यवस्था के तहत आने वाले समाज के उपेक्षित वर्गों की वजह से ही योग्यता के उत्पादन में गिरावट दर्ज की जा रही है। दर्शक जातिवादी नहीं हैं, यहां भी यह मान लिया जाए। तब क्या यह कहा जाए कि उनकी शुरुआती प्रतिक्रिया जातीय भावना से प्रेरित थी? दूसरे, यह भी अगर कहने की कोशिश की जा रही है कि यह उनकी अपनी प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि उनके भीतर इस तरह की ही प्रतिक्रिया की जगह बनाई गई है तो वह किसने बनाई है? इस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करने की भाषा उन्हें कहां से मिली और वे उसे ढोने के बजाय सच समझने की कोशिश करने के लिए क्यों नहीं प्रेरित होते? आखिर उनकी शिक्षा व्यवस्था में ही जातीय भावना को समझने की प्रेरणा कहीं से क्यों नहीं मिल पाती है; बल्कि उसे मजबूत करने के लिए उसे ढोते रहने का प्रोत्साहन कैसे मिलता रहता है? अगर यह कहा जाए कि व्यवस्था में कोई जातिवादी भले न हो, लेकिन जातीय भावना, उस तरह की सोच-समझ वहां सक्रिय है, तो यह स्वीकार करने में गुरेज नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, भारतीय समाज में जातिवाद को लेकर विमर्श के कुछ रटे-रटाए सूत्र हैं। उन सूत्रों की समस्या यह है कि वे जातिवाद का विरोध करते हुए उसे मजबूत करते हैं। जैसे अमेरिका लोकतंत्र की बात करते-करते कैसे पूरी दुनिया में अपना साम्राज्य खड़ा करता है। मूल बात यह है कि जातिवाद का विरोध करने का पाठ कैसे तैयार किया गया है और उसे पढ़ाने वाला कौन है और उस पाठ को किस तरह से पढ़ा जा रहा है। अकादमिक स्तर पर तो जातिवाद के विमर्श की भाषा ही तैयार नहीं की जा सकी है। भारतीय समाज में जाति और जातिवाद को खत्म करने के कोई नियम नहीं हैं। केवल विमर्श है और ऐसा विमर्श है कि वहां केवल विमर्श में दिलचस्पी है। वह मनोरंजन और अवसरवाद की जगह ले लेता है। (जारी) |
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