दागियों को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बंगाल में भी हड़कंप!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
दागियों को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बंगाल में भी हड़कंप मच गया है। बंगाल में भी दूसरे राज्यों की तरह बाहुबलियों का राजनीतिक वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है।करीब करीब सभी दलों से जुड़े अनेक नेताओं के खिलाफ अदालतों में आपराधिक मामलों का इतिहास है।राज्य के दो मंत्री कृषि मंत्री मलय घटक और कृषि राज्य मंत्री बेचाराम मान्ना के अलावा बीस विधयकों के खिलाफ अदालतों में आपराधिक मामले हैं। अब इनके भविष्य पर कयास लगाये जा रहे हैं।सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद अब दागी नेताओं की खैर नहीं। 2 साल से ज्यादा की सज़ा मिलते ही अब सांसद, विधायकों की सदस्यता खत्म हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) के तहत नेताओं को मिला सुरक्षा कवच खत्म कर दिया है, जिसके तहत जनप्रतिनिधि अपील लंबित होने तक सदस्य बने रहते थे।झारखंड में सबसे ज्यादा 72 फीसदी विधायकों के खिलाफ कोई ना कोई आपराधिक मामले चल रहे हैं। झारखंड में कुल दागी विधायकों की संख्या 55 है।
केंद्रीय रेल राज्यमंत्री अधीर चौधरी ने पहले ही बता दिया है कि उन्हें झूठे मामलों में फंसाया जाता रहा है। जबकि पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी जनप्रतिनिधित्व कानून का हवाला दे रहे हैं।
पूर्व न्यायाधीश भगवती प्रसाद की शंका है कि अदालती सजा की वजह से अगर किसी को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया जाये और बाद में वह निर्दोष साबित हो तो न्याय का क्या होगा।। अगर निचली अदालत के फैसले ऊपरी अदालत में और हाईकोर्ट के फैसले सुप्रीम कोर्ट में बदल जाते हो तो फिर दोषी के दोष को सही माना कब जाये?
सुप्रीम कोर्ट ने वकील लिली थॉमस और गैरसरकारी संगठन लोक प्रहरी के सचिव एस.एन. शुक्ला की जनहित याचिका पर यह फैसला सुनाया। इन याचिकाओं में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को निरस्त करने का अनुरोध करते हुए कहा गया था कि इस प्रावधान से संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन होता है।इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जेल या पुलिस कस्टडी में रहने वाले शख्स चुनाव नहीं लड़ सकते। अदालत ने कहा है कि जेल और पुलिस कस्टडी में रहने वाले शख्स को वोटिंग का अधिकार नहीं है ऐसे में उन्हें चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं है। पटना हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जेल और पुलिस कस्टडी काटने वाला शख्स चुनाव नहीं लड़ सकता। अदालत ने कहा कि जिन्हें वोट देने का अधिकार नहीं, वह चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं रखते। इस मामले में पटना हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दाखिल याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि यह बात उन लोगों पर लागू नहीं होगी जो प्रिवेंटिव डिटेंशन में हैं।
गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने इस साल की शुरुआत में कहा था कि अदालत से दोषी ठहराए गए सांसद, विधायक को अपील पर अंतिम फैसला होने तक सदन का सदस्य बने रहने की छूट देने वाला कानून सही और जरूरी भी है। सरकार ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) का पक्ष लेते हुए सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर यही दलील दी थी।
बंगाल में जिन विधायकों के आपराधिक मामलों में फंसे होने की वजह से मुश्किल हो सकती हैं,उनमें तेरह सत्तादल तृणमूल कांग्रेस के हैं। दो कांग्रेस,तीन फारवर्ड ब्लाक और एक गोरखा जनमुक्ति मोर्च के अलावा एक निर्दलीय भी।
तृणमूल के तेरह विधायक हैं: केतुग्राम के शेख शाहनवाज, हरिपाल के बेचाराम मान्ना, भाटपाड़ा के अर्जुन सिंह, डेबरा के ऱाधाकांत माइति, पाथरप्रतिमा के समीर कुमार जाना, रामनगर के अखिल गिरि, रानीगंज के मोहम्मद सोहराब अली, कृष्णगंज के सुशील विश्वास, आसनसोल उत्तर के मलयघटक, शालबनी के श्रीकांत महतो, डायमंडहारबार के दीपक कुमार हाल्दार, भातार के वनमाली हाजरा और नाटाबाड़ी के रवींद्रनात घोष।
फारवर्ड ब्लाक के तीन विधायक इस सूची में हैं और वे हैं: गोघाट के विश्वनाथ कारक, चाकुलिया के अली इमरान और दिनहाटा के उदयन गुह।
कांग्रेस के दो विधायक रेजीनगर से पूर्व विधायक हुमांयू कबीर जो ्ब तृणमूल कांग्रेस में हैं औरकांदी के अपूर्व सरकार।
सबसे ज्यादा मामले कृषि राज्यमंत्री बेचाराम मान्ना के खिलाफ हैं, उनके खिलाफ 22 मामले हैं जबकि शेख शहनवाज के खिलाफ 17..
इनके अलावा पूर्ववर्ती वाम सरकार के प्रभावशाली मंत्री रेज्जाक मोल्ला और सुशांत घोष के खिलाफ भी आपराधिक मामले हैं। माकपा के पूर्व सांसद लक्ष्मम सेठ भी फंसे हुए हैं। रेल राज्य मंत्री अधीर चौधरी ने तो अपनी सफाई दे ही दी है।
जाहिर है कि दागी नेताओं को सत्ता के सुख से रोकने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जहां आम जनता खुश हैं, वही राजनैतिक पार्टियां धीरे-धीरे खुलकर इसकी मुखालफत करती हुई सामने आने लगी हैं। नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। जो बताती है कि लोकसभा में 150 सांसद दागी है। और दागियों को उम्मीदवार बनाने में सबसे आगे कांग्रेस और बीजेपी है।
दागी विधायकों के आंकड़े के मामले में बिहार का स्थान दूसरा है जहां 58 फीसदी विधायक दागी है। बिहार में 140 विधायक ऐसे जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। यहां धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन टूट चुका है। लेकिन राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाना यहां की सरकार के लिए आसान नहीं है।
51 फीसदी दागी विधायकों के साथ महाराष्ट्र ने इस शर्मनाक लिस्ट में तीसरा स्थान पाया है। कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार वाली इस राज्य में कुल 146 विधायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ कोई ना कोई आपराधिक मामले चल रहे हैं।
इसके बाद उत्तरप्रदेश की बारी आती है। सपा सरकार वाली इस प्रदेश में 47 फीसदी विधायक दागी हैं। लेकिन दागी विधायकों की संख्या के मामले में यह प्रदेश सबसे अव्वल है। यहां कुल 189 विधायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ कोई ना कोई आपराधिक मामले चल रहे हैं।
30-35 फीसदी दागी विधायकों वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, गुजरात, ओडिसा, तमिलनाडु, गोवा और पुडुचेरी।
दागी विधायकों के मामले में मणिपुर ही एकमात्र राज्य ऐसा है जो बिल्कुल बेदाग है। यहां एक भी विधायक ऐसा नहीं है जिसके के खिलाफ कोई आपराधिक मामला चल रहा हो। इस प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है।
कुछ अन्य राज्यों में दागी विधायकों का आंकड़ा कुछ इस प्रकार है। ये आंकड़े पिछले चुनाव में विधायकों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए शपथ पत्र के आधार पर है। इस आंकडे़ में चुनाव के बाद हुए अपराध को शामिल नहीं किया गया है.- आंध्रप्रदेश-75 (26%), अरुणाचल प्रदेश- 2 (3%), असम-13 (10%), छत्तीसगढ़- 9 (10%), दिल्ली- 8 (11%), हरियाणा- 15 (17%), हिमाचल प्रदेश- 14 (21%), जम्मू और कश्मीर- 7 (8%), झारखंड- 55 (72%), मध्य प्रदेश- 57 (26%), मेघालय- 1 (2%), मिजोरम- 4 (10%), नागालैंड- 1 (2%), पंजाब- 22 (19%), राजस्थान- 30 (15%), सिक्किम- 1 (3%), तमिलनाडु- 70 (30%), त्रिपुरा- 6 (10%), उत्तराखंड- 20 (29%)।
सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले से राजनीति से दागी-दोषी नेताओं को दूर करने का सिलसिला शुरू होने जा रहा है उसके लिए श्रेय जाता है दिल्ली की बुजुर्ग वकील लिली थामस और लखनऊ की संस्था लोक प्रहरी को। बढ़ती उम्र के चलते लिली थामस अशक्त हैं। उन्हें व्हील चेयर का सहारा लेना पड़ता है और सुनने में भी दिक्कत है, लेकिन उनके हौसले बुलंद हैं।
आपराधिक चरित्र के जनप्रतिनिधियों को बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने जोर का झटका दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसके बाद आपराधिक चरित्र के नेताओं के लिए चुनाव मुश्किल हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश के मुताबिक अगर सांसदों और विधायकों को किसी भी मामले में 2 साल से ज्यादा की सजा हुई है तो ऐसे में उनकी सदस्यता (संसद और विधानसभा से) रद्द हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर तत्काल प्रभाव से लागू होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) निरस्त कर दिया है। हालांकि, कोर्ट ने इन दागी प्रत्याशियों को एक राहत जरूर दी है। सुप्रीम कोर्ट का कोई भी फैसला इनके पक्ष में आएगा तो इनका सदस्यता स्वत: ही वापस हो जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने के बावजूद सांसदों, विधायकों को संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनी प्रावधान निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने दोषी निर्वाचित प्रतिनिधि की अपील लंबित होने तक उसे पद पर बने रहने की अनुमति देने वाले जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधान को गैरकानूनी करार दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के मुताबिक, इतना ही नहीं, कैद में रहते हुए किसी नेता को वोट देने का अधिकार भी नहीं होगा और न ही वे चुनाव लड़ सकेंगे। फैसले के मुताबिक, जेल जाने के बाद उन्हें नामांकन करने का अधिकार नहीं होगा। हालांकि, आज से पहले सजा पा चुके लोगों पर यह फैसला लागू नहीं होगा। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करने के बाद यह ऐतिहासिक फैसला दिया है। कोर्ट ने पार्टियों के सामने आपराधिक चरित्र के नेताओं को खड़ा करने का अब कोई भी विकल्प नहीं छोड़ा है। इस फैसले में कोर्ट ने फैसले को चुनौती देने की भी गुंजाइश नहीं छोड़ी है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.के. पटनायक और जस्टिस एस.जे. मुखोपाध्याय की बेंच ने अपने फैसले में कहा है कि संविधान के आर्टिकल-326 के तहत जो भी भारतीय है उसे वोट देने और चुनाव लड़ने का हक है। जो लोग संविधान के तहत अयोग्य नहीं हैं, वे चुनाव में वोटिंग कर सकते हैं और चुनाव लड़ सकते हैं। आर्टिकल-326 के तहत संसद ने रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल ऐक्ट (आरपीए) बनाया। जिसके तहत वोटर रजिस्टर्ड किए जाते हैं। इसके तहत चुनाव कंडक्ट करने का भी प्रावधान है। जो लोग 18 साल से कम हैं या फिर पागल हैं या फिर क्राइम और करप्ट प्रैक्टिस में हैं वह वोटिंग के लिए अयोग्य हैं। आरपीए की धारा-4 के तहत प्रावधान है कि जो लोग वोटर हैं वही लोकसभा के मेंबर हो सकते हैं जबकि सेक्शन-5 कहता है कि जो लोग वोटर हैं वह एमएलए बन सकते हैं।
वहीं धारा-62 (5) के तहत वोट देने के अधिकार के बारे में व्याख्या है। वह शख्स वोट नहीं दे सकता जो जेल में सजा काट रहे है या निर्वासन या फिर अन्य तरह से या फिर कानूनी तरह से पुलिस कस्टडी में है। ऐसे लोगों को वोटिंग का अधिकार नहीं होता। हालांकि, यह धारा प्रिवेंटिव डिटेंशन पर लागू नहीं होती। पटना हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान दलील दी गई कि वह शख्स जो जेल में सजा काट रहा हो या दूसरी तरह से या फिर निर्वासन में हो या फिर पुलिस कस्टडी में हो वह धारा-62 (5) के तहत वोट नहीं दे सकता। इस तरह उसे चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं है। क्योंकि आरपीए की धारा-4 व 5 कहती है कि जो लोग वोटर हैं वहीं लोक सभा या फिर एमएलए की योग्यता रखते हैं। हाई कोर्ट ने कहा था कि जो लोग दोषी हैं उन्हें चुनाव से दूर रखा गया है। साथ ही जो लोग कानून तौर पर पुलिस कस्टडी में हैं उन्हें भी वोटिंग का राइट नहीं है।
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