फिर कांग्रेस के साथ खड़ी होगी माकपा, बंगाल लाइन की जीत तय!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
माकपा की बंगाल लाइन का जलवा देखने को एकबार फिर तैयार हो जाइये। कांग्रेस के नेता दिल्ली में कहने लगे हैं कि गठबंधन सरकार में वामपंथी सबसे ज्यादा जिम्मेदार होते हैं और चूंकि उनकी नीतियां स्पष्ट होती हैं, इसलिए उनके साथ काम करने में कोई असुविधा नहीं होती। बंगाल के माकपाई परमाणु संदि के मुद्दे पर केंद्र के यूपीए सरकार से समर्थन वापसी को बंगाल में 35 साला वामशासन के अवसान का मुख्य कारण बताते रहे हैं। इस वजह से अरसे तक पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने माकपा महासचिव प्रकाश कारत का चेहरा भी नहीं देखा। बंगाल के नेता इस फैसले के पीछे कारत का हाथ देखते हैं। बंगाल से राज्यसभा तक पहुंचे माकपाई केंद्रीय नेताओं का मत भी बंगसम्मत रहा है। अब पंचायत चुनावों के परिणाम आने पर बंगाल में शत्रू नंबरएक की बहस तेज हो जाने की उम्मीद है। केंद्रीय नेतृत्व को भी मौका मिल रहा है क्योंकि प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की साफ राय है कि संघ परिवार की ओर से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्रित्व का दावेदार बनाये जाने से धार्मिक समीकरण तेज होगा और इस धर्मयुद्ध में भारत लोक गणराज्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। वामपंथी खासतौर पर माकपाइयों के लिए संघ पिलवार को सत्ता तक पहुंचने के लिए रोकने के लिए कांग्रेस के साथ खड़ा होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ममता बनर्जी के उत्थान और क्षेत्रीय दलों के गठबंधन की सियासत से तीसरे मोर्चे का आयोजन भी वामपंथियों के लिए अब असंभव है। ऐसे में जनतादल युनाइटेड ने संघ परिवार के साथ सत्रह साल पुरानगठबंधन तोड़कर कांग्रेस के साथ तालमेल करके बिहार में सत्ता बचाने की जुगत लगा रहे हैं तो बंगाल में वापसी का रास्ता खोलने के लिए इस मौके का भरपूर इस्तेमाल न करने लायक विचारधारा बंगाली माकपाइयों की हो नहीं सकी। सत्ता सुख से वंचित केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी बंगाल लाइन खारिज करने लायक परिस्थितियां अब नहीं हैं।लिहाजा बहुत तेजी से कांग्रेस और माकपा की दूरियां घटने लगी हैं।
मसलन सुप्रीम कोर्ट के दागियों और जेलों में बंद राजनेताओं के खिलाफ हालिये फैसले से माकपा के मुकाबले कांग्रेस, भाजपा और तृणमूल काग्रेस पर ज्यादा असर होने की आशंका है। क्षेत्रीय दलों के लिए तो सबसे भारी मुश्किल है। कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के फिराक में है लेकिन चुनाव से पहले जनभावनाओं को छड़कर खुद बिल्ली के गले में घंटी बांध नहीं सकती। कांग्रेस इस सिलसिले में पहले सर्वदलीय बैठक बुलाकर बाकायदा प्रस्ताव पारित करकेवइस मुसीबत से जान छुड़ाने की जुगत में है। जहां भाकपा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ नहीं है, वहीं अपेक्षाकृत साफ छवि की माकपा ने सुप्रीम कोर्ट की अति सक्रियता के विरुद्ध लोकतंत्र को खतरे में बताकर अभियान तेज कर दिया है। इस अभियान की शुरुआत भी परमाणु संधि वामपंथी समर्थन वापस लेने के बाद बाहैसियत तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष पार्टी की हुक्मउदुली करके कांग्रेसी सरकार को बचाने में अहम भूमिका निभाने वाले सोमनाथ चटर्जी ने कोलकाता से की। अब माकपाई नेतृत्व अपने बहिस्कृत नेता के सुर में सुर मिलाकर लोकतंत्र रक्षा अभियान में जुट गये हैं। बंगाल माकपा शुरु से सोमनाथ बाबू के बहिस्कार के खिलाफ थी और उन्हें पार्टी में वापस लाने के लिए शुरु से जोर लगाती रही है। कामरेड ज्योति बसु की जन्मशताब्दी के मौके पर पार्टी आयोजनों में सोमनाथ बाबू ही मुख्य वक्ता बतौर पेश किये जा रहे हैं। इससे पार्टी में एक बार फिर प्रबल होते बंगाल वर्चस्व की आहट सुनी जा सकती है।
सबसे खास बात यह है कि बंगाल में मुसलमानों का करीब 30 फीसद मजबूत वोट बैंक है जो 35 साल तक बंगाल में वामशासन बनाये रखने में निर्णायक रहा है। लेकिन अब यह वोट बैंक दीदी के कब्जे में हैं और वे इससे बेदखलहोने के मिजाज में हैं नहीं। इस वोट बैंक को हासिल किये बिना माकपा के लिए बंगाल में सत्ता वापसी और देशभर में खोयी प्रासंगिकता लौयाने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। माकपा शुरु से गुजरात नरसंहार को भारी मुद्दा बनाये हुए है। ऐसे में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व की दावेदारी से बने मौका को खोने लायक बुरबक माकपाई हो ही नहीं सकते।
इसी सिलसिले में कास बात तो यह है कि माकपा के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी में फिर पहले और दूसरे नंबर शत्रू की चर्चा शुरु हो गयी है। माकपाई नीति ौर रणनीति बदलने से पहले वैचारिक आधार पर अपने कैडरों को तैयार करने की लंबी कवायद के अभ्यस्त हैं और जाहिर है कि यह कवायद बाकायदा शुरु हो गयी है।माकपाई मुखपत्र में संघ परिवार की ओर से भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने के प्रयास क मजबूती से रोकने का आवाहन किया गया है। लेकिन फिलहाल चुनाव समीकरणके मुताबिक इसके लिए वामपंथियों को कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्वय या फिर चुनाव के बाद गठबंधन बनाना ही पड़ेगा। ममता बन्रजी की बढ़त रोकने का भी यही उपाय है। बंगाल में इसवक्त भाजपी दीदी का बिना शर्त समर्थन करने ली है और हावड़ा संसदीय चुनाव में तृणमूल के अल्प व्यवधान से जीत के पीछे माकपाई सबसे बड़ा अवदान भाजपा का ही मानते हैं।
इस लिहाज से माकपा का स्पष्ट मत है कि उसके वोट जितने भी टूटे हैं, या उनका जनाधार चाहे कितना ही खिसका हो, कांग्रेस के तृणमूल से गठबंधन की वजह से ही परिवर्तन संभव हुआ। बंगाल में यह गठबंदन टूट गया है, लेकिन कांग्रेस की ओर से और भाजपा की ओर से, दोनों तरफ से ममता बनर्जी को अपने अपने पाले में ले लेने के लिए हरसंभव प्रयास हो रहा है। अगर ममता दीदी फिर कांग्रेस के साथ हो गयी और तृणमूल औरकांग्रेस का गठबंधन फिर खड़ा हो गया तो माकपा के लिए बंगाल में फिर कोई उम्मीद नहीं है। नरेंद्र मोदी का मुद्दा ऐसा वैचारिक रक्षा कवच है, जो साम्राज्यवाद विरोध और भूमंडलीकरण विरोध से निश्चय ही वजनी है। अब माकपाई अपनी भूल सुधारने और बंगाल लाइन पर लौटने की तैयारी में है, जाहिर है।
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