चेतावनी दे रहा हिमालय.....
सन1940 के दशक में महात्मा गांधी की अंग्रेज शिष्या मीरा बहन ने उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में एक आश्रम स्थापित किया था । पहाड़ों में घूमते हुए उन्हें इस बात से बहुत दुख पहुंचा कि वन विभाग बांज के जंगलों की जगह चीड़ के पेड़ लगा रहा है। इसके पीछे सिर्फ व्यावसायिक कारण थे, क्योंकि चीड़ की लकड़ी और राल की बाजार में बड़ी मांग होती है । लेकिन इससे स्थानीय किसानों को नुकसान हो रहा था, क्योंकि उनके लिए बांज, ईंधन और चारे का महत्वपूर्ण जरिया था। सन 1952 में लिखे उनके एक निबंध का शीर्षक बहुत सटीक है, 'हिमालय में कुछ गलत हो रहा है ।' मीरा बहन ने लिखा कि बांज की जगह चीड़ लगाना सामाजिक नजरिये से अन्यायपूर्ण तो है ही, पर्यावरण की दृष्टि से भी मूर्खतापूर्ण है । बांज के जंगलों के नीचे झड़े हुए पत्तें की एक सतह बन जाती है, जिससे बारिश का पानी जमीन में रिसता है । इसी से 'मीठे व ठंडे पानी के वे खूबसूरत झरने' बनते हैं, जो गांवों में पीने के पानी का मुख्य साधन होते हैं । दूसरी ओर, चीड़ के जंगलों में सिर्फ नंगी ढलानें होती हैं, जिन पर उसकी नुकीली पत्तियां पड़ी रहती हैं । इस वजह से चीड़ के जंगलों में पानी ढलानों से नीचे बह जाता है और साथ ही मिट्टी और मलबा भी ले जाता है, जिससे बाढ़ आती है ।
मीरा बहन ने यह आग्रह किया कि जंगल विभाग को अपनी नीति बदलकर चीड़ की जगह बांज को प्रमुखता देनी चाहिए । उन्होंने लिखा, 'बांज के जंगल हिमालय के दक्षिणी ढलान पर प्रकृति के आर्थिक चक्र के केंद्र हैं, उन्हें नष्ट करना पर्यावरण का हृदय काटकर उसे मौत के मुंह में धकेलना है ।' मीरा बहन की चेतावनी को किसी ने नहीं सुना । वन विभाग ने बांज के जंगल लगाना तो दूर, चीड़ के जंगलों में भी भारी कटाई शुरू कर दी । सन 1950 और 1970 के बीच पहाड़ के जंगलों से मैदानी कारखानों में पहुंचने वाली चीड़ की सप्लाई 87 हजार से बढ़कर दो लाख घनमीटर तक पहुंच गई । सन 1970 में अलकनंदा घाटी में भयानक बाढ़ आई, उससे लगभग 100 वर्ग किलोमीटर जमीन पानी में डूब गई, कई पुल और सड़कें नष्ट हो गईं, घरों और फसलों की भारी बर्बादी हुई । उस बाढ़ का असर मैदानों तक में देखने में आया, क्योंकि गंगा नहर के रुक जाने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग 95 लाख एकड़ जमीन की सिंचाई नहीं हो पाई । जिन ग्रामीणों पर 1970 की बाढ़ का कहर टूटा था, उन्होंने देखा कि भूस्खलन उन्हीं इलाकों में होते हैं, जहां जंगल काटे गए हैं । गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट के मुताबिक, किसानों ने जंगलों की कटाई का बाढ़ और भूस्खलन से रिश्ता समझा और इसी समझ के आधार पर चंडी प्रसाद भट्ट ने चिपको आंदोलन शुरू किया ।
चिपको आंदोलन की वजह से सरकार ने 1,000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर पेड़ों को काटने पर पाबंदी लगा दी, लेकिन पहाड़ों पर दूसरे दबाव बढ़ते गए । सन 1980 और 90 के दशक में भारत में एक ऐसे मध्यम वर्ग का विकास हुआ, जिसके पास अतिरिक्त पैसा था और साथ ही, अयोध्या आंदोलन की वजह से उसकी धार्मिकता बढ़ गई थी । अब ज्यादा लोग उत्तराखंड के तीर्थो की ओर जाने लगे, पर पुराने जमाने के तीर्थयात्रियों की तरह वे पैदल नहीं, बल्कि बसों, कारों व एसयूवी में यात्रा करते रहे हैं । उनकी जरूरत के लिए नदियों के किनारे होटल खुल गए । पर्यटकों की भीड़ का दबाव सड़कों पर भी पड़ा और कूड़ा भी तेजी से बढ़ने लगा ।
नवंबर 2000 में उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुई । दो साल बाद केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने पहाड़ों में भूस्खलन की समस्या की जांच के लिए तीन लोगों की कमेटी बनाई । दो वैज्ञानिक थे और एक सामाजिक कार्यकर्ता । जमीनी स्तर पर सर्वेक्षण और उपग्रह से मिली जानकारी के आधार पर एमएम कीमोती, नवीन जुयाल व ओमप्रकाश भट्ट की उस कमेटी ने 60 पन्नों की एक अच्छी रिपोर्ट मंत्रालय को दी । उसमें कहा गया था कि हिमालय का पर्यावरण नाजुक है । उत्तराखंड दुनिया के सर्वाधिक भूकंप प्रभावित इलाकों में से है, जिसमें पिछले 200 साल में 122 भूकंप आ चुके हैं । इसकी दूसरी प्राकृतिक समस्याएं जंगल की आग और भारी हिमपात हैं । भूस्खलन एक बड़ी समस्या है, जो जितनी प्राकृतिक है, उतनी ही मानव निर्मित। जंगल की कटाई से पहाड़ी ढलान खतरनाक हो गए हैं । सड़क निर्माण में डायनामाइट विस्फोट से चट्टानों में दरारें पैदा होती हैं ।
भूस्खलन का मलबा नदियों के प्रवाह को रोक देता है और झील बना देता है । ज्यादा बारिश में ये तात्कालिक बांध टूट जाते हैं और फिर बाढ़ आती है । 1970 की बाढ़ की भी वजह एक दशक तक सड़कों का भारी निर्माण और व्यावसायिक जंगल लगाना है । अपने विश्लेषण के आधार पर इन विशेषज्ञों ने यह भविष्यवाणी की, 'भविष्य की किसी बाढ़ से जो खतरा होगा, वह अब तक की तमाम त्रासदियों के कुल नुकसान से भी ज्यादा हो सकता है । अगर 1970 जैसी बाढ़ फिर आई, तो कम से कम पांच बड़े शहर व कई छोटी बस्तियों को, जो नदी किनारे हैं, भारी नुकसान पहुंच सकता है ।' ऐसी त्रासदी से बचने के लिए कई सुझाव दिए थे, जिनमें भूस्खलन और दरारों का उपग्रह द्वारा लगातार निरीक्षण करना, जिन ढलानों से जंगल उजड़ चुके हैं, उन पर स्थानीय प्रजाति के पेड़ लगाना, बाढ़ रोकने के लिए छोटे बांध व तटबंध बनाना और ग्राम पंचायतों के जरिये ग्रामीणों को ऐसी आपदा से निपटने का प्रशिक्षण देना शामिल है ।
ऐसी कई वैज्ञानिक रिपोर्टों की तरह यह रिपोर्ट भी आम जनता तक नहीं पहुंची। मुझे इसकी एक प्रति पिछले हफ्ते मिल पाई । इसके पढ़ने से कई सवाल पैदा होते हैं, क्या इस सटीक रिपोर्ट को उन लोगों ने पढ़ा, जिन्होंने यह कमेटी बनाई थी ? क्या मंत्रालय ने राज्य सरकार को यह रिपोर्ट दी और क्या वहां किसी ने इसे पढ़ा ? और अगर पढ़ा, तो वैज्ञानिकों की सिफारिशों पर कोई कार्रवाई की गई ? इस रिपोर्ट के बावजूद सरकार ने बड़े पैमाने पर सड़कों, इमारतों, होटलों के निर्माण की मंजूरी क्यों दी ? यह रिपोर्ट ऐसी कई चेतावनियों में से एक है, जिनकी राज्य और केंद्र सरकार उपेक्षा करती आई है ।
चंडी प्रसाद भट्ट ने एक इंटरव्यू में कहा- 'भागीरथी और अलकनंदा हमेशा से संवेदनशील नदियां रही हैं, जिनमें बाढ़ आने का खतरा हमेशा रहता है । हमने कई मौकों पर अधिकारियों को नुकसान के बारे में सतर्क किया था । भूक्षरण, देवदार के पेड़ों की कटाई और पहाड़ों में डायनामाइट का इस्तेमाल विकास के नाम पर होता रहा । स्थानीय अखबारों ने भी इसके बारे में लिखा, लेकिन कुछ नहीं हुआ ।' उत्तराखंड की बाढ़ प्रकृति की वजह से थी, लेकिन उसका असर इंसान के हाथों कई गुना बढ़ गया था । धीमे-धीमे पुनर्वास का काम उत्तराखंड में शुरू हुआ है, ऐसे में राजनेताओं पर यह दबाव डालना जरूरी है कि वे हिमालय के दूसरे क्षेत्रों में भी खतरे की चेतावनी सुनें । अरुणाचल प्रदेश में सामाजिक और प्राकृतिक प्रभावों का खयाल किए बिना कई बड़े बांध बनाने को मंजूरी दे दी गई है । यह भी ऐसा क्षेत्र है, जहां भारी बारिश होती है और जहां तेज पहाड़ी नदियां हैं । उत्तराखंड की भारी आपदा के बाद समझदारी इसी में होगी कि हिमालय में बांध निर्माण और खनन पर रोक लगा दी जाए और वैज्ञानिकों द्वारा इन परियोजनाओं के काल्पनिक नहीं, बल्कि वास्तविक हानि-लाभ की तटस्थ जांच करवाई जाए ।
साभार : रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार
सन1940 के दशक में महात्मा गांधी की अंग्रेज शिष्या मीरा बहन ने उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में एक आश्रम स्थापित किया था । पहाड़ों में घूमते हुए उन्हें इस बात से बहुत दुख पहुंचा कि वन विभाग बांज के जंगलों की जगह चीड़ के पेड़ लगा रहा है। इसके पीछे सिर्फ व्यावसायिक कारण थे, क्योंकि चीड़ की लकड़ी और राल की बाजार में बड़ी मांग होती है । लेकिन इससे स्थानीय किसानों को नुकसान हो रहा था, क्योंकि उनके लिए बांज, ईंधन और चारे का महत्वपूर्ण जरिया था। सन 1952 में लिखे उनके एक निबंध का शीर्षक बहुत सटीक है, 'हिमालय में कुछ गलत हो रहा है ।' मीरा बहन ने लिखा कि बांज की जगह चीड़ लगाना सामाजिक नजरिये से अन्यायपूर्ण तो है ही, पर्यावरण की दृष्टि से भी मूर्खतापूर्ण है । बांज के जंगलों के नीचे झड़े हुए पत्तें की एक सतह बन जाती है, जिससे बारिश का पानी जमीन में रिसता है । इसी से 'मीठे व ठंडे पानी के वे खूबसूरत झरने' बनते हैं, जो गांवों में पीने के पानी का मुख्य साधन होते हैं । दूसरी ओर, चीड़ के जंगलों में सिर्फ नंगी ढलानें होती हैं, जिन पर उसकी नुकीली पत्तियां पड़ी रहती हैं । इस वजह से चीड़ के जंगलों में पानी ढलानों से नीचे बह जाता है और साथ ही मिट्टी और मलबा भी ले जाता है, जिससे बाढ़ आती है ।
मीरा बहन ने यह आग्रह किया कि जंगल विभाग को अपनी नीति बदलकर चीड़ की जगह बांज को प्रमुखता देनी चाहिए । उन्होंने लिखा, 'बांज के जंगल हिमालय के दक्षिणी ढलान पर प्रकृति के आर्थिक चक्र के केंद्र हैं, उन्हें नष्ट करना पर्यावरण का हृदय काटकर उसे मौत के मुंह में धकेलना है ।' मीरा बहन की चेतावनी को किसी ने नहीं सुना । वन विभाग ने बांज के जंगल लगाना तो दूर, चीड़ के जंगलों में भी भारी कटाई शुरू कर दी । सन 1950 और 1970 के बीच पहाड़ के जंगलों से मैदानी कारखानों में पहुंचने वाली चीड़ की सप्लाई 87 हजार से बढ़कर दो लाख घनमीटर तक पहुंच गई । सन 1970 में अलकनंदा घाटी में भयानक बाढ़ आई, उससे लगभग 100 वर्ग किलोमीटर जमीन पानी में डूब गई, कई पुल और सड़कें नष्ट हो गईं, घरों और फसलों की भारी बर्बादी हुई । उस बाढ़ का असर मैदानों तक में देखने में आया, क्योंकि गंगा नहर के रुक जाने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग 95 लाख एकड़ जमीन की सिंचाई नहीं हो पाई । जिन ग्रामीणों पर 1970 की बाढ़ का कहर टूटा था, उन्होंने देखा कि भूस्खलन उन्हीं इलाकों में होते हैं, जहां जंगल काटे गए हैं । गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट के मुताबिक, किसानों ने जंगलों की कटाई का बाढ़ और भूस्खलन से रिश्ता समझा और इसी समझ के आधार पर चंडी प्रसाद भट्ट ने चिपको आंदोलन शुरू किया ।
चिपको आंदोलन की वजह से सरकार ने 1,000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर पेड़ों को काटने पर पाबंदी लगा दी, लेकिन पहाड़ों पर दूसरे दबाव बढ़ते गए । सन 1980 और 90 के दशक में भारत में एक ऐसे मध्यम वर्ग का विकास हुआ, जिसके पास अतिरिक्त पैसा था और साथ ही, अयोध्या आंदोलन की वजह से उसकी धार्मिकता बढ़ गई थी । अब ज्यादा लोग उत्तराखंड के तीर्थो की ओर जाने लगे, पर पुराने जमाने के तीर्थयात्रियों की तरह वे पैदल नहीं, बल्कि बसों, कारों व एसयूवी में यात्रा करते रहे हैं । उनकी जरूरत के लिए नदियों के किनारे होटल खुल गए । पर्यटकों की भीड़ का दबाव सड़कों पर भी पड़ा और कूड़ा भी तेजी से बढ़ने लगा ।
नवंबर 2000 में उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुई । दो साल बाद केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने पहाड़ों में भूस्खलन की समस्या की जांच के लिए तीन लोगों की कमेटी बनाई । दो वैज्ञानिक थे और एक सामाजिक कार्यकर्ता । जमीनी स्तर पर सर्वेक्षण और उपग्रह से मिली जानकारी के आधार पर एमएम कीमोती, नवीन जुयाल व ओमप्रकाश भट्ट की उस कमेटी ने 60 पन्नों की एक अच्छी रिपोर्ट मंत्रालय को दी । उसमें कहा गया था कि हिमालय का पर्यावरण नाजुक है । उत्तराखंड दुनिया के सर्वाधिक भूकंप प्रभावित इलाकों में से है, जिसमें पिछले 200 साल में 122 भूकंप आ चुके हैं । इसकी दूसरी प्राकृतिक समस्याएं जंगल की आग और भारी हिमपात हैं । भूस्खलन एक बड़ी समस्या है, जो जितनी प्राकृतिक है, उतनी ही मानव निर्मित। जंगल की कटाई से पहाड़ी ढलान खतरनाक हो गए हैं । सड़क निर्माण में डायनामाइट विस्फोट से चट्टानों में दरारें पैदा होती हैं ।
भूस्खलन का मलबा नदियों के प्रवाह को रोक देता है और झील बना देता है । ज्यादा बारिश में ये तात्कालिक बांध टूट जाते हैं और फिर बाढ़ आती है । 1970 की बाढ़ की भी वजह एक दशक तक सड़कों का भारी निर्माण और व्यावसायिक जंगल लगाना है । अपने विश्लेषण के आधार पर इन विशेषज्ञों ने यह भविष्यवाणी की, 'भविष्य की किसी बाढ़ से जो खतरा होगा, वह अब तक की तमाम त्रासदियों के कुल नुकसान से भी ज्यादा हो सकता है । अगर 1970 जैसी बाढ़ फिर आई, तो कम से कम पांच बड़े शहर व कई छोटी बस्तियों को, जो नदी किनारे हैं, भारी नुकसान पहुंच सकता है ।' ऐसी त्रासदी से बचने के लिए कई सुझाव दिए थे, जिनमें भूस्खलन और दरारों का उपग्रह द्वारा लगातार निरीक्षण करना, जिन ढलानों से जंगल उजड़ चुके हैं, उन पर स्थानीय प्रजाति के पेड़ लगाना, बाढ़ रोकने के लिए छोटे बांध व तटबंध बनाना और ग्राम पंचायतों के जरिये ग्रामीणों को ऐसी आपदा से निपटने का प्रशिक्षण देना शामिल है ।
ऐसी कई वैज्ञानिक रिपोर्टों की तरह यह रिपोर्ट भी आम जनता तक नहीं पहुंची। मुझे इसकी एक प्रति पिछले हफ्ते मिल पाई । इसके पढ़ने से कई सवाल पैदा होते हैं, क्या इस सटीक रिपोर्ट को उन लोगों ने पढ़ा, जिन्होंने यह कमेटी बनाई थी ? क्या मंत्रालय ने राज्य सरकार को यह रिपोर्ट दी और क्या वहां किसी ने इसे पढ़ा ? और अगर पढ़ा, तो वैज्ञानिकों की सिफारिशों पर कोई कार्रवाई की गई ? इस रिपोर्ट के बावजूद सरकार ने बड़े पैमाने पर सड़कों, इमारतों, होटलों के निर्माण की मंजूरी क्यों दी ? यह रिपोर्ट ऐसी कई चेतावनियों में से एक है, जिनकी राज्य और केंद्र सरकार उपेक्षा करती आई है ।
चंडी प्रसाद भट्ट ने एक इंटरव्यू में कहा- 'भागीरथी और अलकनंदा हमेशा से संवेदनशील नदियां रही हैं, जिनमें बाढ़ आने का खतरा हमेशा रहता है । हमने कई मौकों पर अधिकारियों को नुकसान के बारे में सतर्क किया था । भूक्षरण, देवदार के पेड़ों की कटाई और पहाड़ों में डायनामाइट का इस्तेमाल विकास के नाम पर होता रहा । स्थानीय अखबारों ने भी इसके बारे में लिखा, लेकिन कुछ नहीं हुआ ।' उत्तराखंड की बाढ़ प्रकृति की वजह से थी, लेकिन उसका असर इंसान के हाथों कई गुना बढ़ गया था । धीमे-धीमे पुनर्वास का काम उत्तराखंड में शुरू हुआ है, ऐसे में राजनेताओं पर यह दबाव डालना जरूरी है कि वे हिमालय के दूसरे क्षेत्रों में भी खतरे की चेतावनी सुनें । अरुणाचल प्रदेश में सामाजिक और प्राकृतिक प्रभावों का खयाल किए बिना कई बड़े बांध बनाने को मंजूरी दे दी गई है । यह भी ऐसा क्षेत्र है, जहां भारी बारिश होती है और जहां तेज पहाड़ी नदियां हैं । उत्तराखंड की भारी आपदा के बाद समझदारी इसी में होगी कि हिमालय में बांध निर्माण और खनन पर रोक लगा दी जाए और वैज्ञानिकों द्वारा इन परियोजनाओं के काल्पनिक नहीं, बल्कि वास्तविक हानि-लाभ की तटस्थ जांच करवाई जाए ।
साभार : रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार
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