Thursday, February 13, 2014

अर्थव्‍यवस्‍था : उधार की विकास नीति का संकट

अर्थव्‍यवस्‍था : उधार की विकास नीति का संकट

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आर्थिक वृद्धि की दर लगातार गिर रही है, जबकि उपभोक्ता मूल्य में मुद्रास्फीति, बाहरी क्षेत्रों में चालू खाता घाटा और बजट में वित्तीय घाटा उच्च स्तरों पर बने हुए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसे की कमी डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में तीव्र गिरावट के तौर पर दिखाई दे रही है और ऐसा सरकार व रिजर्व बैंक की कवायदों के बावजूद बना हुआ है। शेयर बाजार में भी तीव्र उतार-चढ़ाव बना हुआ है, जो घरेलू और विदेशी निवेशकों के भीतर बैठे अविश्वास को दर्शाता है। इस स्थिति में नीति निर्माता खुद को असहाय पा रहे हैं।

सरकार ने बाजार को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त बयानबाज़ी की है, लेकिन इसका शायद ही कोई असर हुआ है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार, सभी ने कहा है कि आर्थिक बहाली जल्द ही होने वाली है। पिछले दो साल के दौरान की गई ऐसी भविष्यवाणियां झूठी साबित हुई हैं और 2010-11 की चौथी तिमाही के बाद से तिमाही वृद्धि की दर गिरती ही रही है।

यह सही है कि दुनिया के अधिकतर देशों के मुकाबले या वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि को लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के आकलन की अपेक्षा यहां की वृद्धि दर अब भी ठीक है। आज़ादी के बाद से भारत की वृद्धि दर के मुकाबले भी मौजूदा दर बेहतर है, लेकिन मौजूदा विकास की दिशा को 1991 के पहले ही दिशा के साथ रखकर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि उस वक्त विकास की रणनीति आज की तरह असमानता और बेरोजग़ारी नहीं पैदा कर रही थी।

वर्ष 1991 के बाद हुई वृद्धि का संचालक निजी कॉरपोरेट क्षेत्र रहा है, जिसने काफ ी पूंजी सघन प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जहां रोजगार तो ज्यादा सृजित नहीं होते, बल्कि अर्थव्यवस्था में गैर बराबरी ही बढ़ती है। इससे हुए अधिकतर फ ायदे कुछ लोगों ने हड़प लिए हैं और नीचे तक रिस कर मामूली हिस्सा ही जा सका है। यह खासकर हाशिये पर पड़े समूहों, जैसे असंगठित क्षेत्र और विशेषकर कृषि क्षेत्र के साथ हुआ है, जिसमें अब भी देश का आधे से ज्यादा कार्यबल जुटा है। वृद्धि दर के कम होने का असर यह होता है कि नीचे रिस कर जो लाभ पहुंचने होते हैं, वे और कम हो जाते हैं तथा सबसे ज्यादा नुकसान उन्हें उठाना पड़ता है जो सबसे निचले सामाजिक संस्तर पर जी रहे होते हैं।

गिरती वृद्धि दर के साथ मुद्रास्फीति की उच्च दर भी बनी हुई है, जो उपभोक्ता मूल्यों में प्रतिबिंबित होती है। यह मोटे तौर पर दस फीसदी सालाना है। थोक मूल्य सूचकांक हालांकि कुछ सामान्य हुआ है, लेकिन यह उपभोक्ता पर पड़ रहे दामों के बोझ को नहीं दिखाता। थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फ ीति सेवाओं के मूल्य में भी बदलाव को नहीं दर्शाती, जैसे स्कूल की फ ीस, किराया या टेलिफ ोन की कॉल दर। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक कुछ ही सेवाओं का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए असली महंगाई को यह भी नहीं दिखाता। दाम बढऩे का कारण यह होता है कि खरीदने की ताकत उपभोक्ता से कारोबारियों के पास चली आती है और इस तरह नीचे की ओर रिस कर आने वाले लाभ सूखते जाते हैं और असमानता गहराती चली जाती है।

इसमें आप अर्थव्यवस्था के भीतर बढ़ते काले धन और फैलते भ्रष्टाचार को जोड़ लें। चूंकि काले धन की आर्थिकी आबादी के तीन फ ीसदी लोगों के हाथों में ही कैद है, तो असमानता बढ़ती है। चौतरफ ा बढ़ती लागत के चलते मुद्रास्फ ीति बढ़ती है। इसके अलावा, काले धन की अर्थव्यवस्था में उसकी क्षमता से कम रोजगार पैदा होते हैं और पूंजी की बर्बादी होती है। पूंजी के बाहरी प्रवाह के चलते घरेलू बाजार में पूंजी की कमी आ जाती है, जिससे कारोबार के बाहरी क्षेत्रों में चालू खाता घाटा बढऩे लगता है। लिहाजा भुगतान संतुलन का संकट पैदा हो जाता है। आखिरकार यह नीतियों की नाकामी के रूप में सामने आता है, जिसके चलते निर्धारित लक्ष्य हासिल नहीं हो पाते। इसका असर कर संग्रहण पर पड़ता है और उससे सरकार का बजटीय घाटा बढ़ता जाता है। इसकी वजह से शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कुछ जरूरी मदों पर खर्च में कटौती करनी पड़ती है।

संक्षेप में कहें तो कॉरपोरेट समर्थक और काले धन को बढ़ावा देने वाली नई आर्थिक नीतियों के तहत कम आर्थिक वृद्धि की दर और लगातार उच्च स्तर पर बनी हुई मुद्रास्फीति मिलकर रोजगार सृजन को चोट पहुंचाती हैं और गैरबराबरी को बढ़ाती जाती हैं। यह खतरनाक सम्मिश्रण है, क्योंकि राजनीतिक आज़ादी हासिल करने के 66 साल बाद यह देश के भीतर सिर्फ सामाजिक तनाव और सियासी विभाजनों को ही जन्म दे सकता है।

विकास की राह में उपभोक्तावाद और पर्यावरण का क्षरण

आज़ादी के 66 वर्ष बाद हमारे यहां दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब और निरक्षर लोग हैं। ऐसा नहीं है कि भारत ने आज़ादी के बाद तरक्की न की हो, लेकिन यह अपेक्षा से काफी कम है। इसी अवधि में बाकी देशों ने जो तरक्की की है, उसके मुकाले भारत की तरक्की काफी कम है। ऐसा लगता है कि भारत तमाम गंवा दिए गए अवसरों का पर्याय बन चुका है।

इसके अलावा, उपभोग के निम्न स्तरों के बावजूद भारत का पर्यावरण दुनिया के सबसे प्रदूषित वातावरणों में से एक है। नदियों और भूमिगत जलधाराओं में प्रदूषण इतना ज्यादा है कि उससे भयंकर बीमारियां हो रही हैं। हवा में भी इतना ज़हर घुल चुका है कि इससे स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें पैदा हो रही हैं। यह प्रदूषण विकसित देशों से भी ज्यादा है। त्रासदी यह है कि ऐसा प्रतिव्यक्ति उपभोग के बेहद निचले स्तरों पर देखने में आ रहा है। सोचिए कि जब वृद्धि के साथ उपभोग बढ़ेगा, तब क्या सूरत होगी?

प्रदूषण के उच्च स्तरों के निम्न कारण हैं :

  • क) 'किसी भी कीमत पर वृद्धि' की रणनीति जिसमें पर्यावरणीय कारकों को संज्ञान में नहीं लिया जाता है;
  • ख) व्यापक भ्रष्टाचार जो कि हर आर्थिक गतिविधि में से अपना हिस्सा खोजता है और जहां पर्यावरण संरक्षण को न्यूनतम प्राथमिकता दी जाती है;
  • ग) श्रम का अंतरराष्ट्रीय विभाजन, जिसके चलते प्रदूषक कारखाने विकासशील देशों में स्थानांतरित और स्थापित किए जा रहे हैं; तथा घ) तेजी से बढ़ता उपभोक्तावाद।

पानी के जहाजों, प्लास्टिक के कचरे, सीसे के अम्ल, कंप्यूटर के कचरे आदि का पुनर्चक्रण भारत में अब किया जा रहा है। यहां भारी रसायनों और धातुओं का भी उत्पादन हो रहा है। खुली खदानों वाला (ओपेन कास्ट) खनन, बिजली पैदा करने के बड़े संयंत्र, एयरपोर्ट की स्थापना, सड़क और रेल तंत्र का विस्तारीकरण आदि जंगलों को लगातार खा रहा है। कहा जा रहा है कि विकास के लिए ऐसा करना जरूरी है। क्या यह वाकई सच है? पूरी तरह नहीं, क्योंकि पर्यावरणीय क्षति के कारण भौतिक वृद्धि के कल्याणकारी लाभ कम हो जाते हैं। यह गड्ढा खोदकर भरने जैसा एक यांत्रिक काम है, जहां उत्पादकता नाम की चीज़ नहीं होती है। हमें विकास के उस मॉडल पर ही सवाल खड़ा करने की जरूरत है, जो इसकी कीमत चुकाने का बोझ आने वाली पीढिय़ों के जिम्मे छोड़ देता है।

उपभोक्तावाद दरअसल भारतीय प्रभुवर्ग की एक राजनीतिक चाल है ताकि आबादी को उपभोग में फंसाकर मौजूदा समस्याओं से उसका ध्यान हटाया जा सके। जो लोग उपभोग करने की क्षमता रखते हैं, वे बाजार में माल की उपलब्धता से ही सुखी बने रहते हैं। जो सक्षम नहीं हैं, वे उपभोग का सपना देख सकते हैं। जो बीच का तबका है, वह ज्यादा कीमत वाली चीजें तो खरीदने की आकांक्षा रखता है लेकिन कम महंगी चीजों से ही खुद को संतुष्ट कर लेता है। हर कोई वर्तमान में जीकर ही खुश है, भविष्य जाए भाड़ में! यह एक ऐसी अदूरदर्शी नीति है जो मजबूत राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकती, बल्कि लोगों में अलगाव पैदा करती है।

बाहरी और घरेलू आर्थिक समस्याएं

भारत के आर्थिक विकास के लिए बाहरी वातावरण 2007 में वैश्विक संकट शुरू होने के साथ ही प्रतिकूल होना शुरू हो गया था। 1991 में शुरू किए गए वैश्वीकरण के निर्बाध अभियान के कारण भारत का बाज़ार आज दुनिया के बाज़ार के साथ कहीं ज्यादा एकमेक हो चुका है। हमारे निर्यात और आयात का सकल घरेलू उत्पाद के साथ अनुपात नाटकीय तरीके से बढ़ा है। वित्तीय बाज़ार में (शेयर बाज़ार की तरह) लेनदेन अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों के संकेत पर नियंत्रित होता है। जिंसों के भाव अंतरराष्ट्रीय कीमतों की तर्ज पर ऊपर-नीचे होते हैं, जैसा कि हम पेट्रोलियम उत्पादों और अनाज के मामले में देखते हैं। नतीजा यह होता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में आने वाला कोई भी संकट भारतीय अर्थव्यवस्था में भी संकट पैदा कर देता है।

चूंकि 2007 में शुरू हुई मंदी के बाद तेल निर्यात करने वाले देशों (ओईसीडी) में आर्थिक बहाली धीमी रही, इसीलिए वहां बहाली रुकने पर भारतीय अर्थव्यवस्था भी लडख़ड़ा गई। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 2009-10 के दौरान जो स्वस्थ बहाली के संकेत मिले थे, वे 2010 बीतने के साथ मुरझा गए। वहां बेरोजगारी और अर्ध-बेरोजगारी की दर उच्च रही है। योरोपीय देशों में दोबारा मंदी आ गई है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में भी यही हुआ है। जापान की अर्थव्यवस्था मद्धम गति से बढ़ रही है और चीन की अर्थव्यवस्था हाल के दिनों में धीमी पड़ चुकी है। इस तरह दुनिया की सारी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं या तो धीरे-धीरे बढ़ रही हैं या फिर उनकी गति धीमी होती जा रही है।

भारत से होने वाले निर्यात पर नतीजतन काफी असर आया है। आयात का स्तर ऊंचा रहा है, क्योंकि भारत में ऊर्जा की मांग ज्यादा है और इसकी कीमत भी ज्यादा है। इसके अलावा, अनिश्चय की स्थिति के चलते भारत में एक ऐसे वक्त में सोने की मांग ज्यादा रही है, जब दुनियाभर में सोने की कीमत बढ़ी है। इस तरह सोने और ऊर्जा के आयात की लागत भारत में ज्यादा रही है, जिससे आयात का खर्च बढ़ा है। यही वजह है कि व्यापार खाता और चालू खाता घाटा ज्यादा रहा है। यह समस्या इसलिए और सघन हो गई है, क्योंकि विदेशी मुद्रा भंडार (जनवरी 2013 में 295 अरब डॉलर) के मुकाबले कर्ज बढ़ चुका है (सितंबर 2012 में 365 अरब डॉलर), जिसके चलते रिजर्व बैंक आक्रामक नीतियां नहीं अपना पा रहा है। इसके अलावा, कुल कर्ज में लघु आवधिक कर्ज का अनुपात 2008 के बाद से बढ़ा है और यह ऐसी चीज़ है जो एक बार तेजी से खत्म हुई जो देश का विदेशी मुद्रा भंडार अस्थिर हो जाएगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था के मद्धम पडऩे और उच्च मुद्रास्फ ीति के चलते अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का भरोसा भारतीय अर्थव्यवस्था में कम होता जा रहा है। के्रडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग कम करने की चेतावनियां जारी कर रही हैं। इससे विदेशी कर्ज महंगा हो जाएगा और रुपये का अवमूल्यन होगा, साथ ही पुनर्भुगतान का बोझ भी बढ़ेगा। इससे फिर से चालू खाता बढ़ जाएगा। यह गिरती वृद्धि दर, उच्च चालू खाता घाटे और गिरती क्रेडिट रेटिंग का एक दुश्चक्रहै।

रेटिंग एजेंसियां देश में वित्तीय घाटे पर नजऱ रखती हैं, इसलिए सरकार की कोशिश रहती है कि यह कम स्तर पर बना रहे। ऐसा आखिर कैसे किया जा रहा है? इसके लिए योजना व्यय (दो साल पहले एक लाख करोड़ और पिछले वित्त वर्ष में इससे ज्यादा की कटौती) और अन्य अनिवार्य मदों में कटौती की जा रही है। यह तो जुकाम ठीक करने के लिए किसी की नाक काट देने जैसा उपाय है। धीमी अर्थव्यवस्था के दौर में कटौती और मांग में कमी के चलते मांग और कम होती जाती है तथा वृद्धि दर और कम होती है। वित्तीय घाटे का लक्ष्य व्यय कम करके पूरा किया जा रहा है, न कि बेहतर प्रबंधन के माध्यम से। इस तरह वित्तीय घाटा नाटकीय स्तर तक नहीं बढ़ पाने के बावजूद वित्तीय हालात काबू से बाहर हो चुके हैं। यह रणनीति, जो वृद्धि दर को कम बनाए रखती है, रेटिंग एजेंसियों को भारत की रेटिंग कम करने को बाध्य करती है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में बचत और निवेश की दर 2007 के बाद गिरी है। इसमें बहाली नहीं हुई है, बल्कि पिछले दो साल के दौरान इसमें और ज्यादा गिरावट आई है। यही अर्थव्यवस्था की कछुआ गति का कारण है। लेकिन निजी कॉरपोरेट क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास काफी पैसा मौजूद है। चूंकि मांग सीमित है, इसलिए वे निवेश नहीं कर रही हैं। इस तरह समस्या से निपटने का सरकारी उपाय खुद मर्ज बन चुका है।

अर्थव्यवस्था के समक्ष मौजूदा समस्या दरअसल हमारे नीति निर्माताओं के बाहरी उपायों पर निर्भरता है। वे अविश्वसनीय के्रडिट एजेंसियों और बहुपक्षीय एजेंसियों की इच्छा के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं। दूसरों का मुंह देखने की इस प्रवृत्ति ने भारतीय आबादी को हाशिये पर ला खड़ा किया है। इसमें फिर क्या आश्चर्य कि सरकार में तैनात किए जा रहे आर्थिक विशेषज्ञों को अमेरिका से आयातित किया जा रहा है।

भारतीय नीति निर्माताओं की विदेशी निर्भरता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारत ने 1947 में राष्ट्र निर्माण की शुरुआत ही विकास की उधार ली हुई रणनीति से की थी, जो ऊपर से नीचे की ओर आने वाले लाभों पर आश्रित थी। यह एक मिश्रित मॉडल था, जो पश्चिम की बाजार अर्थव्यवस्था व सोवियत संघ के केंद्रीकृत नियोजन पर आधारित था। यह भारत की मौलिकता थी कि उसने दोनों रास्तों का सम्मिश्रण किया, लेकिन दोनों ही रणनीतियां उधार की थीं और ऊपर से नीचे की ओर आने वाले लाभों पर आश्रित थीं। इसे विकास की नेहरूवादी रणनीति कहा गया। गांधी द्वारा सुझाया गया नीचे से ऊपर की दिशा में जाने वाला विकास का देसी मॉडल खारिज कर दिया गया, क्योंकि भारतीय प्रभुवर्ग पश्चिमी आधुनिकता की नकल करने का हामी था और पश्चिमी प्रभुवर्ग का हिस्सा बन जाने का इच्छुक था।

परिणामस्वरूप, जहां मु_ी भर लोगों ने काफी तरक्की की, वहीं बाकी को रिस कर नीचे आ रहे लाभों से ही संतुष्ट होना पड़ा। यह रणनीति गरीबों और गरीबी उन्मूलन के लिए एक औपचारिकता बनकर रह गई। साठ के दशक के मध्य से शुरू होकर कालांतर में यह रणनीति लगातार संकटग्रस्त होती गई और कृषि संकट व खाद्य असुरक्षा, नक्सलवाद, आपातकाल, बढ़ता विभाजन, अलगाव, काला धन व उसके चलते बढ़ती अनुत्पादकता, देश की कीमत पर मदद/समायोजन व सहयोग के लिए बार-बार बहुपक्षीय एजेंसियों का मुंह ताकने के रूप में यह संकट खुद को अभिव्यक्त करता रहा।

इस संकट की निर्णायक परिणति 1991 में यह हुई कि विकास की रणनीति को मिश्रित से बाजार आधारित में तब्दील करके अपना लिया गया और निजी क्षेत्र के हित में राज्य ने सुनियोजित तरीके से अपनी भूमिका छांट दी। जो कुछ ऊपर से रिस कर आ रहा था, इसके बाद वह और कम हो गया। विश्व बैंक ने (आरंभ में) इसे 'राज्य का बाजार हितैषी हस्तक्षेप' करार दिया। भारत के संदर्भ में काले धन की विशाल अर्थव्यवस्था और व्यापक भ्रष्टाचार के चलते इससे निवेश के क्रोनी पूंजीवाद' (राज्य और पूंजीपति की मिलीभगत वाला पूंजीवाद) वाले उस मॉडल को और ताकत मिली, जो आजादी के बाद से ही इस देश में चल रहा था।

सार्वजनिक क्षेत्र को मिलने वाली प्राथमिकता कम होने के साथ ही निजी क्षेत्र का वर्चस्व कायम हो गया और इसे कुदरती संसाधनों के मालिकाने व कर कटौती समेत तमाम भारी रियायतों का लाभ मिलने लगा। बाजारीकरण पर आधारित विकास की नई रणनीति ने गरीबों के लिए की जाने वाली औपचारिकता भी बंद कर दी। आज हम गरीबी को दूर किए बगैर गरीबों का गणित लगाने के खेल में उलझ चुके हैं, जिसकी सूरत बढ़ते उपभोक्तावाद और जीवन के हर पहलू के व्यावसायीकरण के साथ लगातार परिवर्तित हो रही है।

पिछली रणनीति 1947 से पहले के औपनिवेशिक काल की तुलना में कुछ वृद्धि तो कर ही रही थी, साथ ही यह बढ़ती असमानता पर भी अंकुश लगाती थी (भले ही उसे इसने कम न किया हो)। 1991 के बाद अपनाई गई रणनीति तो असमानता को कम करने का दावा तक नहीं करती, क्योंकि अब विकास की आर्थिक वृद्धि हो चुकी है, जहां वितरण कोई मायने नहीं रखता। नीति-निर्माता इस बात को स्वीकार करते हैं और इसीलिए उन्होंने ऐसी नीतियां लागू की हैं, जिससे हाशिये पर पड़ी वृद्धि के प्रतिकूल असर को कम किया जा सके। मसलन, अर्ध-बेरोजगारों और गरीब इलाकों से संपन्न इलाकों में पलायन करने वालों के लिए मनरेगा; बच्चों को उनके माता-पिता द्वारा काम पर लगाए जाने से बचाने के लिए स्कूल में डालने के आकर्षण स्वरूप मध्याह्न भोजन; किसानों को कर्ज में माफी ताकि कर्जदार किसानों को राहत मिल सके और वे भारी संख्या में खुदकुशी न कर सकें। अब इसी उद्देश्य से खाद्य सुरक्षा विधेयक लाया गया है, जो गरीबों को पोषण देगा। आज 40 फीसदी महिलाएं और बच्चे कुपोषित हैं तथा अक्षमता और स्थायी गरीबी का सामना कर रहे हैं।

इस तरह आजादी के 66 साल बाद भी प्रभुवर्गों द्वारा संचालित सरकार भारत की जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनहीन बनी हुई है। वह विकास की उधार ली हुई राह पर चलना जारी रखे हुए है, जिसके चलते यह देश एक के बाद दूसरे संकट में फंसता जा रहा है और समाधान कहीं नहीं दिख रहा। असल में समाधान के नाम पर सिर्फ समस्याओं का अंबार लगा है, जो बदले में और समस्याएं पैदा कर रहे हैं। जनता का ध्यान इन सब चीजों से हटाने के लिए नीति निर्माताओं ने बड़े पैमाने पर उपभोक्तावाद का प्रचार किया है, जिससे पर्यावरण के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है और अन्य दिक्कतें पैदा हो रही हैं।

भारतीय प्रभुवर्ग का औपनिवेशिक मस्तिष्क जिसे समाधान समझता रहा है, दरअसल आजादी के बाद से वही इस देश की समस्या रही है और यही वजह है कि आज की तारीख में हमारे नीति-निर्माताओं के हाथ से तोते उड़े हुए नजऱ आ रहे हैं।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। )

अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव

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