Wednesday, February 12, 2014

तेलंगाना : छोटे राज्‍य का बड़ा गणित

तेलंगाना : छोटे राज्‍य का बड़ा गणित

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रोहित जोशी

telanganaकांग्रेस वर्किंग कमेटी के अलग तेलंगाना राज्य के गठन को मंजूरी देने से यह साफ हो गया है भारत के 29वें राज्य के बतौर अंतत: तेलंगाना का अस्तित्व में आना ही निश्चित है। आसन्न लोकसभा चुनावों के चलते इस बार कांग्रेस 2009 की तरह तेलंगाना पर वादा करके मुकरने की स्थिति में नहीं है।

वर्ष 1956 में संसद द्वारा पास हुए राज्य पुनर्गठन विधेयक के अनुसार हैदराबाद रियासत के तेलंगाना क्षेत्र को भाषाई आधार पर, 1953 में मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग कटकर बने आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया था। असंतुष्ट समूहों ने इसी समय पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की मांग उठानी शुरू की। आजादी के बाद के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा इसे लगातार नजरअंदाज करने से यह आंदोलन तीव्रतम होता गया और देश के प्रतिनिधि जनांदोलनों में शुमार हो गया। कुल मिलाकर तेलंगाना और अन्य छोटे राज्यों की मांग ने भारत में देश के विभाजन के बाद अलग-अलग राज्यों के पुनर्गठन की 1956 में हुई सबसे बड़ी कवायद 'राज्य पुनर्गठन अधिनियम' को कठघरे में ला खड़ा किया है। इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थीं। नतीजतन भौगोलिक बसावट, क्षेत्रफल, विकास और आबादी के अलावा दूसरी सामाजिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थिति जैसे महत्त्वपूर्ण मसलों को महत्त्व नहीं दिया गया। इसकी प्रतिक्रिया में उपेक्षित क्षेत्रों के आधारों पर छोटे-छोटे राज्य की मांगें उभरीं और उसने देश की राजनीति में गहरा असर डाला है।

देश के विभिन्न इलाकों में लंबे समय से विभिन्न आधारों पर अलग राज्यों की मांग उठती रही हैं। इनमें से तकरीबन आधा दर्जन मांगें तो आजादी के तुरंत बाद से ही उठनी शुरू हो गईं थीं। आजादी से भी पहले 1907 में पश्चिम बंगाल में गोर्खा लोगों के लिए अलग क्षेत्र की मांग सबसे पहले उठी थी। उसके बाद देशभर में एक दर्जन से अधिक राज्यों के निर्माण के आंदोलन अस्तित्व में हैं। गोर्खालैंड, बोडोलैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड आदि इनमें प्रमुख हैं। पृथक राज्यों की मांग उठने के पीछे सांस्कृतिक, भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आधारों पर हो रही उपेक्षा ही मूल कारण है।

भारतीय राज्य क्योंकि संवैधानिक तौर पर लोकतांत्रिक है, उसकी जिम्मेदारी है कि उपरोक्त आधार पर असमानता झेल रहे वर्गों के लिए ऐसी व्यवस्था करे कि उन्हें उनकी भाषा, सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषता, विशेष भौगोलिक स्थिति आदि के अनुरूप समान अवसर मिल सकें।

पृथक राज्य की मांग करने वाले समूहों का यह तर्क रहा है कि पृथक राज्य बन जाने से वे इसका स्वाभाविक हल पा लेंगे। राजनीतिक नेतृत्व में आ जाने से उन्हें इन क्षेत्रों में अवसरों की समानता के लिए किसी और का मोहताज नहीं रहना होगा। राज्यों के संबंध में भारतीय संवैधानिक स्थिति यह है कि राज्य केवल आपातकाल की स्थिति के इतर पर्याप्त सक्षम हैं। इन समूहों का तर्क इस आधार पर जायज है और नए राज्यों का अस्तित्व हाशिए के इन समूहों का स्वाभाविक तौर पर सबलीकरण करेगा।

उपरोक्त विभिन्न आधारों पर पृथक राज्यों की मांग के जायज होने के इस तर्क के बाद, 2000 में अस्तित्व में आए तीन नए राज्यों के हमारे अनुभव क्या हैं, इसकी पड़ताल भी जरूरी है। उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड भी गहरे जन-आंदोलनों की ही उपज हैं। लेकिन आज ये तीनों राज्य जिस रूप में हमारे सामने हैं, इनकी पैदाइश का कोई रिश्ता समझ में नहीं आता। चाहे जिस भी पवित्र एजेंडे के साथ राज्य आंदोलन चले हों, लेकिन राज्य प्राप्ति के बाद राजनीतिक नेतृत्व जिन हाथों में आया, उन्होंने तकरीबन उन सारे एजेंडों को पराभव की तरफ धकेला जिनके आधार पर यह राज्य अस्तित्व में आ पाए थे। आज के परिदृश्य से तो लगता है मानो इन तीनों ही प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न राज्यों का अस्तित्व इसलिए सामने आया कि यहां की संपदा की लूट आसान हो सके। सरकारों और कॉरपोरेट्स के गठजोड़ ने प्राकृतिक संसाधनों की जो लूट मचाई, उसकी कल्पना एक दशक पहले कोई नहीं कर सकता था। इस लूट के लिए जनता को उसके जल, जंगल, जमीन पर अधिकारों से बेदखल करने में स्थानीय नेतृत्व ने निर्णायक भूमिका निभाई है और निभा रहा है।

इसी आलोक में यदि हम तेलंगाना को देखें, तो भारत का 20 फीसदी कोयला तेलंगाना में है। वर्तमान आंध्र प्रदेश का 50 फीसद से अधिक जंगल तेलंगाना में फैला है। इसके अतिरिक्त भी प्राकृतिक संपदाओं के लिहाज से भविष्य का तेलंगाना एक समृद्ध राज्य होगा। ऐसे में, 2000 में अस्तित्व में आए देश के तीन राज्यों के अनुभवों के बाद हमें भविष्य के तेलंगाना को किस तरह देखना चाहिए, यह नए राज्य की जनता के सामने एक महत्त्वपूर्ण सवाल रहेगा।

आंध्र की 42 लोकसभा सीटों में से 17 तेलंगाना क्षेत्र की हैं, जिनमें से 12 पर कांग्रेस का कब्जा है। इसी तरह विधानसभा की 294 सीटों में से 119 सीटें तेलंगाना से आती हैं और 50 से ज्यादा अभी कांग्रेस के पास हैं। यानी मोटे तौर पर यह तय है कि नए तेलंगाना की पहली सरकार तो कांग्रेस के पाले में ही गिरनी है, साथ में यहां की अधिसंय लोकसभा सीटें भी कांग्रेस को ही मिलेंगी। वैसे भी आंध्र में कांग्रेस के पराभव और जगन मोहन रेड्डी के उदय के चलते भी कांग्रेस के लिए पृथक तेलंगाना राज्य एक अनिवार्यता लगने लगी थी।

सवाल है कि देशभर में उदारीकरण के चलते केंद्रीय सरकारों का, फिर चाहे वह कांग्रेस गठबंधन की हो या भाजपा की, प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जो रुख है -उन्हें कॉरपोरेट लूट के लिए खुला छोड़ देने का, क्या वह तेलंगाना में बदल जाएगा? बेशक किसी भी राष्ट्र/राज्य के पास खुद के विकास के लिए उसके प्राकृतिक संसाधन ही उसकी सबसे प्रतिनिधि पूंजी है। तेलंगाना भी इसी पूंजी के निवेश (प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन से) अपने राज्य की आर्थिक पृष्ठभूमि बनाएगा, लेकिन यहां सवाल है कि यह प्राकृतिक संसाधन कैसे उपयोग किए जाएंगे? इन संसाधनों के संबंध में जनता का अधिकार और भागीदारी क्या होगी?

उत्तराखंड का उदाहरण लें, जिसका रिश्ता आंध्र प्रदेश से भी है। उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों में नदियों में बहता पानी प्रमुख है। नए राज्य के गठन के बाद एक के बाद एक राज्य में आई सरकारों ने पानी से जुड़े उद्योग उत्तराखंड में स्थापित कर प्रदेश को 'ऊर्जा प्रदेश' बनाने की कवायद शुरू की। इसके लिए 558 जलविद्युत परियोजनाओं का रोडमैप तैयार किया गया, ताकि प्रदेश में 'हाइड्रो पूंजी' की बरसात हो। इन्हीं परियोजनाओं में से एक का उदाहरण यहां मौजूं है।

टिहरी जिले के फलिंडा गांव में भी इस महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत एक 11.5 मेगावाट की परियोजना शुरू की गई। यह परियोजना जिस कंपनी ने शुरू हुई, उसका रिश्ता आंध्र प्रदेश से है। यह कंपनी आंध्र के पूर्व मुयमंत्री राजशेखर रेड्डी के परिवार की है। स्वस्ति पावर इंजीनियरिंग लि. नाम की इस कंपनी के एमडी राजशेखर रेड्डी के छोटे भाई रवींद्रनाथ रेड्डी हैं। यह परियोजना जब प्रस्तावित हुई, तो 11.5 मेगावाट की परियोजना के हिसाब से इसकी पर्यावरण आकलन रिपोर्ट बनाई गई थी। शुरू से ही परियोजना के खिलाफ गांव वाले प्रतिरोध करते रहे। प्रतिरोध और प्रदर्शनों के दौरान फलिंडा गांव के तकरीबन प्रत्येक ग्रामीण को दो-दो बार जेल जाना पड़ा।

लेकिन कई तिकड़मों के बाद कंपनी ने शासन-प्रशासन से कई स्तर पर दबाव डलवाकर गांव वालों को एक समझौते पर विवश कर दिया, जिसके तहत फलिंडा में बांध बनना शुरू हुआ। कंपनी ने जिस परियोजना को 11.5 मेगावाट के साथ शुरू किया था, अचानक उसे पर्यावरण आकलन रिपोर्ट और पर्यावरणीय क्लीयरेंस के बगैर ही 22 मेगावाट का कर दिया गया। इससे गांव वालों के नदी की धारा के ऊपरी छोर पर डूबने वाले उपजाऊ खेतों की संख्या और बढ़ गई और धारा के नीचे के खेत सुरंग में डाल दी गई नदी के चलते सूख गए।

बांधों के बारे में अति प्रचारित, लेकिन फर्जी तथ्य है कि बांध क्षेत्रीय लोगों के लिए रोजगार भी लाते हैं। फलिंडा का उदाहरण है कि आज फलिंडा के महज पांच ग्रामीणों को 5, 000 से लेकर 9, 000 के बीच में तनवाह पर कंपनी ने रोजगार दिया है। औसतन कंपनी ने ग्रामीणों को मासिक कुल 35, 000 रुपए का रोजगार दिया है। इसके अलावा समझौते के आधार पर, कंपनी सालाना तौर पर डेढ़ लाख रुपया गांव को देती है। यानी मासिक तौर पर कंपनी द्वारा कुल गांव को हुई आय 47, 500 रुपए बैठती है और कंपनी का मासिक मुनाफा एक अनुमान के अनुसार 4 करोड़ 40 लाख रुपए है। यानी पहाड़ के गांवों के प्राकृतिक संसाधनों में इतनी क्षमता है कि वे महीने के 4 करोड़ से ऊपर मुनाफा कमा सकते हैं। क्योंकि पृथक राज्य के साथ स्वावलंबी विकास का सपना था, तो जाहिरा तौर पर इस परियोजना के मालिक स्थानीय ग्रामीण भी हो सकते थे। इसका मुनाफा उस गांव की तस्वीर बदल देता और ऐसी ही परियोजनाएं पूरे राज्य की भी तस्वीर बदल देतीं। सरकार की जिमेदारी थी कि राज्य के निवासियों को ऐसे अवसर मुहैया करवाए, लेकिन हुआ उल्टा। यहां के संसाधनों को लाभ उठाने के लिए बाहर की कंपनियों को सौंप दिया गया और स्थानीय लोगों के पास सिवाय पलायन के कोई विकल्प नहीं बचा है।

फलिंडा कोई अपवाद नहीं, बल्कि समूचे उत्तराखंड की कहानी है। एक और अर्थ में यह अकेले उत्तराखंड की ही कहानी नहीं, बल्कि झारखंड और छत्तीसगढ़ की भी कहानी है। एक मायने में समूचा देश ही शासक वर्गों और कॉरपोरेट के इस नापाक गठजोड़ और लूट का शिकार है।

ऐसे में राज्य गठन को मुक्ति मान, संघर्ष में अपना सर्वस्व झोंक चुकी जनता ने अगर सावधानी नहीं बरती, तो बहुत संभव है कि नए राज्य तेलंगाना को भी वही सब न भुगतना पड़े।

गोकि तेलंगाना का अपना एक विशिष्ट इतिहास रहा है। तेलंगाना के राज्य आंदोलन उभार के साथ माओवादी आंदोलन का भी गहरा रिश्ता रहा है। भारत के वर्तमान माओवादी आंदोलन के अधिकतर प्रतिनिधि नेताओं की शुरुआती ट्रेनिंग पृथक तेलंगाना राज्य आंदोलन के दौरान हुई है और माओवादियों के समर्थक कई राजनीतिक/सांस्कृतिक समूहों ने तेलंगाना राज्य आंदोलनों को उनके चरम पर पहुंचाया। आज पूरे देश में कॉरपोरेट और सरकारी गठजोड़ के लूटतंत्र के खिलाफ जिस आंदोलन ने अपनी मजबूत स्थिति दर्ज कराई है, वह यही माओवादी आंदोलन है।

लेकिन क्योंकि माओवादी पार्टी चुनावी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी से परहेज करती है, इसलिए स्वाभाविक ही तेलंगाना के नए राज्य बन जाने से वह उन राजनीतिक लाभों से वंचित रहेगी जिनकी संविधान में व्यवस्था है। यानि सीपीआई माओवादी के लिए पृथक राज्य बन जाने के बाद भी समूचे परिदृश्य में कोई भारी बदलाव नहीं आएगा। संभवत: नए राज्य की मांग के दौर में बना उसका जनाधार नए राज्य में भी स्थितियों में परिवर्तन न देख निराश हो और गहरी निराशा की ओर न धंसता चला जाए। एक लंबे संघर्ष से राज्य पा लेने की परिणिति भी यदि दूसरे लंबे संघर्ष की ओर बढऩा ही हुई, तो क्या जनता के धैर्य और त्याग का सिलसिला बना रह पाएगा?

लोकतंत्र में जनता की चेतना ही एकमात्र पैमाना हो सकती है कि वह लोकतांत्रिक संस्थाओं का कितना लाभ उठा सकने की स्थिति में है। चेतना के अभाव की स्थिति में चाहे कितने भी छोटे-छोटे राज्यों का निर्माण किया जाए, समाज में पूर्ववत मौजूद वर्चस्व की विभिन्न श्रेणियां/संस्थाएं ही इसका असल लाभ पाएंगी। उत्तराखंड इसका चरम उदाहरण है, जहां पृथक राज्य के लिए संघर्ष किसी और ने किया और शासन में आए स्थापित राष्ट्रीय दल ही।

यही नहीं, भाषा के आधार पर पृथक कर दिए जाने पर संभवत: नए राज्य में जातीय आधार पर एक नया वर्चस्व इसका लाभ उठाए। माना कि जाति के आधार पर ही पृथक राज्य का गठन हुआ हो, तो पूंजीवादी लोकतंत्र में तयशुदा तौर पर एक खास वर्ग ही वर्चस्व पर कब्जा कर लेगा। न सिर्फ पृथक राज्यों के अपितु पूरे देशभर के हमारे पास यही अनुभव हैं। यहां यह समझना बेहद जरूरी है कि समाज में स्थापित ढेरों वर्चस्व की इन श्रेणियों को अगर इसी क्रम में तोडऩा हुआ, तो इसकी अंतिम सीमा क्या होगी? या कोई ऐसा आंदोलन संभव है, जो इन विविध श्रेणियों पर एक साथ चोट करे? बहरहाल, अगर 'वर्ग संघर्ष' में इसे देखा जाए, तो उसमें यह संभावनाएं नजर आती हैं।

इसलिए यह सवाल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि पृथक राज्यों की जायज मांग कर रही आंदोलनकारी ताकतें अपने समाज में वास्तविक जनतांत्रिक चेतना के प्रसार और मूल्यों को स्थापित करने के लिए कितनी प्रयासरत हैं? एक और महत्त्वपूर्ण मसला है कि वर्गीय चेतना की इस आंदोलन और उसके नेतृत्व की समझदारी क्या है, और इसके प्रसार के लिए उनके पास क्या एजेंडा है? उन्हें इसके लिए सिर्फ प्रयासरत नहीं रहना, बल्कि इन्हें स्थापित करना है। पृथक राज्य के वास्तविक लाभ के लिए इससे इतर कोई विकल्प नहीं है।

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