Wednesday, May 21, 2014

कृपया हिंदू राष्ट्र और कारपोरेट राज की खिलाफत का पाखंड अब न करें तो बेहतर। जनता को तय करने दें कि उसे अब क्या करना है। जनबल पर भरोसा रखें,लेकिन जनता के बीच हैं कहां हम और हमारा वह अंतिम लक्ष्य,आखिर क्या है वह बला?

कृपया हिंदू राष्ट्र और कारपोरेट राज की खिलाफत का पाखंड अब न करें तो बेहतर।


जनता को तय करने दें कि उसे अब क्या करना है।


जनबल पर भरोसा रखें,लेकिन जनता के बीच हैं कहां हम और हमारा वह अंतिम लक्ष्य,आखिर क्या है वह बला?


पलाश विश्वास


लाल नील विचारधारा मुखर,आब्जेक्टिव ढिंढोरची दोनों पक्ष का सबसे बड़ा अपराध तो शायद यह है कि भारतीय बहुसंख्य मेहनत कश कृषि आजीविका वाले जन गण की जमातों को लाल नीले धड़ों में बांटकर फर्जी विचारधारा और आब्जेक्टिव के छलावे से एक दूसरे के खिलाफ लामबंद करके हिंदू राष्ट्र की यह भव्य इमारत उन्होंने तामीर कर दी है।


जनबल में आस्था न हो,जनता के बीच जाने की आदत न हो और जनसरकार से पूरीतरह कटकर सिर्फ सत्ता ही विचारधारा और अंतिम लक्ष्य में तब्दील हो तो कृपया हिंदू राष्ट्र और कारपोरेट राज की खिलाफत का पाखंड अब न करें तो बेहतर।


जनता को तय करने दें कि उसे अब क्या करना है।


इस जनबल पर भरोसा रखें।




मुझे मेरे मित्र केसरिया करार दें तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है क्योंकि समकालीन यथार्थ के अत्यंत जटिल तिलिस्म में हर कोई या तो दोस्त लगता है या दुश्मन।


आंखों में भर भर उमड़ते पानी में ग्लिसरिन की भूमिका जांचना बेहद मुश्किल है।


सत्ता बदल की औपचारिकता मध्य फिर गरीबों के नाम है सरकार सत्ता दोनों।


गरीबों की भलाई के बहाने बहुत कुछ हुआ,बल्कि जो कुछ भी हुआ आजतक गरीबी की पूंजी के बाबत।गरीबी मिट जाये तो सत्ता समीकरण का क्या होगा कोई नहीं जानता।


हम विचारधारा और अंतिम लक्ष्य के बारे में बहुत बोल रहे हैं पिछले सात दशकों के मध्य लागातार। यह विचारधारा और यह अंतिम लक्ष्य भला क्या है,इसे आत्मसात किये बिना।


आलम यह है कि अंबेडकरी विचारों के झंडेवरदार बसपाई चार फीसद वोट देशभर में जुटाने के बावजूद केसरिया हुए जा रहे हैं।अंबेडकरी दुकानदार तो सारे के सारे केसरिया पहले ही हो चुके हैं।


समाजवादी विचारधारा का हश्र यह है कि संसद में अपने वंश के प्रतिनिधित्व में गांधी नेहरु राजवंश से भी आगे।


साबरमती किनारे अवतरित कल्कि अवतार ही अब गांधी का बोधिसत्व अवतार है।


गांधी हत्यारा महिमामंडित है गांधीवादियों के देश में क्योंकि राष्ट्र अब हिंदू है।


अकेले उत्तर प्रदेश में हजारों अंबेडकरी कैडर इतिमध्ये केसरिया अंगवस्त्रम धारक हो चुके हैं।वैसा ही है जैसे गुजरात के दंगों के दौरान,जब दलित आदिवासी पिछड़े और महिलाओं तक को धू धू जल रहे अल्पसंख्यक इलाकों में खून से लथपथ बेशकीमती सामान से अपना अपना घर भरते देखा गया।


इतिहास की पुनरावृत्ति कितनी बारंबार होती है।


नामदेव धंसाल और रामदास अठावले के कितने अवतार अबतक अवतरित हैं,हिसाब लगाते रहिये।


उदित राज और पासवान के कितने अवतार होंगे,यह भी हिसाब लगाते रहिये।


जो मैं कह रहा था,यह सच है कि विचारधारा नियंत्रक शक्ति होती है सत्ता और राष्ट्र के लिए,व्यवस्था के लिए,तो परिवर्तन और क्रांति के लिए भी।


हमने पहले भी लिखा है कि संघ परिवार के पास एक एजंडा तो है हिंदू राष्ट्र का।हमारा कोई एजंडा है ही नहीं।उनकी विचारधारा हिंदुत्व है और हमराी कोई विचारधारा है ही नहीं।


हिंदू राष्ट्र का अंतिम लक्ष्य हासिल करने के लिए स्वदेशी का बलिदान करके क्रोनी पूंजी और कारपोरेट राज का विकल्प चुनने में संघ परिवार ने  कोताही नहीं बरती।


हिंदू राष्ट्र के लिए मनुस्मृति शासन और वर्ण वर्चस्व के धारकों वाहकों ने भारी निर्ममता से अपने तमाम सारस्वत कन्नौजिया चितकोबरा नेताओं नेत्रियों को हाशिये पर फेंक दिया और सत्ता के लिए बंगाली फार्मूले पर ओबीसी वोटबैंक के केसरियाकरण के लिए ओबीसी मोड या तेली नमो को प्रधानमंत्री बना दिया।


इसके मुकाबले अंबेडकरी समामजिक न्याय और समता के लिए लड़ रही जमात मूर्तिपूजा मार्फत अपना अपना घर भरने का काम करती रही या फिर अपने अपने कुनबे के लिए न्याय और समता का सौदा करती रही।


वामदलों ने इस देश में जात पांत का विरोध अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडे को स्वीकार किये बिना अपने जनसंगठनों के जरिये औद्योगिक और सूचना क्रांति के मध्य बखूब किया।


धर्मनिरपेक्षता को हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ लड़ने का अचूक हथियार भी उन्होंने बनाया।इसी बाबत बंगाल में पैतीस साल तक वर्णवर्चस्वी नस्ली लैंगिक राज बहाल रखा।

मतुआ आंदोलन और तमाम किसान आंदोलन के बुनियादी मुद्दा भूमि सुधार को भी अकेले वामदलों ने संबोधित किया और बंगाल में वाम सरकार के एजंडे की सर्वोच्च प्राथमिकता थी यह।


सत्ता खेल में धर्मनिरपेक्षता क्षत्रपों की जात पांत की राजनीति में तब्दील है अब।


भूमि सुधार का एजंडा जमीन दखल इलाका दखल की गेस्टापो संस्कृति में तब्दील।


वाम आंदोलन का विराट चालचित्र,मुर्याल अब यह है कि मजदूर किसान महिला छात्र आंदोलन तहस नहस और ऊपर से नीचे तक वर्णवर्चस्व लैंगिक नस्ली भेदभाव प्रबल।।एकाधिकारवादी जाति आधिपात्य।


हिंदू राष्ट्र के लिए ओबीसी नमो को वर्णवर्चस्वी संघ परिवार ने बाकायदा अमेरिकी राष्ट्रपति की तर्ज पर महिमांडित करके राष्ट्रनायक ही नहीं,उपनिषदीय पौराणिक ईश्वर का दर्जा दे दिया।


तो दूसरी ओर त्रिपुरा में देशभर में वाम विपर्यय के बावजूद चौसठ प्रतिशत वोटरों के अभूतपूर्व ऐतिहासिक समर्थन से माणिक सरकार ओबीसी की अगुवाई में दोनों लोकसभा सीटों में जीत के बावजूद सीढ़ीदार जाति व्यवस्था वामदलों में आज का क्रांति विरोधी महावास्तव है।


रज्जाक मोल्ला सिर्फ इसलिए निकाले गये दशकों की प्रतिबद्धता के बावजूद कि वे पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन करके वामदलों की जनाधार में वापसी की मांग कर रहे थे।


जेएनयू में दशकों के वर्चस्व को खत्म करके केसरिया जमीन इसलिए तैयार कर दी गयी क्योंकि जेएनयू पलट वाम नेतृत्व नेतृत्व की समालोचना  के लिए किसी भी स्तर पर तैयार नहीं हैं।


यह कैसी विचारधारा है,कैसा अंतिम लक्ष्य है,जिसका विश्वविख्यात कैडर संगठन एक झटके से हरा हरा हो गया तो दूसरे झटके से केसरिया,इस पर विवेचना जरुरी है।


फिल्म अभिनेत्री मुनमुन सेन की कोई फिल्म आजतक हिट हुई है तो याद करके बतायें,लेकिन अतीत की इस ग्लेमरस कन्या ने बांकुड़ा में 44 या 45 डिग्री सेल्सियस तापमान के मध्य नौ बार के सांसद वासुदेव आचार्य को हरा दिया।


वासुदेव आचार्य ने सफाई दी है कि भाजपा के वोट काटने की वजह से यह हार हुई।अब तो कम अंतर से हारने वाले लोग नोटा की भी दुहाई दे सकते हैं।


बंगाल में वाम दलों का 11 फीसद वोट भाजपा ने काट लिए।


मजदूर आंदोलन की विरासत वाले वामदलों का बंगाल के औद्योगिक महाश्मशान में कोलकाता हावड़ा से लेकर आसनसोल तक सफाया हो गया।


इस लोकसभा चुनाव में कोलकाता नगरनिगम के आधे से ज्यादा वार्ड में भाजपा या तो पहले नंबर पर है या दूसरे नंबर पर।तीसरे नंबर के लिए भी देशभर में पराजित कांग्रेस से वामदलों की टक्कर है।


आसनसोल में तो 45 के 45 वार्डों में भाजपा की बढ़त है।


हम महीनों पहले से कामरेडों को और दीदी को भी  इस केसरिया लहर के बारे में चेताते रहे हैं।किसी के कानों को जूं नहीं रेंगी।


पहले ही लगातार चुनावी मार के बावजूद असहमत,या नेतृत्व परिवर्तन की मांग करने वाले हर कार्यकर्ता और जमीनी नेता को बाहर का दरवाजा दिखाने के अलावा संगठनात्मक कवायद के नाम पर बंगाल में परिवर्तन के बाद वामदलों ने कुछ नहीं किया।


पार्टी महासचिव प्रकाश कारत हवा में तलवारबाजी करते रहे तो बंगाली वर्णवर्चस्वी नेतृत्व के साथ बंगाल से राज्यसभा पहुंचे जेएनयू पलट सीताराम येचुरी अंध धृतराष्ट्र भूमिका निभाते रहे।


मोदी सीधे ध्रूवीकरण की राजनीति करते रहे।धर्मनिरपेक्षता के बवंडर से नमो हिंदुत्व कारपोरेट सुनामी की हवाई किले बंदी की जाती रही,बहुसंख्यक बहुजनों के कटते जनाधार और उनके थोक केसरिया करण के संघ परिवार के प्रिसाइज सर्जिकल आपरेशन,युवाजनों को साधने के लिए ट्विटर फेसबुक क्रांति को सिरे से नजर अंदाज करते रहे लाल नील रथी महारथी ।


ध्रूवीकरण के मास्टर मांइंड अमित साह को गायपट्टी में खुल्ला छोड़ दिया तो बंगाल में मोदी के छापामार हमले से वैचारिक जमीन तोड़ने की रणनीति भी समझने में नाकाम रहे कामरेड।


नेतृत्व पर जाति वर्चस्व बनाये रखने  के लिए,बंगाल के वैज्ञानिक नस्ली भेदभाव की सोशल इंजीनियरंग करने वाले कामरेड उसीतरह पिट गये जैसे सर्वजन हिताय नारे के साथ सवर्ण समर्थन के जरिये ओबीसी और आदिवासियों की परवाह किये बिना सिर्फ दलित और मुस्लिम वोट बैंक को संबोधित करके मायावती ने खुद मोदी की हवा बनायी।


सारा क्रेडिट अमित साह का नहीं है,जैसा कहा जा रहा है।


उदित राज,राम विलास पासवान,शरद यादव,लालू यादव,नीतीशकुमार,मुलायम और मायावती सबने जाति व्यवस्था के तहत बहुसंख्य जनगण को खंड खंड वोटबैंक में तब्दील कर दिया।


नीले हरे लाल सारे के सारे विचारधारा झंडेवरदार हिंदुत्व से अलग कब हुए,यह सोचा नहीं गया।जाति पहचान के बजाय धर्म पहचान बड़ी होती है।


बांग्लादेश में फिर भी मातृभाषा देश को जोड़ती है।


हमारे यहां दर्जनों भाषाएं,सैकड़ों बोलियां।सर्वत्र विराजमान हिंदुत्व की पहचान जाति,क्षेत्र और भाषा की अस्मिता से बड़ी है और ओबीसी जनसंख्या देश की आधी आबादी बराबर है,सिंपली इसी समीकरण पर संघ परिवार ने संस्थागत तरीके से नमो राज्याभिषेक का अबाध कार्यक्रम को कामयाबी के सारे रिकार्ड तो़ड़ते हुए पूरा कर डाला।


गुजरात नरसंहार के पाप को धोने के लिए 1984 के सिख जनसंहार को मुद्दा बना दिया गया।यह नजरअंदाज करते हुए कि सिख संहार के मध्य,उससे पहले इंदिरा गांधी से देवरस संप्रदायके एकात्म हिंदुत्व का क्या रसायन रहा है।


1984 राजीव गांधी की जीत हो या 1971 में दुर्गाअवतार इंदिरा की भारी विजय,उसके पीछे नागपुर का भारी योगदान रहा है।


राजनीति की राजधानी नई दिल्ली,साहित्यकी राजधानी भोपाल,संस्कृति की राजनीति कोलकाता और उद्योग कारोबार की राजनीति भले ही मुंबई हो,देश की राजनीति,अर्थव्यवस्था और संस्कृति को नियंत्रित करने वाली संशस्थागत विचारधारा की राजधानी नागपुर है।


यह देश अब संघ मुख्यालय,नागपुर  के हवाले है।


कांग्रेसी दंगाई नेतृत्व के मुकाबले सिख विरोधी केसरिया दंगाई चेहरा सिरे से भूमिगत हैं लेकिन उस नारे की गूंज अभी बाकी है,जो नागपुर से घर घर मोदी की तरज पर गढ़ा गया था, जो हिंदू हितों की रक्षा करें ,वोट उसीको दें।


कांग्रेस ने बाकायदा वाकओवर दिया है भाजपा को और सत्तावर्ग ने अपनी अपनी भूमिका बदल दी है।एजंडा नहीं बदला और न विचारधारा बदली है।


फिर वामदलों का अर्थव्यवस्था की समझ सबसे ज्यादा होने की घमंड है।उनकी वैज्ञानिक सोच आर्थिक है।लेकिन आर्थिक सुधारों का प्रतिरोध करने में वे सिरे से नाकाम तो रहे ही,बंगाल की सत्ता बचाने के लिए मनमोहिनी विनाश के साझेदार बने रहे अंतिम समय तक और इस चुनाव में भी नतीजा आने तक कांग्रेस के वंशवादी विनाशक शासन वापस लाने का संकल्प दोहराते रहे।


त्रिपुरा में 64 फीसद वोट तो केरल में भी दोगुणी सीटों के मुकाबले बंगाल में वाम विपर्यय से साफ जाहिर है कि विचारधारा और अंतिम ल्क्ष्य के मामले में कामरेड भी अंबेडकरी झंडेवरदारों से कम फर्जीवाड़ा,कम जात पांत की राजनीति नहीं करते रहे।


वैज्ञानिक वाम सांप्रदायिकता ही धर्मनिरपेक्षता का पाखंंड है जो संघी एजंडा को कामयाब बनाने में रामवाण साबित हुआ है।


वाम आंदोलन फेल हो या नहीं,इतिहास तय करेगा लेकिन उसकी हालिया कूकूरदशा की एकमात्र वजह वर्णवर्चस्वी बंगाल लाइन और उसका पालतू पोलित ब्यूरो है।


लाल नील विचारधारा मुखर,आब्जेक्टिव ढिंढोरची दोनों पक्ष का सबसे बड़ा अपराध तो शायद यह है कि भारतीय बहुसंख्य मेहनत कश कृषि आजीविका वाले जन गण की जमातों को लाल नीले धड़ों में बांटकर फर्जी विचारधारा और आब्जेक्टिव के छलावे से एक दूसरे के खिलाफ लामबंद करके हिंदू राष्ट्र की यह भव्य इमारत उन्होंने तामीर कर दी है।


अब बंगाल में थोक बगावत है।फेसबुक से लेकर पार्टी दफ्तर तक बेशर्म एकाधिकारवादी नेताओं के खिलाफ जंगी पोस्टबाजी करने लगे हैं प्रतिबद्ध वाम कार्यकर्ता।


लेकिन जैसा कि रिवाज है,न वाम विचारधारा की मशाल लेकर चलने वाले कभी नहीं बदले,वैसे ही अंबेडकर को बोधिसत्व बनाकर उनके एटीएम से निकासी करते रहने वाल नीले झंडे के वारिश भी अपना तौर तरीका बदलने वाले नहीं है।


हिंदू राष्ट्र की नींव बन गये लाल नील नेतृत्व तबके भारतीय मेहनत कश सर्वस्वहारा जनता के सबसे बड़े दुश्मन बतौर सामने आये हैं और उनकी आस्था अगर ओबीसी अवतार नमो महाराज के कारपोरेट राज हिंदू राष्ट्र में हैं,तो आइये आगामी अनंतकाल तक हम सिर धुनने की रस्म अदायगी करते रहे।


या फिर गायत्री मंत्र या हनुमान चालीसा का जाप करें।


जनबल में आस्था न हो,जनता के बीच जाने की आदत न हो और जनसरकार से पूरीतरह कटकर सिर्फ सत्ता ही विचारधारा और अंतिम लक्ष्य में तब्दील हो तो कृपया हिंदू राष्ट्र और कारपोरेट राज की खिलाफत का पाखंड अब न करें तो बेहतर।


जनता को तय करने दें कि उसे अब क्या करना है।


इस जनबल पर भरोसा रखें।


समयांतर में सिद्धार्थ वरदराजन ने एकदम सही लिखा हैः

मोदी के लगातार हो रहे उभार का उनकी हिंदुत्ववादी साख और अपील से कुछ खास लेना-देना नहीं है जैसा कि उनके धर्मनिरपेक्ष आलोचक बता रहे हैं। मोदी आज जहां हैं—सत्ता के शीर्ष पर, वह इसलिए नहीं कि आज देश और भी सांप्रदायिक हो गया है बल्कि इसलिए कि भारतीय कॉरपोरेट-जगत हर दिन अधीर होता जा रहा है। प्रत्येक चुनाव-सर्वेक्षण जो उन्हें सत्ता के और नजदीक पहुंचता दिखाता है, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को नई ऊंचाई पर ले जाता है।

नरेंद्र मोदी किसका प्रतिनिधित्व करते हैं और भारतीय राजनीति में उनका उभार क्या बतलाता है? 2002 के मुस्लिम-विरोधी नरसंहार के बोझ में दबे गुजरात के मुख्यमंत्री के राष्ट्रीय मंच पर आगमन को सांप्रदायिक राजनीति के उभार के चरम के रूप में देखना काफी लुभावना है। निश्चित ही, संघ परिवार के वफादार और हिंदू मध्यवर्ग के एक व्यापक हिस्से में उनके प्रति अंधभक्ति एक ऐसे नेता की छवि के रूप में है जो जानता है कि ''मुसलमानों को उनकी जगह'' कैसे बतायी जा सकती है। इन समर्थकों के लिए, उनका उन हत्याओं के लिए जो उनके शासन काल में हुईं—प्रतीक रूप में भी माफी मांगने जैसा सामान्य से काम को भी मना करना, उनकी कमजोरी के रूप में नहीं बल्कि ताकत और मजबूती के एक और साक्ष्य के बतौर देखा जाता है।

इस पर भी, मोदी के लगातार हो रहे उभार का उनकी हिंदुत्ववादी साख और अपील से कुछ खास लेना-देना नहीं है जैसा कि उनके धर्मनिरपेक्ष आलोचक बता रहे हैं। मोदी आज जहां हैं—सत्ता के शीर्ष पर, वह इसलिए नहीं कि आज देश और भी सांप्रदायिक हो गया है बल्कि इसलिए कि भारतीय कॉरपोरेट-जगत हर दिन अधीर होता जा रहा है। प्रत्येक चुनाव-सर्वेक्षण जो उन्हें सत्ता के और नजदीक पहुंचता दिखाता है, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को नई ऊंचाई पर ले जाता है। फाइनेंसियल टाइम्स के एक नए लेख में, जेम्स क्रैबट्री ने अडाणी इंटरप्राइजेज में अभूतपूर्व वृद्धि को चिन्हित किया है—पिछले महीने इस कंपनी के शेयर मूल्य में सेंसेक्स में सिर्फ 7 अंक की वृद्धि के मुकाबले 45 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। इसका एक कारण -एक इक्वीटी विश्लेषक ने एफ.टी. (फाइनेंसियल टाइम्स) को यह बताया कि निवेशक मोदी के नेतृत्व में एक ऐसी सरकार की आशा करते हैं जो अडाणी को पर्यावरणीय आपत्तियों के बावजूद मुंद्रा बंदगाह विस्तार की अनुमति देगा। विश्लेषक के शब्दों में—''अत: बाजार कह रहा है कि मोदी और अडाणी की सामान्य नजदीकियों के परे, भाजपा शासन में इसकी मंजूरी मिलना कठिन नहीं होगा।''

विस्तार के आयाम

'मंजूरी' शब्द सौम्य लगता है, पर वास्तव में यह मोदी द्वारा पूंजी के विस्तार की उस इच्छा को समायोजित करने की मंशा को दर्शाता है जो किसी भी रूप में चाहे (विस्तार करे)—जमीन में और खेतों में, ऊर्ध्वाेधर रूप में—जमीन के ऊपर और नीचे, और पार्श्वक रूप में—रिटेल और बीमा क्षेत्र को विदेशी निवेशकों की मांग के अनुरूप खोलने में। और यदि पर्यावरणीय नियम, आजीविका, क्षेत्र या सामुदायिक हित आड़े आते हैं तो सरकार को अपने समर्थन और सहायता से इनका रास्ता बलपूर्वक साफ करना होगा। यह वह 'निर्णयात्मक' वादा है जिसने मोदी को भारतीय- और वैश्विक—बड़े व्यवसाय में इतना पसंदीदा व्यक्ति बना दिया है।

देश के शीर्ष व्यवसायियों की निर्णय लेने में 'अनिर्णयात्मक' कांग्रेस के प्रति निष्ठा बदल कर क्यों और कैसे नरेंद्र मोदी के पक्ष में हो गई यह ऐसी कहानी है जो भारतीय राजनीति के आंतरिक जीवन की गत्यात्मकता को प्रतिबिंबित करती है। लेकिन बिना कुछ करे लाभ कमाना (रेंट-सीकिंग) और क्रोनीइज्म ने भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसा गहरा संकट पैदा कर दिया है की उदारीकरण से होने वाले तत्काल लाभ अपनी स्वाभाविक सीमा पर पहुंच चुके हैं। नव उदारवादी नीतियों और 'लाइसेंस परमिट राज' के अंत की शुरुआत के साथ किए सभी परिवर्तनों का मतलब था कि सरकार के नजदीक रही कंपनियों द्वारा बिना कुछ करे लाभ अर्जित करने का स्तर आसमान छूने तक पहुंच गया है। मद्रास स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के एन एस सिद्धार्थन के तर्क के अनुसार ''मौजूदा कारोबारी माहौल के तहत, अकूत धन अर्जित करने का रास्ता उद्योग-निर्माण के माध्यम से नहीं बल्कि सरकार के स्वामित्व के तहत संसाधनों के दोहन के माध्यम से ही संभव है।'' भले ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा अपनी रिपोर्ट में 2 जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाला के अनुमान कुछ ज्यादा हों , यह स्पष्ट है कि संसाधनों का तरजीही आवंटन कंपनियों के लिए लाभ का एक बहुत बड़ा स्रोत बन गया है अन्यथा उनका उत्पादन के माध्यम से लाभ 'सामान्य' से अधिक नहीं होता। इन संसाधनों में सिर्फ कोयला या स्पेक्ट्रम या लौह अयस्क ही नहीं, सबसे निर्णायक तौर पर —भूमि और पानी भी शामिल हैं। और यहां, मोदी की उस नई खुशनुमा दुनिया के प्रतिनिधि नायक गौतम अडाणी हैं, जिनका एक प्रमुख व्यापारी के रूप में उदय, खुद गुजरात के मुख्यमंत्री के उदय का दर्पण है।






Satya Narayan

20 hrs ·

हमारे समय के दो पहलू

बुरा है हमारा यह समय

क्योंकि

हमारे समय के सबसे सच्चे युवा लोग

हताश हैं,

निरुपाय महसूस कर रहे हैं खुद को

सबसे बहादुर युवा लोग।

सबसे जिन्दादिल युवा लोगों के

चेहरे गुमसुम हैं

और

आँखें बुझी हुई।

एकदम चुप हैं

सबसे मजेदार किस्सगोई करने वाले

युवा लोग,

एकदम अनमने-से।

बुरा है हमारा यह समय

एक कठिन अॅंधेरे से

भरा हुआ,

खड़ा है

सौन्दर्य,नैसर्गिक, गति और जीवन की

तमाम मानवीय परिभाषाओं के खिलाफ,

रंगों और रागों का निषेध करता हुआ।

******************

अच्छा है हमारा यह समय

उर्वर है

क्योकि यह निर्णायक है

और इसने

एकदम खुली चुनौती दी है

हमारे समय के सबसे उम्दा युवा लोगों को,

उनकी उम्मीदों और सूझबूझ को,

बहादुरी और जिन्दादिली को,

स्वाभिमान और न्यायनिष्ठा को।

''खोज लो फिर से अपने लिए,

अपने लोगों के लिए

जिन्हें तुम बेइन्तहां प्यार करते हो,

और आने वाले समय के लिए

कोई नई रोशनी''

-अन्धकार उगलते हुए

इसने एकदम खुली चुनौती दी है

जीवित, उष्ण हृदय वाले युवा लोगों को।

कुछ नया रचने और आने वाले समय को

बेहतर बनाने के लिए

यह एक बेहतर समय है,

या शायद, इतिहास का एक दुर्लभ समय।

बेजोड़ है यह समय

जीवन-मरण का एक नया,

महाभीषण संघर्ष रचने की तैयारी के लिए,

अभूतपूर्व अनुकूल है

धारा के प्रतिकूल चलाने के लिए।

सत्य व्रत


समकालीन तीसरी दुनिया, मई 2014

Open publication - Free publishing


Embed code <div data-configid="0/7942406" style="width: 525px; height: 355px;" class="issuuembed"></div><script type="text/javascript" src="//e.issuu.com/embed.js" async="true"></script>


घोषणापत्र के अघोषित सत्य

Author: समयांतर डैस्क Edition : May 2014

ले. : पार्थिव कुमार

मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में एफडीआई के विरोध का दिखावा करना भाजपा की राजनीतिक मजबूरी है। ठीक उसी तरह जैसे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे के दिन दिल्ली विधानसभा में हुई कांग्रेस और भाजपा की साझा धींगामुश्ती के बाद मजबूत लोकपाल की तरफदारी उसकी बाध्यता। खुदरा व्यापार में एफडीआई से सबसे ज्यादा नुकसान छोटे व्यापारियों को होगा जो परंपरागत तौर पर भाजपा के साथ रहे हैं। आम आदमी पार्टी के इसके विरोध में खुले तौर पर बोलने के बाद छोटे व्यापारियों के भाजपा समर्थक तबके में कसमसाहट थी। भाजपा के लिए विदेशी रिटेलर कंपनियों के खिलाफ बोलना जरूरी हो गया था।


मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) की इजाजत नहीं देने की भारतीय जनता पार्टी की घोषणा से टेस्को, वॉलमार्ट और कारफोर जैसी कंपनियों को मायूस होना चाहिए। टेलीविजन चैनलों पर तकरीबन रोजाना दिखाए जाने वाले चुनाव सर्वेक्षणों में भाजपा और प्रधानमंत्री पद के इसके उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को सत्ता का सबसे मजबूत दावेदार बताया जा रहा है। इन कंपनियों को परेशान होना चाहिए कि सर्वेक्षणों के सही साबित होने पर भारत जैसे विशाल बाजार में अपने पैर पसारने का इनका सपना चकनाचूर हो सकता है। लेकिन रिटेल सलाहकार कंपनी टेक्नोपैक के चेयरमैन अरविंद सिंघल कहते हैं, ''चुनाव घोषणापत्र कोई पत्थर पर लकीर नहीं है। हमें चुनाव खत्म होने तक इंतजार करना चाहिए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार की नीति का पालन कर पाना विदेशी रिटेलर कंपनियों के लिए नामुमकिन था। भाजपा मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में एफडीआई की इससे बेहतर नीति लेकर आ सकती है।''

दरअसल मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में एफडीआई के विरोध का दिखावा करना भाजपा की राजनीतिक मजबूरी है। ठीक उसी तरह जैसे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे के दिन दिल्ली विधानसभा में हुई कांग्रेस और भाजपा की साझा धींगामुश्ती के बाद मजबूत लोकपाल की तरफदारी करना उसकी बाध्यता है। मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में एफडीआई से सबसे ज्यादा नुकसान उन छोटे व्यापारियों को होगा जो परंपरागत तौर पर भाजपा के साथ रहे हैं। आम आदमी पार्टी के इसके विरोध में खुले तौर पर बोलने के बाद छोटे व्यापारियों के भाजपा समर्थक तबके में कसमसाहट थी। भाजपा के लिए विदेशी रिटेलर कंपनियों के खिलाफ बोलना जरूरी हो गया था ताकि इस तबके को अपने खेमे में बनाए रखा जा सके।

भाजपा ने अपना चुनाव घोषणापत्र मतदान के पहले चरण के दिन जाकर जारी किया। इससे ही स्पष्ट हो जाता है कि उसकी नजर में यह घोषणापत्र कितना महत्त्वहीन है। बेशक यह पार्टी मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआई की मनमोहन सिंह सरकार की नीति का संसद के अंदर जोरदार विरोध करती रही है। लेकिन दोहरी जबान में बात करना उसकी और प्रधानमंत्री पद के उसके उम्मीदवार की खासियत है। अहमदाबाद में वली दकनी की मजार पर रोडरोलर चलवा कर सड़क बनवाने के बाद भी मोदी सभी धर्मों का सम्मान करने की बात कर सकते हैं। पुलिस का दुरुपयोग कर एक युवती की जासूसी करवाने के बावजूद वह महिलाओं के सम्मान की रक्षा की कसमें खा सकते हैं। जिस शख्स को अपनी वैवाहिक स्थिति तक याद नहीं रहती हो उसे चुनाव घोषणापत्र में किया वादा भुलाने में कितना वक्त लगेगा?

भाजपा का चुनाव घोषणापत्र वास्तव में विकास के तथाकथित गुजरात मॉडल का ही विस्तार है। मोदी के मुख्यमंत्रित्व में गुजरात की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से निजी क्षेत्र और बाजार की ताकतों के हवाले कर दिया गया है। राज्य सरकार ने सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भी पल्ला झाड़ लिया है। नतीजतन राज्य के मानव विकास के आंकड़े बेहद खराब हैं और प्रगति का रिकार्ड भी औसत ही है। राज्य में विकास के लाभ का बंटवारा समावेशी नहीं होकर अत्यंत भेदभावपूर्ण रहा है।

मोदी के आर्थिक सलाहकार मानते हैं कि सरकार को निजी संपत्ति को फलने फूलने के लिए अनुकूल माहौल मुहैया कराना चाहिए। उनकी राय में निजी संपत्ति में इजाफा ही वंचितों की स्थिति को बेहतर बनाने में सहायक होगा। भाजपा का इरादा केंद्र में सत्ता में आने की स्थिति में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की नवउदारवादी नीति पर ही चलते हुए अपने इसी पूंजीपरस्त गुजरात मॉडल को समूचे देश पर थोपने का है।

कांग्रेस की तरह ही भाजपा ने भी अपने चुनाव घोषणापत्र में किसानों को फसल का लाभकारी मूल्य दिलाने, गांवों और शहरों में ढांचागत सुविधाओं के विकास, महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य वंचित तबकों के सशक्तीकरण और युवाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के बारे में लंबे चौड़े वादे किए हैं। लेकिन किसी ठोस कार्यक्रम के अभाव में इन वादों का हश्र क्या होगा इसे आसानी से समझा जा सकता है। दूसरी ओर पार्टी ने बड़े उद्योगपतियों और व्यवसायियों के लिए जितनी सहूलियतों की घोषणा की है उसका 10 फीसदी भी लागू हो जाए तो वे मालामाल हो जाएंगे।

भाजपा ने साफ कर दिया है कि वह मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार को छोड़ रक्षा समेत सभी क्षेत्रों में एफडीआई का स्वागत करेगी। उसने राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं को नजरंदाज करते हुए रक्षा सौदों की मंजूरी की प्रक्रिया को आसान बनाने का वादा किया है। उसने कहा है कि वह विदेशी और देशी निवेश के लिए बेहतर माहौल बनाने के मकसद से नीतियों में सुधार करेगी। पार्टी ने बैंकिंग प्रणाली में सुधार, टैक्स व्यवस्था को तार्किक और सरल बनाने तथा समूचे देश में सामान्य बिक्री कर लागू करने का भी संकल्प जाहिर किया है। उसने कहा है कि विदेशी निवेश संवद्र्धन बोर्ड के कामकाज को ज्यादा प्रभावी और निवेशकों के अनुकूल बनाया जाएगा।

चुनाव घोषणापत्र जारी करने के पीछे भाजपा का एकमात्र मकसद विदेशी और देशी उद्योगपतियों को रिझाना और उनसे भारी चंदा वसूल करना लगता है। उसने बड़ी परियोजनाओं को तुरंत मंजूरी देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल बढ़ाने की प्रणाली बनाने का वादा किया है। उसने कहा है कि इन परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देने के बारे में फैसला समयबद्ध ढंग से किया जाएगा। इस संबंध में भाजपा की होड़ मौजूदा पर्यावरण और वन मंत्री एम वीरप्पा मोइली से लगती है जिन्होंने चुनावी साल में औद्योगिक घरानों को रिझाने के लिए पर्यावरणवादियों की चिंताओं को ताक पर रख बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं को अंधाधुंध मंजूरी देने का रिकार्ड कायम किया है।

भाजपा का वादा है कि युवाओं के लिए नौकरियां सृजित करने के उद्देश्य से वह कंपनियों को अपना उत्पादन आधार भारत को बनाने के वास्ते प्रेरित करेगी। मगर क्या सिर्फ मुनाफे पर नजर रखने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में फैक्टरियां खोलने के लिए मजबूर किया जा सकता है? वे तो उसी देश को अपना उत्पादन आधार बनाएंगी जहां कानून उनके अनुकूल हो तथा जमीन, कच्चा माल और मजदूर औने पौने भाव मिल सकें। मोदी देश के किसानों, मजदूरों और छोटे कारोबारियों के हितों को नजरंदाज कर धनपतियों की इस शर्त को पूरा करने के लिए तैयार दिखाई देते हैं।

मौजूदा साल की शुरुआत में नए भूमि अधिग्रहण कानून के लागू होने के बाद औद्योगिक घरानों और बिल्डरों के लिए जमीन की खरीद पहले जितनी आसान नहीं रही है। इसे ध्यान में रखते हुए घोषणापत्र में केंद्र और राज्यों में भूमि उपयोग प्राधिकरण के गठन की बात कही गई है ताकि जमीन अधिग्रहण को सरल बनाया जा सके। इसे इस बात का संकेत माना जा सकता है कि केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने पर अडाणियों, अंबानियों और टाटाओं की और चांदी होगी। आवास निर्माण को निजी कंपनियों के हवाले किए जाने के बाद यह क्षेत्र काले धन को खपाने का सबसे अच्छा जरिया बन गया है। अवैध धन पर अंकुश लगाने की कसमें खाने वाली भाजपा ने आवास की समस्या को दूर करने के लिए सार्थक सरकारी पहलकदमी के बजाय इस क्षेत्र में निजी निवेश को और सहज बनाने का संकेत दिया है। उसकी नीति के तहत ढांचागत सुविधाओं के विस्तार पर खर्च सरकार का होगा मगर उसका लाभ आम आदमी के बजाय बड़े उद्योगपति और कारोबारी ले जाएंगे।

भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग की उपेक्षा की गई है। पार्टी ने स्थायी प्रकृति के काम में ठेका मजदूरों का इस्तेमाल रोकने की श्रमिक संगठनों की मांग को नजरंदाज कर दिया है। ठेका मजदूरों को स्थायी श्रमिकों के समान मजदूरी और सुविधाएं मुहैया कराने के सवाल पर भी उसने चुप्पी साध रखी है। न्यूनतम मजदूरी और पेंशन की सीमा बढ़ाने और उन्हें सख्ती से लागू करने तथा सूचना प्रौद्योगिकी, कॉल सेंटर और ऑडियो विजुअल मीडिया क्षेत्रों को श्रम कानूनों के दायरे में लाने में भी उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

'सबका साथ, सबका विकास' के भाजपा के नारे की पोल उसके चुनाव घोषणापत्र से ही खुल जाती है। इससे यह भी साफ हो जाता है कि क्यों निजी कंपनियां कांग्रेस का साथ छोड़ मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रही हैं। उद्योगपतियों की गुलाम मीडिया में मोदी के कसीदे पढ़ने की होड़ का कारण भी इससे स्पष्ट हो जाता है।

भ्रष्ट कॉरपोरेट घरानों के लिए मनमोहन सिंह अगर भरोसेमंद भाई रहे तो मोदी पूज्य पिता के समान हैं। गुजरात के उनके शासनकाल में अडाणी ग्रुप की संपत्ति 3000 करोड़ रुपए से बढ़ कर 50000 करोड़ रुपए की हो गई। फॉब्र्स एशिया के मुताबिक राज्य सरकार ने इस औद्योगिक घराने को मुंद्रा में 7350 हेक्टेयर जमीन कौडिय़ों के मोल 30 साल के पट्टे पर दी है। इस जमीन को अडाणी ने इंडियन आयल जैसी सरकारी कंपनियों को भारी रकम लेकर किराए पर सौंप दिया है। इसके एक हिस्से पर उसने बंदरगाह, बिजलीघर और विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाया है।

एक रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार ने नैनो के संयंत्र को गुजरात में लाने के लिए टाटा को लगभग 30 करोड़ रुपए के लाभ दिए। हर नैनो कार के उत्पादन पर गुजरात सरकार के तकरीबन 60 हजार रुपए खर्च होते हैं। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजरात सरकार ने 2012-13 में बड़े औद्योगिक घरानों को बेजा फायदे पहुंचाए जिससे सरकारी खजाने को 750 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। उसकी इस दानवीरता का सबसे ज्यादा लाभ रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड, एस्सार स्टील और अडाणी पावर लिमिटेड जैसी मोदी की चहेती कंपनियों को हुआ।

भेद खुलने का भय होने पर चुप्पी साध लेना मोदी और उनकी पार्टी की पुरानी आदत है। शायद इसीलिए भाजपा का घोषणापत्र सरकारी कंपनियों के विनिवेश के सवाल पर खामोश है। लेकिन घोषणापत्र से इस बात का साफ संकेत मिलता है कि पार्टी इस संबंध में तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की संप्रग सरकार की नीति को ही आगे बढ़ाएगी।

भाजपा बजट घाटा कम करने की बात करते हुए यह बताने से कतराती है कि आखिर खर्चों में कटौती कहां की जाएगी। जाहिर है कि निशाना गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी को ही बनाया जाएगा। मुद्रा स्फीति और वित्तीय घाटे को कम करने तथा सकल घरेलू उत्पाद में इजाफे का कोई लक्ष्य घोषणापत्र में तय नहीं किया गया है। पार्टी चालू खाते के घाटे को नियंत्रित करने के लिए आयात घटाने और निर्यात को बढ़ावा देने की बात करती है। मगर वह नहीं बताती कि किन वस्तुओं का आयात घटाया जाएगा और किनके निर्यात में बढ़ोतरी की कोशिश की जाएगी।

महंगाई को काबू में करने के लिए घोषणापत्र में जिन उपायों का जिक्र किया गया है वे हास्यास्पद हैं। पार्टी ने इसके लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष बनाने की बात कही है मगर यह नहीं बताया गया कि यह कैसे काम करेगा। उसने जमाखोरों और कालाबाजारियों पर मुकदमा चलाने के लिए विशेष अदालतें बनाने की घोषणा की है। मगर भाजपा ने यह नहीं कहा कि वह जरूरी सामान की कीमतें बढऩे के लिए जिम्मेदार लोगों की धरपकड़ कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करेगी।

जनता को कांग्रेस का नीति पर आधारित विकल्प मुहैया कराने के भाजपा के दावे में कोई दम नहीं है। दोनों ही पार्टियां भ्रष्टाचार की पोषक और निजी पूंजी को बढ़ावा देने की हिमायती हैं। दोनों के बीच कॉरपोरेट घरानों को ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुंचा कर अपना उल्लू सीधा करने की होड़ है। लेकिन भाजपा अपनी चुनावी घोषणाओं से इस वर्ग को कांग्रेस की तुलना में ज्यादा आश्वस्त करने में सफल रही है।


No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Census 2010

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors