Saturday, May 31, 2014

संघ और मैं- फिर आमने सामने

संघ और मैं- फिर आमने सामने
भंवर मेघवंशी की आत्मकथा 'हिन्दू तालिबान'

संघ और मैं- फिर आमने सामने


हिन्दू तालिबान-29

भंवर मेघवंशी

इस दौरान भले ही दलित बहुजन राजनीति और विचारधारा के लिये अलग अलग प्रयास मैंने किये लेकिन साम्प्रदायिकता से संघर्ष के मिशन को कभी भी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। जब ओडिशा में फादर ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम बच्चों को संघी विचार से प्रभावित दारा सिंह नामक दुर्दान्त दरिन्दे ने जिन्दा जला दिया तब हमने भीलवाड़ा में उसके खिलाफ में हस्ताक्षर अभियान चलाया, प्रेस में ख़बर दी, हमारी उग्र भाषा को कभी भी स्थानीय मीडिया ने पसंद नहीं किया, लेकिन हमने अपनी बात को उतनी ही धारदार तरीके से कहना जारी रखा, लिख लिख कर तथा गाँव गाँव जाकर संघ परिवार को बेनकाब करना और दलित एवं आदिवासी युवकों को संगठित करना हमारा प्रमुख कार्य था।

संघ के निचले स्तर के लोग अक्सर निम्न स्तर पर उतर आते थे। गाँव में आमने सामने हो जाते, बहस करते और मारपीट करने, हाथ पांव तोड़ देने की गीदड़ भभकियाँ देते, पर मैंने कभी इनकी परवाह नहीं की। मेरे मन में सदैव से ही एक बात रची बसी हुई है कि अगर मेरे हाथ पांव टूटने है तो टूटेंगे ही, चाहे हिन्दू हुडदंगियों के हाथों टूटे या दुर्घटना में …और अगर ये नहीं होना है तो कोई भी कितनी भी कोशिश कर ले वह सफल नहीं हो सकते हैं। रही बात मरने की तो उसकी भी सदैव तैयारी है। मैं किसी अस्पताल में खांसते हुए मरने का इच्छुक कभी नहीं रहा। मौत जिन्दगी का अंतिम सत्य है, उसे जब आना है, आये, स्वागत है। बस ऐसी ही भावना के साथ स्वयं को निर्भय रहने का हौसला देते हुये हर रोज जीता हूँ, इसलिये जब अकेले संघर्ष शुरू किया तब भी संघी फौज से कभी नहीं डरा और आज हजारों साथी है, तब भी कोई डर नहीं। मैं सदैव ही जमीनी स्तर पर उनसे दो दो हाथ करने का इच्छुक रहा हूँ और आज हूँ। इसीलिये सदैव ही संघ के विषाक्त विचारों और मारक क्रियाकलापों को बेनकाब करने के काम को मैंने जारी रखा। बाद में जब मैं राजकीय पाठशाला में बतौर शिक्षक नियुक्त हुआ, तब यह लड़ाई और सघन हो गई क्योंकि हिंदी पट्टी के प्राथिमक शिक्षकों को तो आरएसएस ने जकड़ ही रखा है।

जब मुझे शिक्षक प्रशिक्षण हेतु मांडल बुलाया गया तब मैंने सोचा कि अब से थोडा शांत रहूँगा, अपने काम से मतलब रखूँगा, नेतागिरी नहीं करूँगा, सिर्फ शिक्षण के अपने दायित्व को निभाऊंगा। यही सोच कर 30 दिवसीय इस प्रशिक्षण में मैं पहुंचा। जून 1999 की बात थी, जाते ही पहली भिड़न्त हो गई प्रार्थना सभा से भी पहले। हुआ यह कि तिलक लगा कर स्वागत किया जा रहा ।था प्रशिक्षनार्थियों का वैसे राजस्थान में पगड़ी और तिलक से सम्मान किये जाने की सामाजिक परम्परा है। लेकिन मुझे इस तिलक से वैचारिक द्वन्द् पैदा हो गया। आप अपने घर में कुछ भी करो लेकिन सार्वजनिक आयोजनों में तिलक विलक क्यों ? इसलिये सरकारी शिक्षकों के प्रशिक्षण में तिलक लगाने पर मैंने सवाल खड़ा कर दिया। मेरी बात का कुछ मुस्लिम व दलित साथियों ने भी समर्थन किया। हमने कहा हम नहीं लगायेंगे तिलक। दक्ष प्रक्षिशकों को तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि सरस्वती के मंदिर में ऐसे उज्जड गंवार किस्म के लोग कहाँ से आ गये ?

तिलक हमें नहीं लगवाना था, नहीं लगवाया। फिर ' वीणावादिनी वर दे' प्रार्थना हुई। मैंने कहा 'तू ही राम है तू रहीम है, तू करीम,कृष्ण, खुदा हुआ, तू ही वाहे गुरु, तू ही यीशु मसीह,हर नाम में तू समा रहा' की प्रार्थना क्यूँ नहीं ? यह सर्वधर्म की प्रार्थना है, वीणावादिनी हमें क्या वर देगी ? उसने कौन सी किताब या मंत्र अथवा श्लोक रचा है, विद्या की देवी तो शायद खुद ही अनपढ़ थी, वो हमें क्या वरदान दे सकती है। भाई, मेरा इतना कहना था कि जो प्रतिक्रिया हुयी उससे एक बारगी तो यह लगा की शायद मुझ से कोई काफिराना हरकत हो गई है। शिविराधिकारी की त्योरियां चढ़ गईं। उनका गुस्सा देखते ही बनता था, गजब तो तब हुआ जब मैंने "चन्दन है इस देश की माटी, तपो भूमि हर ग्राम है- हर बाला देवी की प्रतिमा बच्चा बच्चा राम है" गाने से साफ़ इंकार करते हुए उन्हें कहा कि ये संघ की शाखा नहीं है कि आप आरएसएस के गीत हमे गवावो। हम शिक्षक प्रशिक्षण हेतु आये हैं तथा आप की शैक्षणिक योजना व मोड्यूल में वर्णित गीत प्रार्थना ही हम से गवाई जाये तो बेहतर होगा, नहीं तो शिकायत ऊपर की जायेगी।

इस प्रतिरोध से ये हुआ कि जप माला छापा तिलक नदारद, सर्वधर्म प्रार्थना शुरू हुई और संघ के गीत गाने बंद किये गये, लेकिन मैं निशाने पर आ गया। मेरे दस्तावेज खंगाले गये। इधर-उधर से पूछ ताछ की गई कि यह बदतमीज लड़का कौन है जो प्रशिक्षण शिविर के अनुशासन को भंग कर रहा है। शिविराधिकारी एवं दक्ष प्रशिक्षकों के मध्य लम्बी मंत्रणा चली। मुझे बुलाकर पूछा गया- नेतागिरी करने आये हो या प्रशिक्षण लेने ? ऐसे नहीं चल सकता। मैंने उन्हें अपना विस्तृत परिचय दिया और स्पष्ट किया कि आप चाहे तो मुझे आज ही घर भेज सकते हैं मगर मैं इस प्रशिक्षण को संघ की शाखा नहीं बनने दूंगा। आप सब की शिकायत की जाएगी। मीडिया तक भी बात जायेगी। बेचारे दक्ष प्रशिक्षक डर गये। अंततः हमारे बीच समझौता हो गया, ना वे संघ समर्थक कोई बात, गीत या नारा लगायेंगे और ना मैं उनके विरोध में लोगों को उकसाऊंगा। लेकिन इस घटना से मेरी नेतागिरी यहाँ भी चालू हो गई। बाद में दो शैक्षणिक सत्रों तक मैंने प्राथमिक शाला शिक्षकों के मध्य जम कर नेतागिरी की। हम 99 लोगों का एक बैच था, उनके जरिये में मांडल तहसील के गाँव गाँव तक पहुंचा और अन्तत: हम 7 शिक्षक मित्रों ने मिलकर साम्प्रदायिकता, जातिवाद और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनवरी 2001 से एक मासिक पत्रिका "डायमंड इंडिया" का प्रकाशन प्रारंभ किया, जिसे भारत को हीरा बनाने की एक पंथनिरपेक्ष पहल के रूप में, सर्वत्र सराहना मिली। लेकिन प्रशंसा ज्यादा टिकती नहीं है, जैसे ही डायमंड इंडिया के जरिये सच्चाई लिखी जाने लगी, जातिवादी, साम्प्रदायिक और भ्रष्ट तत्वों ने मिलकर हमारी मुखालफत शुरू कर दी। इस विरोध में संघ से जुड़े और बरसों से मेरे से चिढ़े हुए लोग सबसे आगे थे, और इस तरह एक बार फिर संघ और मैं आमने सामने हो गये थे। लड़ाई लड़ने का आनंद ही अब आने वाला था ….(जारी….)

-भंवर मेघवंशी की आत्मकथा 'हिन्दू तालिबान' का उन्तीसवां पाठ

About The Author

भंवर मेघवंशी, लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

इन्हें भी पढ़ना न भूलें

- See more at: http://www.hastakshep.com/hindi-literature/book-excerpts/2014/05/31/%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%98-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a5%88%e0%a4%82-%e0%a4%ab%e0%a4%bf%e0%a4%b0-%e0%a4%86%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%87#.U4pOOnI70rs

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Census 2010

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors