लोकतंत्र के लिए एक मुकम्मल दिन: अरुंधति राय
लोकतंत्र के लिए एक मुकम्मल दिन: अरुंधति राय
Posted by Reyaz-ul-haque on 2/10/2013 03:22:00 AMभारत के फासीवादी राज्य द्वारा अफजल गुरु की हत्या पर लेखिका-कार्यकर्ता अरुंधति राय का लेख. अनुवाद: रेयाज उल हक. साभार: द हिंदू.
लोकतंत्र के लिए एक मुकम्मल दिन
नहीं था क्या? मेरा मतलब, कल का दिन. दिल्ली में बसंत ने दस्तक दी. सूरज निकला था और कानून ने अपना काम किया. नाश्ते से ठीक पहले, 2001 में संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को खुफिया तरीके से फांसी दे दी गई और उनकी लाश को तिहाड़ जेल में मिट्टी में दबा दिया गया. क्या उन्हें मकबूल भट्ट की बगल में दफनाया गया? (एक और कश्मीरी, जिन्हें 1984 में तिहाड़ में ही फांसी दी गई थी. कल कश्मीरी उनकी शहादत की बरसी मनाएंगे.) अफजल की बीवी और बेटे को इत्तला नहीं दी गई थी. 'अधिकारियों ने स्पीड पोस्ट और रजिस्टर्ड पोस्ट से परिवार वालों को सूचना भेज दी है,' गृह सचिव ने प्रेस को बताया, 'जम्मू कश्मीर पुलिस के महानिदेशक को कह दिया गया है कि वे पता करें कि सूचना उन्हें मिल गई है कि नहीं.' ये कोई बड़ी बात नहीं है, वो तो बस एक कश्मीरी दहशतगर्द के परिवार वाले हैं.
एकता के एक दुर्लभ पल में राष्ट्र, या कम से कम इसके मुख्य राजनीतिक दल, कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम ('देरी' और 'समय' पर छोटे-मोटे मतभेद को छोड़ दें तो) कानून के राज की जीत का जश्न मनाने के लिए एक साथ आए. राष्ट्र की चेतना ने, जिसे इन दिनों टीवी स्टूडियो के जरिए लाइव प्रसारित किया जाता है, अपनी सामूहिक समझ हम पर उंड़ेल दी – धर्मात्माओं सरीखे उन्माद और तथ्यों की नाजुक पकड़ की वही हमेशा की खिचड़ी. यहां तक कि वो इन्सान मर चुका था और चला गया था, झुंड में शिकार खेलने वाले बुजदिलों की तरह उन्हें एक दूसरे का हौसला बढ़ाने की जरूरत पड़ रही थी. शायद अपने मन की गहराई में वे जानते थे कि वे सब एक भयानक रूप से गलत काम के लिए जुटे हुए हैं.
तथ्य क्या हैं?
13 दिसंबर 2001 को पांच हथियारबंद लोग इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस के साथ एक सफेद एंबेस्डर कार से संसद भवन के दरवाजों से दाखिल हुए. जब उन्हें ललकारा गया तो वो कार से निकल आए और गोलियां चलाने लगे. उन्होंने आठ सुरक्षाकर्मियों और माली को मार डाला. इसके बाद हुई गोलीबारी में पांचों हमलावर मारे गए. पुलिस हिरासत में दिए गए कबूलनामों के अनेक वर्जनों में से एक में अफजल गुरु ने उन लोगों की पहचान मोहम्मद, राणा, राजा, हमजा और हैदर के रूप में की. आज तक भी, हम उन लोगों के बारे में कुल मिला कर इतना ही जानते हैं. तब के गृहमंत्री एल.के. अडवाणी ने कहा कि वे 'पाकिस्तानियों जैसे दिखते थे.' (उन्हें पता होना ही चाहिए कि ठीक-ठीक पाकिस्तानी की तरह दिखना क्या होता है? वे खुद एक सिंधी जो हैं.) सिर्फ अफजल के कबूलनामे के आधार पर (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में 'खामियों' और 'कार्यवाही संबंधी सुरक्षा प्रावधानों के उल्लंघनों' के आधार पर खारिज कर दिया था) सरकार ने पाकिस्तान से अपना राजदूत वापस बुला लिया था और पांच लाख फौजियों को पाकिस्तान से लगी सरहद पर तैनात कर दिया था. परमाणु युद्ध की बातें होने लगीं थीं. विदेशी दूतावासों ने यात्रा संबंधी सलाहें जारी कर दी थीं और दिल्ली से अपने कर्मचारियों को बुला लिया था. असमंजस की यह स्थिति कई महीनों तक चली और भारत के हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए.
14 दिसंबर, 2001 को दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मामले को सुलझा लिया है. 15 दिसंबर को उसने दिल्ली में 'मास्टरमाइंड' प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और श्रीनगर में फल बाजार से शौकत गुरु और अफजल गुरु को गिरफ्तार किया. बाद में उन्होंने शौकत की बीवी अफशां गुरु को गिरफ्तार किया. मीडिया ने जोशोखरोश से स्पेशल सेल की कहानी का प्रचार किया. कुछ सुर्खियां ऐसी थीं: 'डीयू लेक्चरर वाज टेरर प्लान हब', 'वर्सिटी डॉन गाइडेड फिदायीन', 'डॉन लेक्चर्ड ऑन टेरर इन फ्री टाइम.' जी टीवी ने दिसंबर 13 नाम से एक 'डॉक्यूड्रामा' प्रसारित किया, जो कि 'पुलिस के आरोप पत्र पर आधारित सच्चाई' होने का दावा करते हुए उसकी पुनर्प्रस्तुति थी. (अगर पुलिस की कहानी सही है, तो फिर अदालतें किसलिए?) तब प्रधानमंत्री वाजपेयी और एल.के. आडवाणी ने सरेआम फिल्म की तारीफ की. सर्वोच्च न्यायालय ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि मीडिया जजों को प्रभावित नहीं करेगा. फिल्म फास्ट ट्रेक कोर्ट द्वारा अफजल, शौकत और गीलानी को फांसी की सजा सुनाए जाने के सिर्फ कुछ दिन पहले ही दिखाई गई. उच्च न्यायालय ने 'मास्टरमाइंड' प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और अफशां गुरु को आरोपों से बरी कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी रिहाई को बरकरार रखा. लेकिन 5 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में इसने मोहम्मद अफजल को तिहरे आजीवन कारावास और दोहरी फांसी की सजा सुनाई.
कुछ वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा, जिन्हें बेहतर पता होगा, फैलाए जाने वाले झूठों के उलट, अफजल गुरु '13 दिसंबर, 2001 को संसद भवन पर हमला करने वाले आतंकवादियों' में नहीं थे न ही वे उन लोगों में से थे जिन्होंने 'सुरक्षाकर्मी पर गोली चलाई और मारे गए छह सुरक्षाकर्मियों में तीन का कत्ल किया.' (ये बात भाजपा के राज्य सभा सांसद चंदन मित्रा ने 7 अक्तूबर, 2006 को द पायनियर में लिखी थी). यहां तक कि पुलिस का आरोप पत्र भी उनको इसका आरोपी नहीं बताता है. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि सबूत परिस्थितिजन्य है: 'अधिकतर साजिशों की तरह, आपराधिक साजिश के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकता है.' लेकिन उसने आगे कहा: 'हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया, और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है अगर अपराधी को फांसी की सजा दी गई.'
संसद हमले के मामले में हमारी सामूहिक चेतना का किसने निर्माण किया? क्या ये वे तथ्य होते हैं, जिन्हें हम अखबारों से हासिल करते हैं? फिल्में, जिन्हें हम टीवी पर देखते हैं?
कुछ लोग हैं जो यह दलील देंगे कि ठीक यही तथ्य, कि अदालत ने एस.ए.आर. गीलानी को छोड़ दिया और अफजल को दोषी ठहराया, यह साबित करता है कि सुनवाई मुक्त और निष्पक्ष थी. थी क्या?
फास्ट-ट्रेक कोर्ट में मई, 2002 में सुनवाई शुरू हुई. दुनिया 9-11 के बाद के उन्माद में थी. अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में अपनी 'विजय' पर हड़बड़ाए हुए टकटकी बांधे थी. गुजरात का जनसंहार चल रहा था. और संसद पर हमले के मामले में कानून अपनी राह चल रहा था. एक आपराधिक मामले के सबसे अहम चरण में, जब सबूत पेश किए जाते हैं, जब गवाहों से सवाल-जवाब किए जाते हैं, जब दलीलों की बुनियाद रखी जाती है – उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में आप केवल कानून के नुक्तों पर बहस कर सकते हैं, आप नए सबूत नहीं पेश कर सकते – अफजल गुरु भारी सुरक्षा वाली कालकोठरी में बंद थे. उनके पास कोई वकील नहीं था. अदालत द्वारा नियुक्त जूनियर वकील एक बार भी जेल में अपने मुवक्किल से नहीं मिला, उसने अफजल के बचाव में एक भी गवाह को नहीं बुलाया और न ही अभियोग पक्ष द्वारा पेश किए गए गवाहों का क्रॉस-एक्जामिनेशन किया. जज ने इस स्थिति के बारे कुछ पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की.
तब भी, शुरुआत से ही, केस बिखर गया. अनेक मिसालों में से कुछेक यों हैं:
पुलिस अफजल तक कैसे पहुंची? उनका कहना है कि एस.ए.आर. गीलानी ने उनके बारे में बताया. लेकिन अदालत के रिकॉर्ड दिखाते हैं कि अफजल की गिरफ्तारी का संदेश गीलानी को उठाए जाने से पहले ही आ गया था. उच्च न्यायालय ने इसे 'भौतिक विरोधाभास' कहा लेकिन इसे यों ही कायम रहने दिया.
अफजल के खिलाफ सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले दो सबूत एक सेलफोन और एक लैपटॉप था, जिसे उनकी गिरफ्तारी के वक्त जब्त किया गया. अरेस्ट मेमो पर दिल्ली के बिस्मिल्लाह के दस्तखत हैं जो गीलानी के भाई हैं. सीजर मेमो पर जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो कर्मियों के दस्तखत हैं, जिनमें से एक अफजल के उन दिनों का उत्पीड़क था, जब वे एक आत्मसमर्पण किए हुए 'चरमपंथी' हुआ करते थे. कंप्यूटर और सेलफोन को सील नहीं किया गया, जैसा कि एक सबूत के मामले में किया जाता है. सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि लैपटॉप के हार्ड डिस्क को गिरफ्तारी के बाद उपयोग में लाया गया था. इसमें गृह मंत्रालय के फर्जी पास और फर्जी पहचान पत्र थे जिसे आतंकवादियों ने संसद में घुसने के लिए इस्तेमाल किया था. और संसद भवन का एक जी टीवी वीडियो क्लिप. इस तरह पुलिस के मुताबिक, अफजल ने सभी सूचनाएं डीलीट कर दी थीं, बस सबसे ज्यादा दोषी ठहराने वाली चीजें रहने दी थीं, और वो इसे गाजी बाबा को देने जा रहा था, जिनको आरोप पत्र में चीफ ऑफ ऑपरेशन कहा गया है.
अभियोग पक्ष के एक गवाह कमल किशोर ने अफजल की पहचान की और अदालत को बताया कि 4 दिसंबर 2001 को उसने वह महत्वपूर्ण सिम कार्ड अफजल को बेचा था, जिससे मामले के सभी अभियुक्त के संपर्क में थे. लेकिन अभियोग पक्ष के अपने कॉल रिकॉर्ड दिखातेहैं कि सिम 6 नवंबर 2001 से काम कर रहा था.
ऐसी ही और भी बातें हैं, और भी बातें, झूठों के अंबार और मनगढ़ंत सबूत. अदालत ने उन पर गौर किया, लेकिन पुलिस को अपनी मेहनत के लिए हल्की की झिड़की से ज्यादा कुछ नहीं मिला. इससे ज्यादा कुछ नहीं.
फिर तो वही पुरानी कहानी है. ज्यादातर आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों की तरह अफजल कश्मीर में आसान शिकार थे – टॉर्चर, ब्लैकमेल, वसूली के पीड़ित. जिसको संसद पर हमले के रहस्य को सुलझाने में सचमुच दिलचस्पी हो, उसे सबूतों की एक घनी राह से गुजरना होगा, जो कश्मीर में एक धुंधले जाल की तरफ ले जाती है, जो चरमपंथियों को आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों से, गद्दारों को स्पेशल पुलिस ऑफिसरों से, स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप को स्पेशल टास्क फोर्स से जोड़ती है और यह रिश्ता ऊपर, और आगे की तरफ बढ़ता जाता है. ऊपर, और आगे की तरफ.
लेकिन अब इस बात से कि अफजल गुरु को फांसी दी जा चुकी है, मैं उम्मीद करती हूं कि हमारी सामूहिक चेतना संतुष्ट हो गई होगी. या हमारा खून का कटोरा अभी आधा ही भरा है?
एकता के एक दुर्लभ पल में राष्ट्र, या कम से कम इसके मुख्य राजनीतिक दल, कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम ('देरी' और 'समय' पर छोटे-मोटे मतभेद को छोड़ दें तो) कानून के राज की जीत का जश्न मनाने के लिए एक साथ आए. राष्ट्र की चेतना ने, जिसे इन दिनों टीवी स्टूडियो के जरिए लाइव प्रसारित किया जाता है, अपनी सामूहिक समझ हम पर उंड़ेल दी – धर्मात्माओं सरीखे उन्माद और तथ्यों की नाजुक पकड़ की वही हमेशा की खिचड़ी. यहां तक कि वो इन्सान मर चुका था और चला गया था, झुंड में शिकार खेलने वाले बुजदिलों की तरह उन्हें एक दूसरे का हौसला बढ़ाने की जरूरत पड़ रही थी. शायद अपने मन की गहराई में वे जानते थे कि वे सब एक भयानक रूप से गलत काम के लिए जुटे हुए हैं.
तथ्य क्या हैं?
13 दिसंबर 2001 को पांच हथियारबंद लोग इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस के साथ एक सफेद एंबेस्डर कार से संसद भवन के दरवाजों से दाखिल हुए. जब उन्हें ललकारा गया तो वो कार से निकल आए और गोलियां चलाने लगे. उन्होंने आठ सुरक्षाकर्मियों और माली को मार डाला. इसके बाद हुई गोलीबारी में पांचों हमलावर मारे गए. पुलिस हिरासत में दिए गए कबूलनामों के अनेक वर्जनों में से एक में अफजल गुरु ने उन लोगों की पहचान मोहम्मद, राणा, राजा, हमजा और हैदर के रूप में की. आज तक भी, हम उन लोगों के बारे में कुल मिला कर इतना ही जानते हैं. तब के गृहमंत्री एल.के. अडवाणी ने कहा कि वे 'पाकिस्तानियों जैसे दिखते थे.' (उन्हें पता होना ही चाहिए कि ठीक-ठीक पाकिस्तानी की तरह दिखना क्या होता है? वे खुद एक सिंधी जो हैं.) सिर्फ अफजल के कबूलनामे के आधार पर (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में 'खामियों' और 'कार्यवाही संबंधी सुरक्षा प्रावधानों के उल्लंघनों' के आधार पर खारिज कर दिया था) सरकार ने पाकिस्तान से अपना राजदूत वापस बुला लिया था और पांच लाख फौजियों को पाकिस्तान से लगी सरहद पर तैनात कर दिया था. परमाणु युद्ध की बातें होने लगीं थीं. विदेशी दूतावासों ने यात्रा संबंधी सलाहें जारी कर दी थीं और दिल्ली से अपने कर्मचारियों को बुला लिया था. असमंजस की यह स्थिति कई महीनों तक चली और भारत के हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए.
14 दिसंबर, 2001 को दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मामले को सुलझा लिया है. 15 दिसंबर को उसने दिल्ली में 'मास्टरमाइंड' प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और श्रीनगर में फल बाजार से शौकत गुरु और अफजल गुरु को गिरफ्तार किया. बाद में उन्होंने शौकत की बीवी अफशां गुरु को गिरफ्तार किया. मीडिया ने जोशोखरोश से स्पेशल सेल की कहानी का प्रचार किया. कुछ सुर्खियां ऐसी थीं: 'डीयू लेक्चरर वाज टेरर प्लान हब', 'वर्सिटी डॉन गाइडेड फिदायीन', 'डॉन लेक्चर्ड ऑन टेरर इन फ्री टाइम.' जी टीवी ने दिसंबर 13 नाम से एक 'डॉक्यूड्रामा' प्रसारित किया, जो कि 'पुलिस के आरोप पत्र पर आधारित सच्चाई' होने का दावा करते हुए उसकी पुनर्प्रस्तुति थी. (अगर पुलिस की कहानी सही है, तो फिर अदालतें किसलिए?) तब प्रधानमंत्री वाजपेयी और एल.के. आडवाणी ने सरेआम फिल्म की तारीफ की. सर्वोच्च न्यायालय ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि मीडिया जजों को प्रभावित नहीं करेगा. फिल्म फास्ट ट्रेक कोर्ट द्वारा अफजल, शौकत और गीलानी को फांसी की सजा सुनाए जाने के सिर्फ कुछ दिन पहले ही दिखाई गई. उच्च न्यायालय ने 'मास्टरमाइंड' प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और अफशां गुरु को आरोपों से बरी कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी रिहाई को बरकरार रखा. लेकिन 5 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में इसने मोहम्मद अफजल को तिहरे आजीवन कारावास और दोहरी फांसी की सजा सुनाई.
कुछ वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा, जिन्हें बेहतर पता होगा, फैलाए जाने वाले झूठों के उलट, अफजल गुरु '13 दिसंबर, 2001 को संसद भवन पर हमला करने वाले आतंकवादियों' में नहीं थे न ही वे उन लोगों में से थे जिन्होंने 'सुरक्षाकर्मी पर गोली चलाई और मारे गए छह सुरक्षाकर्मियों में तीन का कत्ल किया.' (ये बात भाजपा के राज्य सभा सांसद चंदन मित्रा ने 7 अक्तूबर, 2006 को द पायनियर में लिखी थी). यहां तक कि पुलिस का आरोप पत्र भी उनको इसका आरोपी नहीं बताता है. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि सबूत परिस्थितिजन्य है: 'अधिकतर साजिशों की तरह, आपराधिक साजिश के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकता है.' लेकिन उसने आगे कहा: 'हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया, और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है अगर अपराधी को फांसी की सजा दी गई.'
संसद हमले के मामले में हमारी सामूहिक चेतना का किसने निर्माण किया? क्या ये वे तथ्य होते हैं, जिन्हें हम अखबारों से हासिल करते हैं? फिल्में, जिन्हें हम टीवी पर देखते हैं?
कुछ लोग हैं जो यह दलील देंगे कि ठीक यही तथ्य, कि अदालत ने एस.ए.आर. गीलानी को छोड़ दिया और अफजल को दोषी ठहराया, यह साबित करता है कि सुनवाई मुक्त और निष्पक्ष थी. थी क्या?
फास्ट-ट्रेक कोर्ट में मई, 2002 में सुनवाई शुरू हुई. दुनिया 9-11 के बाद के उन्माद में थी. अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में अपनी 'विजय' पर हड़बड़ाए हुए टकटकी बांधे थी. गुजरात का जनसंहार चल रहा था. और संसद पर हमले के मामले में कानून अपनी राह चल रहा था. एक आपराधिक मामले के सबसे अहम चरण में, जब सबूत पेश किए जाते हैं, जब गवाहों से सवाल-जवाब किए जाते हैं, जब दलीलों की बुनियाद रखी जाती है – उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में आप केवल कानून के नुक्तों पर बहस कर सकते हैं, आप नए सबूत नहीं पेश कर सकते – अफजल गुरु भारी सुरक्षा वाली कालकोठरी में बंद थे. उनके पास कोई वकील नहीं था. अदालत द्वारा नियुक्त जूनियर वकील एक बार भी जेल में अपने मुवक्किल से नहीं मिला, उसने अफजल के बचाव में एक भी गवाह को नहीं बुलाया और न ही अभियोग पक्ष द्वारा पेश किए गए गवाहों का क्रॉस-एक्जामिनेशन किया. जज ने इस स्थिति के बारे कुछ पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की.
तब भी, शुरुआत से ही, केस बिखर गया. अनेक मिसालों में से कुछेक यों हैं:
पुलिस अफजल तक कैसे पहुंची? उनका कहना है कि एस.ए.आर. गीलानी ने उनके बारे में बताया. लेकिन अदालत के रिकॉर्ड दिखाते हैं कि अफजल की गिरफ्तारी का संदेश गीलानी को उठाए जाने से पहले ही आ गया था. उच्च न्यायालय ने इसे 'भौतिक विरोधाभास' कहा लेकिन इसे यों ही कायम रहने दिया.
अफजल के खिलाफ सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले दो सबूत एक सेलफोन और एक लैपटॉप था, जिसे उनकी गिरफ्तारी के वक्त जब्त किया गया. अरेस्ट मेमो पर दिल्ली के बिस्मिल्लाह के दस्तखत हैं जो गीलानी के भाई हैं. सीजर मेमो पर जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो कर्मियों के दस्तखत हैं, जिनमें से एक अफजल के उन दिनों का उत्पीड़क था, जब वे एक आत्मसमर्पण किए हुए 'चरमपंथी' हुआ करते थे. कंप्यूटर और सेलफोन को सील नहीं किया गया, जैसा कि एक सबूत के मामले में किया जाता है. सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि लैपटॉप के हार्ड डिस्क को गिरफ्तारी के बाद उपयोग में लाया गया था. इसमें गृह मंत्रालय के फर्जी पास और फर्जी पहचान पत्र थे जिसे आतंकवादियों ने संसद में घुसने के लिए इस्तेमाल किया था. और संसद भवन का एक जी टीवी वीडियो क्लिप. इस तरह पुलिस के मुताबिक, अफजल ने सभी सूचनाएं डीलीट कर दी थीं, बस सबसे ज्यादा दोषी ठहराने वाली चीजें रहने दी थीं, और वो इसे गाजी बाबा को देने जा रहा था, जिनको आरोप पत्र में चीफ ऑफ ऑपरेशन कहा गया है.
अभियोग पक्ष के एक गवाह कमल किशोर ने अफजल की पहचान की और अदालत को बताया कि 4 दिसंबर 2001 को उसने वह महत्वपूर्ण सिम कार्ड अफजल को बेचा था, जिससे मामले के सभी अभियुक्त के संपर्क में थे. लेकिन अभियोग पक्ष के अपने कॉल रिकॉर्ड दिखातेहैं कि सिम 6 नवंबर 2001 से काम कर रहा था.
ऐसी ही और भी बातें हैं, और भी बातें, झूठों के अंबार और मनगढ़ंत सबूत. अदालत ने उन पर गौर किया, लेकिन पुलिस को अपनी मेहनत के लिए हल्की की झिड़की से ज्यादा कुछ नहीं मिला. इससे ज्यादा कुछ नहीं.
फिर तो वही पुरानी कहानी है. ज्यादातर आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों की तरह अफजल कश्मीर में आसान शिकार थे – टॉर्चर, ब्लैकमेल, वसूली के पीड़ित. जिसको संसद पर हमले के रहस्य को सुलझाने में सचमुच दिलचस्पी हो, उसे सबूतों की एक घनी राह से गुजरना होगा, जो कश्मीर में एक धुंधले जाल की तरफ ले जाती है, जो चरमपंथियों को आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों से, गद्दारों को स्पेशल पुलिस ऑफिसरों से, स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप को स्पेशल टास्क फोर्स से जोड़ती है और यह रिश्ता ऊपर, और आगे की तरफ बढ़ता जाता है. ऊपर, और आगे की तरफ.
लेकिन अब इस बात से कि अफजल गुरु को फांसी दी जा चुकी है, मैं उम्मीद करती हूं कि हमारी सामूहिक चेतना संतुष्ट हो गई होगी. या हमारा खून का कटोरा अभी आधा ही भरा है?
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