एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
पश्चिम बंगाल में कभी विकासशील रहा जूट उद्योग आज खस्ताहाल है। अन्य उद्योग की तरह इस उद्योग में कारोबारियों की कोई संस्था नहीं है।जूट मजदूर यूनियन तो अनेक हैं और वर्षों से उनके आंदोलन बेहतर वेतन, बडी संख्या में ठेका मज़दूरों को स्थायी किये जाने, सेवानिवृत्ति जैसी मांगों को लेकर जारी है। औद्योगिक विवाद और आर्थिक कारणों से एक का बाद एक जूट मिले बंद होती रही हैं।जूट उद्योग को केंद्र और राज्य सरकार की ओर सेकोई सहारा नहीं है। सरकारें तो बस हड़ताल और तालाबंदी की हालत में हरकत में आती है। उद्योग को खस्ताहाली से निकालने की दिशा में कोई पहल नहीं हो पाती। कारोबारियों की अपनी कोई संस्था नहीं होने की वजह से वे सरकारों पर दबाव भी नहीं बना पाते। इधर केंद्र सरकार ने बंद सरकारी जूट मिलों को खोलने की कवायद शुरु की है। टीटागढ़ किनिसन जूट मिल में फिर काम चालू हो गया है। पर बंद पड़ी निजी मिलों को फिर चालू करने की कोई कारगर पहल नहीं हो पा रही है।जूट को प्रोत्साहन देकर, उद्योग की समस्याएं सुलझाने की कोई पहल किये बिना अब केंद्र सरकार बंद पड़ी जूट मिलों की जमीन पर उद्योग लगाने के बहाने वहां शापिंग माल और आवासीय कांप्लेक्स बनाने की मुहिम में लगी हुई है।इससे मिल मालिकों और इन मिलों में काम करनेवालों को एक साथ झटका लग सकता है।केंद्र सरकार के प्रस्ताव के मुताबिक यूनियन जूट मिल की १४.१३ एकड़,बर्ट जूट एंड एक्सपोर्ट्स लिमिटेड की ४९.६८ एकड़ ,नेशनल जूट मिल की ६३.६४ एकड़ और अलेक्जेंड्रा जूट मिल की ५२.६८ एकड़ जमीन बेचकर करीब तार हजार करोड़ रुपये की राजस्व आय की योजना है।
मसलन केंद्र चाहता है कि उल्टाडांगा इलाके में बंद बर्ड जूट एंड एक्सपोर्ट्स की बेशकीमती जमीन पर मेला व प्रदर्शनी स्थल बनाने का प्रस्ताव है।मालूम हो कि केंद्र सरकार ने पहले ही एनजीएमसी की सियालदह कनवेंट लेन स्थित यूनियन जूट मिल,हावड़ा केसांकराइल में नेशनल जूट मिल और जगदल की अलेक्जेंड्रा जूट मिल को बंद करने का ऐलान किया हुआ है और अब सरकार इन मिलों की जमीन बेच देना चाहती है। केंद्र सरकार चाहती है कि बंद पड़ी निजी जूट मिलों की जमीन का भी वाणिज्यिक इस्तेमाल किया जाये।मालूम हो कि ये जूट मिलें वर्षों से बंद पड़ी हैं और खड़दह जूट मिल या किनिसन की तरह इन्हें फिर चालू करने की सरकार की कोई योजना भी नहीं है।जाहिर है सरकारी मिलों के बारे में जब सरकारी रवैया यह है तो बंद निजी मिलों को चालू करने में उसकी क्या दिलचस्पी हो सकती है।
गनीमत है कि केंद्र की इस मुहिम का विरोध कर रही हैं बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उन्हींके विरोध की वजह से जूट मिलों के कब्रिस्तान में केंद्र सरकार के `औद्योगीकरण' की मुहिम पर लगाम लगा हुआ है। केंद्र और राज्य सरकार में इसे लेकर ठनी हुई है।पर इस सिलसिले में हैरत की बात है कि मिल मालेकों और मजदूरों की ओर से इस बारे में कोई राय अभी तक नहीं उजागर हुई है।केंद्र की योजना है कि बंद जूट मिलों की जमीन का चरित्र बदलकर वहां बहुमंजिली आवास परियोजनाएं, मल्टीप्लेक्स और शापिंग माल बना दिया जाये।कहीं कहीं तो रिसार्ट तक बनाने का प्रस्ताव है।इस योजना पर राज्यसरकार की सहमति आवश्यक है और वस्त्र मंत्रालय ने पत्र भी लिखा है। पर मुख्यमंत्री अपनी घोषित औद्योगिक नीति पर अडिग है। उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी के मुताबिक बंद जूट मिलों में किसी भी हाल में आवासीय परियोजनाएं या शापिंग माल बनाने की इजाजत नहीं दी जायेगी। मिल मालिक क्या चाहते हैं, इससे राज्य सरकार की नीति बदलने की संभावना नहीं है।
वस्त्र मंत्रालय ने राज्य सरकार से न केवल जूट मिलों की जमीन बेच देने की इजाजत देने के लिए कहा है , बल्कि इस पर भी जोर दिया है कि वह इस जमीन का चरित्र बदलकर वहां आवासीय परियोजनाएं वगैरह बनाने की अनुमति दे दें। पर राज्य के उद्योग मंत्री का कहना है कि बंद जूट मिलों की जमीन प सिर्प कारखाना लगाने की अनुमति दी जा सकती है। जमीन का चरित्र बदलने की अनुमति हर्गिज नहीं।
सोमवार सुबह जब हावड़ा जिले के शिवपुर स्थित कजारिया यार्न ऐंड ट्वीन्स के करीब 1,000 कर्मचारी फैक्टरी पहुंचे तो वहां उन्होंने अनिश्चितकालीन तालाबंदी का नोटिस देखा। ये हालत तब हैं जब पश्चिम बंगाल में दो फैक्टरियों वीडियोकॉन (अस्थायी रूप से) और डनलप के बंद होने की आग शांत भी नहीं पड़ी है। बिगड़ते माहौल के बीच अब जूट मिलों पर हड़ताल का खतरा मंडरा रहा है।
दरअसल दिसंबर 2009 में जूट मिलों में काम करने वाले कर्मचारी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए थे जिसके बाद पश्चिम बंगाल सरकार और मजदूरों के बीच अंतत: समझौता हुआ। यह समझौता फरवरी 2013 तक वैध है। अब मजदूरों ने मिल मालिकों को अपनी मांगों की नई सूची सौंपी है।
इन्होंने जो मांगें रखी हैं उनमें महंगाई भत्ते में वृद्धि, महिला कर्मचारियों के लिए बराबर मजूदरी और वेतन बढ़ोतरी शामिल हैं। इंडियन जूट मिल एसोसिएशन (आईजेएमए) के पूर्व चेयरमैन संजय कजारिया कहते हैं, 'आने वाले समय में हड़ताल की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।'
बंद पड़ी फैक्टरियों को खोलने का प्रयास नाकाम
बंद पड़ी फैक्टरियां खोलने की बात मौजूदा तृणमूल कांग्रेस के घोषणापत्र में शीर्ष पर थी। राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा ने कहा था कि करीब 58,000 बंद फैक्टरियां खोलने की योजना है। राज्य ने बंद फैक्टरियों पर नियंत्रण के लिए उद्यममियों को आमंत्रित किया। हालांकि पिछले डेढ़ साल में इस मोर्चे पर अधिक सफलता नहीं मिली है। इस सिलसिले में प्रयास करते हुए राज्य सरकार ने कुछ जूट मिलें खोलने की कोशिश कीं जो इस समय औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्गठन बोर्ड (बीआईएफआर) के तहत हैं। लेकिन जूट मिलों में काम करने वाले कर्मचारियों का मानना है कि ये मिलें व्यावहारिक दृष्टिकोण से निष्क्रिय हैं। आईजेएमए के कजारिया भी मानते हैं कि दोबारा खुलीं मिलों में शायद की काम होता है। पिछले एक साल के दौरान जूट मिलों में कम से कम चार से पांच बार तालाबंदी हो चुकी है।
मजदूरों की कमी और मनरेगा से बुरा हाल
हाल में ही राज्य में कई जूट मिलों के मालिक संजय कजारिया ने स्वेच्छा से अस्थायी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाकर प्रति दिन 220 रुपये कर दिया। यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। निर्माण क्षेत्र में अच्छी मजदूरी और बिहार, उत्तर प्रदेश से पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या कम होने से जूट मिलों में मजदूरों की कमी हो गई है। मनरेगा के तहत रोजगार सुनिश्चित होने से इन स्थानों से मजदूरों का पलायन कम हो गया है। जूट मिलों में काम करने वाले अस्थायी कर्मचारियों को रोजाना 157 रुपये जबकि स्थायी श्रमिकों को प्रतिदिन 350 रुपये मिलते हैं। केवल 10 प्रतिशत कर्मचारी ही स्थायी हैं।
अनिवार्य पैकेजिंग नियमों में छूट
इस साल सरकार ने पहली बार जूट पैकेजिंग मटीरियल्स एक्ट (जेपीएमए), 1987के तहत पैकेजिंग अनिवार्यता में 60 प्रतिशत कमी कर दी थी। अधिनियम के तहत चीनी मिलों को केवल जूट के बोरे इस्तेमाल करने का निर्देश दिया गया था। लेकिन चीनी मिलों की जूट के बोरों की मांग पूरी नहीं हो पाने और सस्ते विकल्प जैसे प्लास्टिक के बोरे उपलब्ध होने से पैकेजिंग नियमों में ढील दी गई। इसके साथ ही जूट के बोरों की मांग कम हो गई है। इस बारे में आईजीएमए के चेयरमैन मनीष पोद्दार ने कहा, 'चीनी मिलों से हमें न के बराबर ऑर्डर मिल रहे हैं।'
जूट बोर्ड :- यह एक संवैधानिक निकाय है जिसकी स्थापना भारत में जूट उद्योग को प्रोत्साहन देने एवं इसके विकास के साथ इस उद्योग में कार्यरत कामगारों की रहने की परिस्थितियों में सुधार लाने के लिए जूट उद्योग अधिनियम, 1953 के तहत की गई थी।
पश्चिम बंगाल में कभी विकासशील रहा जूट उद्योग आज अधिकारियों की उपेक्षा के कारण खस्ताहाल है। नए-नए उत्पादों में जूट की उपयोगिता बढ़ाने में असफल रहने, वैश्विक बाजार में निर्यात बढ़ाने में नाकाम रहना भी इसकी प्रमुख वजह रही। सिंथेटिक विकल्पों की उपलब्धता और महंगी मजदूरी इस उद्योग के सामने समस्या पैदा कर रही है, वहीं प़डोसी बांग्लादेश से भी इसे क़डी प्रतियोगिता का सामना करना प़ड रहा है।
जूट उद्योग के लिए चीन गंभीर खतरा बनकर उभर रहा है। वह बांग्लादेश की मदद से इस क्षेत्र में पैठ जमाने की कोशिश कर रहा है। केंद्रीय जूट आयुक्त एवं नेशनल जूट बोर्ड के सचिव अत्रि भट्टाचार्य ने यह चिंताजनक तथ्य पेश किया। वे सोमवार को भारत चैंबर ऑफ कॉमर्स की ओर से आयोजित जूट और बंगाल विषय पर परिचर्चा में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि चीन ऐसा देश है जो किसी भी क्षेत्र में घुसपैठ कर सकता है। जूट उद्योग में पैठ जमाने के लिए वह बांग्लादेश की मदद लेने के फिराक में है, जो चिंता की बात है। बांग्लादेशी जूट की गुणवत्ता भारतीय जूट से अच्छी है। भट्टाचार्य ने बंगाल में जूट व्यवसाय को उद्योग का दर्जा दिलाने के लिए राज्य सरकार से बातचीत करने का आश्वासन दिया। जूट बंगाल की अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है।
भारत में जूट उद्योग से जुड़े एक वर्ग ने केंद्र सरकार से आयातित फाइबर पर लागू चार फीसदी का विशेष अतिरिक्त शुल्क (एसएडी) समाप्त करने की मांग की है। पिछले पांच वर्षों में बांग्लादेश से उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे जूट के आयात में 75 फीसदी से अधिक का इजाफा हो चुका है। पेट्रापोल, पश्चिम बंगाल के आंकड़ों सेे पता चलता है कि कच्चे जूट का आयात 2006-07 के लगभग 50 हजार गांठ से बढ़ कर 2011-12 तक 90 हजार गांठ पर पहुंच गया।
भारत में कच्चे जूट की कुल जरूरत में से लगभग 9-10 फीसदी को बांग्लादेश से आयात के जरिये पूरा किया जाता है। केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने मार्च 2012 में बांग्लादेश से कच्चे जूट के आयात पर एसएडी लगाया था। कच्चे जूट पर एसएडी से उत्पाद की लागत बढ़ गई है जिससे स्थानीय जूट उद्योग को घरेलू और निर्यात बाजारों में प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।
एसएडी लगाने की पहल वैट और सीएसटी (केंद्रीय बिक्री कर) के संदर्भ में मौजूदा राज्य और केंद्रीय कानूनों के लिए भी टकरावपूर्ण है। हालांकि कस्टम ऐक्ट के अनुसार सरकार ने अधिकतम 4 फीसदी की दर पर अतिरिक्त शुल्क लगाने का अधिकार सुरक्षित रखा है।
जूट उद्योग अप्रैल 2007 से जूट सामान निर्यात प्रोत्साहन योजना का लाभ उठा रहा है। केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय ने जूट सामान निर्यातकों के लिए अप्रैल 2007 में एक्सटर्नल मार्केट असिस्टेंस (ईएमए) योजना समाप्त कर दी थी, क्योंकि वह अपेक्षित परिणाम देने में विफल रही थी। ईएमए 1992 से चल रही थी।
जूट उद्योग को एक और झटका तब लगा है जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल में जूट निर्माण क्षेत्र को रुपये में निर्यात क्रेडिट पर 2 फीसदी की ब्याज राहत मार्च 2014 तक दिए जाने से इनकार कर दिया। यह ब्याज राहत जूट उद्योग के लिए मार्च 2011 तक उपलब्ध थी। जून 2012 में आरबीआई ने इस सूची में जूट निर्माण को हटा दिया था। बांग्लादेश के जूट निर्यातकों से कड़ी प्रतिस्पर्धा की वजह से जूट निर्यात लगभग 15 फीसदी तक घटा है। बांग्लादेश के जूट निर्यातकों को वहां की सरकार से 10 फीसदी की सब्सिडी मिलती है।
भारतीय जूट मिल संघ के पूर्व अध्यक्ष संजय कजारिया ने कहा कि अन्य उद्योग की तरह इस उद्योग में कारोबारियों की कोई संस्था नहीं है, जो इस उद्योग की रक्षा और विकास के बारे में सोचे। कजारिया हास्टिंग्स जूट मिल के मालिक हैं। उन्होंने कहा कि कानून के मुताबिक अनाजों को जूट की बोरियों में भरा जाना चाहिए। लेकिन चीनी को जूट की बोरियों में नहीं रखा जा रहा है। लोग कानून का उल्लंघन कर रहे हैं और सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही है। इसके साथ ही सरकार ने पूर्व घोषित जूट पार्क भी नहीं बनाया। पर्यावरण अनुकूल और प्राकृतिक होने के कारण जूट का जितना इस्तेमाल होना चाहिए, उतना हो नहीं रहा है। बंगाल नेशनल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स के सचिव डी. पी. नाग ने कहा कि बांग्लादेश में जूट का कागज और वस्त्र उद्योग में इस्तेमाल हो रहा है। इसी तरह हमारे यहां भी नए प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही उन्होंने पॉलीथिन की थ्ौलियों पर सख्ती से पाबंदी लगाने की भी बात कही। पश्चिम बंगाल में जूट की खेती 6,00,000 हेक्टेयर भूमि पर होती है। मौजूदा कारोबारी साल में यहां 7,80,000 गांठ का उत्पादन हुआ। राज्य में 62 ब़डी जूट मिलें हैं और जूट के उत्पाद बनाने वाली 1,026 पंजीकृत इकाइयां हैं। नाग ने कहा कि हमारे जूट की 80 फीसदी खपत घरेलू बाजार में होती है। हम वैश्विक बाजार में जगह बनाने में नाकाम रहे हैं। मैन्यूफैक्चरिंग डेवलपमेंट काउंसिल के सचिव अत्री भट्टाचार्य ने कहा कि जूट उद्योग को सिंथेटिक विकल्प से चुनौती मिल रही है। भट्टाचार्य ने कहा कि सरकार ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में एक पंचवर्षीय जूट प्रौद्योगिकी मिशन (जेटीएम) शुरू की थी। जेटीएम के चौथे मिनी मिशन की नौ योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय जूट बोर्ड की है। इस मिशन के तहत जूट मिलों का आधुनिकीकरण किया जाना है। जेटीएम के लागू होने के बाद जूट उत्पादों की संख्या में वृद्धि होगी।
जूट, भी 'गोल्डन फाइबर' कहा जाता है, सबसे उपयोगी और बहुमुखी प्रकृति द्वारा मनुष्य को तोहफे में फाइबर है. जूट इसके लिए हस्तकला उद्योग में विभिन्न रूपों में प्रयोग करने की क्षमता के लिए लोकप्रिय है. उद्योग देश की अर्थव्यवस्था में बहुत योगदान है और अगले कुछ दशकों के लिए कम से कम अर्थव्यवस्था प्रेरित करने की क्षमता है. जूट उद्योग अकेला 0.26 मिलियन लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करता है, और 4.0 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से उद्योग के लिए जुड़े हुए हैं. कुल में, श्रम प्रधान उद्योग में यह दस लाख से अधिक लोगों को 4.35 संलग्न है. इसकी प्रमुख योगदान और भारत अर्थव्यवस्था n में महत्वपूर्ण भूमिका को साकार, सरकार को अपनी राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम में उद्योग के लिए विशेष ध्यान देने का फैसला किया है. उद्योग ध्यान में बढ़ योगदान रखते हुए सरकार फिर "जूट टेक्नोलॉजी मिशन 'शुरू करने के लिए जूट उत्पादकों, श्रमिकों, जूट निर्माताओं, निर्यातकों और दूसरों के क्षेत्र में लगे लाभ. कार्यक्रम ओं उद्योग आधुनिकीकरण में मदद मिली है और निर्यात करने के लिए और अन्य पटसन विविधीकरण की बढ़ी स्तर से मुनाफा काटते.
जूट आयुक्त अर्दली और भारत में जूट उद्योग के विकास और संवर्धन के बाद लग रहा है. वह दोनों विनियामक और विकास कार्यों के निर्वहन किया गया है. यह केवल जूट मिलों शामिल नहीं है, लेकिन सही कच्चे जूट के सामान जूट विनिर्माण इकाइयों में इस्तेमाल किया मशीनरी और उपकरणों के विकास सहित उत्पादन के परिष्करण चरण के लिए विपणन जूट से शामिल किया गया है. जूट आयुक्त के तहत नियामक शक्तियों अभ्यास जूट और जूट कपड़ा नियंत्रण आदेश, 2000 .
कार्यालय का प्राथमिक कार्य कर रहे हैं हैं :
1.
कच्चे जूट, जूट उद्योग, आधुनिकीकरण और संगठित और विकेंद्रित दोनों क्षेत्रों में विविधीकरण कार्यक्रम, जूट मशीनरी उद्योग के विकास आदि से संबंधित सभी मामलों पर सरकार को सलाह
2.
जूट के सामान के निर्यात लक्ष्य और लक्ष्य सेट की उपलब्धि के लिए नीतिगत उपाय तैयार करने की एक स्वैच्छिक योजना के संचालन के माध्यम से अर्दली निर्यात को बढ़ावा देने के लिए.
3.
मदद करने के लिए भारतीय मानक ब्यूरो जूट के सामान के विभिन्न मदों के लिए उपयुक्त गुणवत्ता मानकों को विकसित करने के लिए.
4.
अलग अनुसंधान और बाजार उन्मुख अनुसंधान और विकास कार्यक्रम की गहनता के लिए जूट के क्षेत्र के लाभ के लिए डी संगठनों के साथ कार्य अंतर देखने के तकनीकी विकास और उपभोक्ताओं वरीयताओं में रखते हुए.
5.
विभिन्न सार्वजनिक और राज्य क्षेत्र थोक उपभोक्ताओं की सहायता के लिए अनाज की पैकिंग के लिए समय में जूट बैग की अपनी आवश्यकताओं को प्राप्त है. विशेष रूप से, भारतीय खाद्य निगम और राज्य खाद्य तहत लागत से अधिक दामों पर अनाज की खरीद एजेंसियों को जूट मिलों द्वारा बी टवील बैग की आपूर्ति के लिए सांविधिक योजना के कार्यान्वयन जूट और जूट कपड़ा नियंत्रण आदेश, 2000 के बाद इस कार्यालय द्वारा देखा जाता है .
6.
कम का कार्य - वार्षिक और 5 साल की योजना तैयार करने के लिए और उपयुक्त नीतिगत ढांचा तैयार करने के लिए अवधि और लंबी अवधि के जूट के परिदृश्य के अधिक देखने.
7.
अनिवार्य जूट पैकेजिंग आदेश के तहत लागू करने के लिए प्रख्यापित अलग अंत उपयोगकर्ता अधिनियम द्वारा कवर क्षेत्रों में जूट पैकेजिंग सामग्री (पैकिंग जिंसों में अनिवार्य उपयोग) अधिनियम, 1987 .
8.
जूट उत्पादों के बारे में अधिक से अधिक उपभोक्ता जागरूकता पैदा करते हैं और गैर पारंपरिक और विविध जूट उत्पादों के लिए बाजार JMDC, NCJD और अन्य संबंधित संगठनों के साथ संयुक्त रूप से बढ़ावा देने के.
9.
जूट क्षेत्र के विकास के लिए आवश्यक नीति संबंधी उपायों को आरंभ करने के लिए, समय - समय पर उद्योग पर ध्यान केंद्रित करने और सुधारात्मक कदम है, के लिए जब भी बुलाया सुझाव. विशेष रूप में, यह विविध समस्याओं से निपटने के साथ जुड़ा के लिए आवश्यक है उत्पादन, निर्यात संवर्धन, वित्त, शिपिंग परिवहन, कच्चे माल की आपूर्ति, आपूर्ति और कीमतों के स्थिरीकरण, उत्पादन के वित्तीय परिणाम और लागत के अंतर मिल कारकों की गहराई मूल्यांकन में मिल वार विश्लेषण मिलों की बीमारी, 'मिलों खरीद और शेयर बाजार में मूल्य स्थिरता के बारे में लाने के लिए कच्चे जूट का आयोजन, आदि के विनियमन के लिए अग्रणी
भारतीय जूट निर्माताओं की एक बड़ी संख्या की स्थापना की है के राज्यों में उनके मिल्स पश्चिम बंगाल, असम, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा, बिहार और छत्तीसगढ़. वर्तमान में, वहाँ 78 जूट भारत में लगाए हैं जिनमें से 61 अकेले पश्चिम बंगाल के पूर्वी क्षेत्र में स्थित हैं मिलों कर रहे हैं. सभी जूट मिलों के अलावा, 64 निजी तौर पर भारतीय निर्माताओं और निर्यातकों के स्वामित्व में हैं, उनमें से 6 केन्द्रीय सरकार के स्वामित्व में हैं, राज्य सरकार 4 मालिक है, और केवल मिलों के 2 सहकारी समितियों के अधीन हैं. जूट उद्योग अकेला रुपये 6500 करोड़ की वार्षिक कारोबार और कुल जूट उत्पादों के निर्यात के मूल्य के लिए खातों लगभग Rs1000 करोड़ रुपये है. कुछ संगठनों को भारतीय जूट उद्योग पर नियंत्रण रख बनाई गई हैं. इन जूट विविधीकरण के लिए राष्ट्रीय केन्द्र शामिल हैं (कोलकाता), जूट निर्माता विकास परिषद (कोलकाता), राष्ट्रीय जूट निर्माता निगम, इंडिया लिमिटेड के जूट निगम (कोलकाता), पक्षी जूट और जूट प्रौद्योगिकी (कोलकाता) के लिमिटेड, संस्थान, निर्यात और भारतीय जूट उद्योग अनुसंधान संघ (कोलकाता).
भारत सबसे बड़ा उत्पादक है कच्चे जूट के साथ ही समाप्त अच्छे उत्पादों. जूट यार्न, जूट बद्धी, जूट हेस्सियन बैग, जूट हेस्सियन भी बर्लेप कपड़ा, जूट Geotextiles और मिट्टी Savers नामक कपड़ा निर्यात के क्षेत्र हावी उत्पादों रहे हैं. यह वजह से भारत में सस्ते और कुशल मजदूरों की उपलब्धता, और उद्यमशीलता कौशल की भी उपलब्धता के लिए संभव हो गया. प्रमुख भारतीय निर्माता और जूट और जूट उत्पादों के निर्यातकों में से कुछ निम्नलिखित हैं:
ईस्ट इंडिया जूट और जूट हेस्सियन एक्सचेंज लिमिटेड
जूट विविधीकरण के लिए राष्ट्रीय केन्द्र
इंडिया लिमिटेड के जूट निगम
चटाई ट्रेडर्स एसोसिएशन
कलकत्ता जूट कपड़े Shippers एसोसिएशन
कलकत्ता Laminating इंडस्ट्रीज
असीम कार एंड इंडस्ट्रीज प्रा. लिमिटेड
एक Jutex इंटरनेशनल
तथ्य की बात के रूप में, जूट उद्योग के एक सबसे बड़ा उद्योग है जो भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत पर निर्भर करता है. इसके अलावा विशाल निर्यात की संभावना होने से, जूट विनिर्माण कंपनियों घरेलू बाजार के रूप में अच्छी तरह पूरा करते हैं. हालांकि, उद्योग उच्च उत्पादन लागत और गरीब आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन के रूप में इसके विकास में कुछ बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. बाजार और वैश्विक जा रही प्रतियोगिता के साथ, भारत को अभी भी निर्माण जूट उत्पादों की आदिम तरीकों का अभ्यास है. बने उत्पादों के महंगे होते हैं और उच्च दरों पर निर्यात के रूप में अन्य एशियाई देशों, खासकर बांग्लादेश जो सबसे बड़ी भारतीय जूट उद्योग के लिए खतरा नहीं है की तुलना में. मल्टी संघवाद एक उद्योग की समस्याओं में से एक है और श्रम विवाद को हल करने में नियमित प्रबंधन का प्रमुख एकाग्रता संलग्न है. एक माँ उद्योग होने के बावजूद, भारतीय जूट उद्योग के वर्तमान परिदृश्य में एक विशाल विकेन्द्रीकृत और असंगठित क्षेत्र के रूप में उभरा है.
साल 2012-13 में कच्चे जूट का उत्पादन करीब 92 लाख गांठ रहने का अनुमान है, जो पिछले साल के 99 लाख गांठ के मुकाबले काफी कम है। हालांकि कम उïत्पादन के बावजूद कीमतों में सुस्ती बने रहने के आसार हैं क्योंकि कैरीओवर स्टॉक की भरमार है और मांग भी कम है। इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन के चेयरमैन मनीष पोद्दार ने कहा, मौजूदा समय में मिलों के पास करीब 40 लाख गांठ जूट का कैरीओवर स्टॉक है जबकि इस साल 92 लाख गांठ जूट के उत्पादन का अनुमान है और पूरे साल जूट की मांग को पूरा करने के लिए इतनी मात्रा पर्याप्त होगी।
मौजूदा समय में कच्चे जूट की कीमतें (टीडी-5 किस्म) 2500 रुपये प्रति क्विंटल है, जो नवंबर 2012 के आखिर में 2300 रुपये प्रति क्विंटल था। मिल मालिकों का कहना है कि चीनी मिलों की तरफ से घटती मांग के चलते कीमतें कमोबेश स्थिर हैं। स्पष्ट तौर पर पिछले साल सरकार ने पहली बार जूट पैकेजिंग मैटीरियल एक्ट (जेपीएमए) 1987 के तहत अनिवार्य पैकेजिंग के नियमों में ढील देते हुए इसे 60 फीसदी कर दिया है। इस अधिनियम में चीनी की पैकिंग के लिए सिर्फ जूट की बोरियों के इस्तेमाल को अनिवार्य रखा गया है। हालांकि जूट मिलें अक्सर चीनी मिलों की मांग को समय पर पूरा करने में नाकाम हो जाती हैं। ऐसे में प्लास्टिक उद्योग में पैकिंग के सस्ते विकल्प की उपलब्धता के चलते चीनी मिलों के हक में पैकिंग के नियमों में ढील दी गई है।
पोद्दार ने कहा, हमें चीनी मिलों की तरफ से कोई ऑर्डर नहीं मिल रहा है। निर्यात की हिस्सेदारी बढ़ाने और अनाज की पैकिंग के लिए जूट की बोरियों की आपूर्ति में बढ़ोतरी के जरिए होने वाले नुकसान की भरपाई की कोशिशें जारी हैं। सरकार ने कच्चे जूट की टीडी-5 किस्म का न्यूनतम समर्थन मूल्य साल 2012-13 के सीजन के लिए बढ़ाकर 2200 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है जबकि पहले यह 1675 रुपये प्रति क्विंटल था। इस तरह से एमएसपी में करीब 31.34 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है।
त्रिपक्षीय समझौता
एक ओर जहां मिलें मांग पैदा करने के लिए संघर्ष कर रही हैं, वहीं पश्चिम बंगाल सरकार, मिल मालिकों और कामगारों के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते की समाप्ति फरवरी 2013 में हो जाने से उद्योग में एक और गतिरोध का खतरा मंडरा रहा है। सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू) के सूत्रों ने कहा, करीब 20 मिलों के कामगार संघ के प्रतिनिधियों ने हाल में कोलकाता में बैठक ही है और अपनी नई मांग पर विचार-विमर्श किया है। अगली बैठक जनवरी में होने वाली है और इसमें कामगारों की नई मांग की जानकारी मिलने की संभावना है। दूसरी चीजों के अलावा कामगार कम से कम 10,000 रुपये प्रति माह की मजदूरी और जेपीएमए अधिनियम को फिर से लागू करने की मांग कर सकते हैं। दिसंबर 2009 में पश्चिम बंगाल के 52 जूट मिल के कामगार अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए थे। इन्होंने अनुचित व्यवहार को समाप्त करने, वैधानिक बकाये और भत्ते व अन्य बकाये का भुगतान, अनुबंध वाले कामगारों को नियमित करना और वास्तविक मजदूरी पर प्रॉविडेंट फंड के लिए रकम काटने और ईएसआई के योगदान का आकलन करने की मांग की थी। इसके परिणामस्वरूप 14 फरवरी 2010 को एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ था ताकि गतिरोध समाप्त किया जा सके।
अनाज और चीनी की पैकिंग के मामले में प्लास्टिक उद्योग जूट क्षेत्र को पीछे छोडऩे के लिए तैयार है। सिंथेटिक बैग की कीमत जहां महज 12 रुपये है वहीं जूट के बोरे की कीमत 28 रुपये पड़ती है। माना जा रहा है कि दिसंबर 2012 और अप्रैल 2013 के रबी सत्र के दौरान अनिवार्य जूट पैकिंग ऑर्डर में 37 प्रतिशत की कमी आएगी। यह पहले के निर्धारित 10 प्रतिशत के स्तर से अधिक है।
जूट पैकेजिंग मैटेरियल ऐक्ट (जेपीएमए), 1987 के तहत प्रावधान है कि देश में उत्पादित चीनी और अनाज की पैकिंग उस साल बने जूट के बोरों में ही की जाएगी। हालांकि इस साल 11 अक्टूबर को आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) ने चालू वित्त वर्ष के लिए इस प्रावधान में 10 प्रतिशत छूट देने का फैसला किया था। सरकार का कहना था कि जूट उद्योग के पास आवश्यक क्षमता नहीं है जिससे वह पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रहा।
दिसंबर और अप्रैल के रबी सत्र के दौरान जूट के बोरों के लिए करीब 18.9 लाख गांठों की दरकार है लेकिन आपूर्ति करीब 67 गांठ कम रह सकती है। इसकी भरपाई के लिए सीसीईए द्वारा निर्धारित 10 प्रतिशत के बजाय सरकार 37 प्रतिशत प्लास्टिक बैग का इस्तेमाल कर करेगी।
जूट उद्योग पर खराब और निम्न गुणवत्ता वाले बोरों की आपूर्ति का आरोप लगा है। इससे पहले 16 नवंबर को सीसीईए ने जूट क्षेत्र की समीक्षा का फैसला किया था। हालांकि अभी यह किया जाना बाकी है। खाद्यान्न पैकिंग में 10 प्रतिशत की ढील देने की घोषणा के साथ ही 11 अक्टूबर को सीसीईए ने पुराने जुट के बोरे में 40 प्रतिशत चीनी की पैकिंग अनारक्षित कर दिया।
संश्लेषित उत्पादक इस शिकायत के साथ भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग (सीसीआई) का दरवाजा खटखटाया कि जूट उद्योग आपसी सांगगांठ से जूट के बोरों की कीमतें तय कर रहे हैं।
डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुराने जूट उद्योग ने प्रतिस्पर्धा को दूर रखने के लिए सरकार पर निर्भरता को अपनी आदत बना लिया है। यह वैकल्पिक उत्पादों से पैदा होने वाली चुनौतियों से हमेशा बेखबर रहा है। सरकार ने भी अब तक इस उद्योग को निराश नहीं किया है। अधिकारियों की सहानुभूति जीतने में यह पुराना उद्योग सफल क्यों रहा? इसकी वजह यह है कि अगर जूट पैकेजिंग सामग्री को सिंथेटिक के वैकल्पिक उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी तो कच्चे जूट की खेती में संलग्न 50 लाख परिवार इस व्यवसाय को छोड़ देंगे।
मूक सहानुभूति के अलावा यह नहीं जाना जाता है जिस तरह अन्य नकदी फसलों के प्रसंस्करणकर्ताओं ने देश के विभिन्न भागों में इन फसलों का उत्पादन बढ़ाने में योगदान दिया है, उसी तरह जूट उद्योग पूर्वी राज्यों में वैज्ञानिक तरीके से जूट उगाने को प्रोत्साहित करने में मददगार रहा है। जूट मिलों में श्रम विवाद भी काफी होते हैं। अनेक बार हुई हड़तालें कई महीनों के बाद खत्म हुई हैं, जिससे सरकारी एजेंसियों और चीनी फैक्ट्रियों का जूट के बोरे खरीदने का कार्यक्रम भी प्रभावित हुआ है।
इस उद्योग में हुई पिछली हड़ताल के फरवरी 2010 में समाप्त होने में 2 महीने लगे थे। लेकिन जूट मालिको के लिए कोई भी आलोचना उसी तरह है, जिस तरह बतख के ऊपर से पानी जाता है। वे किसी भी कीमत पर सिंथेटिक सामग्री विनिर्माताओं को समान अवसर उपलब्ध होने के पक्ष में नहीं हैं। प्राकृतिक फाइबर होने के कारण जूट को पर्यावरण अनुकूल और प्रदूषणरहित माना जाता है। गेहूं और चावल को जूट के बोरों में पैक करने पर कोई प्रश्न नहीं उठता है। हालांकि चीनी के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता।
चीनी के थोक उपभोक्ताओं जैसे शीतलपेय निर्माता, दवा इकाइयां और मिठाई निर्माता चीनी में बैचिंग तेल की उपस्थिति मिलने से भारी नाराज हैं। इस तेल का इस्तेमाल जूट और लूज फाइबर को नरम बनाने में किया जाता है। संयोग से अंतरराष्ट्रीय कारोबार में चीनी को हाई डेंसिटी पॉलिथीन (एचडीपीई) बोरों में भरने को स्वीकार्यता मिली हुई है। तेल की उपस्थिति के कारण देश में थोक उपभोक्ता सीधे जूट के बोरों में भरी चीनी की डिलिवरी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। देश में चीनी कंपनियों पर एचडीपीई बोरों के इस्तेमाल पर कानूनी प्रतिबंध है। इसलिए ये कंपनियां जूट के बोरों में एलकाथीन लाइनर्स लगा रही हैं, जिससे इस प्रक्रिया में उनकी लागत बढ़ रही है।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा कि उद्योग का लक्ष्य मिलावट रहित और कम कीमत पर बाजार में चीनी उपलब्ध कराना है, लेकिन जब तक जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट (जेपीएमए) की तलवार हमारे सिर पर लटकी रहेगी तब तक यह संभव नहीं हो सकेगा। उन्होंने कहा कि 50 किलोग्राम के जूट के बोरों की बुनाई इस तरह से होती है कि इनमें से चीनी निकलती है और साथ ही इनमें बंद सामग्री के विषाक्त होने की आशंका होती है। लागत की बात करें तो 50 किलोग्राम के एचडीपीई बोरे की कीमत 15 रुपये है, जबकि आदर्श क्षमता वाला जूट का एक बोरा 35 रुपये में आता है। जेपीएमए के तहत यह आवश्यक है कि चीनी के संपूर्ण उत्पादन की पैकिंग जूट के बोरों में की जानी चाहिए।
राजनीतिक कारणों से सरकार लगातार स्थायी सलाहकार समिति की सिफारिशों को नकारती रही है। समिति सिफारिश करती रही है कि चीनी फैक्ट्रियों को अपने उत्पादन के 25 फीसदी भाग की पैकिंग गैर-जूट बोरों में करने की स्वीकृति दी जाए। जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट (जेपीएमए) की 1987 में घोषणा के समय अनाज, चीनी, उर्वरकों और सीमेंट की पैकेजिंग के लिए जूट के बोरों के इस्तेमाल का प्रावधान किया गया था।
हालांकि सीमेंट और उर्वरक निर्माताओं को जल्द ही जेपीएमए से छूटकारा मिल गया। इसकी वजह यह थी कि इन दो जिंसों की जूट के बोरों में पैकेजिंग से इनकी हैंडलिंग और सभी मौसम में सुरक्षित रखना संभव नहीं है। तकनीकी कारणों के साथ ही सीमेंट और उर्वरक उत्पादकों की जीत की वजह इनकी लॉबिंग पावर थी। इसकी वजह से जेपीएमए के दायरे में केवल चीनी और अनाज रह गए। लेकिन जहां चीनी फैक्ट्रियां बोरों की कीमतों के लिए जूट मिलों की दया पर निर्भर हैं वहीं सरकार खुद द्वारा तय कीमत पर जूट के बोरों की खरीद करती है। इस्मा का कहना है कि सीमेंट और उर्वरकों के जेपीएमए के जाल से बचने के बावजूद जूट मिलों ने जूट बोरों की कीमत तय करने में मनमानी बंद नहीं की है।
जूट उद्योग
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सूखती हुई जूट
जूट उद्योग में भारत का विश्व में प्रथम स्थान है। जूट 'सोने का रेशा' के नाम से मशहूर है। जूट उद्योग का पहला कारख़ाना कोलकाता के समीप रिसरा नामक स्थान में 1859 में लगाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत विभाजन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला उद्योग यही था, क्योकि तत्कालीन 120 कारखानों में से 10 पूर्वी पाकिस्तान[1] में चले गये थे, जबकि जूट उत्पादन क्षेत्र का अधिकांश भाग उसके पास था। 110 कारखानों को कच्चा माल उपलब्ध कराने के लिए पश्चिम बंगाल के किसानो को अथक परिश्रम करना पड़ा। शुद्ध कच्चा माल होने के कारण इस उद्योग के कारखानों की स्थापना जूट उत्पादक क्षेत्रों में ही की जाती है।
उत्पादन क्षेत्र
विषय सूची [छिपाएं]
1 उत्पादन क्षेत्र
2 जूट उद्योग के कारखने
3 जूट का निर्माण
4 टीका टिप्पणी और संदर्भ
5 बाहरी कड़ियाँ
6 संबंधित लेख
भारत के जूट उद्योग में पश्चिम बंगाल का प्रथम स्थान है। देश के कुल 114 जूट कारखानों में से 102 यहीं स्थापित हैं। यहाँ हुगली नदी के दोनो किनारों पर 3 से 4 किमी की चौड़ाई में 97 किमी लम्बी पेटी में इन कारखानों की स्थापना की गयी है। रिसरा से नईहाटी तक विस्तृत 24 किमी लम्बी पट्टी में तो इस उद्योग का सर्वाधिक केन्द्रीकरण हो गया है। यहाँ जूट उद्योग के प्रमुख केन्द्र हैं- रिसरा, बाली, अगरपाड़ा, टीटागढ़, बांसबेरिया, कानकिनारा, उलबेरिया, सीरामपुर, बजबज, हावड़ा, श्यामनगर, शिवपुर, सियालदाह, बिरलापुर, होलीनगर, बड़नगर, बैरकपुर, लिलुआ, बाटानगर, बेलूर, संकरेल, हाजीनगर, भद्रेश्वर, जगतदल, आदि।
जूट उद्योग के कारखने
पश्चिम बंगाल के अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश में जूट उद्योग के 4 कारखनें स्थापित किये गये है। इनमें से दो विशाखापटनम में तथा अन्य गुंटूर तथा पूर्वी गोदावरी ज़िलों में स्थित हैं। यहाँ जूट की कृषि का प्रमुख क्षेत्र गोदावरी नदी का डेल्टा है। उत्तर प्रदेश में 3 कारखानें, दो कानपुर तथा एक सहजनवाँ (गोरखपुर) में स्थापित किये गये हैं। कानपुर का कारख़ाना पश्चिम बंगाल से कच्चा जूट लेता है, जबकि सहजनवाँ में तराई क्षेत्र का जूट प्रयोग किया जाता है। बिहार में गया, पूर्णिया, कटिहार तथा दरभंगा, छत्तीसगढ़ में रायगढ़ तथा असम में एक छोटा कारख़ाना इस उद्योग के अन्य कारखाने है।
जूट का निर्माण
भारत में सम्पूर्ण विश्व के 50 प्रतिशत जूट के सामानों का निर्माण किया जाता है और यह एक प्रमुख निर्यातोन्मुखी उद्योग है। भारत सरकार द्वारा जूट के आयात निर्यात एवं आन्तरिक बाजार के देख-रेख के लिए 1971 में 'भारतीय जूट निगम' की स्थापना की गई है। 2006-07 में कुल 103 लाख गांठे[2] उत्पादित हुई, जबकि इसी अवधि के दौरान 26238 हज़ार मीट्रिक टन जूट वस्त्र का निर्माण किया गया।
जूट उद्योग
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सूखती हुई जूट
जूट उद्योग में भारत का विश्व में प्रथम स्थान है। जूट 'सोने का रेशा' के नाम से मशहूर है। जूट उद्योग का पहला कारख़ाना कोलकाता के समीप रिसरा नामक स्थान में 1859 में लगाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत विभाजन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला उद्योग यही था, क्योकि तत्कालीन 120 कारखानों में से 10 पूर्वी पाकिस्तान[1] में चले गये थे, जबकि जूट उत्पादन क्षेत्र का अधिकांश भाग उसके पास था। 110 कारखानों को कच्चा माल उपलब्ध कराने के लिए पश्चिम बंगाल के किसानो को अथक परिश्रम करना पड़ा। शुद्ध कच्चा माल होने के कारण इस उद्योग के कारखानों की स्थापना जूट उत्पादक क्षेत्रों में ही की जाती है।उत्पादन क्षेत्र
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भारत के जूट उद्योग में पश्चिम बंगाल का प्रथम स्थान है। देश के कुल 114 जूट कारखानों में से 102 यहीं स्थापित हैं। यहाँहुगली नदी के दोनो किनारों पर 3 से 4 किमी की चौड़ाई में 97 किमी लम्बी पेटी में इन कारखानों की स्थापना की गयी है। रिसरा से नईहाटी तक विस्तृत 24 किमी लम्बी पट्टी में तो इस उद्योग का सर्वाधिक केन्द्रीकरण हो गया है। यहाँ जूट उद्योग के प्रमुख केन्द्र हैं- रिसरा, बाली, अगरपाड़ा, टीटागढ़, बांसबेरिया, कानकिनारा, उलबेरिया, सीरामपुर, बजबज,हावड़ा, श्यामनगर, शिवपुर, सियालदाह, बिरलापुर, होलीनगर, बड़नगर, बैरकपुर, लिलुआ, बाटानगर, बेलूर, संकरेल, हाजीनगर, भद्रेश्वर, जगतदल, आदि।
जूट उद्योग के कारखने
पश्चिम बंगाल के अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश में जूट उद्योग के 4 कारखनें स्थापित किये गये है। इनमें से दो विशाखापटनम में तथा अन्य गुंटूर तथा पूर्वी गोदावरी ज़िलों में स्थित हैं। यहाँ जूट की कृषि का प्रमुख क्षेत्र गोदावरी नदी का डेल्टा है। उत्तर प्रदेश में 3 कारखानें, दो कानपुरतथा एक सहजनवाँ (गोरखपुर) में स्थापित किये गये हैं। कानपुर का कारख़ाना पश्चिम बंगाल से कच्चा जूट लेता है, जबकि सहजनवाँ में तराई क्षेत्र का जूट प्रयोग किया जाता है। बिहार में गया, पूर्णिया, कटिहार तथा दरभंगा, छत्तीसगढ़ में रायगढ़ तथा असम में एक छोटा कारख़ाना इस उद्योग के अन्य कारखाने है।जूट का निर्माण
भारत में सम्पूर्ण विश्व के 50 प्रतिशत जूट के सामानों का निर्माण किया जाता है और यह एक प्रमुख निर्यातोन्मुखी उद्योग है। भारत सरकार द्वारा जूट के आयात निर्यात एवं आन्तरिक बाजार के देख-रेख के लिए 1971 में 'भारतीय जूट निगम' की स्थापना की गई है। 2006-07 में कुल 103 लाख गांठे[2]उत्पादित हुई, जबकि इसी अवधि के दौरान 26238 हज़ार मीट्रिक टन जूट वस्त्र का निर्माण किया गया।* |
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