किसको पता वनाधिकार कानून
राजीव
एक लंबे अरसे बाद देश के आदिवासियों के वनभूमि पर रहने एवं आजीविका के लिए खेती करने के कानूनी अधिकार को केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (नियम-2008) को 15 दिसंबर 2006 को लोकसभा तथा 18 दिसंबर 2006 को राज्यसभा से पारित किया. 29 दिसंबर 2006 को राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर किये. मगर इसे गजट में एक साल बाद 31 दिसंबर 2007 को प्रकाशित किया गया. इस कानून को लागू करने की प्रक्रियाओं को नियम-2008 को 1 जनवरी 2008 से जम्मू-कश्मीर को छोड़ संपूर्ण भारत में लागू कर दिया गया.
वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने के पीछे केन्द्र सरकार की सोच रही कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होता आया है इसलिए उन्हें वन पर अधिकार की आवश्यकता है. सोच अच्छी थी और है, मगर वनाधिकार कानून को सही मायने में लागू करने में सबसे बड़ा रोड़ा बना है वन विभाग.
इसके तहत आदिवासियों को 13 दिसंबर 2005 के पूर्व एक दिन से लेकर 25 साल तक का यानी एक पीढ़ी का वन भूमि पर कब्जा दिखाना होगा. अन्य परम्परागत वनवासियों के लिए वन भूमि पर 75 सालों का यानी तीन पीढ़ी का कब्जा दिखाना होगा, तभी उन्हें वनभूमि पर पट्टा दिया जाएगा. इस कानून के तहत वैसे सभी आदिवासियों को जो वनभूमि को 13 दिसंबर 2005 के पूर्व से जोत आबाद करते आ रहे हैं उन्हें 4 हेक्टयर यानी 10 एकड़ वनभूमि का स्वत्व पट्टा दिया जा सकता है, जिसे हस्तांतरित नहीं किया जा सकता. लेकिन पिता से पुत्र को उतराधिकार के तहत पट्टे वाली जमीन पिता के मृत्यु के बाद स्वतः हस्तांतरित समझी जाएगी.
ऐसा नहीं है कि वनाधिकार अधिनियम के तहत सभी आदिवासी को चार हेक्टयर भूमि देने की व्यवस्था की गयी है. भूमि सिर्फ वैसे ही आदिवासी परिवार को मिल सकती है जो वन भूमि पर जोतकोड़ 13 दिसंबर 2005 के पूर्व से करते आ रहे हैं. यदि कोई एक हेक्टयर वनभूमि पर काबिज पाया जाता है तो उसे एक हेक्टयर का वनभूमि स्वत्व पट्टा दिया जायेगा, न कि चार हेक्टयर का. इसके अतिरिक्त अधिनियम की धारा 3 (1द) (ब) के तहत आदिवासियों को वन संसाधनों जैसे बांस, तेंदू पते, जडी-बूटी आदि इकटठे करने का भी अधिकार भी प्रदान किया गया है. धारा 3 के तहत आदिवासी वनभूमि पर चारागाह तथा पेयजल को प्रयोग भी कर सकते हैं.
वनाधिकार कानून 2006 के तहत पहली बार आदिवासी समुदायों को वनों की रक्षा, वन संसाधन की रक्षा, वन जीवजंतु की रक्षा और देखरेख करने का अधिकार भी दिया गया है. इससे आदिवासी समुदायों को अब वन भूमाफिया, उद्योगपतियों एवं गैर कानूनी ढ़ग से भूमि हड़पने वाले जो वन विभाग से सांठ-गांठ कर अपना गोरखधंधा चला रहे हैं, से निपटने में कानूनी रूप से आसानी होगी.
झारखंड में वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने के लिए केन्द्र सरकार, आदिवासी कल्याण मंत्रालय को कई बार राज्य सरकार से पत्राचार करना पड़ा. झारखंड सरकार का कहना था कि पंचायत चुनाव नहीं होने के कारण वनाधिकार कानून को लागू कर पाना संभव नहीं है, क्योंकि प्रमंडल व जिला स्तरीय कमेटी के लिए निर्वाचित सदस्यों की जरुरत होगी. अंत में जनजातीय कल्याण मंत्रालय ने जुलाई 2008 में झारखंड सरकार को पत्र लिखकर यह सुझाव दिया कि राज्य सरकार ग्राम सभा से विचार-विमर्श कर वनाधिकार कमिटी के सदस्यों को चुन सकता है. इसकेबाद अक्टूबर 2008 से झारखंड में वनाधिकार कानून लागू किया गया.
नवंबर 2008 में राज्य के तीन जिले पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम व लातेहार के उपायुक्तों ने ग्राम सभाओं का गठन किया. वर्ष 2009 में सरकारी आदेश से राजस्व ग्राम में वनाधिकार समिति का गठन किया गया. वर्ष 2010 के अंत में झारखंड़ में 32 वर्षों बाद पंचायत चुनाव हुआ. चूंकि पंचायत चुनाव के पूर्व ही वनाधिकार समिति का गठन हो चुका था, इसलिए निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों को वनाधिकार समिति के संबंध में आज तक ठीक-ठीक जानकारी हासिल नहीं है.
वनाधिकार अधिनियम के अनुसार सरकार को चाहिए था कि वनाधिकार समिति को विधिवत प्रशिक्षण देकर निशुल्क दावा पत्रों का वितरण करे, लेकिन परंतु अधिनियम के लागू हुए पांच वर्ष बीतने के बाद भी यह संभव नहीं हो पाया.
झारखंड में पहली बार दुमका जिला के दुमका प्रखंड के 14 आदिवासी परिवारों को 27 फरवरी 2009 को वनभूमि पट्टा वितरित किया गया था. वर्तमान आंकड़ों के अनुसार अबतक 45000 से अधिक आदिवासी परिवारों ने दावा पत्र भरा है जिसमें 30 सितंबर 2012 तक 15296 लोगों को वनभूमि का पट्टा दिया गया है जिसके अंतर्गत व्यक्तिगत पट्टे की संख्या ज्यादा है सामुदायिक पट्टे की संख्या बहुत कम. वनाधिकार अधिनियम लागू हुए पांच वर्षों से ज्यादा वक्त चुका है, मगर राज्य में इसे सही ढंग से लागू करने की प्रक्रिया बहुत धीमी है.
एक सर्वेक्षण से पता चला कि गिरिडीह व धनबाद जिले में 24, देवघर में 23, बोकारो में 22, दुमका में 25 तथा लोहरदगा में 21 प्रतिशत लोग वनाधिकार अधिनियम को जानते हैं. कुछ जिलों में बिचौलिया तंत्र हावी है. अमीन नक्शा बनाने के लिए प्रखंड कर्मचारी दावा पत्र भरने व भरवाने के लिए बतौर कमीशन रूपए, दारू, मुर्गा आदि की मांग करते हैं.
सर्वे में शामिल अम्बेदकर सामाजिक संस्थान, गिरिडीह के सचिव रामदेव विश्वबंधु के मुताबिक वनाधिकार अधिनियम 2006 के तहत जंगल में रहने वाले या वनभूमि में जोत आबाद करने वाले आदिवासी या परम्परागत गैर आदिवासी जो वन निवासी हैं, उन्हें आवेदन के 90 दिनों के अंदर भूमि पट्टा दिया जाने का प्रावधान है. वनभूमि का पट्टा वन विभाग की ओर से नहीं, बल्कि सरकार की ओर से दिया जा रहा है. इस अधिनियम के तहत ग्राम पंचायत का नहीं, बल्कि ग्रामसभा का जंगल पर अधिकार होगा.
वनाधिकार समिति ग्रामसभा के सदस्यों से गठित होगी जिसके सदस्यों में से एक तिहाई महिला होगी. सबसे पहले वन अधिकार समिति दावेदारों से प्रपत्र लेगी, दखल-कब्जा वाले आदिवासी या गैर आदिवासी अपने राजस्व गांव के वनाधिकार समिति को दावा पत्र देंगे जिसकी जांच वनाधिकार समिति करेगी तथा ग्रामसभा को जांच के बाद भेजगी. ग्रामसभा दावा पारित करेगा जिसमें अध्यक्ष व सचिव अनुशंसा कर अंचल को भेजेगें, अंचल फिर से जांच कर अनुमंडल को भेजेगा एवं अनुमंडल जिला स्तर पर बनी कमिटी को भेजेगा.
विश्वबंधु के मुताबिक वनाधिकार अधिनियम के त्वरित ढंग से लागू होने में सबसे बड़ा बाधा वन विभाग है. वह नहीं चाहता है कि वनभूमि आदिवासियों को मिले. दिलचस्प स्थिति तो यह है कि सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को वनाधिकार अधिनियम की जानकारी नहीं है. गांव स्तर पर गठित वनाधिकार समिति के सदस्यों को पता भी नहीं है कि वे वनाधिकार समिति के सदस्य हैं.
वनाधिकार कानून 2006 विषय पर एक जनसुनवाई का कार्यक्रम प्रखंड मुख्यालय, किस्को, जिला लातेहार में रखा गया था. इसमें 113 आदिवासी लोगों ने शिरक्त की. कार्यक्रम में बतौर अतिथि वक्ता कामिल टोपनो, सदस्य वनाधिकार समिति ने बताया कि उन्होंने कई लोगों का आवेदन भरकर एक वर्ष पहले अंचल कार्यालय में जमा करवाया था, परंतु अब तक वन भूमि पट्टा नहीं दिया गया है. उल्टा वन विभाग ने हाल में वन भूमि अतिक्रमण करने का नोटिस निर्गत करते हुए 6000 रुपये का अर्थदंड लगा दिया.
डॉ. नीरज के अनुसार झारखंड में आजतक 20484 वनाधिकार समितियों का गठन हो चुका है और 15296 दावे निर्गत किए जा चुके हैं. अब तक 37678.93 एकड़ वनभूमि वितरित की गयी है तथा 16958 दावे निरस्त किए गए हैं. झारखंड के 12 जिलों में एक-एक प्रखंड़ से दो-तीन पंचायतों तथा उक्त पंचायतों के तीन-चार गांवों में बेसलाइन सर्वे कराया गया है. सर्वे के बाद जनसुनवाई कार्यक्रम आयोजित किया गया तथा 6 जिलों में वनाधिकार कानून के तहत वनभूमि पट्टा के लिए सामूहिक रूप से आवेदन दिलाया गया.
सर्वेक्षण से पता चला है कि अभी भी लोग वनाधिकार कानून के बारे में नहीं जानते. संथाल परगना के चार जिलों गोड्डा, पाकुड़, साहेबगंज और जामताड़ा में बहुत कम दावे दिए गए हैं. दावे में सामुदायिक पट्टा नहीं के बराबर है. धनबाद जिले के तोपचांची प्रखंड में अब तक 45 विरहोर परिवारों को पट्टा मिला है. 150 दावा पत्र अंचल कार्यालय में एक साल से लंबित हैं. बोकारो जिला के नावाडीह प्रखंड में अब तक 200 लोगों को पट्टा मिल चुका है तथा 14 पट्टा तीन महीने से वितरण के लिए तैयार है परंतु आज तक वितरित नहीं किया गया है.
दुमका जिले में 1047 दावा पत्र प्राप्त हुइ जिनमें 897 आवेदन स्वीकृत किए गए तथा 150 आवेदन निरस्त किए गए. अब तक 409 पट्टों का वितरण हुआ है. पलामू प्रमडल में 690 दावा पत्र जमा किए गए जिसमें 171 लोगों को वनभूमि पट्टा दिया जा चुका है. गिरिडीह जिला में अबतक 3213 लोगों को पट्टा निर्गत किया गया है. जनसुनवाई कार्यक्रम में धनबाद जिले के तोपचांची अंचलाधिकारी चिन्टु दोरायबुरू ने स्वीकार किया कि अबतक मात्र 45 विरहोर परिवारों को पिछले वर्ष मुख्यमंत्री के हाथों वनभूमि का पट्टा वितरित करवाया गया था तथा अंचल कार्यालय में आज भी 150 दावा पत्र लंबित है.
बोकारो जिला के नावाडीह अंचलाधिकारी संजय कुमार ने भी स्वीकार किया कि अबतक मात्र 200 लोगों को ही पट्टा दिया गया है. 2 माह पूर्व 14 आदिवासी परिवारों का पट्टा बनकर अंचल कार्यालय में तैयार है, परंतु वितरित नहीं किया गया है. देवघर जिले के मधुपूर अनुमंडल के अनुमंडलाधिकारी वनाधिकार कानून के संबंध में अनभिज्ञता जाहिर की.
गौरतलब है कि वनाधिकार कानून को सही ढंग से लागू करने में वन विभाग रोड़ा लगा रहा है. वर्ष 2009 के शुरूआती महीनों में वनविभाग के अधिकारियों ने वनरोपण के नाम पर आदिवासियों को उनके पुश्तैनी वनभूमि से जबरन हटा दिया. लातेहार जिले में वर्ष 2009 में फरवरीमें कई फर्जी मुकदमें वैसे आदिवासियों पर किये गये, जिन्होंने वनरोपण का विरोध किया था. इनमें से दो व्यक्तियों को गिरफ़्तार भी किया गया था.
अगस्त 2009 में कई वैसे आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी वनभूमि से खदेड़ दिया गया तथा कई जेल में भर दिए गए. वर्ष 2005 से ही वनरोपण के नाम पर ग्रामीण आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी वनभूमि से बाहर निकाला जा रहा है. वन विभाग ने मनमाना रवैया इसलिए भी अपनाया क्योंकि राज्य सरकार ने अक्टूबर 2009 तक वनाधिकार कानून के तहत स्पष्ट आदेश नहीं किया था तथा अधिनियम का क्रियान्वयन का पूरा दायित्व उपायुक्तों के कंधों पर था.
केन्द्र सरकार ने जनजातीय कल्याण मंत्रालय के हस्ताक्षेप के कारण राज्य सरकार ने जब वर्ष 2010 के शुरूआती महीने में उपायुक्तों पर वनाधिकार अधिनियम लागू करने के लिए दबाव बनाया तो वर्ष 2010-2011 तक लगभग 2000 आदिवासी लोगों को वनभूमि पट्टा दिया गया, जबकि अन्य परम्परागत वनवासियों के दावे की अवहेलना की जाती रही है. सूत्रों के अनुसार सामुदायिक
दावे की भी पूर्णत अवहेलना की जा रही है.
वन विभाग आज भी राष्ट्रीय उद्यान, टाइगर रिजर्व व अभ्यारण्यों पर आदिवासियों के दावे स्वीकार करने से इंकार करता रहा है. उसका कहना है कि उपनिवेशिक काल से ही रिजर्व वन की मान्यता उन्हें मिली हुयी है. हालांकि कुछ व्यक्तिगत पट्टे हजारीबाग वन्यजीव अभ्यारण्य में आदिवासियों को निर्गत किये गये हैं, जबकि झारखंड में कुल 28 वन्य ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदलने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है. बहरहाल वनाधिकार कानून 2006 ठीक ढंग से लागू करें तो उग्रवाद की समस्या का समूल नाश हो सकता है.
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