Monday, 04 February 2013 10:52 |
जनसत्ता 4 फरवरी, 2013: गार्गा चटर्जीइस घड़ी आशीष नंदी होना आफत को गले लगाना है। तकनीक के इस ताबड़तोड़ दौर में जहां बोले गए शब्द ध्वनि की रफ्तार को पछाड़ रहे हों, उनका अर्थ पीछे छूटता जा रहा, तो यह देख कर जरा भी अचरज नहीं होता कि साहित्य के एक समारोह में आशीष नंदी के 'जातिसूचक' शब्दों को कुछ विवाद प्रेमी लोग लपक लें। असल में सांप्रदायिकता के छद्म विरोध की तरह जाति का ऊपर-ऊपर से विरोध करना इस अभिजन जमात के लिए अपनी मुक्ति का सबसे आसान रास्ता रहा है। लेकिन इसे विडंबना ही कहिए कि माघ के इस महीने में, जब कुंभ जोरों पर है, तो भी इस जमात को चैन नहीं मिल रहा। इसलिए बहुत सारे लोगों को नंदी के वक्तव्य के बहाने एक और शगल मिल गया है। गौर करें कि इस समूचे उपमहाद्वीप में जाति और आर्थिक विशेषाधिकार के बगैर किसी को कोई अवसर ही नहीं मिलता। लोगों की आकांक्षाएं और उपलब्धियां कानून के एक ऐसे ढांचे से निर्धारित होती हैं जो अतीत और वर्तमान की सच्चाइयों को स्वीकार नहीं करना चाहता। ऐसे में इन थोपी हुई प्रतिकूलताओं से निजात पाने के लिए जो रास्ते बचते हैं वे अनिवार्य रूप से गैर-कानूनी होते हैं। और हम इसे हम मजे से भ्रष्टाचार कहने लगते हैं। सच तो यह है कि अगर इन लोगों के पास ये गैर-कानूनी कहे जाने वाले उपाय न होते तो चीजें आज से भी ज्यादा असहनीय और बदशक्ल रहतीं। आशीष नंदी के वक्तव्य पर कुछ आरक्षण-विरोधी भी कुलांचे भर रहे हैं। यह देखना वाकई एक साथ त्रासद और मजेदार है कि समझदारी का यह मोतियाबिंद किस तरह अलग-अलग खेमों में एक साथ खुशी और एतराज का सबब बन गया है। लोग इस वक्तव्य की आड़ में अपने अपने पूर्वग्रहों के अनुसार गुस्से और खुशी का इजहार कर रहे हैं। नंदी के उस बयान को, जिसमें बंगाल को पाक-साफ करार देने की बात कही गई है, तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। वे असल में उस धारणा के पेच खोल रहे थे जिसमें भ्रष्टाचार-मुक्त राजनीति को बंगाली भद्रलोक- कम्युनिस्टों और कांग्रेसजनों- की राजनीतिक संस्कृति का सहज गुण मान लिया गया है। अगर नंदी यह कहते कि उच्च जातियों के लोग सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं तो कोई हंगामा नहीं होता, क्योंकि वर्चस्वशाली समूहों पर आरोप लगाने की कुव्वत असल में उन्हीं समूहों ने भोथरी की है जो जातिवाद के विरोध का तमगा लगाए घूमते हैं। यही वजह है कि कबीर कला मंच के उत्पीड़न पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मंत्र जपने वाले चुप्पी साध लेते हैं। असल में ऐसे समूह हमेशा दोहरी भूमिका में रहते हैं। मौका मुहाल देख कर वे झट से चोला बदल लेते हैं। आशीष नंदी के बयान से भड़की यह प्रतिक्रिया इन अभिजात समूहों के जाति-विरोध की लेटलतीफी को ही जाहिर करती है। हमारे पास अगर भर्त्सना करना ही एकमात्र उपाय रह गया है तो यह वाकई दुखद है। उनकी बात का मूल भाव यह था कि बंगाल में भ्रष्टाचार इसलिए दिखाई नहीं देता क्योंकि वहां दलित, पिडड़े और आदिवासी राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं हो पाए हैं। इसका मतलब यह है कि राजनीतिक दायरे में उच्च जातियों की चौधराहट के कारण वहां एक ऐसी व्यवस्था बनती गई है जिसमें भ्रष्टाचार इतने महीन और चाक-चौबंद तरीके से किया जाता है कि वह दिखाई ही नहीं देता। बंगाल की बेदाग लगती राजनीति का कुल रहस्य यही है। इस तरह नंदी साफ कहते हैं कि बंगाल की राजनीति इसलिए निष्कलंक लगती है क्योंकि वह हाल में उभरे राजनीतिक समूहों के बजाय पूराने अभिजन समूहों के कब्जे में रही है। ऐसे में इस जरा से जटिल तर्क से यह सपाट अर्थ निकालना कि पश्चिम बंगाल की भ्रष्टाचार-मुक्त राजनीति के पीछे सत्ता के शीर्ष पर लंबे समय से रहने वाली उच्च जातियों की सदाशयता है तो इसे समझ की कमजोरी ही कहा जाएगा। आखिर में, व्यक्तिजब अपनी बात बोल कर कहता है तो वह शब्दों को हमेशा उद्धरण चिह्नों में समेट कर नहीं बोल सकता। लिहाजा जब 'बेदाग' और 'भ्रष्ट' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है तो इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि उन्हें बोलते हुए व्यक्ति सपाटबयानी कर रहा है कि वक्रोक्ति का सहारा ले रहा है। मुझे लगता है कि आशीष नंदी जिस तरह बोलते रहे हैं वह चैनलों के मिजाज से मेल नहीं खाता। यहां इस संदर्भ को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि नंदी ने जो कुछ कहा था वह तरुण तेजपाल की बात का जवाब था। लेकिन चैनलों की दुनिया में जहां बातों को उनकी संपूर्णता में देखने की जहमत नहीं उठाई जाती, अगर कोई बात मुंह से निकल जाए तो वह अपने आप में एक किस्सा बन जाती है। और लोगों के पूर्वग्रहों से छन-छन कर वह कोई और ही अर्थ ग्रहण कर लेती है। आशीष नंदी की शैली इन माध्यमों के अनुकूल नहीं बैठती। वे पारंपरिक अर्थ में अकादमिक नहीं है। वे कई दशकों से उन वंचनाओं और तिरस्कृत संवेदनाओं को सार्वजनिक ढंग से उठाते रहे हैं जिनके बारे में बहुत सारे लोग खुल कर बोलना नहीं चाहते, लेकिन निजी जीवन में उनके अवदान को स्वीकार करते हैं। आशीष नंदी इस नाते भी धन्यवाद के पात्र हैं। |
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समझदारी का मोतियाबिंद
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