अजेय कुमार जनसत्ता 17 जुलाई, 2013: तुर्की की सत्तारूढ़ पार्टी का नाम है 'न्याय एवं विकास पार्टी' (तुर्की भाषा में इसे एकेपी कहते हैं) जो पिछले तीन आम चुनावों में लगातार जीतती रही है और जिसके प्रधानमंत्री आरटी एर्दोगान व्यक्तिगत तौर पर लोकप्रिय रहे हैं और जिन्हें हरफनमौला का खिताब राजनीतिक विशेषज्ञों ने दे रखा है, उन्होंने यह कभी ख्वाब में भी न सोचा होगा कि हजारों-लाखों की संख्या में साधारण नागरिक उनके खिलाफ नारे लगाते हुए इस्तांबुल के केंद्र में स्थित तकसीम चौक पर जमा हो जाएंगे। तकसीम चौक दरअसल इस्तांबुल का जंतर मंतर है जहां विरोध-प्रदर्शन आयोजित होते रहते हैं। तकसीम चौक के साथ जुड़ा हुआ एक हरा-भरा पार्क है जिसे लोग गेजी पार्क कहते हैं। इस पार्क को शॉपिंग मॉल में बदलने का तुर्की सरकार का फैसला लोगों के गले नहीं उतरा और जब उन्हें पता चला कि इस मॉल की शक्ल आटोमन मिलिट्री बैरक की तरह होगी तो वे आग-बबूला हो गए। दरअसल इस फैसले ने एक चिनगारी का काम किया। पिछले कुछ वर्षों से सरकार के ऐसे कई फैसलों के खिलाफ आग सुलग रही थी। इससे पहले कई ऐतिहासिक इमारतों को गिरा कर शॉपिंग मॉल बनाने के सिलसिले ने पिछले तीन-चार वर्षों से जोर पकड़ा है। यह उपभोक्तावाद की इतिहास पर विजय पाने की कहानी है। 2010 में एक एमेक नामक सिनेमाघर को बंद करने के एलान पर भी हंगामा हुआ था। यह सिनेमाघर 1924 में बना था और धीरे-धीरे तुर्की की राजनीतिक और सांस्कृतिक अस्मिता का केंद्र बन गया था। अच्छे सिनेमा के प्रशंसकों और राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ताआें ने मिल कर इस सिनेमाघर को विध्वंस से बचाया। इसलिए तकसीम चौक पर उमड़े हुजूम को अचानक पैदा हुए स्वत:स्फूर्त विरोध की तरह देखना सही नहीं होगा। सच्चाई यह है कि तुर्की की जनता अपनी ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत को लेकर सचेत है। एर्दोगान ने जब लगभग बारह वर्ष पहले सत्ता संभाली तो उनकी छवि एक धर्मनिरपेक्ष नेता की थी। महिलाओं और धर्म को लेकर उनकी दृष्टि आधुनिक थी। तुर्की में बुर्के का चलन बहुत कम है, हमारे यहां जिस तरह का मुसलिम पर्सनल लॉ है, वहां नहीं है। मुसलिम रूढ़िवादियों का दखल दैनिक नागरिक जीवन में बहुत कम रहा है। उदाहरण के तौर पर निकाह को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है। हर मुसलिम और गैर-मुसलिम शादी का पंजीकरण करवाना अनिवार्य है। शिक्षा में भी आधुनिक मूल्यों को तरजीह दी जाती रही है। तुर्की के इतिहास पर नजर घुमाएं तो पता चलता है कि 1980 में सेना ने वहां गद््दी हथिया ली थी। सैन्य शासन जैसा होता है, वैसा ही था। तमाम जनतांत्रिक अधिकारों पर अंकुश था। हड़तालों और जुलूसों पर पाबंदी थी। कई कम्युनिस्टों को फांसी दी गई, कइयों को जेल में डाला गया। एर्दोगान की पार्टी एकेपी ने जब 2002 में सत्ता संभाली तो उसने पहला काम फौजी अफसरों को हटाने का किया। जनता से उन्हें भरपूर समर्थन मिला जो फौजी शासन से तंग आ चुकी थी। लोकतंत्र की बहाली हुई। पर धीरे-धीरे एर्दोगान ने उन अफसरों की जगह अपनी पार्टी के लोगों को बड़े-बड़े ओहदों पर बिठाना शुरू कर दिया। वामपंथियों ने 2002 में एर्दोगान का बाहर से समर्थन जनाकांक्षाओं के अनुरूप किया था, मगर धीरे-धीरे जब एर्दोगान ने शासन के हर भाग पर अपने लग्गे-बग्घे बैठाने शुरू किए तो वाम ने हाथ खींच लिए। सेना के हर उस अफसर को दरवाजा दिखाया गया जो किसी सत्तारूढ़ पार्टी के निर्देशों पर नहीं बल्कि स्वतंत्र ढंग से राष्ट्र की सेवा करना चाहता था। कुछ अफसरों को यह कह कर निकाला गया कि वे भविष्य में सत्ता पलटने में कामयाब हो सकते हैं। इन सबका खुलासा जब पत्रकारों ने किया तो उन्हें भी दमन का शिकार होना पड़ा। उन पर इल्जाम लगाया गया कि वे ऐसे अफसरों की साजिश में भागीदार हैं। उनकी एक इंटरनेट समाचार सेवा- जो एकेपी की आलोचना करती थी- के पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया। उनकी तथाकथित साजिशों के पुख्ता सबूत जुटाने में विफल होने पर सत्ता-पलट की मनगढ़ंत योजनाएं उनके कंप्यूटरों पर हैक करके डाल दी गर्इं। आज तुर्की की जेलों में बड़ी संख्या में पत्रकार सजा काट रहे हैं। सेना और पत्रकारों से निपटने के बाद एर्दोगान ने अपना निशाना कुर्दों के संगठन पर साधा। कई प्रगतिशील कुर्दों को, जो एकेपी के आलोचक थे, जेल में डाल दिया गया। तुर्की-सीरिया की सीमा पर अमेरिकी मिसाइलें तैनात करके एर्दोगान ने पूरे विश्व को दिखा दिया है कि उसे किन ताकतों का वरदहस्त प्राप्त है। पर एर्दोगान गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर हैं। पिछले वर्ष विश्व आर्थिक मंच की बैठक हुई तो टीवी पर एक साक्षात्कार में एर्दोगान ने इजराइल द्वारा गाजा पर किए हमले की कड़ी निंदा की। मगर इस नाटक के दो सप्ताह बाद ही, तुर्की के दैनिक अखबार 'सबा' को दिए अपने साक्षात्कार में एर्दोगान ने कहा, ''आपसी हितों के आधार पर हमारे संबंध इजराइल से चलते रहेंगे।... हमारे जनरल स्टाफ ने भी घोषणा की है कि तुर्की के हितों के अनुसार इजराइल से संबंध बने रहेंगे। सैन्य ठेके और क्रय-आदेश ज्यों के त्यों रहेंगे। हमने कई नए और पुराने समझौते इजराइल से किए हैं। ये सब लागू रहेंगे।'' 'कभी हां, कभी ना' की गिरगिटी नीति पर चलते एर्दोगान पिछले लगभग बारह वर्षों से सत्ता में बने हुए हैं। गेजी पार्क में दिखे जन-आक्रोश रैली से पहले तुर्की में कई प्रदर्शन उसकी विदेश नीति के विरुद्ध हुए। सीरिया के विरुद्ध तुर्की की धरती का इस्तेमाल अमेरिका कर रहा है और तुर्की के लोगों में इस पर घोर नाराजगी है। इस्तांबुल के कादिर हास विश्वविद्यालय ने पिछले साल छब्बीस दिसंबर से इस साल छह जनवरी के बीच तुर्की के छब्बीस शहरों में एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में 89.6 फीसद लोगों का मत था कि सीरिया में विपक्षी ताकतों को समर्थन नहीं देना चाहिए। तुर्की धर्मनिरपेक्ष देश है। वह सीरिया में विपक्षी गठबंधन का समर्थन कैसे कर सकता है, जबकि इस गठबंधन में इस्लामी जेहादी ताकतें शामिल हैं। एर्दोगान ने यह सोचा होगा कि सीरिया में तो असद सरकार गिरने वाली है, इसलिए सीरिया के विपक्षी गठबंधन को मदद देकर भविष्य में तुर्की अपने पड़ोसी मुल्क को प्रभावित कर सकता है, इसके साथ वह साम्राज्यवादी ताकतों का भी समर्थन पा लेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। असद की सरकार अब भी डटी हुई है और विपक्षी गठबंधन को पीछे हटना पड़ा है। अमेरिका भी अब त्रिपक्षीय वार्ता के लिए राजी हो गया है। तमाम विपक्षी पार्टियां इस मुद््दे को लेकर एकजुट हैं। तुर्की की संप्रभुता और अन्य अहम सवालों पर फैसला लेने की उसकी स्वतंत्रता ही खतरे में पड़ गई है। इसलिए इस्तांबुल और अंकारा ही नहीं, देश के कई अन्य शहरों में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं और इन्होंने एर्दोगान सरकार की नींद हराम कर दी है। तुर्की में भगतसिंह की तरह एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी डेनिस गेजमी हुए हैं जिन्हें 1972 में केवल पच्चीस वर्ष की उम्र में फांसी पर लटका दिया गया था। जब विभिन्न शहरों में आंदोलनकारियों के हाथों में डेनिस गेजमी के पोस्टर देखे गए तो एर्दोगान ने फौरन कम्युनिस्ट पार्टी पर इल्जाम लगाया कि उसी की साजिश के चलते इतना हंगामा हो रहा है। अंकारा में कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय पर हमला किया गया, कई कम्युनिस्टों को पुलिस घर से उठा कर ले गई। जन-उभार को बदनाम करने के लिए सरकार जनता के विभिन्न समूहों के बीच घृणा का बीज बोने का काम भी कर रही है। यहां इसका जिक्र करना भी उचित होगा कि पिछले कुछ वर्षों से तुर्की सरकार अपना धर्मनिरपेक्ष चोला उतारने का प्रयास भी कर रही है। धार्मिक कामकाज मंत्रालय में अब बड़ी संख्या में धर्मगुरु और धर्मशिक्षक बडेÞ-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं। नागरिक विवादों को सुलझाने के लिए जहां पहले केवल कानून देखा जाता था, अब धार्मिक पक्ष भी देखा जाने लगा है। अब वहां धर्म की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है। हो सकता है कल एर्दोगान 'इस्लाम खतरे में है' का नारा देकर अपनी कुर्सी बचाने में लग जाएं। इसका एक कारण और भी है। तुर्की ने खाड़ी के देशों से बहुत ज्यादा ऋण ले रखा है। ये वे देश हैं जहां जनतंत्र न होकर इस्लामी कानून की सत्ता है, मुल्लाओं के फतवे हैं, सार्वजनिक जीवन में धर्म का दखल है, स्त्रियों की स्वतंत्रता पर कई अंकुश हैं। लिहाजा ऋणदाता यह भी देखना चाहेंगे कि तुर्की की धर्मनिरपेक्षता का 'दुष्प्रभाव' उनके देश पर न पड़े। इसलिए एर्दोगान भी अब धीरे-धीरे ऋणदाताओं के सुर में सुर मिलाते दिखते हैं। यूरोप में तुर्की को एक मॉडल देश समझा जाता रहा है। 2011 के पहले छह महीनों में तुर्की की वार्षिक वृद्धि दर दस फीसद थी जो कि इस साल के पहले चार महीनों में घटते-घटते शून्य के आसपास आकर रुक गई। इसका मुख्य कारण यह रहा कि दो वर्ष पहले सरकार ने अल्पावधि बैंक ऋणों की मदद से 'उपभोक्ता बुलबुला' पैदा करने की कोशिश की थी। उपभोक्ता बुलबुला तो उड़ गया लेकिन अर्थव्यवस्था में ठहराव होते हुए भी बैंकों ने ऋण देने की मुहिम जारी रखी। यह ऋण हर वर्ष पिछले वर्ष के मुकाबले तीस फीसद बढ़ता गया। लिहाजा तुर्की का चालू वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के दस प्रतिशत के आसपास पहुंच गया। तुर्की ने तब विदेशी बैंकों से ऋण लेना शुरू किया जो पिछले चार वर्षों में तिगुना हो चुका है। इन परिस्थितियों में वृद्धि दर प्रभावित हो रही है। इस सब के चलते अब तुर्की के साधारण नागरिकों को कहा जा रहा है कि वे देश के ऋण को देखते हुए अपना खर्च कम पैसे में चलाएं। दूसरी ओर संसद में, एर्दोगान की सरकार राष्ट्रीय अभयारण्यों और वनों को भी 'प्रगति' के नाम पर बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों के हवाले करने के लिए प्रस्ताव लाने को उत्सुक है। पिछले कुछ दिनों से प्रदर्शनकारियों की खबरों पर मीडिया चुप्पी साधे हुए है, पर वहां की जनता चुप नहीं है। तुर्की के पत्रकार, आज भी तमाम धमकियों के बावजूद, सक्रिय हैं। उसी तरह डॉक्टर भी, जेलों में ठूंसे जाने की सार्वजनिक घोषणाओं के बावजूद, विरोध-कार्रवाइयों में घायल प्रदर्शनकारियों की मरहम-पट््टी कर रहे हैं। एर्दोगान की समस्याएं दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। तुर्की के अखबार 'हुर्रियत' के अनुसार सेना का मनोबल इतना गिरा हुआ है कि जब से ये विरोध-प्रदर्शन शुरू हुए हैं, लगभग एक हजार अफसरों ने इस्तीफा दे दिया है और छह अफसरों ने आत्महत्या कर ली है। एर्दोगान बेशक अपनी सरकार बचा लें, पर अब उनकी कोई साख नहीं बची है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/49016-2013-07-17-04-49-37 |
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