Tuesday, 16 July 2013 10:05 |
गणपत तेली दुख जरूर है, दुख तो अगर कुत्ते का बच्चा कार के नीचे आ जाता है तो भी होता है, चाहे कार खुद चला रहे हों या कोई और। उन्होंने कहा कि दंगों के दौरान जितनी बुद्धि उन्हें भगवान ने दी थी, उसके अनुसार उन्होंने सही काम किया। यह विरोधाभासी बयान भी उन्होंने दिया कि वे अपने आप को एक हिंदू राष्ट्रवादी मानते हैं, लेकिन वे सेक्युलर हैं। सेक्युलर का मतलब उनके लिए 'इंडिया फर्स्ट' है। इससे भी आगे मोदी ने कहा कि 2002 की घटनाओं पर उन्हें दुख हुआ और दुख तो पिल्ले के कार के नीचे आ जाने का भी होता है, लेकिन पिल्ले के कार के नीचे आ जाने और 2002 की घटनाओं की कोई तुलना नहीं की जा सकती है। पिल्ले का कार के नीचे आ जाना एक दुर्घटना होगी, लेकिन 2002 की घटनाएं सुनियोजित तरीके से अंजाम दी गई थीं। इशरतजहां हत्याकांड दुर्घटना नहीं थी। गुजरात दंगों के दौरान मानवाधिकार संगठनों द्वारा जारी की गई विभिन्न तथ्यान्वेषी रिपोर्टों में यह स्पष्ट था कि वे दंगे सुनियोजित थे। गुजरात के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों- आरबी श्रीकुमार और संजीव भट्ट के बयानों के बाद यह भी पता चला कि कई मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी उन षड्यंत्रों में शामिल थे। सोहराबुद्दीन, तुलसी प्रजापति और इशरतजहां फर्जी मुठभेड़ की चार्जशीट से यह भी स्पष्ट हुआ कि उक्त सभी घटनाएं दुर्घटनाएं नहीं, बल्कि बड़े स्तर के नेताओं और अधिकारियों द्वारा सुनियोजित तरीके से अंजाम दी गई घटनाएं थीं। पिल्ले के दुर्घटना में शिकार होने का उदाहरण देकर मोदी ने न केवल अपनी असंवेदनशीलता का परिचय दिया, बल्कि दंगा पीड़ितों का मजाक उड़ाया है। भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के अन्य हलकों में सेक्युलर शब्द को काफी विचलित और चिढ़ पैदा करने वाला माना जाता है। उसका सीधा कारण यह है कि सेक्युलरवाद की मूल धारणा धर्म और राजनीति का अलगाव है। यूरोप में इस धारणा द्वारा पोप और गिरजाघरों को राजनीतिक क्षेत्र से अलग कर दिया था। मतलब यह कि अब धर्म और राजनीति अलग-अलग हैं। भारत में यह उसी रूप में तो लागू नहीं हुआ, लेकिन इसका यह आशय लिया गया कि राज्य किसी एक धर्म को प्रश्रय नहीं देगा। सेक्युलरवाद की यह धारणा भारतीय जनता पार्टी की धर्म आधारित राजनीति के मूल मकसद पर चोट करती है। भाजपा सिर्फ हिंदुओं की राजनीति करती है और सेक्युलरवाद इसकी इजाजत नहीं देता। लेकिन आधुनिक राज्यों के लिए सेक्युलरवाद इतना अहम सिद्धांत है कि उसे लांघ पाना आसान नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि हमारे यहां सेक्युलरवाद का प्रतिपक्ष सांप्रदायिक/ फासीवादी है, जिसका लांछन कोई व्यक्ति या दल खुद पर नहीं लगने देना चाहता। इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने कोई रास्ता न देख कर एक नायाब तरीका निकाला और कहना शुरू किया कि हम ही असली सेक्युलर हैं, हमारे अलावा सभी छद्म धर्मनिरपेक्ष हैं। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी नफरत की राजनीति के लिए सेक्युलरवाद को सिर के बल खड़ा करते हुए समान नागरिक संहिता की मांग को इससे जोड़ दिया। जबकि सेक्युलरवाद का एक उद्देश्य यह भी है कि धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकार सुरक्षित रहें। हालांकि भाजपा ने समान नागरिक संहिता के आधार पर अगड़ों-पिछड़ों, अमीरों-गरीबों, अल्पसंख्यकों-बहुसंख्यकों सभी को एक घाट का पानी पिलाने की मंशा पाली थी। खैर, यह फिर भी भाजपा द्वारा की गई सेक्युलरवाद की एक विकृत व्याख्या थी, लेकिन मोदी ने जनता को बेवकूफ बनाने की दिशा में इससे भी आगे बढ़ते हुए कहा कि मेरे लिए सेक्युलरवाद का मतलब है 'इंडिया फर्स्ट'। अब बताइए, सेक्युलरवाद की यह कौन-सी परिभाषा हुई! सेक्युलरवाद के मूल धर्म और राज्य-राजनीति के पार्थक्य का 'इंडिया फर्स्ट' से क्या संबंध है! दरअसल, यह भावुक अंधराष्ट्रवाद को संबोधित करने की एक कोशिश है, सेक्युलरवाद का इससे कोई मतलब नहीं है। यहां उन लोगों के बारे में कुछ कहा जाना ठीक रहेगा, जो यह सोच कर मोदीमय हो रहे हैं कि मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में उभार पिछड़ी जातियों के लिए मददगार होगा। यहां पर यह जान लेना आवश्यक है कि मोदी की चाबी राष्ट्रीय स्वयंसेवक नामक घोर जातिवादी संगठन के हाथ में है, जिसके सर-संघचालक नामक मुखिया कोई गैर-ब्राह्मण नहीं हुआ है। यह वही संघ परिवार है, जिसने तथाकथित निचली जातियों का शोषण और इस्तेमाल किया। ये वही मोदी हैं, जिन्होंने आदिवासियों का हिंदूकरण कराया और 2002 के दंगों में उनसे अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करवाए। अब जिस तरह सरकार के आदेश पालन के बावजूद फर्जी मुठभेड़ में पुलिस अधिकारी ही जेल गए हैं, उसी तरह जब कभी इन मामलों की न्यायिक जांच होगी तो संघ परिवार के उच्च वर्णीय नेता-कार्यकर्ता बच जाएंगे और वे आदिवासी ही फंसेंगे। बहरहाल, राष्ट्रीय राजनीति में तथाकथित कदम रखने के बाद अपने पहले ही साक्षात्कार से मोदी विवादों में आ गए हैं। इससे भाजपा द्वारा खुद को अल्पसंख्यकों की हिमायती पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिशों की पोल खुल गई और प्रति माह लाखों रुपए देकर मोदी की अपनी छवि सुधारने की कोशिशें भी नाकाम हुई।
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