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'मद्रास कैफे' में वरिष्ठ पत्रकार दिबांग का भी रोल है. फिल्म की शुरुआत में ही जब फिल्मी कलाकारों का नाम स्क्रीन पर उभरता है तो उसमें दिबांग का नाम भी आता है.. फिल्म में दिबांग ने छोटा सा लेकिन बढ़िया रोल किया है... फिल्म की कैनवास में दिबांग का चयन बिलकुल उपयुक्त जान पड़ता है. दिबांग लंदन की एक पत्रकार के न्यूज सोर्स बने हैं जो भारत-श्रीलंका-एलटीटीई-हथियार लाबी-वेस्ट के देश आदि के संबंधों के बारे में सूचनाएं पत्रकार को देते रहते हैं और एक निर्णायक मोड़ पर वह फिल्म के हीरो, जो भारतीय खुफिया अधिकारी है, को सटीक जानकारी व सुबूत मुहैया कराते हैं... दिबांग एक जमाने में देश के सबसे ज्यादा चर्चित मीडिया चेहरों में थे.. तब उनकी एनडीटीवी में तूती बोला करती थी.. लंबे समय से दिबांग किसी न्यूज चैनल में रेगुलर बेसिस पर तो नहीं कार्यरत हैं लेकिन वे विविध किस्म की सक्रियताओं के जरिए अपनी क्रिएटिविटी बरकार रखे हुए हैं, खुद को अपग्रेड करना जारी रखे हुए हैं... मैं दिबांग की सराहना इसलिए करता हूं क्योंकि उस आदमी ने एनडीटीवी से अलगाव के बाद भले ही कुछ वक्त अकेलेपन व डिप्रेसन में गुजारे हों पर बाद में उसने अपनी सरोकारी अलख और पत्रकारीय आत्मा को लगातार सक्रिय रखा.. ढेर सारे न्यूज चैनलों पर विशेषज्ञ के रूप में मौजूद रहने वाले दिबांग ने इस ऐतिहासिक फिल्म में भूमिका निभा कर अपने एक और रचनात्मक पक्ष को उजागर किया है.. कहते हैं न, आपमें दम है, न हारने का माद्दा है, जूझने का जुनून है तो कोई लाला, कोई संस्थान, कोई फैक्ट्री चाह कर भी आपको उपेक्षित, मजबूर, बेचारा नहीं बना सकती.. दिबांग ने एनडीटीवी से हटाए जाने के बाद अब तक की अपनी यात्रा के जरिए साबित किया है.. चैनलों से ढेर सारे सीनियर लोग हटाए जाते हैं या छोड़ जाते हैं पर अंततः वो अपनी नियति किसी नए चैनल के लिए बारगने करने, मालिक को पटाने, पूंजीपति को खोजने में झोंक देते हैं. कुछ ही लोग लिखने पढ़ने और अन्य क्रिएटिव जर्नलिस्टिक पक्ष को जगाने बढ़ाने में जुटते हैं. दिबांग उनमें से हैं. दिबांग के उन दिनों ढेरों लोग विरोधी हुआ करते थे जब वे एनडीटवी में सर्वेसर्वा किस्म के हुआ करते थे. दिबांग का नकचढ़ापन और बदतमीजी से बोलने की आदत के कारण हम जैसे लोग भी उनकी खिलाफत मुखालफत किया करते थे क्योंकि अपन का शुरू से मानना रहा है कि जो आदमी आपसे ठीक से बात नहीं कर सकता, वह चाहे लाख ठीक हो, असल में वो जूता मारने लायक होता है. इसी ठीक से बात न करने के व्यवहार के कारण मेरी दिल्ली में आते ही विनोद कापड़ी से लड़ाई भिड़ाई हो गई और इसके कारण दैनिक जागरण से मेरी नौकरी गई. बाद में कापड़ी व मेरी अदावत जारी रही और इसके कारण मुझे जेल तक जाना पड़ा. तो, जो बड़े भारी विद्वान लोग होते हैं, वे अगर अधीनस्थों से, जूनियरों से ठीक से बात करने की कला नहीं जानते, स्किल नहीं डेवलप कर पाते, वे जूतों से पीटने लायक ही होते हैं. जर्नलिज्म में जो लोग आते हैं उनमें से ज्यादातर अपने स्वाभिमान को सर्वाधिक प्राथमिकता पर रखते हैं. इसलिए किसी के आत्मसम्मान को छेड़ना, नीचा दिखाना, एब्यूज करना कतई सराहनीय नहीं हो सकता. हालांकि कई बार मैं भी फोन पर किन्हीं काल करने वाले साथियों को झिड़क देता हूं, डपट देता हूं, गरिया देता हूं, पर बाद में मुझे अफसोस होता है कि ऐसा क्यों किया मैंने. फिर भी सिद्धांततः यह मैं मानता हूं कि हर किसी को किसी से भी बहुत प्यार, विनम्रता और सम्मान के साथ बात करना चाहिए. अगर हम इतना भी नहीं कर पाएं तो हमारे सभ्य सुशिक्षित होने पर लानत है.. उम्मीद करते हैं कि समय के साथ दिबांग भी बदल चुके होंगे और उनका माइंडसेट भी बदला होगा. समय और अनुभव बहुत कुछ सिखाता बदलता रहता है और यह हर आदमी के साथ घटित होता है. जैसा आप कल होते हो, जरूरी नहीं कि परसों भी आप उसी मनःस्थिति में खड़े मिलें. फिलहाल मैं दिबांग को ''मद्रास कैफे'' के जरिए शुरू की गई नई पारी के लिए बधाई देता हूं और उम्मीद करता हूं कि वे इसी जज्बे के साथ अपने अंदर के पत्रकार को, प्रतिभा को अभिव्यक्त करते रहेंगे...
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7 years ago
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