Tuesday, October 22, 2013

মমতার অখন্ড চন্ডীপাঠে কুপোকাত পৈতে তেকে পিন্ডদান মেনে নিল সিপিএম धर्म निरपेक्ष कामरेडों का धर्म आखिरकार ब्राह्मणधर्म,जो हम कहते रहे पोलित ब्यूरो ने मान ही लिया সেই তবে সত্য বলিয়া প্রমাণিত হল লাল এবে গেরুয়া হইয়া প্রকাশিত হইল ভাগ করো দেখি শুদ্ধ অশুদ্ধ রক্ত এবার

মমতার অখন্ড চন্ডীপাঠে কুপোকাত

পৈতে তেকে পিন্ডদান

মেনে নিল সিপিএম

धर्म निरपेक्ष कामरेडों का

धर्म आखिरकार ब्राह्मणधर्म,जो हम कहते रहे

पोलित ब्यूरो ने मान ही लिया

সেই তবে সত্য বলিয়া প্রমাণিত হল

লাল এবে গেরুয়া হইয়া প্রকাশিত হইল

ভাগ করো দেখি শুদ্ধ অশুদ্ধ রক্ত এবার

बाबासाहेब त्यांना विचारत कि ज्या प्रार्थना तुम्ही केल्या त्यांचा अर्थ तुम्हाला समजला का ? यावर ते संतापून म्हणत कि, तू अस्पृश्य आहेस व तुला कशाला ह्या उठाठेवी हव्यात ? '


पलाश विश्वास


মমতার অখন্ড চন্ডীপাঠে কুপোকাত

পৈতে তেকে পিন্ডদান

মেনে নিল সিপিএম

মমতা দিদির কারিশ্মা

বিপর্যয় মোকাবিলায়

মা কালির দরবারে

দুর্গার নালিশ ঠুকে

বাজারে কাপড় খুলে দিল

সিপিএম ধর্ম বিরোধের


अब देखिये हुजूर जो

हम कह रहे थे सालोसाल

माकपा का धर्मविरोध

अंततः मनुस्मृति राज

का पर्याय रहा वाम

राजकाज में


दीदी के अखंड चंडीपाठ

दुर्गा के नाम मां काली के

दरबार में नालिश

273 पूजा आयोजनों का

के रिकार्ड बाहैसियत मुख्यमंत्री

फिर नमाज पढ़ने में

भी अद्वितीय दक्षता

धर्म की शरण में है

अब मार्क्सवाद


बाबासाहेब त्यांना विचारत कि ज्या प्रार्थना तुम्ही केल्या त्यांचा अर्थ तुम्हाला समजला का ? यावर ते संतापून म्हणत कि, तू अस्पृश्य आहेस व तुला कशाला ह्या उठाठेवी हव्यात ? '

পৈতে থেকে পিণ্ডদান মেনে নিল সিপিএম

কমরেড, যদি 'মায়ের পায়ে জবা হয়ে' ফুটতে আপনার মন চায়, আপত্তি করবে না সিপিএম৷ মনসার থানে দুধকলা দিন অথবা পিরের দরগায় সিন্নি--আপনি আর অচ্ছুত নন৷ পৈতে ঝুলিয়ে গায়ত্রী মন্ত্র জপ অথবা গয়ায় পিণ্ডদান--কিছুতেই আপত্তি নেই মার্ক্সবাদী কমিউনিস্ট পার্টির৷ শারদোত্‍সবে তৃণমূলের বোলবোলাও দেখে মার্ক্সবাদের কিঞ্চিত্‍ বঙ্গীকরণ হচ্ছে৷ কেউ আগেই বুঝেছেন, কেউ এখন বুঝছেন, দ্বন্দ্বমূলক বস্ত্তবাদ যতই 'অভ্রান্ত' হোক, মনসা-শীতলার দাপটও কম নয়৷ বিশেষ করে চাঁদ সদাগরের বাংলায়৷ ধর্ম 'আফিং'৷ কিন্ত্ত সেটা চেখেও দেখতে চান বহু কমরেড৷ শুধু চেখে দেখাই বা কেন, অনেক কমরেড বুঁদও হয়ে থাকেন৷ কিন্ত্ত মুখে বলতে বাধো বাধো লাগে৷ সিপিএম নেতারা তাই সিদ্ধান্ত নিয়েছেন, কারও ব্যক্তিগত ধর্মাচরণে দল বাধা দেবে না৷ মানে, 'পেটে খিদে মুখে লাজ' দশা থেকে রেডকার্ডধারী সদস্যরা মুক্তি পাচ্ছেন৷ তিনি ধর্মে থাকতে পারেন, জিরাফেও৷ তা হলে কি ধর্মের গা থেকে আফিংয়ের নামাবলি সরে যাচ্ছে? দলের একাংশ বলছেন, পার্টিকর্মীরা যেদিন বুঝবেন, সর্বশক্তিমান বলে কিছু হয় না, সেদিন আপনা থেকেই ধর্মাচরণে ভাটা পড়বে৷ কিন্ত্ত সেটা কবে বুঝবেন? আগামী পাঁচ হাজার বছরেও সে সম্ভাবনা নেই৷ তাই শীর্ষ নেতৃত্বের সিদ্ধান্ত, রেড কার্ডধারীরা মন্দির-মসজিদ-গির্জা-গুরুদ্বারে যেতে পারেন৷ অঞ্জলি দিতেও বাধা নেই৷ পার্টি আর কাউকে শাস্তি দেবে না৷




সিপিএমের রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলী ও কেন্দ্রীয় কমিটির সদস্য গৌতম দেবের বক্তব্য, 'কেরলে আমাদের পার্টির লোকেরা চার্চে যায়৷ এ রাজ্যেও কেউ চাইলে পুজো করতেই পারেন৷ ব্যক্তির ধর্মাচরণে কোনও বাধা নেই৷' সেলিম বলেছেন, 'পুজোআচ্চা নিয়ে আমাদের পার্টিতে কোনও ডু'স অ্যান্ড ডোন্টস নেই৷ পুজো করলে বা মন্দির-মসজিদ-গির্জায় উপাসনা করলে সদস্যপদ চলে যাবে, এমন নয়৷' বেচারা সুভাষ চক্রবর্তী৷ এবং বিনয় চৌধুরী৷ এবং শ্রীহীর ভট্টাচার্য৷ রেজ্জাক মোল্লাকে এখানে রাখা যাচ্ছে না৷ কারণ তাঁর ঘোষণাই ছিল, মার্ক্সের চেয়ে মহম্মদ বড়৷ অতএব 'চললাম হজে৷' দল তাঁর টিকিও ছুঁতে পারেনি৷ কিন্ত্ত সুভাষ চক্রবর্তী? তারাপীঠ মন্দিরে পুজো দিয়ে তিনি মা বলে হাঁক পেড়েছিলেন৷ তাতে জ্যোতিবাবুর কী রাগ! বলেছিলেন, 'ওর মাথা খারাপ হয়েছে৷ ওকে মৃত্যুভয় ধরেছে৷' সুভাষবাবু অবশ্য পাল্টা প্রশ্ন করেননি, 'আপনিও তো রামকৃষ্ণ মিশনে যান৷' বিনয় চৌধুরী কী করলেন? কিছুই করেননি৷ স্ত্রীর সঙ্গে তিরুপতি মন্দিরে গিয়েছিলেন৷ ভিতরে ঢোকেননি৷ আশপাশে ঘুরঘুর করছিলেন৷ তাতেই বোধহয় বিপ্লব অনেকটা পিছিয়ে যায়৷ দলের কন্ট্রোল কমিশন থেকে চিঠি আসে, 'আপনার এহেন আচরণের কারণ ব্যাখ্যা করুন৷' আর শ্রীহীরবাবু? পাড়ার পুজো মণ্ডপে একটু চণ্ডীপাঠ করেছিলেন৷ 'হাউ টু বি আ গুড কমিউনিস্ট' বইয়ে চণ্ডীপাঠের বিধান নেই৷ তাই শ্রীহীরবাবুকে ডেকে সতর্ক করে দেয় দল৷ তাতে কি শ্রীহীরবাবুর চণ্ডীপাঠের ইচ্ছে চিরতরে ঘুচেছে? তিনিই জানেন৷




কেন এই 'পরিবর্তন'? সিপিএম সূত্রের খবর, এতে জনসংযোগ বাড়ে৷ তার সঙ্গে ভোটও বাড়ে৷ তৃণমূলের নেতা-মন্ত্রীরা কিন্ত্ত বহু দিন ধরেই নানা পুজোর পাণ্ডা৷ সুব্রতের পুজো, পার্থর পুজো, অরূপের পুজো, ববির পুজো আছে৷ কিন্ত্ত জ্যোতির পুজো, প্রমোদের পুজো, বুদ্ধর পুজো কোনও কালে ছিল না, এখনও নেই৷ না-থাকাতে আখেরে লাভ কিছু হয়নি৷ মণ্ডপের সামনে 'কমিউনিস্ট ম্যানিফেস্টো' দু'টাকায় বেচে বিপ্লবের পথ বিশেষ মসৃণ হয়নি৷ তা ছাড়া বিপ্লব চায়ই বা কে? সবাই চায় ভোট৷ পুজোর সঙ্গে যুক্ত থাকলে সেই ভোটের বাধা অনেকটাই দূর হয়৷ সিপিএমের গঠনতন্ত্রে অবশ্য পুজোআচ্চায় সরাসরি কোনও বিধিনিষেধ নেই৷ যেহেতু কমিউনিস্ট পার্টি 'নিরীশ্বরবাদী' তাই পুজোপার্বণ এড়িয়েই চলত সিপিএম৷ পুজোর স্টলে অথবা ঈদের কমিটিতে থাকলে নেতারা অন্তত প্রকাশ্যে ফুল-বেলপাতা হাতে 'যা দেবী সর্বভূতেষু' মন্ত্র আওড়াননি৷ বিশ্বাসে, নাকি ভয়ে আওড়াননি সে কথা অবশ্য আলাদা৷ কিন্ত্ত সে বাধা ঘুচছে৷ কালীপুজোয় পাঁঠাবলি দিলেও সম্ভবত শো-কজ চিঠি যাবে না৷ এই সিদ্ধান্তে খুশি সুভাষ-জায়া রমলা৷ তিনি বলেন,' উনি (সুভাষ চক্রবর্তী) বরাবরই বলতেন, উত্‍সবেও মানুষের পাশে থাকতে হবে৷ পুজোআচ্চায় বিধিনিষেধ উঠে গেলে ভালোই হবে৷' তবে মুখ খুলতে চাননি শ্রীহীরবাবু৷ লোকসভার প্রাক্তন স্পিকার সোমনাথ চট্টোপাধ্যায়ের কথায়, 'ভুল স্বীকার করে পরিবর্তন করলে ভালো৷ ঈদ-দুর্গাপুজোকে কেবলমাত্র ধর্মের গণ্ডিতে বাঁধা যায় না৷ এই সব উত্‍সবের সামাজিক মূল্য অসীম৷' কেরলে দলের প্রাক্তন এমপি কেএস মনোজ গোঁড়ামি ছাড়তে দলের সাধারণ সম্পাদক প্রকাশ কারাটকে খোলা চিঠি দিয়েছিলেন৷ কারাট পার্টির মুখপত্র পিপলস ডেমোক্র্যাসিতে লেখেন, 'ব্যক্তিগত ধর্মাচরণে আপত্তি নেই৷ তবে আমরা কখনওই এ সবে উত্‍সাহ দেব না৷' কিন্ত্ত উত্‍সাহ দেওয়ার সুরই তো রাজ্য নেতাদের মুখে৷ ভোট কুড়োতে তাঁদের ভরসা সেই 'আফিং'ই৷


(1906)

मैक्सिम गोर्की का पत्र रूसी कामरेडों के नाम

1 जनवरी, 1906

कामरेड,

गरीबी की क्रूरता के विरुद्ध संघर्ष का अर्थ है, दुनिया में फैले उत्पीडऩ के जाल से मुक्ति के लिए छेडी गई जंग, और ढेरों असभ्य विरोधाभासों से भरी इस लड़ाई को लोग बहुत ही कमजोर तरीके से लड़ रहे हैं. आप पुरुषोचित तरीके से पूरी ताकत के साथ इस जाल को काटने की कोशिशों में लगे हैं, उधर आपके दुश्मन आपकी कोशिशों को तोडऩे और आप को हर संभव तरीके से इस जाल में और बुरी तरह घेरने की फिराक में हैं.

आपके पास हथियार के रूप में सत्य की तेज तलवार है, जब कि आपके दुश्मनों के हाथ में असत्य की बर्छी. सोने की चमक से चुंधियाए वे कमीने केवल ताकत में यकीन रखते हैं. और यह नहीं समझते कि धीरे-धीरे बढ़ती यह चमक एकता के इस महान आदर्श को जला कर रख देगी कि सभी मुक्त कामगार एक कॉमरेड परिवार के सदस्य हैं.

समाजवाद मुक्ति, समानता और भाई-चारे का धर्म है पर यह बात उनकी समझ से उसी तरह परे है जैसे एक गूंगे- बहरे आदमी के लिए संगीत या फिर एक मूर्ख के लिए कविता. जब वे लोग आजादी और प्रकाश की ओर जनसमुदाय को उमड़ते देखते हैं तो उन्हें अपनी शांति भंग होने का खतरा सताने लगता है. लोगों की जिंदगी के सरमाएदार के रूप में उनकी जो जगह बनी हुई है उन्हें वह हिलती, छिनती- सी लगती है. वे सच छिपाने लगते हैं यहां तक कि अपने बीच एक दूसरे से भी और खुद को न्याय को पराजित करने की खोखली आशा के साथ सांत्वना देते रहते हैं.

वे सर्वहारा वर्ग को बेहद अपमानजनक तौर पर भूखे काले जानवरों का हुजूम कहते हैं. उनके अनुसार इन भूखे जानवरों की इच्छा भारी मात्रा में भोजन हड़पने की है और अगर इनके राक्षसी जबड़े रोटियों से नहीं भरे गए तो ये सब कुछ तबाह करने को तैयार हैं. धर्म और विज्ञान वे उपकरण हैं, जिसका प्रयोग वे लोगों को लगातार दास बनाए रखने के लिए करते हैं.

उन्होंने इसके लिए ही राष्ट्रवाद और एंटी सेमेटिकवाद की खोज की, ऐसे जहर ढूंढ़े जो आप सभी के आपसी भाईचारे वाले रिश्तों और आपकी आस्था को विषाक्त कर दें, यहां तक कि भगवान भी यहां संपत्ति के अभिभावक के रूप में केवल बुर्जुआ की तरह मौजूद हैं. रूस में एक क्रांति की ज्वाला फूट पड़ी है, जबकि वे बुनियादी तौर पर मजदूर शक्ति से संगठित रूसी सर्वहारा वर्ग की बेतहाशा निंदा किए जा रहे हैं - एक बर्बर झुंड, जो कुछ भी अस्तित्व में है उसको बर्बाद कर देने पर तुली ऐसी भीड़ जो अराजकता पैदा करने के अलावा कुछ भी और करने में समर्थ नहीं है.

यह आदमी जो आपको संबोधित कर रहा है, वह जनता का आदमी है और जिसने आज तक लोगों के साथ अपने संबंध नहीं तोड़े हैं, वह जिसने खुले दिमाग से रूसी सर्वहारा के मुक्तिसंघर्ष को देखा है, वह आदमी आपके सामने घोषणा करता है. रूसी सर्वहारा अपनी तत्काल आवश्यकता यानी राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और वह अपनी ताकत से सरकार द्वारा घोषित 30 अक्टूबर के घोषणापत्र को पलट देंगे. वे इस घोषणापत्र को सम्राट की निजी इच्छा पूरी करने का काम बताते हैं, यह उनका सच है, यह जनता पर जीत की एक ट्रॉफी थी.

लेकिन हमारी सरकार ने मनमाने ढंग से शासन करने की आदत बना ली है. जिंदाबाद, सर्वहारा वर्ग जिस तरह से आगे बढ़ रहा है वह पूरी दुनिया को बदल कर रख देगा.जिन हाथों ने अपने देश को ताकतवर और संपन्न बनाया है, अब वे नई जिंदगी गढ़ रहे हैं! संसार भर के ऐसे सभी मजदूर जिंदाबाद. भविष्य का धर्म समाजवाद,जिंदाबाद.

सेनानियों को नमस्कार, और वे जिन्हें कभी भी सत्य की जीत पर, न्याय की जीत पर भरोसा रहा है! सब देशों के कामगारों को बधाई! समानता और स्वतंत्रता के महान आदर्शों से संयुक्त मानवता, जिंदाबाद! एम. गोर्की

Opium of the people

From Wikipedia, the free encyclopedia

"Religion is the opium of the people" is one of the most frequently paraphrased statements of German economist Karl Marx. It was translated from the German original, "Die Religion ... ist das Opium des Volkes" and is often referred to as "religion is the opiate of themasses." The quotation originates from the introduction of his proposed work A Contribution to the Critique of Hegel's Philosophy of Right; this work was never written, but the introduction (written in 1843) was published in 1844 in Marx's own journal Deutsch-Französische Jahrbücher, a collaboration with Arnold Ruge. The phrase "This opium you feed your people" appeared in 1797 in Marquis de Sade's text L'Histoire de Juliette and Novalis's "[R]eligion acts merely as an opiate" around the same time. The full quote from Karl Marx is: "Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people".

Marx[edit]

Main article: Marxism and religion

The quotation, in context, reads as follows (emphasis added):

The foundation of irreligious criticism is: Man makes religion, religion does not make man. Religion is, indeed, the self-consciousness and self-esteem of man who has either not yet won through to himself, or has already lost himself again. But man is no abstract being squatting outside the world. Man is the world of man – state, society. This state and this society produce religion, which is an inverted consciousness of the world, because they are an inverted world. Religion is the general theory of this world, its encyclopaedic compendium, its logic in popular form, its spiritual point d'honneur, its enthusiasm, its moral sanction, its solemn complement, and its universal basis of consolation and justification. It is the fantastic realization of the human essence since the human essence has not acquired any true reality. The struggle against religion is, therefore, indirectly the struggle against that world whose spiritual aroma is religion.

Religious suffering is, at one and the same time, the expression of real suffering and a protest against real suffering.Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people.

The abolition of religion as the illusory happiness of the people is the demand for their real happiness. To call on them to give up their illusions about their condition is to call on them to give up a condition that requires illusions. The criticism of religion is, therefore, in embryo, the criticism of that vale of tears of which religion is the halo.

Criticism has plucked the imaginary flowers on the chain not in order that man shall continue to bear that chain without fantasy or consolation, but so that he shall throw off the chain and pluck the living flower. The criticism of religion disillusions man, so that he will think, act, and fashion his reality like a man who has discarded his illusions and regained his senses, so that he will move around himself as his own true Sun. Religion is only the illusory Sun which revolves around man as long as he does not revolve around himself. [1]

Sade[edit]

In the Marquis de Sade's Juliette, published in 1797 (trans. Austryn Wainhouse, 1968), Sade uses the term in a scene where Juliette explains to King Ferdinand the consequences of his policies:

Though nature lavishes much upon your people, their circumstances are strait. But this is not the effect of their laziness; this general paralysis has its source in your policy which, from maintaining the people in dependence, shuts them out from wealth; their ills are thus rendered beyond remedy, and the political state is in a situation no less grave than the civil government, since it must seek its strength in its very weakness. Your apprehension, Ferdinand, lest someone discover the things I have been telling you leads you to exile arts and talents from your realm. You fear the powerful eye of genius, that is why you encourage ignorance. This opium you feed your people, so that, drugged, they do not feel their hurts, inflicted by you. And that is why where you reign no establishments are to be found giving great men to the homeland; the rewards due knowledge are unknown here, and as there is neither honor nor profit in being wise, nobody seeks after wisdom.

I have studied your civil laws, they are good, but poorly enforced, and as a result they sink into ever further decay. And the consequences thereof? A man prefers to live amidst their corruption rather than plead for their reform, because he fears, and with reason, that this reform will engender infinitely more abuses than it will do away with; things are left as they are. Nevertheless, everything goes askew and awry and as a career in government has no more attractions than one in the arts, nobody involves himself in public affairs; and for all this compensation is offered in the form of luxury, of frivolity, of entertainments. So it is that among you a taste for trivial things replaces a taste for great ones, that the time which ought to be devoted to the latter is frittered away on futilities, and that you will be subjugated sooner or later and again and again by any foe who bothers to make the effort.

Novalis[edit]

In 1798, Novalis wrote in Blüthenstaub (Pollen):[2]

Ihre sogenannte Religion wirkt bloß wie ein Opiat: reizend, betäubend, Schmerzen aus Schwäche stillend.

Their so-called religion acts merely as an opiate: irritating, numbing, calming their pain out of weakness.

Charles Kingsley[edit]

Charles Kingsley, Canon of the Church of England, wrote this four years after Marx[3]

We have used the Bible as if it were a mere special constable's hand book, an opium dose for keeping beasts of burden patient while they were being overloaded, a mere book to keep the poor in order. [4]

Lenin[edit]

Vladimir Lenin, speaking of religion in Novaya Zhizn in 1905,[5] clearly alluded to Marx's earlier comments (emphasis added):

Religion is one of the forms of spiritual oppression which everywhere weighs down heavily upon the masses of the people, over burdened by their perpetual work for others, by want and isolation. Impotence of the exploited classes in their struggle against the exploiters just as inevitably gives rise to the belief in a better life after death as impotence of the savage in his battle with nature gives rise to belief in gods, devils, miracles, and the like. Those who toil and live in want all their lives are taught by religion to be submissive and patient while here on earth, and to take comfort in the hope of a heavenly reward. But those who live by the labour of others are taught by religion to practise charity while on earth, thus offering them a very cheap way of justifying their entire existence as exploiters and selling them at a moderate price tickets to well-being in heaven. Religion is opium for the people. Religion is a sort of spiritual booze, in which the slaves of capital drown their human image, their demand for a life more or less worthy of man.


See also[edit]

References[edit]

Further reading[edit]

  • Abrams, M. H. 1971 [1934]. The Milk of Paradise: The Effect of Opium Visions on the Works of De Quincey, Crabbe, Francis, Thompson, and Coleridge. New York: Octagon
  • Berridge, Victoria and Edward Griffiths. 1980. Opium and the People. London: Allen Lane
  • Marx, Karl. 1844. A Contribution to the Critique of Hegel's Philosophy of RightDeutsch-Französische Jahrbücher, February.
  • McKinnon, Andrew. M. "Reading 'Opium of the People': Expression, Protest and the Dialectics of Religion" in Critical Sociology, vol. 31 no. 1/2. [1]
  • O'Toole, Roger. 1984. Religion: Classic Sociological Approaches. Toronto: McGraw Hill
  • Rojo, Sergio Vuscovic. 1988. "La religion, opium du people et protestation contre la misère réele: Les positions de Marx et de Lénine" in Social Compass, vol. 35, no. 2/3, pp. 197–230.

Marx and Engels on Religion


SourceMarx and Engels on Religion, Progress Publ., Moscow 1957.
Additional referencs omitted by Progress Publishers have been included.


Foreword to Marx's Thesis. Natural Philosophy of Epicurus, 1841

The Leading Article of Kölnische ZeitungRheinische Zeitung July 1842

Introduction to Critique of Hegel's Philosophy of Right

Economic and Philosophical Manuscripts of 1844

On the Jewish Question, 1844 Marx

The Holy Family. Marx and Engels. from Chapter 6.

Theses on Feuerbach. Marx 1845

German Ideology. Marx and Engels 1845:

The Communism of the Rheinische Beobachter, 1847

Manifesto of the Communist Party, 1848.

Review of Religion of the New AgeNeue Rheinische Zeitung Revue, 1850

The Peasant War in Germany. Engels, 1850

Engels To Marx. Approx, 24 May 1853
Marx To Engels. 2 June 1853
Engels To Marx. 6 June 1853

Anti-Church Movement — Demonstration in Hyde Park, Marx June 1855

Capital, Volume I.

Refugee Literature. Engels 1874. Extract from IIVolkstaat 26 June 1874

Critique of the Gotha Program. Marx 1875. Freedom of Conscience

Anti-Dühring. Engels 1877.

Dialectics of Nature. Engels 1873-86

Introduction
Natural Science and the Spirit World
The Part Played by Labour in the Transition from Ape to Man.
Notes and Fragments

Bruno Bauer and Early Christianity. Engels, May 1882

The Book of Revelations. Engels 1883

Ludwig Feuerbach and End of Classical German Philosophy. Engels 1886

Lawyers' Socialism. Engels Die Neue Zeit No. 2 1887

Engels To Bloch. 21-22 September 1890

Engels To Conrad Schmidt. 27 October 1890

Socialism Utopian & Scientific. Engels

The History of Early Christianity. Engels Die Neue Zeit, 1894-5


परिचर्चा : मार्क्‍सवाद और धर्म

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इन दिनों 'मार्क्‍सवाद और धर्म के बीच संबंध' पर बहस जोरों पर है। पिछले दिनों केरल से माकपा के पूर्व सासद डा. केएस मनोज ने अपनी आस्था व उपासना के अधिकार की रक्षा का प्रश्‍न उठाते हुए पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। डा. केएस मनोज को 2004 में माकपा ने तब लोकसभा का टिकट दिया था, जब वे केरल लैटिन कैथोलिक एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। लैटिन कैथोलिक के करीब बीस लाख अनुयायियों में डा. मनोज का अच्छा प्रभाव है। गौरतलब है कि माकपा की केंद्रीय कमेटी ने एक दस्तावेज में स्वीकार किया है कि पार्टी सदस्यों को धार्मिक आचारों को त्यागना चाहिए।

साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्‍स ने बड़े जोर देकर कहा था, 'धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है (Religion as the opium of the people)। मा‌र्क्स ने यह भी कहा था, 'मजहब को न केवल ठुकराना चाहिए, बल्कि इसका तिरस्कार भी होना चाहिए।' लेकिन मार्क्‍स गलत साबित हो रहे है। एक-एक करके उनके सारे विचार ध्‍वस्‍त हो रहे है। दो वर्ष पहले चीनी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने अपने संविधान में बदलाव करते हुए धर्म को मान्‍यता दी। अब माकपा के महासचिव प्रकाश कारत मार्क्‍स का हवाला देते हुए कह रहे हैं, 'धर्म उत्पीडि़त प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माहीन स्थिति की आत्मा है।' कारत बैकफुट पर आ रहे हैं, 'कौन कहता है कि माकपा धर्म के खिलाफ है। इसके बजाय हम धर्म से जुडे पाखंड और सांप्रदायिकता के विरोधी हैं।'

भारत के कम्‍युनिस्‍ट तो प्रारंभ से ही धर्मविरोधी है। हिन्‍दू धर्म के ये पक्‍के दुश्‍मन हैं। कारण साफ है हिन्‍दुत्‍व के आगे इनकी विचारधारा की हालत पतली हो जाती है। खिसियाकर ये कभी राम-सीता को भाई-बहन बताते है तो कभी राम को काल्‍पनिक ही साबित करने लगते है। कभी गीता को मनुष्‍यता के विरोधी बताते है तो कभी वेदों को गडेरिए का गीत। लेकिन इस्‍लाम को परिवर्तनकामी बताते है। इस्‍लाम के सामने ये मिमियाने लगते है, तब मार्क्‍स का फलसफा ताक पर रख देते है कि धर्म अफीम है। कन्नूर (केरल) से माकपा सांसद रहे केपी अब्दुल्लाकुट्टी हज यात्रा पर गए। केरल विधानसभा में माकपा के दो विधायकों ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली। कुछ दिनों पहले कोच्चि में माकपा की बैठक में अनोखा नजारा देखने को मिला। मौलवी ने नमाज की अजान दी तो धर्मविरोधी माकपा की बैठक में मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुसलिम कार्यकर्ता बाहर निकले। उन्हें रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। यह बैठक वहां के रिजेंट होटल हाल में हो रही थी।

वहीं, याद करिए जब सन् 2006 में वरिष्ठ माकपा नेता और पश्चिम बंगाल के खेल व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने बीरभूम जिले के मशहूर तारापीठ मंदिर में पूजा-अर्चना की और मंदिर से बाहर आकर कहा, 'मैं पहले हिन्दू हूं, फिर ब्राह्मण और तब कम्युनिस्ट' तब इस घटना के बाद, हिन्दू धर्म के विरुद्ध हमेशा षड्यंत्र रचने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के अन्दर खलबली मच गई। सबसे तीव्र प्रतिक्रिया दी पार्टी के वरिष्ठ नेता व पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने। उन्होंने तो यहां तक कह दिया, 'सुभाष चक्रवर्ती पागल हैं।' इसके प्रत्युत्तर में सुभाष ने सटीक जवाब दिया और सबको निरुत्तर करते हुए उन्होंने वामपंथियों से अनेक सवालों के जवाब मांगे। उन्होंने कहा कि जब मुसलमानों के धार्मिक स्थल अजमेर शरीफ की दरगाह पर गया तब कोई आपत्ति क्यों नहीं की गई? उन्होंने यह भी पूछा कि जब पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु इस्राइल गए थे और वहां के धार्मिक स्थलों पर गए तब वामपंथियों ने क्यों आपत्ति प्रगट नहीं की।

कल (19 जनवरी, 2010) के समाचार-पत्रों में दो महत्‍वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए हैं। अमर उजाला में माकपा के महासचिव श्री प्रकाश कारत ने 'कौन कहता है माकपा धर्म के खिलाफ है' इस विषय पर लेख लिखा है वहीं दैनिक जागरण में भाजपा के राष्‍ट्रीय सचिव व सुप्रसिद्ध स्‍तंभकार श्री बलबीर पुंज ने इसी विषय पर 'साम्‍यवाद की असलियत' बताने की कोशिश की है। हम यहां दोनों लेख प्रकाशित कर रहे हैं और 'प्रवक्‍ता डॉट कॉम' के सुधी पाठकों से निवेदन कर रहे हैं कि इस विषय पर अपने विचार रखें :

कौन कहता है माकपा धर्म के खिलाफ है/प्रकाश करातडॉ. के एस मनोज केरल से माकपा सांसद रहे हैं। उन्होंने पिछले दिनों पार्टी छोडऩे का ऐलान किया। इसकी वजह बताते हुए उन्होंने लिखा है कि पार्टी ने अपने दुरुस्तीकरण संबंधी दस्तावेज में सदस्यों के लिए यह निर्देश दिया है कि उन्हें धार्मिक समारोहों में भाग नहीं लेना चाहिए। चूंकि वह पक्के धार्मिक हैं, ऐसे में, यह निर्देश उनकी आस्था के खिलाफ जाता है। इसलिए उन्होंने पार्टी छोडऩे का फैसला किया।

मीडिया के एक हिस्से ने डॉ. मनोज के इस कदम को इस तरह पेश करने की कोशिश की है, जैसे माकपा का सदस्य होना किसी भी व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं के खिलाफ जाता है! कुछ सदाशयी धार्मिक नेताओं ने हमसे पूछा भी कि क्या यह फैसला आस्तिकों को पार्टी से बाहर रखने के लिए लिया गया है? ऐसे में, धर्म के प्रति माकपा का बुनियादी रुख स्पष्ट करने की जरूरत है। माकपा एक ऐसी पार्टी है, जो मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण पर आधारित है। मार्क्‍सवाद एक भौतिकवादी दर्शन है और धर्म के संबंध में उसके विचारों की जड़ें 18वीं सदी के दार्शनिकों से जुड़ी हैं। इसी के आधार पर मार्क्‍सवादी चाहते हैं कि शासन धर्म को व्यक्ति के निजी मामले की तरह ले। शासन और धर्म को अलग रखा जाना चाहिए।

मार्क्‍सवादी नास्तिक होते हैं यानी वे किसी धर्म में विश्वास नहीं करते। बहरहाल, मार्क्‍सवादी धर्म के उत्स को और समाज में उसकी भूमिका को समझते हैं। जैसा कि मार्क्‍स ने कहा था, धर्म उत्पीडि़त प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माहीन स्थिति की आत्मा है। इसलिए मार्क्‍सवाद धर्म पर हमला नहीं करता, लेकिन उन सामाजिक परिस्थितियों पर जरूर हमला करता है, जो उसे उत्पीडि़त प्राणी की आह बनाती हैं। लेनिन ने कहा था कि धर्म के प्रति रुख वर्ग संघर्ष की ठोस परिस्थितियों से तय होता है। मजदूर वर्ग की पार्टी की प्राथमिकता उत्पीडऩकारी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ वर्गीय संघर्ष में मजदूरों को एकजुट करना है, भले ही वे धर्म में विश्वास करते हों या नहीं।

इसलिए, माकपा जहां भौतिकवादी दृष्टिकोण को आधार बनाती है, वहीं धर्म में विश्वास करने वाले लोगों के पार्टी में शामिल होने पर रोक नहीं लगाती। सदस्य बनने की एक ही शर्त है कि संबंधित व्यक्ति पार्टी के कार्यक्रम व संविधान को स्वीकार करता हो और पार्टी की किसी इकाई के अंतर्गत पार्टीगत अनुशासन के तहत काम करने के लिए तैयार हो। मौजूदा परिस्थितियों में माकपा धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान पर आधारित सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ रही है।

बेशक माकपा में धर्म में विश्वास रखने वाले लोग भी हैं। ऐसे लोग मजदूर, किसान और मेहनतकश जनता के दूसरे तबकों के बीच से आए हैं। इनमें से कुछ प्रार्थना के लिए मंदिर, मसजिद या चर्च में भी जाते हैं। वे अपनी धार्मिक आस्था को गरीबों तथा मेहनतकशों के बीच काम से जोड़ते हैं। माकपा को ऐसे आस्तिकों के साथ हाथ मिलाने में कोई हिचक नहीं, जो गरीबों के हितों की वकालत करते हैं। खुद केरल में ऐसे सहयोग की लंबी परंपरा है। ईएमएस नंबूदिरीपाद ने मार्क्‍सवादियों और ईसाइयों के बीच सहयोग के क्षेत्रों के बारे में लिखा था और चर्च के कुछ नेताओं के साथ संवाद भी चलाया था।

जहां तक माकपा के ताजा अभियान की बात है, तो उसमें पार्टी अपने नेतृत्वकारी साथियों से अपेक्षा करती है कि वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित मार्क्‍सवादी विश्व-दृष्टि को आत्मसात करेंगे। केंद्रीय कमेटी ने इस संदर्भ में जो दस्तावेज स्वीकार किया है, उसमें धार्मिक गतिविधियों से जुड़े दो दिशा-निर्देशों का जिक्र किया गया है। एक तो यही है कि पार्टी सदस्यों को ऐसे सभी सामाजिक, जातिगत तथा धार्मिक आचारों को त्यागना चाहिए, जो कम्युनिस्ट कायदे और मूल्यों से मेल नहीं खाते। यहां पार्टी सदस्यों से धार्मिक निष्ठा त्यागने की बात नहीं की जा रही, लेकिन उन आचारों को छोडऩा होगा, जो कम्युनिस्ट मूल्यों से टकराते हों, जैसे छुआछूत बरतना, महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित करना या विधवा पुनर्विवाह का विरोध करना।

दूसरा दिशा-निर्देश पदाधिकारियों तथा निर्वाचित प्रतिनिधियों के आचरण से संबंधित है। उनसे कहा गया है कि वे अपने परिवार के सदस्यों की खर्चीली शादियां न करें और दहेज लेने से दूर रहें। उनसे यह भी कहा गया है कि धार्मिक समारोहों का आयोजन या धार्मिक कर्मकांड न करें। पार्टी के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं को दूसरों द्वारा आयोजित ऐसे सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना पड़ सकता है। यह विधायकों तथा पंचायत सदस्यों जैसे निर्वाचित लोगों के मामले में खास तौर पर सच है। कम्युनिस्ट नेता यह नहीं कर सकते कि सार्वजनिक रूप से कुछ कहें और निजी जीवन में कुछ और आचरण करें।

कुल मिलाकर यह कि कम्युनिस्ट पार्टी धर्म में आस्था रखने वाले लोगों को अपना सदस्य बनने से नहीं रोकती है।

बहरहाल, जहां वे अपने धर्म का पालन करते रह सकते हैं, वहीं उनसे यह उम्मीद भी की जाती है कि धर्मनिरपेक्षता पर कायम रहेंगे और शासन के मामलों में धर्म की घुसपैठ का विरोध करेंगे। पुनरुद्धार के दिशा-निर्देशों का यही मकसद है कि कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को कम्युनिस्ट मूल्यों के अनुरूप आचरण करने में मदद की जाए। डॉ. मनोज का कहना गलत है कि धार्मिक आचार के संदर्भ में अपने नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं के लिए माकपा ने जो दिशा-निर्देश दिए हैं, वे भारतीय संविधान के खिलाफ जाते हैं। हमारा संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रावधान करता है, जो हर नागरिक को अपनी मर्जी के धर्म के पालन का अधिकार देता है। वही संविधान किसी नागरिक के इस अधिकार की भी गारंटी करता है कि वह चाहे, तो किसी धर्म का पालन न करे। माकपा एक ऐसा संगठन है, जिसमें उसके दर्शन से सहमति रखने वाले नागरिक स्वेच्छा से शामिल होते हैं।

पार्टी सदस्यों के लिए जिन दिशा-निर्देशों का जिक्र किया है, वे नए नहीं हैं। इन दिशा-निर्देशों को वर्ष 1996 में तब सूत्रबद्ध किया गया था, जब पुनरुद्धार अभियान का पहला दस्तावेज स्वीकार किया गया था। बहरहाल, चूंकि यह मुद्दा अब उठाया गया है, अत: हमारे लिए जरूरी हो गया कि धर्म तथा कम्युनिस्ट दृष्टिकोण पर पार्टी का रुख स्पष्ट किया जाए।

(लेखक माकपा के महासचिव हैं)

साम्यवाद की असलियत/बलबीर पुंजअभी हाल के दिनों में 'मा‌र्क्सवादी दर्शन बनाम आस्था' समाचार पत्रों में चर्चा का विषय रहा है। वास्तव में मजहब को लेकर वामपंथियों का रवैया विरोधाभासों से भरा है। उनका मानना है कि धर्म अफीम है। वे एक मजहबविहीन समाज बनाना चाहते हैं, क्योंकि मजहब अंधविश्वास फैलाता है। हालाकि निरीश्वरवादी साम्यवादियों की कथनी और करनी में कभी साम्य नहीं रहा। मुस्लिम लीग को छोड़कर मा‌र्क्सवादियों का ही वह अकेला राजनीतिक कुनबा था, जिसने मजहब आधारित पाकिस्तान के सृजन को न्यायोचित ठहराया। मोहम्मद अली जिन्ना को मा‌र्क्सवादियों ने ही वे सारे तर्क-कुतर्क उपलब्ध कराए, जो उसे अलग पाकिस्तान के निर्माण के लिए चाहिए थे। एक तरह से पाकिस्तान के जन्म में वामपंथियों ने 'दाई' की भूमिका निभाई है।

आजादी के बाद केरल में कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद ने मुस्लिम बहुल एक नए जिले-मल्लपुरम का सृजन किया। मुस्लिम कट्टरपंथ को कम्युनिस्टों का सहयोग व समर्थन हमेशा मिलता रहा है। वह चाहे सद्दाम हुसैन का मसला हो या फलस्तीन-ईरान का-मा‌र्क्सवादी कट्टरंथियों के मजहबी जुनून में हमेशा शरीक होते आए। सात समंदर पार एक डेनिश कार्टूनिस्ट ने पैगंबर साहब का अपमानजनक कार्टून बनाया तो उसका भारत के मुसलमानों ने हिंसक विरोध किया। उनके साथ कम्युनिस्टों का लाल झडा भी शहर दर शहर लहराता रहा। बाग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को कट्टरपंथियों की अनुचित माग के कारण ही रातोरात कोलकाता से बेघर कर दिया गया।

दुनिया के जिस भाग में साम्यवादियों की सरकार आई, कम्युनिस्टों का पाखंड ज्यादा दिनों तक छिपा नहीं रह सका। उन्होंने वर्ग विहीन, शोषण विहीन, और भयमुक्त समतावादी खुशहाल समाज देने का दावा किया। जिस तरह कोई पुजारी या मौलवी चढ़ावे के बदले में अपने भक्तों में स्वर्ग या जन्नत का अंधविश्वास पैदा करता है, कम्युनिस्टों ने खुशहाल समाजवाद के नाम पर ऐसा ही छलावा किया है। नब्बे के दशक तक समाजवाद का मुलम्मा उतर गया था। सोवियत संघ में तो समाजवादी ढाचे के कारण बदहाली और तंगहाली का आलम यह था कि लोगों को अपनी हर जरूरत के लिए लाइन पर लगना होता था। सोवियत-आर्थिक ढाचे से प्रेम के कारण ही अपने देश में भी यही स्थिति आई और 1991 में देश को अपनी अंतरराष्ट्रीय देनदारियों को पूरा करने के लिए अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा था। चीन का अस्तित्व बना हुआ है तो उसका कारण यह है कि वहा माओ के बाद के शासकों ने समय रहते खतरे की आहट भाप ली और वामपंथी अधिनायकवाद के नीचे एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना की।

हमारे यहा केरल और पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों का शासन रहा है और दोनों ही राज्यों में आम आदमी त्रस्त है। जिस सर्वहारा के कल्याण की मा‌र्म्सवादी कसमें खाते हैं, वही वहा हाशिए पर हैं। 575 जिलों में अध्ययन करने के बाद पहली बार प्रकाशित एक आधिकारिक आकलन के अनुसार देश के 1.47 प्रतिशत गरीब ग्रामीण भारतीय पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में हैं। जिले की 56 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है तो शहरी आबादी का 36.6 प्रतिशत गरीब है। ग्रामीण गरीबी के मापदंड पर पश्चिम बंगाल का स्थान चौथा है। 169 लाख आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। भारत के सौ गरीब ग्रामीण जिलों में पश्चिम बंगाल के कुल 18 जिलों में से 14 इस सूची में शामिल हैं। केरल की स्थिति भी ऐसी ही है।

व्यक्ति की निजी आस्था पर मा‌र्क्सवादियों का पहरा हास्यास्पद है। अपने यहा ही नहीं, पूरी दुनिया में आध्यात्मवाद की एक तरह से वापसी दिखाई दे रही है और संशयवादियों का वैज्ञानिक तर्क भी काम नहीं आ रहा। 'धर्म अफीम है, इससे दूर रहो', परवान चढ़ने वाली नहीं है। आस्था के प्रश्न पर स्वयं मा‌र्क्सवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मुखर विरोध इसे ही रेखाकित करता है। मा‌र्क्सवाद के प्रारंभिक मतप्रचारक जब भारत आए तो कुंभ के मेले में उमड़े जनसैलाब को देखकर उन्हें बड़ी मायूसी हुई थी और उन्होंने तब ही यह मान लिया था कि इस अध्यात्म प्रधान देश में साम्यवाद का पल्लवित होना मुश्किल काम है। जन्म के नब्बे साल बाद इस विशाल भारत देश के मात्र तीन राज्यों में ही पार्टी अपना असर बना पाई है। ऐसे में केरल के एक सदस्य और पूर्व सासद डा. केएस मनोज ने अपनी आस्था व उपासना के अधिकार की रक्षा के लिए त्यागपत्र दिया और उसके समर्थन में जब समर्थकों का एक बड़ा वर्ग उठ खड़ा हुआ है तो नास्तिक माकपाइयों का बैकफुट पर जाना स्वाभाविक है।

डा. केएस मनोज को 2004 में माकपा ने तब लोकसभा का टिकट दिया था, जब वे केरल लैटिन कैथोलिक एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। लैटिन कैथोलिक के करीब बीस लाख अनुयायियों में डा. मनोज का अच्छा प्रभाव है। तब नास्तिक माकपा को आस्तिक डा. मनोज से कोई परहेज भी नहीं हुआ था। क्यों? व्यापक विरोध को देखते हुए पार्टी प्रमुख प्रकाश करात अब नास्तिक दर्शन से हटते हुए यह कह रहे हैं कि पार्टी मत/पंथ या ईश्वर में आस्था के खिलाफ न होकर साप्रदायिकता के खिलाफ है। यह मा‌र्क्सवादियों की बौद्धिक बाजीगरी मात्र है। वस्तुत: वे उसी लीक का अनुपालन कर रहे हैं, जो मा‌र्क्स और लेनिन खींच गए हैं। मा‌र्क्स ने कहा था, "मजहब को न केवल ठुकराना चाहिए, बल्कि इसका तिरस्कार भी होना चाहिए।" उसका मा‌र्क्सवाद 19वीं सदी के यूरोप से प्रसूत था। तब बौद्धिक और आर्थिक कारणों से समाज पर मजहब की पकड़ एक अभिशाप बन गया था। 17वीं सदी तक दुनिया की राजनीति का केंद्र रहे यूरोप को एक नए पंथनिरपेक्ष छवि की आवश्यकता थी। उसके लिए जो आदोलन चला, मा‌र्क्सवाद उसी से प्रभावित है।

मा‌र्क्सवादियों ने मजहब को व्यक्तिगत विश्वास व मान्यता या सास्कृतिक विशिष्टता के दृष्टिकोण से नहीं देखा, उन्होंने इसे एक राजनीतिक चुनौती के रूप में लिया, परंतु भारत में हिंदू मत कभी संगठित नहीं रहा और न ही राज्य के शासन से इसका कोई सरोकार ही रहा। भारत में शासन और मत, दो अलग स्तरों पर काम करते हैं और उनके बीच सत्ता के नियंत्रण के लिए कोई संघर्ष ही नहीं है।

वास्तव में देखा जाए तो मा‌र्क्सवादी चिंतन ही अफीम है, क्योंकि यह लोगों के सामने एक ऐसी व्यवस्था का सपना परोसता है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। साम्यवाद मौजूदा दौर में अप्रासंगिक हो चुका है। आने वाला समय वर्ग संघर्ष का नहीं होकर सभ्यताओं के संघात का काल होगा। एक समय ऐसा था, जब लगता था कि यूरोप से लेकर एशिया और अमेरिका से लेकर अफ्रीका के हर कोने लाल झडे से पट जाएंगे, किंतु अब इस्लामी कट्टरवाद का जहर बेसलान से लेकर जकार्ता और न्यूयार्क से लेकर ढाका तक फैल चुका है। कट्टरपंथियों के जुनूनी आदोलन को कम्युनिस्टों का बिन मागा सहयोग प्राप्त होता है। क्या इस्लाम के साथ आस्था का प्रश्न खड़ा नहीं होता? अनीश्वरवाद की पताका लहराने वालों को केसरिया रंग में साप्रदायिकता और हरे झडे में सद्भावना झलकती है। इस कलुषित विचारधारा से सामाजिक समरसता कैसे संभव है, जिसके सृजन का भार कथित तौर पर साम्यवादियों ने अपने कंधे पर उठा रखा है?

http://www.pravakta.com/debate-marxism-and-religion


Samit Carr shared a link.

Untouchability, The Dead Cow And The Brahmin | B.R. Ambedkar

www.outlookindia.com

Were the Untouchables always Untouchables? Why should beef-eating give rise to Untouchability at a later stage? What is the cause of the nausea which the Hindus have against beef-eating? Ambedkar sought some answers in 1948 which might help in our understanding of the Jhajjar killings.

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BOOK EXTRACT

Untouchability, The Dead Cow And The Brahmin

Were the Untouchables always Untouchables? Why should beef-eating give rise to Untouchability at a later stage? What is the cause of the nausea which the Hindus have against beef-eating? Ambedkar sought some answers in 1948 which might help in our understanding of the Jhajjar killings.

B.R. AMBEDKAR

http://www.outlookindia.com/article.aspx?217660


Ashok Kumar Pandey added a photo from October 21, 2013 to his timeline.
जनपक्ष के पाठक जानते ही हैं कि मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों को लेकर मैंने एक लेखमाला की शुरुआत की थी. उसकी कुछ क़िस्तें देने के बाद वह क्रम ब्लॉग पर रुक गया लेकिन युवा संवाद पत्रिका में लगभग नियमित रूप से वह कालम के रूप में ज़ारी है. आज एक बहस के बाद मुझे लगा कि इसे फिर से ज़ारी करने की ज़रुरत है तो बीच के कुछ अध्याय छोड़कर (जो मूलतः योरोपीय दर्शन में भौतिकवादी प्रवृतियों पर हैं) मैं द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी प्रणाली पर लिखे दो अध्याय एक साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ.


http://jantakapaksh.blogspot.in/2013/10/blog-post_21.html

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मोदी पर भारी शोभन सरकार

http://hastakshep.com/hindi-news/khoj-khabar/2013/10/19/मोदी-पर-भारी-शोभन-सरकार

www.hastakshep.com




धर्म निरपेक्ष कामरेडों का

धर्म आखिरकार ब्राह्मणधर्म,जो हम कहते रहे

पोलित ब्यूरो ने मान ही लिया

সেই তবে সত্য বলিয়া প্রমাণিত হল

লাল এবে গেরুয়া হইয়া প্রকাশিত হইল

ভাগ করো দেখি শুদ্ধ অশুদ্ধ রক্ত এবার

Tarun Kanti Thakurশ্রী শ্রী হরিলীলামৃত (Shree Shree Harililamrita)
******আমি ব্রহ্মণ্যবাদ কি এবং কাকে বলে তার কতগুলো পয়েন্ট দিয়েছি , তেমনি বর্ণাশ্রমবাদ (ব্রাহ্মণ্যবাদ )এর বিরূদ্ধে লড়াই করতে আমাদের কি করা উচাৎ ? আমি ব্রাহ্মণ্যবাদের জায়গায় বর্ণাশ্রম লিখতে রাজি নই ৷কারন বর্ণাশ্রমে ব্রাহ্মণ্যবাদের ব্যাপারটা স্পষ্ট নয় ৷বর্ণাশ্রমবাদ কারা কেন কিভাবে সৃষ্টি করল তা স্পষ্ট নয় ৷ "চর্তুবর্ণং ময়া সৃষ্টং " কথাটা কৃষ্ণের মুখ দিয়ে কারা বলিয়েছে ?( গীতা ব্যাপারটাই বিতর্কের বিষয় ,কারন কুরুক্ষেত্রের যুদ্ধ শুরুর পূর্ব মূহুর্তে ,যেখানে আক্রমন কথাটা শোনার অপেক্ষায় তৈরী হয়ে আছে দুই পক্ষের সৈনিকরা ,সেই সময় গীতার ৭০০ (সাতশত) শ্লোক, আর একটা শ্লোক বলে তার তাৎপর্য বুঝিয়ে ৩ মিনিট সময় লেগেছে অর্থাৎ ৭০০x৩=২১০০ মিনিট =৩৫ ঘন্টা ৷ দুই পক্ষের সৈন ৩৫ ঘন্টা অপেক্ষারত , ব্যাপারটা বেশ গোলমেলে )৷ কিন্তু ব্রাহ্মন্যবাদ লিখলে ব্রাপারটা সুস্পষ্ট হয় যে এই জিনিসটা কারা ,কাদের সার্থে ,কাদের শাসন ও শোষনে জন্য সৃষ্টি করেছে ? আমাদের দেশের আধিকাংশ মানুষ অশিক্ষীত বা অর্ধশিক্ষীত ,তার উপরে ব্রাহ্মণদের দ্বারা পরিচালিত ,ব্রাহ্মণদের দ্বারা লিখিত শিক্ষা ব্যবস্থায় শিক্ষীত হওয়াতে অধিকাংশ লোকের কাছে ব্রাহ্মণ্যবাদ স্পষ্ট নয় ৷ সেখানে বর্ণাশ্রম স্বয়ং শ্রীকৃষ্ণের মুখের বাণী ৷ ওখানে তো কথাই বলা যাবেনা ৷ ব্রাহ্মণ্যবাদের বিরূদ্ধে লড়তে হলে সবার আগে আমাদের শত্রু চিনতে হবে ৷ শত্রুকে না চিনে লড়াই এর ময়দানে নামা মূর্খতা ৷ এমনতো হতে পারেনা যে আপনার শত্রু আপনাকে চেনে কিন্তু আপনি তাকে চেনেন না ,অনেক লোকের ভিড়ের মধ্যে আপনি তাকে খুজে বড়াচ্ছেন তাকে মারবেন (পেটাবেন )বলে ,কিন্তু চিনতে না পারায় মারতে মাপছেন না ৷ অপর দিকে আপনার শত্রু আপনাকে চেনে তাই মাঝে মাঝে আড়াল থেকে মারছে হ্যাচ্কা বাড়ী (মার )৷ মার খেয়ে আপনি ভ্যাবা-চ্যাকা খাচ্ছেন আর চোখে শর্ষেফুল দেখছেন ৷ তাই যদি সমাজকে ব্রাহ্মণ্যবাদ থেকে মুক্ত করতে চান তবে সমাজকে শত্রু চিনে সাহায্য করুন ৷ আমি আমার সমাজকে ব্রাহ্মণ্যবাদের বিরূদ্ধে লড়তে বলব অথচ শত্রুকে তা চেনাব না ,ফলস্বরূপ আপনার মত মার খেয়ে দিশেহারা হয়ে ফ্যাল ফ্যাল করে তাকাবে তা হতে দিতে পারি না ৷ তাই শত্রু চেনা থাকলে আমাদের লোকেরা বোকার মত দাড়িয়ে দাড়িয়ে মার খাবে না ৷ নিজে মারতে না পারুক মার খাওয়া থেকে ঠেকাতে পারবে ৷ নিজেকে বাচাতে পারবে ৷

আপনাদে মতামত জানাবেন ,ভাল লাগলে লাইক করুন ৷

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Pramod Ranjan
विकास नियमों को तोडने का नाम है। फेसबुक के नियमों को तोडिये, अपरिचित लेकिन समानधर्मा साथियों को फ्रेंड रिक्‍वेट भेजिए।
वे सोशल मीडिया के रूप में फेसबुक का विकास नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि आप यहां सिर्फ परिचितों के बीच धरेलु फोटोग्राफों का आदान-प्रदान करें। यह बताएं कि आज किस किटी पार्टी में गये और किसके बर्थडे पर क्‍या गिफ्ट दी। फेसबुक पर मौजूद बहुजन आंदोलन की सभी धाराओं के साथियों से मेरा अनुरोध है कि अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की मंशा रखें और विभिन्‍न विषयों पर खूब लिखें। भाषा को फिलहाल ताक पर रखें और अपने अनुभवजन्‍य ज्ञान से कथित विद्वत्‍ता के आतंक को तार-तार कर दें।

एक व्‍यवहारिक टीप : फ्रेंड रिक्‍वेट स्‍वीकार करने के बाद फेसबुक आपसे पूछता है कि 'क्‍या आप इस व्‍यक्ति से फेसबुक से बाहर परिचित हैं?'' अपरिचित समानधर्मा मित्रों के बारे भी इस प्रश्‍न का उत्‍तर दें - 'हां'। किसी के फेसबुक एकाऊंट अथवा फ्रेंड रिक्‍वेस्‍ट के ब्‍लॉक होने का एक प्रमुख कारण इस प्रश्‍न का उत्‍तर अनेक जगहों से 'नहीं' के रूप में मिलना होता है। मित्रता के बढे हाथों को मजबूती से थामें। न फ्रेंड रिक्‍वेस्‍ट स्‍वीकार करने में संकोच करें, न ही भेजने में।


Rajiv Nayan Bahuguna
स्वर्ण स्वप्न दर्शी बाबा के अनुयायी का बयान या ख़त आज चर्चा में है . अन्य तथ्यों से मुझे कोई अधिक साबका नहीं , पर टिहरी बाँध के बारे में तथ्य ये हैं , जिन्हें मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ .
१- भारतीय जनता पार्टी कभी भी दर असल बाँध विरोधी नहीं रही , बल्कि कांग्रेस और अन्य सम्बंधित दलों की तरह वह भी बाँध की पक्षधर रही है
२- टिहरी बाँध के काम में सर्वाधिक त्वरा केंद्र में वाजपेयी सरकार के रहते आई . बाँध का ठेकेदार जय प्रकाश गौड़ खुद को वाजपेयी के निकट बताता था
३- १९९२ में संसद में टिहरी बाँध को लेकर हुयी पांच घंटे की बहस में लाल कृष्ण आडवानी ने बाँध विरोधी आन्दोलन की आलोचना की
४- टिहरी बाँध की सुरंगों के आखिरी गेट राज्य में भाजपा सरकार ने बंद किये थे , जिसके कारण टिहरी शहर डूबा
५- भाजपा की प्रछन्न संस्था विश्व हिन्दू परिस्षद बाँध विरोध का दिखावा करती रही , लेकिन इसके नेता अशोक सिंघल जब बाँध विरोध का पाखण्ड करने टिहरी आये , तो उनके खाने का टिफिन बाँध के ठेदार के यहाँ से आया था .
सचमुच ऐसा लगता है की कंचन स्वप्न द्रष्टा बाबा के शिष्य ने बगैर तथ्यों को जाने - समझे किसी कांग्रेसी की तरह बयान दिया है

एक बुरी खबर

पर्यावरण और अन्य सामाजिक मुद्दों पर जागरुकता फैला रहीं पद्मश्री सुनीता नारायण जी की साईकिल को दिल्ली में एक वाहन ने टक्कर मार दी और वो गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं. हाथ में प्लेट डाल दी गई है और नाक की प्लास्टिक सर्जरी की जरुरत पड़ सकती है. साईकिल हमारे देश में गरीबों का वाहन है और गरीबों के लिए सड़कों पर जगह नहीं है ऐसे में साईकिल सवारों की सुरक्षा के बारे में कौन सोचे........स्वास्थ्य की शुभकामना सुनीता जी को !


Afroz Alam SahilBeyondHeadlines
414 Death Row Convicts Await the Gallows in India: Supreme Court urged to consider absolute prohibition of torture....http://beyondheadlines.in/?p=19095
@[401646309930573:274:A world without Capitalism is possible] [E.K]
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414 Death Row Convicts Await the Gallows in India | Beyond Headlines : An attempt to 'report a...
beyondheadlines.in
414 Death Row Convicts Await the Gallows in IndiaPosted by: admin October 22, 2013in India, LeadLeave a commentSupreme Court urged to consider absolute prohibition of torture BeyondHeadlines News DeskNew Delhi: On the eve of the resumption of hearing by the Supreme Court today on 10 writ petitions i...
Like ·  · Share · 17 minutes ago near New Delhi, Delhi ·

Vidya Bhushan Rawat via Pirthi Kaeley
A huge demonstration in London against caste discrimination. Ambedkarites in London have been campaigning for an anti caste discrimination law. The caste Hindus have compelled the British government to go against it. It is shameful. In democracy, you have to show your strength and Dalits in United Kingdom has shown it many times. Hope the law is passed in both the houses of Parliament there.
London: Indian Community March Against Caste Discrimination
www.demotix.com
Hundreds of Sikhs & Hindus march from Hyde Park to Downing St. to protest against caste discrimination in the UK. Since the Equality Act 2010 was made law, it still is not confirmed when the Act's Caste Discrimination provisions will come into force.
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S.r. Darapuri
मैं कँवल भारती के कांग्रेस में शामिल होने से सहमत नहीं हूँ परन्तु कँवल भारती द्वारा उठाये गए सवाल बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन का जवाब वामपंथियों को देना चाहिए. दलित वामपंथियों के साथ क्यों नहीं आये इस के बारे में वामपंथियों को अपने कार्यकलापों और रणनीति पर आत्ममंथन करना चाहिए. इन पार्टियों द्वारा अपने वर्ग चरित्र का भी परीक्षण करना चाहिए. केवल कँवल भारती को कोसना इस का जवाब नहीं है. कृपया वामपंथी इन प्रशनों का इमानदारी से जवाब दें!

Kanwal Bharti

मेरे वामपंथी मित्र मेरे कांग्रेस में जाने पर बहुत नाराज हैं. अब शायद मैं उनके लिए अछूत हो गया हूँ. पर मैं यह जानना चाहता हूँ कि उन्होंने कोई राजनैतिक विकल्प खड़ा क्यों नहीं किया? बिहार, प. बंगाल और केरल के अलावा उसका अस्तित्व कहाँ है? सीपीएम क्यों कांग्रेस को समर्थन देती रही है? वाम दलों ने दलित-पिछड़ों और मजदूरों के हक...See More

Sushanta KarConscious Bengal সচেতন বাংলা
ছোট্ট স্মৃতি কথা, Biplob Rahmanএর রমেশদা'র কাহিনিতে বোঝা গেল কী ভাবে মুসলমান প্রধান বাংলাদেশেও টিকে থাকে বর্ণবাদ। আবার সেই বর্ণের অভিশাপ থেকে বেরিয়ে আসতে কেন একজন মুসলমান হয়ে যান। মুসলমান হলেই তিনি ডোম পরিচয় থেকে মুক্তি পেতে পারেন। ০৬. রমেশ ডোম এখন আর লাশ কাটেন না। তার সহযোগিরাই কাজ চালিয়ে নেন। তার ছেলেদের কাউকেই তিনি এ পেশায় আনেন নি। তাদের লেখাপড়া শেখাচ্ছেন, উজ্জল ভবিষ্যতের আশায়। 'ডোম' পরিচয় ঘোচাতে কয়েক বছর আগে ধর্ম বদল করে তিনি এখন মোহাম্মাদ সিকান্দার।

তথ্য-সাংবাদিকতায় জীবনের অনেকটা বাঁক পেরিয়ে এখনো হঠাৎ হঠাৎ তার কথা মনে পড়ে।

ব্যস্ততার কারণে রমেশ ডোম, ওরফে মো. সিকান্দারের সঙ্গে শেষ পর্যন্ত দেখা করা হয়ে ওঠে না। মনে পড়ে তার সেই কথা, আমারে ক্ষমা দেও গো মা জননী। তোমার বডি না কাটলে আমার চাকরি যাইবো গা!...

Guruchandali -- Bangla eZine Magazine WebZine and something else... লাশকাটা ঘর - হরিদাস পাল

www.guruchandali.com

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Navbharat Times Online
डौंडियाखेड़ा के 'ड्रामे' में सियासत का रंग: संत शोभन सरकार की आवाज बनकर उभरे उनके शिष्य ओम बाबा की कांग्रेस की पृष्ठभूमि सामने आई है। ओम बाबा का असली नाम ओम अवस्थी है और इंदिरा गांधी के जमाने में वह कांग्रेस में थे। खुद ओम बाबा ने भी अतीत में कांग्रेस से जुड़े होने की बात... पढ़ें पूरी खबर...http://nbt.in/AZBofZ

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24 Ghanta
উন্নাও, সোনা আর বং কানেকশন
http://zeenews.india.com/bengali/entertainment/bong-connection_17296.html

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Bhargava Chandola
उत्तराखंड में आये आपदा राहत और नवनिर्माण के धन को कांग्रेस की बहुगुणा सरकार लगा रही है ठिकाने | उत्तराखंड आपदा का धन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा लुटवा रहे हैं टीवी चैनल और समाचार पत्रों पर... गुरविंदर सिंह चड्ढा जी ने सूचना के अधिकार का स्तमाल कर किया सरकार को बेनकाब.... — with Yash Panwar and 19 others.



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सुनीता भास्कर
एजेंसी के हवाले से खबर है कि पिछले एक दशक में भारत में झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों की संख्या में एक करोड़ 30 लाख की बढोत्तरी हुई है..2001 में जहाँ यह संख्या 5 करोड़ 20 लाख थी,2011 तक आते 6 करोड़ 50 लाख हो गयी.महाराष्ट्र में सबसे अधिक एक करोड़ दस लाख लोग झुग्गियों में रहते हैं, वहीँ आन्ध्र में एक करोड़,तीसरे क्रम में पश्चिमी बंगाल व यूपी है साठ,साठ लाख झुग्गियों वाले..दिल्ली में इनकी संख्या 17 लाख है............आर्थिक महाशक्ति का जयघोष बनता है क्या???
Abhishek Srivastava
सेकुलर-कम्‍यूनल गठबंधन ने रचा चुनावी खेल।
जात-पात की रटन लगाकर हो जाए कुछ मेल।।
हो जाए जस मेल नरेंदर सरपट भागे।
वाम-राम-दंड-भेद में कांग्रेस सबसे आगे।।
(मौसमी दोहे-1)
Abhishek Srivastava
जो सदिच्‍छा से आया है, उसको एक न एक दिन जाना ही है। सिद्धार्थ वरदराजन के साथ भी खेल हो गया। सुब्रमण्‍यम स्‍वामी ने उनकी विदेशी नागरिकता पर मुकदमा किया और इसी बहाने ''दि हिंदू'' ने उन्‍हें संपादकीय मूल्‍यों से खिलवाड़ करने वाला करार देकर खानदानी कारोबार में अचानक गिरी मक्‍खी की तरह निकाल बाहर किया। ये इस्‍तीफा नहीं है, भले इसे इस्‍तीफा बताया जा रहा हो।

खबर में इस बात पर ध्‍यान दीजिएगा जब एन.राम कहते हैं कि तमिलनाडु में नरेंद्र मोदी की दो बार रैली हुई लेकिन उसे पहले पन्‍ने पर नहीं लिया गया क्‍योंकि सिद्धार्थ ने समाचार डेस्‍क को निर्देश दिए थे कि मोदी की कोई खबर पहले पन्‍ने पर नहीं लेनी है। यही बात अखबार के संपादकीय मूल्‍यों के खिलाफ चली गई। एन. राम के मुताबिक, ''समाचार और विचार में कोई फर्क नहीं बरता जा रहा था।''

यह बहाना नया नहीं है। यह बरसों पुराना आज़माया फॉर्मूला हमेशा ऐसे वक्‍त में काम आता है जब किसी को नौकरी से निकालना होता है। बस, इस पर नज़र रखिए कि इस मोदीमय फि़ज़ा में किन्‍हें नौकरियां मिल रही हैं और किनकी नौकरियां जा रही हैं। अपने आप खेल समझ में आ जाएगा।

Birhor Tribe Couple with Child in front of "KUMBHA" Chordaha, Chouparan, Hazaribagh! Pic Credit- Shrikrishna Paranjpe, Pune, Maharashtra Like | Comment | Share | Tag and Explore Jharkhand :) Do Join- @[140857926016739:274:Treasures of Tribal Jharkhand] — with झारखंडी भाषा संस्कृति अखड़ा and 11 others in Hazaribag, Jharkhand.

गंगा सहाय मीणा
चूरू में स्‍त्री विमर्श पर हुई गोष्‍ठी का समापन जेएनयू की शोधार्थियों के 'बेखौफ आज़ादी' के उद्घोष के साथ हुआ. निर्भया आंदोलन से निकला बेखौफ आजादी का नारा स्‍त्री मुक्ति का नारा बनकर अपनी परिधि का विस्‍तार कर रहा है. — with Manisha Pandey and 2 others in Churu, Rajasthan.

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Vallabh Pandey added a photo from October 21, 2013 to his timeline.
यह बी एच यू से नरिया होकर लहरतारा जाने वाला मार्ग है, चारदीवारी से सटी 6 फीट तक की भूमि BHU की है, जिस पर कुछ साल पहले तक गुमटियां लगा कर छोटे दूकानदार अपनी आजीविका निकालते थे, अस्पताल में भर्ती मरीजों के तीमारदारों को आवश्यकता की वस्तुएं वाजिब दाम में मिल जाती थीं, अचानक एक दिन नगर नगम और पुलिस की टीम ने उन्हें उजाड़ दिया, जबकि BHU ने लिखित दिया कि इन दुकानों से उन्हें कोई समस्या नही है, मा.उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद भी उनकी गुमटियां नही लग सकीं, कई साल बीत गए.… इस बीच वाराणसी विकास प्राधिकरण ने पर्यावरण संरक्षण का नाटक करते हुए वृक्षारोपण कराने की औपचारिकता की…आज की स्थिति ऐसी है कि गंदगी से भरी नाली, खाली पड़े ब्रिक गार्ड, खुला मूत्रालय, भीषण दुर्गन्ध, सामने ऑटो वालो की कतार …. मुझे समझ में नही आया कि छोटी छोटी दुकाने लगा कर आजीविका कमाने वाले क्या इससे अधिक गंदगी कर रहे थे ???— at Near BHU Gate.

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Siddharth Varadarajan quits The Hindu; family rift resurfaces - Livemint

www.livemint.com

Six directors oppose move by N. Ram to use his casting vote to effect a change in top management

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Reuters India
Google will begin to shield news organizations and human rights groups from cyberattacks as part of a new package of services designed to support "free expression" on the Web, the internet giant said Monday.

Google unveils services promoting free expression

in.reuters.com

Under its "Project Shield" initiative, Google said it would host sites that frequently came under politically-motivated distributed denial-of-service attacks. Because of the size and sophistication of its technical infrastructure, Google is far more able to withstand such attacks compared to website…


Ashok Kumar Pandey
संभव है यह कविता आपने पढ़ी हो पहले...पर आज चाहता हूँ कि फिर पढ़ें...बस यों ही ..कुछ लोगों को टैग कर रहा हूँ...पर आह्वान सबके लिए है.

इसी कविता से

जो हरिकथा सुनाते हैं उन्हें ज़रूरत है भगवान की...See More— with Ashutosh Kumar and 12 others.

असुविधा....: चार्ल्स ब्युकोवस्की की एक कविता

asuvidha.blogspot.com

कवि का संक्षिप्त परिचय भी देते तो बेहतर होता.रचना के साथ रचना काल,परिस्थिति भी महत्वपूर्ण है.अनुवाद रवानगी भरा है .अनुवाद में कहने की ज़रूरत नही , आप एक्सपर्ट हो गए हैं. बढ़िया चयन.


24 Ghanta
সিবিআই `প্রেমী` রাজ্যসরকার সারদাকাণ্ডে উল্টোপথে, উঠছে বিতর্ক
http://zeenews.india.com/bengali/kolkata/cbi-lover_17295.html

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''खुदा ने मेरे साथ ना-इंसाफी इसलिए की ताकि मुझे इन्साफ करना आ सके।मैं उनकी मदद कर सकू जो अपनी मदद नहीं कर पाते ''...आजमगढ़ के वकील शाहिद की जिंदगी पर बनी ये फिल्...See More


Jayantibhai Manani
राष्ट्रवादी संगठन जातिवादी नहीं हो सकता और जातिवादी संगठन राष्ट्रवादी नहीं हो सकता. परख ही करनी है तो संघ परिवार के संगठनो के 1925 से 2013 तक के राष्ट्रिय स्तर के सर संघचालक, अध्यक्ष, प्रमुख, कार्यवाह और सह कार्यवाह, सह प्रमुख और सह अध्यक्ष की सूचि बनाकर जाँच करेंगे तो कडवा सच सामने आ जायेगा...

RSS राष्ट्रवादी और हिन्दुवादी या जातिवादी शेठजी-भट्टजी जोड़ी संगठन?

पढ़िए और परिक्षण कर के जानिए. आरएसएस राष्ट्रवादी या जातिवादी?   महाराष्ट्र के कुछ पुरातनपंथी ब्राह्मणों द्वारा स्थापित करके विक्सित किया गया संघ(आरएसएस) राष्ट्रवादी है या जातिवादी ? इसका परिक्षण 200

By: Jayantibhai Manani

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Himanshu Kumar
मेरी पत्नी वीणा ने कभी करवा चौथ का व्रत नहीं रखा , कभी मांग नहीं भरी . . शादी के बाद अपना सरनेम नहीं बदला .
लेकिन वीणा बस्तर में अट्ठारह साल तक सरकारी हिंसा के शिकार आदिवासियों की सेवा चुपचाप करती रही . बलात्कार पीड़ित लड़कियों के लिए आश्रम में सुरक्षित आवास की व्यवस्था करना , पुलिस द्वारा जिन आदिवासियों के घर जला दिए जाते थे , उन महिलाओं , बुजुर्गों और बच्चों के लिए कपडे , कम्बल , बिस्तर , अनाज खरीद कर उनके घर तक पहुँचाना . सुरक्षा बलों की हमारे आश्रम में बार बार रेड होने पर उनको दहाड़ कर आश्रम से बाहर भगाने का काम करना . आश्रम में रोज़ ही सैंकडों लोगों का भोजन बनता था . जिनमे प्रशिक्षण के लिए आये आदिवासी , पीड़ित लोग , कार्यकर्त्ता , बाहर से आये अतिथी शामिल होते थे . इस सब की कुशलता से व्यवस्था करना . बड़ी बड़ी रैलियों में परदे के पीछे से सारी तैयारियां, आसपास किसी भी आदिवासी को बीमार होने पर या प्रसव के लिए महिलाओं को अस्पताल भेजने के लिए आश्रम की मिनी बस को को तुरंत तैयार कर अस्पताल पहुँचाने का काम वीणा करती रही .
उसने मुझे इन सब कामों से मुक्त रखा . और वीणा के दम पर मैं घर के बाहर नेतागिरी करता रहा . आज भी कर रहा हूँ .
करवा चौथ का व्रत तो असल में वीणा के लिए मुझे रखना चाहिए .

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Surendra Grover
बहुत ही भाग्यशाली हूँ मैं कि शादी के बाद पहली करवाचौथ की पूर्वसंध्या को मैंने आधे घंटे की जिरह के बाद श्रीमति जी को मना ही लिया कि वे कोई व्रत नहीं रखेगीं. तब से आज तक बड़े चैन से यह दिन गुजरता है और हम इस दिन जम कर खाते हैं.. कल भी कुछ स्पेशल बनेगा..  कोई और है ऐसा जिसकी पत्नी इस झमेले से दूर हो?

Anita Bharti
Satyendra Murli
टेलीविजन और मीडिया ने महिलाओं की गुलामी और पुरूष-सत्ता के प्रतीक करवा चौथ के हिंदु त्यौहार को बड़ी पूंजी वाला आयोजन बना दिया है...इस आयोजन के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक पहलुओं पर नजर डालिए...वैसे उन नारिवादी महिलाओं का क्या कहना जो करवाचौथ के व्रत की तैयांरियों में लगी हुई हैं।

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Dilip Khan
भांति-भांति के व्रत होते हैं देश में। महीने भर का रमज़ान, जिसमें पूरी रात जितनी मर्जी खा लो, लेकिन सूरज उग गया तो गुरु काम हो गया। करवा चौथ। रमज़ान का लघु रूप। एकदिवसीय क्रिकेट की तरह। चांद देखो, पति देखो और तत्काल खाने पर टूट पड़ो। फिर सोमवार से लेकर शनिवार तक रोजाना वाला व्रत। घरेलू सीरीज की तरह हमेशा चलने वाला। बिना नमक वाला व्रत। खीर खाओ, सेब खाओ, सेंधा नमक खाओ। चाहो तो सामान्य से ज़्यादा खाओ, लेकिन कहलाएगा व्रत। सिर्फ़ दिन वाला व्रत। दिन और रात दोनों वाला व्रत। दुर्गा पूजा और रामनवमी में 10 दिन तक दो बैक-टू-बैक टेस्ट क्रिकेट मैच वाला व्रत। मैंने यार आज-तक टी-20 वाला व्रत भी नहीं किया है।

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Browse: Home / पूंजीवाद का संकट और मार्क्‍सवाद की चुनौतियां

पूंजीवाद का संकट और मार्क्‍सवाद की चुनौतियां

Author: समयांतर डैस्क Edition : March 2013

मार्क्‍सवाद का औचित्य

लाल्टू

[पूंजीवादी विकास निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखता है, तो हम निज की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए आर्थिक निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक धरातल तक, चाहे उसमें धर्म और परंपरा की तलाश ही क्यों न हो, हर स्तर पर समष्टि को महत्त्व दें। शर्त सिर्फ यह हो कि इसमें सब की भागीदारी हो, हर किसी को निर्णय का हक हो। कवि और चिंतक लाल्टू का यह लेख पिछले अंक में कुछ अपरिहार्य कारणों से जाने से रह गया था। वैसे भी इस विषय पर कोई भी विमर्श अंतिम नहीं हो सकता। यानी यह अगले अंकों में भी किसी न किसी रूप में जारी रहेगा। - सं. ]बाईस साल पहले जब बर्लिन की दीवार गिरी और सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में विघटन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई तो पूंजीवाद के पक्षधरों को लगा कि अंतिम फैसला हो चुका। साम्य की लड़ाई खत्म हो गई और पूंजीवाद का झंडा हमेशा के लिए बुलंद हो गया। 1992 में योशीहीरो फ्रांसिस फुकुयामा की प्रसिद्ध पुस्तक द एंड ऑफ हिस्ट्री ऐंड द लास्ट मैन आई, जिसमें औपचारिक रूप से घोषणा की गई कि मानवता के सामाजिक सांस्कृतिक विकास का अंत हो गया और मुक्त बाजार प्रणाली पर आधारित तथाकथित पश्चिमी उदारवादी लोकतांत्रिक संरचनाएं ही अब सारी दुनिया में फैल जाएंगी। फुकुयामा स्वयं जापानी मूल के हैं (उनके दादा जापान से आए थे), संभवत: इसीलिए यह समझने में उन्हें देर न लगी कि सांस्कृतिक विकास का मामला जटिल है और इसे आर्थिक संरचनाओं से बिल्कुल अलग नहीं किया जा सकता। 1995 में ही अपनी एक और किताब में इस पर उन्होंने विस्तार से लिखा। पर सामाजिक राजनैतिक विकास पर अपनी मूल धारणा पर वह टिके रहे, हालांकि विश्व राजनीति में तेजी से हो रहे बदलाव और पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में विश्व-स्तर पर आई मंदी से घबराकर उन्होंने खुद को नव-संरक्षणशील आंदोलन से अलग कर लिया। लंदन से प्रकाशित दैनिक द गार्डियन में डेढ़ साल पहले एक आलेख में यह दावा किया गया कि विश्व-स्तर पर मार्क्‍सवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। चूंकि मार्क्‍स की पहली चिंता मानव को लेकर है, इसलिए सामाजिक बराबरी के लिए जहां भी संघर्ष चल रहे हैं, चाहे-अनचाहे मार्क्‍सवाद का प्रभाव उन संघर्षों पर है। फुकुयामा या मार्क्‍सवाद के अन्य विरोधी इस बुनियादी बात को या तो समझते नहीं या उनके विचार बुनियादी तौर पर गुलाम और मानव विरोधी मानसिकता से पनपे हैं। मार्क्‍सवाद को चुनौती पूंजीवाद से नहीं, बल्कि सामाजिक बराबरी की लड़ाई में उभरे विचारों के समूह से ही मिल सकती है।

जब तक समाज में व्यापक गैरबराबरी रहेगी, मार्क्‍सवाद का औचित्य बना रहेगा। उन्नीसवीं सदी में मार्क्‍सवाद की जमीन पश्चिमी मुल्कों में बेहतर मेहनताना और श्रम की बेहतर शर्तों के लिए लड़ाई थी। बीसवीं सदी में यह लड़ाई चलती रही और उपनिवेशों में वह साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का हिस्सा बन गई। आज भी न तो पश्चिमी मुल्कों में स्थिति पूरी तरह सुधरी है (सं. रा. अमेरिका में संपन्न एक प्रतिशत की कुल दौलत बाकी 99 प्रतिशत की दौलत का 70 गुना है) और न ही बाकी दुनिया के बारे में कहने लायक कोई आर्थिक तरक्की हुई है। मैंने अपनी कविता 'लड़ाई की कविता' में इसे कहने की कोशिश की है – '2010 में आदमी लड़ रहा है 1850 की लड़ाई। एक दिन में आधा दिन मांग रहा है अपने लिए। / आधी रात को मकान की छत बना रहा है आदमी। जिसे मकान में रहना है, वह 2010 में आदमी को देखता है जैसे 1890 को आने में अभी और कई साल लगेंगे। /आदमी सोचता है कि वह इस ग्रह का वासी नहीं है। अपने ग्रह में उसे दो-तिहाई दिन अपने लिए मिल सकता है। अपने ग्रह में बच्चों के साथ खेलने के अलावा वह सपने भी देख सकता है। यहां इस ग्रह में वह इंतजार में है कि 2020 या 2030 तक वह 1890 से आगे चल पाएगा। इस तरह वह फुकुयामा को बतलाता है कि इतिहास और खगोल, सब गड्डमड्ड हैं। /छत बनाते हुए उसे देखते लगता है कि वह रात के अंधेरे में नहीं लड़ सकता। सभी फुकुयामा इस खयाल में पूरी उन्नीसवीं सदी बिता देते हैं। /पर वक्त है कि चलता रहेगा। ग्रह चलेंगे, नक्षत्र चलेंगे। /आदमी है कि लड़ता रहेगा।पूंजीवाद मानव के विकास की धारणा को लिए हुए नहीं आता। पूंजी का एकमात्र धर्म पूंजी को ही पैदा करना है। पर पूंजीवाद के पक्षधर इसके साथ विकास की धारणा को जोड़ते हैं। योरोप में नवजागरण, आधुनिकता और प्रबोधन का समय पूंजीवाद के अभ्युदय का समय है। उन्नीसवीं सदी तक योरोप और अमेरिका में पूंजी के पैदा होने में आधुनिक शहरी सभ्यता का सीधा संबंध रहा। इसलिए सरमायादारों की बात करते हुए फ्रांसीसी शब्द 'बुर्जुआ' (शहरी) का उपयोग होता है। पूंजीवाद के साथ जुड़ा विकास इसी बुर्जुआ वर्ग का विकास है, जिसमें बेशक बौद्धिक, ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि का विकास सम्मिलित है। मार्क्‍स के अध्ययन और कृतियों में इसी विकास की पहली और अब तक की सबसे अधिक प्रभावी आलोचना है। मार्क्‍सवाद सकारात्मक आधुनिक चिंतन की पराकाष्ठा है; यह मानव समाज के बारे में एक नया आख्यान पेश करता है। अगर इस पद्धति में कोई संरचनात्मक संकट है तो यह मार्क्‍सवाद के लिए चुनौती है।

जहां एक ओर पूंजीवादी विकास से बुर्जुआ वर्ग को फायदा पहुंचता है (सीमित अर्थ में), वहीं समाज का बाकी बड़ा हिस्सा इसी विकास से पहले से बदतर स्थिति में पहुंच जाता है। इसे हम 'अंडरडेवलपमेंट' या कुविकास कह सकते हैं। अफ्रीकी मूल के प्रसिद्ध गयानावासी चिंतक वाल्टर रॉडनी ने अपनी पुस्तक हाऊ योरोप अंडरडेवलप्ड अफ्रीका में इसे विस्तार से समझाया है। 1 इसी के आधार पर अफ्रीकी अमेरिकी अर्थशास्त्री मैरेबल मैनिंग ने हाऊ कैपिटलिज्म अंडरडेवलप्ड ब्लैक अमेरिका लिखी, जिसमें पूंजीवाद के विकास का अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय पर जो असर पड़ा, उसका ब्यौरा दिया गया है। 2 रॉडनी ने अफ्रीका के इतिहास से उदाहरण लेकर विस्तार से समझाया कि योरोप में पूंजीवादी विकास को अफ्रीका में हुए कुविकास से अलग कर नहीं देखा जा सकता। इसी तरह अफ्रीकी अमेरिकी कामगारों की दुर्दशा को समझे बिना हम श्वेत अमेरिका में पूंजी की बढ़त को नहीं समझ सकते। यह पूंजीवादी विकास की विडंबना है। मुनाफे के लिए जो वाजिब दिखता है, वह मानव के सर्वांगीण विकास के पक्ष में है या नहीं यह सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता, जैसा भी है, भला या बुरा, मुनाफा है तो वह पूंजीवादी विकास का भी एजेंडा है। जब तक मुनाफा ठीक हो रहा है, मानव पूंजीवादी एजेंडे में नहीं है, उल्टा कहीं वह पिस रहा है तो पिसता रहे। बराबरी, स्वच्छंदता – ये मानव की नैसर्गिक मांगें हैं। मानव और प्राकृतिक संपदा का पूरी तरह से शोषण होता है तो हो, जिन्हें फायदा हो रहा है, वे बौद्धिक विकास की दुहाई देते रहेंगे – एक हद तक पूंजीवादी विकास यह भ्रम पैदा करने में सक्षम होता है कि यह उदार समाज की ओर बढऩे का जरिया है। कोई शक नहीं कि उन्नीसवीं सदी की तुलना में बीसवीं सदी के अंत तक अमेरिका और योरोप में उदारवादी लोकतांत्रिक सोच का वर्चस्व निरंतर बढ़ा। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाएं अधिकतर लोगों को मिलीं। यह पूंजीवादी विकास के एजेंडे से नहीं, लगातार हुए लोकतांत्रिक संघर्षों और साम्राज्यवाद के जरिए बाकी दुनिया से हड़पे संसाधनों के जरिए हुआ। उन्नीसवीं सदी में अमेरिका में उत्तरी क्षेत्रों में औद्योगिक पूंजीवाद के भौगोलिक प्रसार के लिए दक्षिणी क्षेत्रों में कपास की खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था को हटाना जरूरी था। यह गृहयुद्ध का कारण बना। इतिहास में इसे दासप्रथा उन्मूलन की लड़ाई कहा जाता है। दक्षिणी संघ को निर्णायक रूप से हरा कर जो नई व्यवस्था बनी, उसमें धीरे-धीरे अफ्रीकी मूल के लोगों के सारे अधिकार छीन लिए गए, जिन्हें फिर से पाने के लिए उन्हें सौ साल तक कठिन संघर्ष करना पड़ा। इन सौ सालों के दौरान अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग में अफ्रीकी मूल के लोगों का न केवल कोई प्रतिनिधित्व न था, उन्हें सख्त नस्लवादी तरीकों से दबा कर रखा गया। मैनिंग इसी विकास को कुविकास कहते हैं। निसंदेह अफ्रीका का जो शोषण योरोपीय और अमेरिकी व्यापारियों ने किया, उस दौरान अफ्रीका का कुविकास ही हुआ। हाल के वर्षों में भारतीय समाज विज्ञान में भी इस दिशा में शोध बढ़ा है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से किस तरह भारतीय उपमहाद्वीप के राष्ट्रों का स्वाभाविक विकास रुक गया और यह क्षेत्र कुविकास का शिकार हुआ। इसमें बहुत कुछ पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति से किया गया काम है, पर गंभीर तथ्यात्मक खोज की भी कमी नहीं है। मानव विरोधी प्रवृत्तियों से समझौता कर और उनके सहयोग से पूंजी की बढ़त कोई आश्चर्य की बात नहीं, बल्कि यही पूंजी का धर्म है। इसलिए जब तक पश्चिमी 'लोकतांत्रिक सरकारों' को हिटलर या फ्रांको जैसी अन्य जनविरोधी शासन-व्यवस्थाओं से समझौता करने में फायदा था, उन्होंने ऐसा किया। जब जंग पूंजी के हितों पर चोट पहुंचाने लगी, तभी विरोध शुरू हुआ।

मार्क्‍स ने अपने विश्लेषण में पूंजीवादी विकास के बुनियादी कारणों से होनेवाले संकट की बात की है। खपत न हो सकने लायक अतिरिक्त उत्पादन, श्रम के मूल्य में ह्रास, अलगाववाद आदि कई मुद्दों को रेखांकित करते हुए मार्क्‍स ने सिद्ध किया कि पूंजीवादी विकास कभी संकट मुक्त नहीं हो सकता। राज्य या अन्य एजेंसियों के हस्तक्षेप से इस संकट को कुछ समय तक टाला जा सकता है, पर वह बार-बार लौट आता है। इसलिए उन्नीसवीं सदी से लेकर अब तक कई बार विश्व-स्तर पर आर्थिक मंदी आई है। यह बात इतनी पुरानी हो गई है कि इस पर चर्चा करने का कोई तुक नहीं है। हमें अपना ध्यान मार्क्‍सवाद के लिए चुनौतियों पर केंद्रित करना चाहिए।

पहली साधारण चुनौती तो यही है कि पूंजी का कुतर्क जिस सरल ढंग से पेश किया जाता है, मार्क्‍स का चिंतन उतना ही कठिन लगता है। हालांकि हमारी आम भाषा में वर्ग, बुर्जुआ, सर्वहारा आदि शब्द बोलचाल में आ गए हैं, मार्क्‍सवाद के बारे में आम समझ मानवतावादी या अराजकतावादी समझ मात्र है। समाज में गैरबराबरी के खिलाफ कोई भी समझदारी से बात कर रहा हो तो उसे मार्क्‍सवादी मान लिया जाता है। इसलिए जहां एक ओर तो दक्षिणपंथी पाखंडी यह ढूंढने में लगे रहते हैं कि किस वामपंथी के पास कितनी संपत्ति है, दूसरी ओर मार्क्‍स को उद्धृत कर वैचारिक विमर्श में लगातार दरारें बढ़ाते वामपंथी बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैं कि मार्क्‍सवादी सोच मूलत: एक गतिशील विज्ञानधर्मी मानवतावादी सोच है। मार्क्‍स के जीवनकाल में उन तमाम संकटों के बारे में कोई जानकारी या तो उपलब्ध न थी या बहुत ही कम थी, जो बीसवीं सदी में ही पूरी तरह उजागर हुए हैं। पर्यावरण के संदर्भ में विज्ञान की सीमाएं, लिंगभेद, नस्ल और जाति विषयक समझ, ये तमाम बातें बीसवीं सदी में ही गहराई से सोची समझी गई हैं। पहले जो कुछ सोचा गया था, उस विचार जगत में मार्क्‍सवाद सबसे अग्रणी भूमिका में था। कई ऐसी बातें मार्क्‍स और एंगेल्स के लेखन में हैं जिनको आज कहीं बेहतर समझा जा सकता है। लुंपेन या लंपट श्रेणी और इससे जुड़ी संस्कृति पर जिस तरह आज सोचा जा सकता है, वह उन्नीसवीं सदी में कतई संभव न था।

मानव समाज के विकास का एक निश्चित आख्यान गढ़ते हुए मार्क्‍स ने जिस दर्दनाक उदासीनता की मांग रखी थी, उसके बारे में फिर से सोचना जरूरी है। हम कह सकते हैं कि रॉडनी, मैनिंग या फानों3 कहीं न कहीं इसी बात को रेखांकित करते हैं। भारत के बारे में सीमित सामग्री पर आधारित अपने महत्त्वपूर्ण आलेख4 में मार्क्‍स ने यह मानते हुए भी कि 'इस बारे में कोई शक नहीं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से हिंदुस्तान को पहले की अपेक्षा भिन्न और बेइंतहा गुना कष्ट झेलना पड़ा है', अंतत: यह कहा कि 'इंग्लैंड ने जो भी अपराध किए, ऐसा करते हुए उसकी अचेत भूमिका 'क्रांति के कर्णधार की रही'। गोएठे की कविता उद्धृत करते मार्क्‍स ने कहा कि हम पीड़ाओं से रो नहीं सकते और भविष्य के आनंद का ध्यान रखते हुए हमें इस पीड़ा से गुजरना होगा। इस कथन को सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों ने सीमित अर्थ में इस तरह पढ़ा है कि मार्क्‍स भारतीय मानस को योरोपीय ढांचे में ढालने को बेचैन थे, पर मार्क्‍स की असली बेचैनी विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी समाजवादी क्रांति लाने की थी। फिर भी, यह देखते हुए कि पूंजीवादी कुविकास का शिकार मानवता का विशाल बहुसंख्यक हिस्सा है, हमें यह सोचना होगा कि हम इस पत्थर के सनम जैसी उदासीनता से कैसे निकलें। इसके लिए हमें अराजकतावाद के प्रति मार्क्‍सवादी असहिष्णुता को कम करना होगा। सांस्कृतिक पटल पर सरलीकृत मॉडल काम नहीं करेंगे, सृजनात्मक अराजकता को भरपूर जगह देनी होगी।

एक ओर तो वैचारिक स्तर पर आम लोगों तक पहुंचने की सीमा है (साथ ही प्रशिक्षित कार्यकर्ता के अवांछित अहं को भी समझने की बात है), दूसरी ओर सतही वैचारिक समझ से उपजी लंपट और गुंडा संस्कृति और बुर्जुआ हितों से समझौतों से जूझने की बात है। जहां मार्क्‍सवादी वाम की ताकत कम हुई है, वह इन्हीं कारणों से हुई है। नस्ल, जाति और स्त्री प्रश्न पर मार्क्‍स की अपनी समझ को लेकर काफी कुछ कहा जाता है, पर सही सवाल यह होना चाहिए कि मार्क्‍सवादी पद्धति में इन प्रश्नों से जूझने की कितनी संभावना है। मार्क्‍सवादियों को यह समझने में लंबा वक्त लगा है कि ये महज सांस्कृतिक बहिरचना का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये बुनियादी द्वंद्व हैं। समझ सिद्धांतों को पढऩे मात्र से नहीं आती, बल्कि जीवन के अनुभव भी इसके लिए जरूरी हैं। भारत में अभी तक मार्क्‍सवादी आंदोलनों में नेतृत्व सवर्ण जातियों के पुरुषों के हाथ है। इसे देखते हुए लगता है कि मार्क्‍सवादी नेतृत्व की जन में आस्था नहीं है। स्पष्ट है कि यह बड़ी चुनौती है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ के प्रसार में मार्क्‍सवादियों की भूमिका सर्वोपरि होनी ही है, और जैसे-जैसे यह समझ व्यापक हुई है, जाति और स्त्री प्रश्न और उभर कर सामने आए हैं। पर नेतृत्व इन सवालों के उभार को उसी गति से स्वीकार नहीं कर पाया है।

चुनावी राजनीति के दांवपेंच और उनकी वजह से किए गए समझौते मार्क्‍सवादी आंदोलनों की बड़ी समस्या रहे हैं। समझौतों की वजह से सही लाइन की परिभाषा बिगड़ती गई है और अक्सर यह समझ पाना मुश्किल होता गया है कि मार्क्‍सवाद का नाम लेने वाली पार्टियां सचमुच किस हद तक मार्क्‍सवादी सोच को साथ लिए हैं। सही है कि जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती हैं, लाइन भी बदलती है। ऐसा है तो भिन्न इलाकों में भिन्न स्थितियों को देखते हुए रणनीति भी अलग अलग होनी चाहिए। कहीं चुनावी समझौते, तो कहीं सशस्त्र संघर्ष साथ चलना चाहिए। अलग- अलग रणनीतियों को अपनाती प्रवृत्तियों में आपसी समझ होनी चाहिए। होता यह है कि हर प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्ति को गलत मानकर चलती है। आपसी संघर्ष अक्सर हिंसक और सामंती या बुर्जुआ व्यवस्थाओं के खिलाफ संघर्ष से भी ज्यादा तीखा होता है। हर स्तर पर, नेतृत्व से लेकर कॉडर तक, अपनी ऊर्जा का अधिकांश इसी संघर्ष में बर्बाद कर देते हैं। ऐसा लगता है कि अभी भी जारशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है और हर प्रवृत्ति अपनी साख स्थापित करने की जद्दोजहद में जुटी है। यह एक तरह की अकर्मण्यता (इनर्शिया) है, जिससे छूटे बिना मार्क्‍सवादी आंदोलन एक सीमा के आगे नहीं बढ़ सकते। विश्व-स्तर पर स्थितियां बदल चुकी हैं। स्टालिनवाद या माओवाद और स्पेन, इटली की योरोपीय मार्क्‍सवाद की सैद्धांतिक मुठभेड़ भी अब पुरानी पड़ गई हैं। यहां तक कि भारत में माओवाद को मात्र आदिवासियों के हितों में सशस्त्र आंदोलन कह दिया जाता है। दूर-दराज के इलाकों तक और अनपढ़ गरीबों को भी संप्रेषण की सुविधाएं उपलब्ध हैं। इस तकनीकी और सूचना क्रांति का सेहरा पूंजीवाद को पहना दिया जाता है, पर इसके सही दावेदार लोकतांत्रिक आंदोलन रहे हैं, जिनमें मार्क्‍सवादी सोच की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। मार्क्‍सवादी नेतृत्व इस बात से वाकिफ होते हुए भी इसका फायदा उठाने में और इस समझ के अनुसार जरूरी बदलाव लाने में अक्षम दिखता है। इस वक्त मार्क्‍सवादी नेतृत्व के लिए जनमानस में अपना लोकतांत्रिक चरित्र स्थापित करना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए पहले मार्क्‍सवादी नेतृत्व में एक बड़ा मंच बनना जरूरी है, जहां न केवल मार्क्‍सवादी, बल्कि सामाजिक बराबरी की लड़ाई में जुटा हर कोई शामिल हो सके, जहां अलग-अलग रणनीतियों और समझौतों पर परस्पर सम्मान के साथ बात हो सके। यह एक ऐतिहासिक क्षण है जब पूंजीवाद एक बार फिर अपने चरम संकट पर है। रीगन-थैचरवाद और मनमोहनी वैश्वीकरण-उदारीकरण की पोल पूरी तरह खुल चुकी है। इस वक्त यह लाजिमी है कि मार्क्‍सवादी और अराजकतावादी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचानें और एक बृहत् मंच बनाने में जुट जाएं। साथ ही जन में आस्था होनी जरूरी है। जो दरकिनार रहे हैं, उनको आगे लाना होगा। इतना ही नहीं, नम्रता के साथ उनके नेतृत्व में काम करने के लिए खुद को तैयार करना होगा। यह विश्वास बनाए रखना होगा कि इतिहास का अंत नहीं हुआ है, उसकी अपनी गतिकी है। चिंतकों को प्रतिबद्ध और गंभीर विश्लेषण में लोकतांत्रिक तत्त्वों को और अधिक जगह देनी होगी।

यह लोकतांत्रिक स्वरूप समय की मांग है। न केवल पार्टी, बल्कि श्रमिक संगठनों से लेकर सांस्कृतिक मंचों तक हर स्तर पर यह संकट समूचे वाम आंदोलन में है। साहित्य, कला, सिनेमा, यहां तक कि खान-पान और पहनावों तक में लोकतांत्रिक राजनीति को 'स्पेस' चाहिए। तात्पर्य यह नहीं कि हर किसी को वैचारिक समझौता करना है। एक ही मंच में परस्पर ईमानदारी पर आस्था रखते हुए लगातार बातचीत का माहौल तैयार करना और हाशिए पर पड़े को बीच में लाना, यह करना है। पूंजीवादी विकास निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखता है, तो हम निज की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए आर्थिक निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक धरातल तक, चाहे उसमें धर्म और परंपरा की तलाश ही क्यों न हो, हर स्तर पर समष्टि को महत्त्व दें। शर्त सिर्फ यह हो कि इसमें सब की भागीदारी हो, हर किसी को निर्णय का हक हो।

आज के मार्क्‍सवाद को इस नए मुहावरे के साथ ही हमें समझाना होगा कि यह दुनिया कैसे बुनियादी रूप से बदल चुकी है। आम आदमी जानना चाहता है कि चुनावी दंगल ने कैसे मार्क्‍सवादी दलों का चरित्र बदला। वह यह भी जानना चाहता है कि कब तक जंगलों में छिप कर साथी लड़ते रहेंगे। क्या सामाजिक लोकतांत्रिक आंदोलन और खाड़कू-लड़ाकू हमेशा ही एक दूसरे के खिलाफ काम करते रहेंगे या बदली हुई परिस्थितियों में हाथ मिलाकर अपने-अपने क्षेत्र में संघर्ष करेंगे?

संदर्भ

1. हॉउ योरोप अंडरडेवलेप्ड अफ्रीका: वाल्डर रोडने; हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, परिवद्र्धित संस्करण, 1981

2. हॉउ केपिटलिज्म अंडरडेवलेप्ड ब्लैक अमेरिका : मार्बल मैनिंग; साउथ एंड प्रेस, 1983

3. द रेचेड ऑफ द अर्थ : फ्रेंज फेनॉन; ग्रोव प्रेस, पुनर्मुद्रित संस्करण, 2005

4. द ब्रिटिश रूल इन इंडिया : कॉर्ल मार्क्‍स; जून 1853, न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून (http://www.marxists.org/archive/marx/works/1853/06/25.htm)



बाबा अयोध्या में का है?

FRIDAY, 18 OCTOBER 2013 13:54

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यह शक्तियां लोगों की चीखों को दबाकर सांप्रदायिक अट्ठाहास करने की आदी रही हैं. इसमें उन्हें स्वार्थ की राजनीति की ऐसी गंध मिल चुकी है, जिसके लिए वह बार बार अयोध्या को माध्यम बना राजनीति के क्रूर औजारों से अपने लिए सत्ता का निर्माण करना चाहती हैं. फिर चाहे इस स्वार्थ सत्ता में कितनों की बलि क्यों न चढ़ जाए...

हरिशंकर शाही

उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के एक जिले के बाजार में पुलिस और अर्द्धसैनिक बल एसएसबी के जवान आर्मर, बॉडी प्रोटेक्टर जैसे सुरक्षा सामानों व अपने हथियारों के साथ गश्त कर रहे हैं. चौराहों पर पुलिस की गाडियां खडी हुई हैं. अधिकारियों की भारी भीड़ कुर्सियों पर विराजमान होकर हर आने-जाने वाले को घूर रही है.

शहर के बाजारों में एक रात पहले तक खुशी व खुमार के साथ उल्लासित होकर खरीदरारी करने वाले लोग अब उन्हीं सड़कों, चौराहों व दुकानों पर सहमे हुए से जा रहे हैं. सारा बाजार एक उदासी को साझा करते हुए महसूस कर रहा है.

इसी सबके बीच चौराहे पर एक बुजुर्ग बच्चे की उंगली पकड़े हुए किनारे से पैदल लेकर जा रहे हैं. शहर में मौजूद सुरक्षा के ड़र को वह बुजुर्ग भी महसूस कर रहे हैं, लेकिन खामोश हैं. पर वह 7-8 साल का बच्चा जो शायद इस सिहरन का आदी नहीं है या इस सिहरन को समझना चाहता है, वह अपनी वाचालता से इस खामोशी को झिंझोड़ते हुए अपने बाबा से पूछना शुरू करता है 'यह इतनी सेना क्यों लगी है बाबा.'

'अयोध्या में कार्यक्रम है इसलिए.' बाबा का जवाब मिलता है. बच्चे की उत्कंठा उसे एक और सवाल पूछने पर उकसाती है, और वह पूछता है 'बाबा अयोध्या में का है.' बाबा को शायद जल्दी थी या अयोध्या में न उलझने की समझ, वह अपने पोते को बिना कोई जवाब दिए हुए लेकर आगे चल देते हैं.

लेकिन बच्चे के सवाल के केन्द्र में वहां सुरक्षा के नाम पर दिख रहे ताम-झाम का अक्स था. इसके पीछे कारण था कि यह सबकुछ अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद के प्रस्तावित संकल्प दिवस में उसके लोगों को जाने से रोकने के लिए है. यह सब शासन के निर्देश पर हो रहा है. यानी शासन विहिप के कार्यक्रम को रोककर कुछ संदेश देना चाहती है, पर यह संदेश है आखिर क्या.

क्योंकि अगर यह सुरक्षा देने कि लिए है, तो लोग सहमे हुए क्यों हैं? और अगर विहिप जैसी सांप्रदायिक शक्ति को कमजोर करने के लिए है, तो यह शक्ति पिछले कितने सालों से ताकतवर ही कहाँ है? वक्त में थोडा सा ही पीछे जायें और याद करने की कोशिश करते हुए कितना भी जोर लगायें, लेकिन विहिप या इनके अन्य भगवा सहयोगियों की कोई विराट सफलता नजर नहीं आती है.

इसी बात पर खासतौर से पिछली मायावती सरकार के समय को याद करना बनता है, जब अयोध्या के मामले में कोर्ट का फैसला आया था. उस समय क्या किसी को विहिप की कोई घोषणा या आंदोलन याद है. उस दौर में खुद अयोध्या जाने पर भी कुछ खास महसूस नहीं होता था, लेकिन अब ऐसा क्या हो गया है कि अयोध्या से कई सौ किलोमीटर तक ड़र महसूस हो रहा है या महसूस कराया जा रहा है.

अभी हाल ही में इसी तरह की कोशिश तब हुई जब अचानक से एक नई परंपरा के तहत हिंदुओं की स्वयंभू ठेकेदारी करने वाले संगठन विश्व हिन्दू परिषद ने डाली, जिसमें 84 कोसी यात्रा का मसौदा दिया गया और सरकार ने तब भी बडा जोश दिखाया और ऐसी ही सुरक्षा दिखाई, लेकिन तब भी विहिप के सारे गुब्बारे की हवा सराकारी ताम-झाम से नहीं, लोगों के इन सबसे किनारा करने से निकली.

इस पूरे कार्यक्रम को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं दिखा. जिन क्षेत्रों में सांप्रदायिक उन्माद जोर पकड़ने की परंपरा रही है. वहाँ विहिप को नकारा जाना एक बडी बदली हुई सोच दिखाता है. जो जनता में सांप्रदायिक शक्तियों के अंत की शुरुआत मानी जा सकती है.

वैसे इस बच्चे का सवाल उन सबके अंदर तो कहीं न कहीं कौंधता ही होगा, जो पिछले कुछ महीनों से अयोध्या का नाम बार बार सुनने या सुनाए जाने के कारण कहीं न कहीं खींझते हैं. अयोध्या तो 92 से ही ऐसी चर्चा का केन्द्र बन चुका है, जिसमें घसीटे जाने की कल्पना तो अयोध्या के निवासियों ने भी कभी नहीं की होगी. खैर, उस पुराने अतीत को बार बार कुरेदकर सामने रखने से से तकलीफ होती है. जो कईयों को एक साथ महसूस होती है. ऐसी तकलीफ जिसमें धर्म और राष्ट्रीयता दोनो की सरहदें कहीं कमजोर पड़ जाती हैं.

बहरहाल, वर्तमान में अयोध्या फिर एक बार चर्चा में है या यूं कहें कि जानबूझकर घसीटा जा रहा है. इस सारी प्रक्रिया में वही ताकतें फिर से जुटी हुई हैं, जिन्होंने 90-92 के दौर में अयोध्या को एक ऐसे सांप्रदायिक प्रतीक के रूप में गढ दिया था. उसकी कीमत सांप्रदायिक विभाजन से अक्सर उत्पन्न होने वाली हिंसा के बहाने हम सब कहीं न कहीं भुगत या महसूस कर ही चुके हैं.

लेकिन यह शक्तियां लोगों की चीखों को दबाकर सांप्रदायिक अट्ठाहास करने की आदी रही हैं. इसमें उन्हें स्वार्थ की राजनीति की ऐसी गंध मिल चुकी है, जिसके लिए वह बार बार अयोध्या को माध्यम बनाकर राजनीति के क्रूर औजारों से अपने लिए सत्ता का निर्माण करना चाहती हैं. फिर चाहे इस स्वार्थ सत्ता में कितनों की बलि क्यों न चढ़ जाए.हरिशंकर शाही युवा पत्रकार हैं.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-08-56/81-blog/4432-baba-ayodhya-me-kaa-hai-for-janjwar-by-harishankar-shahi


सामाजिक न्याय मोर्चा व आईपीएफ का महा सम्मेलन हुआ

20 नवम्बर को लखनऊ में होगी रैली

अखिलेन्द्र प्रताप सिंह

सोनभद्र, 21 अक्टूबर 2013, सामाजिक न्याय की यात्रा अभी भी अधूरी है देश में जब तक आदिवासियों, अति पिछड़ों और दलित-पिछड़े मुसलमानों को उनका अधिकार नहीं हासिल होता है तब तक सामाजिक न्याय का संघर्ष जारी रहेगा। इस देश में बनी हकूमतों ने इन तबकों को इसके वाजिब सामाजिक न्याय के अधिकार नहीं दिए। आजादी के साठ सालों बाद भी उ0 प्र0 में लाखों की संख्या में रहने वाला कोल आदिवासी होते हुए भी आदिवासी का दर्जा हासिल न कर सका जबकि उसकी बिरादरी से सांसद तक बने। गोड़, खरवार जैसी आदिवासी का दर्जा पायी जातियां उच्चतम न्यायालय तक के आदेश के बाद भी चुनाव में अपने लिए सीट नहीं पा सकी। इस नाते आज इन तबकों के अधिकारों के लिए चौतरफा आंदोलन खड़ा करना होगा और दिल्ली व राज्य की सरकारों को घेरना होगा। आगामी 20 नवम्बर को प्रदेश के वाम-जनवादी दलों के साथ मिलकर आइपीएफ इन्हीं सवालों पर लखनऊ में रैली करेगा।

यह बातें आज आइपीएफ और सामाजिक न्याय मोर्चा के संयुक्त तत्वाधान में जिलाधिकारी कार्यालय पर आयोजित महा सम्मेलन के मुख्य अतिथि आइपीएफ के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहीं।

उन्होंने कहा कि हर मोर्चे पर विफल साबित हुईअखिलेश सरकार ने मुजफ्फरनगर में जो हालात पैदा किए उसने देश में मोदी के खिलाफ जारी लड़ाई को कमजोर करने का काम किया है। सरकार ने किसानों, मजदूरों, नौजवानों से जो भी वायदे किए थे वह पूरे नहीं हुए पूरे प्रदेश में कहीं भी कानून का राज नहीं दिखता है। उन्होंने कहा कि मोदी के गुजरात माडल और सुराज का मतलब कारपोरेट परस्त राज का है जिसमें किसानों और मजदूरों की बर्बादी ही होगी। इसलिए इसके बहकावे में न आए। आज सिर्फ पार्टी और सरकार बदलने से नहीं रास्ता और नीति बदलने से ही जनता का वास्तविक विकास सम्भंव है।

सामाजिक न्याय मोर्चा के जिलाध्यक्ष चौ0 यशवंत सिंह ने कहा कि वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए हाईकोर्ट से लड़ाई को जीता गया है और ग्राम सभा की वनाधिकार समिति से स्वीकृत दावों पर मालिकाना अधिकार दिलाने के लिए हर स्तर पर प्रयास किया जायेगा।

सम्मेलन को आइपीएफ के प्रदेश संगठन प्रभारी दिनकर कपूर, जदयू के जिलाध्यक्ष रामभरोसे सिंह, लोक दल के अध्यक्ष संतोष सिंह पटेल, तौलन राम कोल, श्रीकांत सिंह, अर्जुन चैहान, महेन्द्र सिंह, प्रमोद चौबे, दयाराम कोल, अनंत बैगा, पृथ्वी पटेल, बबुदंर बैगा, छोटेलाल बैगा आदि लोगों ने सम्बोधित किया। सम्मेलन की अध्यक्षता रामकृष्ण पाठक व संचालन मोर्चा के जिला महासचिव अमरेश पटेल ने किया।


Savita Baviskar
डॉ .बाबासाहेबांनी अर्थशास्त्रावर प्रभुत्व कमाविलेले होते. म्हणून त्यांची नेमणूक फडणीशी खात्याचा मंत्री म्हणून करावी, असे शाहू महराजांनी सुचविलेले होते. म्हणून त्या कामाची माहिती होईपर्यंत ते त्या खात्यात प्रथम काम शिकू लागले व नंतर प्रत्येक खात्यातील आर्थिक घडामोडींची माहिती व्हावी ,म्हणून कोठीतील ( कोठी म्हणजे बडोदे सरकारचे सेक्रेटरीएट ) इतर खात्यातील कचेऱ्यात काम पाहू लागले. त्या कोठीतील कचेऱ्यात दोन अधिकारी परदेशी शिक्षण घेतलेले होते. पण डॉ.बाबासाहेबांच्या पदव्या त्यांच्यापेक्षा जास्त होत्या. सर्व खात्यातील कामाची माहिती पूर्ण झाल्यानंतर बाबासाहेब बडोदे संस्थानाचे फडणीस होणार होते. हि नेमणूक जाहीर होईपर्यंत बाबासाहेबांना महराजांचे मिलिटरी सेक्रेटरी म्हणून नेमण्यात आले. पगार दरमहा १२५ रुपये. निरनिरळ्या खात्यातील कचेऱ्यात काम करीत असता त्यांना हाताखालील लोकांकडून फार त्रास होऊ लागला . अस्पृश्य जातीचा माणूस आपणावर अधिकारी नेमण्यात आला, हि गोष्ट सवर्ण हिंदूंना लांच्छनास्पद होय, अशी सर्वांची समजूत झाल्यामुळे कचेऱ्यातील सर्व लहानथोर लोक शिपाई यांनी डॉ. बाबासाहेबांना संत्रस्त करण्याचा विडा उचलला . ते लोक बाबासाहेबांचे हुकुम मानीत नसत. ते कागद व फायली बाबासाहेबांच्या टेबलावर लांबून झुगारून टाकून देत व बाबासाहेबांच्या हाताचा स्पर्श न होईल , अशा रीतीने दूर उभे राहत बाबासाहेबांना ऐकू जाईल अशा रीतीने ते लोक अस्पृश्य जातीतील लोकांची अवहेलना करणारी संभाषणे करीत असत. कोठीतील अधिकाऱ्यांचा एक क्लब होता. क्लबचे सभासद कचेऱ्यातून सुटल्यानंतर हे अधिकारी क्लबात जात व चहापाण करून टेनिस,
पत्ते वैगेरे खेळ खेळत. बाबासाहेब प्रथम क्लबात गेले तेव्हा त्यांना इतर सभासदांप्रमाणे सर्वांनी वागू दिले, पण चारपाच दिवस लोटल्यावर त्यांना इतर सभासदांप्रमाणे असे सुचविण्यात आले कि,त्यांनी एका कोपऱ्यात बसावे व मुसलमान शिपाई त्यांना वरून चहा व फराळाचे पदार्थ देईल , ते बाबासाहेबांनी बिनबोभाट स्वीकारावेत . त्यांनी बाबासाहेबांना असेही सुचविले कि, तुम्ही टेनिस ,बॅडमिंटन वगैरे खेळात भाग घेऊ नये.हि सूचना हिंदू अधिकाऱ्यांनी एका पारशी अधिकाऱ्याच्या तोंडूातून वदविली . त्या पारशी व त्या दोन मुसलमान अधिकाऱ्यांचा त्या हिंदू अधिकाऱ्यांना विटाळ होत नव्हता. पण बाबासाहेबांचा त्यांना विटाळ होत होता.ज्या सायंकाळी बाबासाहेबांना हि सूचना करण्यात आली त्या सायंकाळी त्यांनी त्या क्लबात चहाफराळ केला नाही. एका कोपऱ्यात बसून निराळेपणाने वागणे बाबासाहेबांना मान्य केले नाही.कचेरीतील काम संपवून ते लायब्ररीत वाचावयास जात एके दिवशी डॉ. बाबासाहेब कचेरीतील काम संपवून दोन वाजता लायब्ररीकडे चालले तेव्हा एक अधिकारी म्हणाला , ' चालले हे साहेब लायब्ररीचे नाव सांगून भटकायला !' तेव्हा बाबासाहेब थांबून . त्याला म्हणाले , 'हे पहा तुम्ही माझ्याबरोबर चला म्हणजे मी त्या लायब्ररीतील किती पुस्तके वाचलीत व त्यावर किती टिपणे काढलीत ते दाखवितो तुम्हाला !' यावर तो अधिकारी काही बोलला नाही.दुसऱ्या दिवशी बाबासाहेबांनी आपल्या टिपणांच्या जाड जाड बारा -वह्या सदर अधिकाऱ्याला दाखविल्या व त्याला म्हटले , तुम्ही बडोद्यात बारा वर्षे राहता. सांगू पाहू तुम्ही किती पुस्तके वाचलीत ?' यावर तो अधिकारी खजील झाला. तेव्हापासून तो बाबासाहेबांच्या वाटेला गेला नाही. त्याचप्रमाणे जो पारशी अधिकारी व दोन मुसलमान अधिकारी ते त्यांच्या धर्माप्रमाणे कचेरीत प्रार्थना करीत असत . त्यावर डॉ . बाबासाहेब त्यांना विचारत कि ज्या प्रार्थना तुम्ही केल्या त्यांचा अर्थ तुम्हाला समजला का ? यावर ते संतापून म्हणत कि, तू अस्पृश्य आहेस व तुला कशाला ह्या उठाठेवी हव्यात ? ' यावर डॉ.बाबासाहेब त्या प्रर्थानांचा अर्थ व मतितार्थ त्यांना सांगत असत. त्यांच्यात वादविवाद होत , त्यात हिंदू अधिकारीदेखील भाग घेत .यावेळी बाबासाहेब आपल्या वाद्विवादाने त्यांना हैराण करीत असत . हे वादविवाद ऐकून त्या हिंदू, मुसलमान व पारशी अधिकाऱ्यांची खात्री पटली कि हा गृहस्थ बराच जबर आहे . आणि म्हणून तेव्हापासून डॉ. बाबासाहेबांबद्दल द्वेषतिरस्कारमिश्रित आदर व भीती अशा भावना त्यांना वाटू लागल्या .

! जय भीम ! !! जय भारत !! !!! नमो बुद्धाय !!!

............सविता राजेंद्र बाविस्कर .....

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Marxism and religion

From Wikipedia, the free encyclopedia
Part of a series on
Marxism
Karl Marx and Friedrich Engels
Part of the series on
Communism
A golden hammer and sickle inscribed within a red star
Portal icon Communism portal

The founder and primary theorist of Marxism, the nineteenth-century German thinker Karl Marx, had a negative attitude to religion, viewing it primarily as "the opium of the people" that had been used by the ruling classes to give the working classes false hope for millennia, while at the same time recognizing it as a form of protest by the working classes against their poor economic conditions.[1] In the end, Marx rejects religion.[2]

In the Marxist-Leninist interpretation of Marxist theory, developed primarily by Russian revolutionary Vladimir Lenin, religion is seen as retarding human development, and socialist states that follow a Marxist-Leninist variant are atheistic and explicitly antireligious. Due to this, a number of Marxist-Leninst governments in the twentieth century, such as the Soviet Union and thePeople's Republic of China, implemented rules introducing state atheism. However, severalreligious communist groups exist, and Christian communism was important in the early development of communism.

Marx on religion[edit]

Karl Marx's religious views have been the subject of much interpretation. He famously stated inCritique of Hegel's Philosophy of Right

"Religious suffering is, at one and the same time, the expression of real suffering and a protest against real suffering. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people.

The abolition of religion as the illusory happiness of the people is the demand for their real happiness. To call on them to give up their illusions about their condition is to call on them to give up a condition that requires illusions. The criticism of religion is, therefore, in embryo, the criticism of that vale of tears of which religion is the halo.

Criticism has plucked the imaginary flowers on the chain not in order that man shall continue to bear that chain without fantasy or consolation, but so that he shall throw off the chain and pluck the living flower. The criticism of religion disillusions man, so that he will think, act, and fashion his reality like a man who has discarded his illusions and regained his senses, so that he will move around himself as his own true Sun. Religion is only the illusory Sun which revolves around man as long as he does not revolve around himself. [3]

Lenin on religion[edit]

Vladimir Lenin was highly critical of religion, saying in his book Religion

Atheism is a natural and inseparable part of Marxism, of the theory and practice of scientific socialism.[4]

In About the attitude of the working party toward the religion, he wrote

Religion is the opium of the people: this saying of Marx is the cornerstone of the entire ideology of Marxism about religion. All modern religions and churches, all and of every kind of religious organizations are always considered by Marxism as the organs of bourgeois reaction, used for the protection of the exploitation and the stupefaction of the working class.[5]

Nikolai Bukharin and Evgenii Preobrazhensky on religion[edit]

In their influential book The ABC of CommunismNikolai Bukharin and Evgenii Preobrazhensky spoke out strongly against religion. "Communism is incompatible with religious faith", they wrote.[6]

However importance was placed on secularism and non-violence towards the religious.

"But the campaign against the backwardness of the masses in this matter of religion, must be conducted with patience and considerateness, as well as with energy and perseverance. The credulous crowd is extremely sensitive to anything which hurts its feelings. To thrust atheism upon the masses, and in conjunction therewith to interfere forcibly with religious practices and to make mock of the objects of popular reverence, would not assist but would hinder the campaign against religion. If the church were to be persecuted, it would win sympathy among the masses, for persecution would remind them of the almost forgotten days when there was an association between religion and the defence of national freedom; it would strengthen the antisemitic movement; and in general it would mobilize all the vestiges of an ideology which is already beginning to die out."[6]

In self-identified "Marxist" states[edit]

See also: State atheism

Religion in the Soviet Union[edit]

The Soviet Union was an atheist state,[7][8][9] in which religion was largely discouraged and at times heavily persecuted.[10] According to various Soviet and Western sources, however, over one-third of the country's people professed religious belief. Christianity and Islamhad the most believers. Christians belonged to various churches: Orthodox, which had the largest number of followers; Catholic; andBaptist and other Protestant denominations. The majority of the Islamic faithful were SunniJudaism also had many followers. Other religions, which were practiced by a relatively small number of believers, included Buddhism and Shamanism.

The role of religion in the daily lives of Soviet citizens varied greatly. Two-thirds of the Soviet population, however, were irreligious. About half the people, including members of the ruling Communist Party and high-level government officials, professed atheism. For the majority of Soviet citizens, therefore, religion seemed irrelevant.

Prior to its collapse in late 1991, official figures on religion in the Soviet Union were not available.

State atheism in the Soviet Union was known as "gosateizm"[11]

Religion in the Socialist People's Republic of Albania[edit]

Further information: Religion in Albania  and Enver Hoxha

Albania was declared an atheist state by Enver Hoxha,[12] and remained so from 1967 until 1991.[13] The trend toward state atheism inAlbania was taken to an extreme during the regime, when religions, identified as imports foreign to Albanian culture, were banned altogether.[13] This policy was mainly applied and felt within the borders of the present Albanian state, thus producing a nonreligiousmajority in the population.

Religion in the People's Republic of China[edit]

Further information: Religion in China

The People's Republic of China was established in 1949 and for much of its early history maintained a hostile attitude toward religion which was seen as emblematic of feudalism and foreign colonialism. Houses of worship, including temples, mosques, and churches, were converted into non-religious buildings for secular use.

This attitude, however, relaxed considerably in the late 1970s, with the end of the Cultural Revolution. The 1978 Constitution of the People's Republic of China guaranteed "freedom of religion" with a number of restrictions. Since the mid-1990s there has been a massive program to rebuild Buddhist and Taoist temples that were destroyed in the Cultural Revolution.

Religion in Democratic Kampuchea[edit]

Pol Pot, leader of the Khmer Rouge regime, suppressed Cambodia's Buddhist religion: monks were defrocked; temples and artifacts, including statues of Buddha, were destroyed; and people praying or expressing other religious sentiments were often killed. The Christian and Muslim communities were among the most persecuted, as well. The Roman Catholic cathedral of Phnom Penh was razed. The Khmer Rouge forced Muslims to eat pork, which they regard as an abomination. Many of those who refused were killed. Christian clergy and Muslim imams were executed.[14][15]

Religion in Laos[edit]

In contrast with the brutal repression of the sangha undertaken in Cambodia, the communist government of Laos has not sought to oppose or suppress Buddhism in Laos to any great degree. Rather, since the early days of the Pathet Lao, communist officials have sought to use the influence and respect afforded to Buddhist clergy to achieve political goals, while discouraging religious practices seen as detrimental to Marxist aims.[16]

Starting as early as the late 1950s, members of the Pathet Lao sought to encourage support for the Communist cause by aligning members of the Lao sangha with the Communist opposition.[16] Though resisted by the Royal Lao Government, these efforts were fairly successful, and resulted in increased support for the Pathet Lao, particularly in rural communities.[16]

Religion in the Democratic Republic of Afghanistan[edit]

Once it came to power in Afghanistan, from the period it ruled for, 1978 to 1992, the People's Democratic Party of Afghanistanaggressively implemented state atheism.[17][18] They also imprisoned, tortured or murdered thousands of members of the traditional elite, the religious establishment, and the intelligentsia.[19]

Communism and Christianity[edit]

Main article: Christian communism

Christian communism can be seen as a radical form of Christian socialism. It is a theological and political theory based upon the view that the teachings of Jesus Christ compel Christians to support communism as the ideal social system. Although there is no universal agreement on the exact date when Christian communism was founded, many Christian communists assert that evidence from the Biblesuggests that the first Christians, including the Apostles, created their own small communist society in the years following Jesus' death and resurrection. As such, many advocates of Christian communism argue that it was taught by Jesus and practiced by the Apostles themselves.

In Socialism: Utopian and Scientific Friedrich Engels draws a certain analogy between the sort of utopian communalism of some of the early Christian communities and the modern-day communist movement, the scientific communist movement representing the proletariat in this era and its world historic transformation of society. Engels noted both certain similarities and certain contrasts.[20]

Communism and Islam[edit]

Main article: Socialism and Islam
Main article: Anarchism and Islam

From the 1940s through the 1960s, Communists and Islamists sometimes joined forces in opposing colonialism and seeking national independence.[21] The Tudeh (Iranian Communist party) was allied with the Islamists in their ultimately successful rebellion against theShah in 1979, although after the Shah was overthrown, the Islamists turned on their one-time allies.

Communist philosopher Mir-Said (Mirza) Sultan-Galiev, Stalin's protégé at the Commissariat of Nationalities (Narkomnats), wrote in The Life of Nationalities, the Narkomnats' journal.[22]

Communism and Judaism[edit]

Main article: Jewish Left

During the Russian Civil War, Jews were seen as communist sympathizers and thousands were murdered in pogroms by the White Army. During the Red Scare in the United States in the 1950s, a representative of the American Jewish Committee assured the powerful House Committee on Un-American Activities that "Judaism and communism are utterly incompatible.".[23] On the other hand, some Orthodox Jews, including a number of prominent religious figures, actively supported either anarchist or Marxist versions of communism. Examples include Rabbi Yehuda Ashlag, an outspoken libertarian communist, Russian revolutionary and territorialistleader Isaac Steinberg and Rabbi Abraham Bik, an American communist activist.[24]

Communism and Buddhism[edit]

Buddhism has been said to be compatible with communism given that both can be interpreted as atheistic and arguably share some similarities regarding their views of the world of nature and the relationship between matter and mind.[25] Regardless, Buddhists have still been persecuted in communist states,[26] notably China, Mongolia and Cambodia under the Khmer Rouge.

Many supporters of the Viet Cong were Buddhists, strongly believing in the unification of Vietnam, with many opposing South Vietnamdue to former president Ngo Dinh Diem's persecution of Buddhism during the early 1960s.

The current Dalai Lama, Tenzin Gyatso, speaks positively of Marxism, despite the heavy persecution of the Tibetan people by the Chinese communists.

Communism and Hinduism[edit]

Some principles of Hinduism can be seen as compatible with communism, because, in spite of it being largely theistic, the religionopenly allows atheism and accepts the practice of it within itself.

A vast number of followers of Nepalese Maoist leader Prachanda and members of the Unified Communist Party of Nepal (Maoist) follow Hinduism, preferring the communist system to the Nepalese monarchy, despite Mao Zedong's hostility towards religion.

Religious criticism of communism[edit]

Because of communism's atheism, some have accused communism of persecuting religion.[27] In addition, another criticism is that communism is, in itself, a religion.[28][29]

See also[edit]

References[edit]

  1. Jump up^ Raines, John. 2002. "Introduction". Marx on Religion (Marx, Karl). Philadelphia: Temple University Press. Page 05-06.
  2. Jump up^ Raines, John. 2002. "Introduction". Marx on Religion (Marx, Karl). Philadelphia: Temple University Press. Page 8.
  3. Jump up^ Marx, Karl. "Critique of Hegel's Philosophy of Right". Marxist Internet Archive. Retrieved 19 January 2012.
  4. Jump up^ Lenin, V. I. (2007). Religion. READ BOOKS. p. 5. ISBN 1-4086-3320-5, 9781408633205 Check |isbn= value (help).
  5. Jump up^ Lenin, V. I. "About the attitude of the working party toward the religion."Collected works, v. 17, p.41. Retrieved 2006-09-09.
  6. Jump up to:a b Bukharin, Nikolai; Evgenii Preobrazhensky (1920). The ABC of Communism. pp. Chapter 11: Communism and Religion. ISBN 0-472-06112-7, 9780472061129 Check |isbn= value (help).
  7. Jump up^ http://www.jstor.org/pss/128810
  8. Jump up^ Sabrina Petra Ramet, Ed., Religious Policy in the Soviet Union. Cambridge University Press (1993). P 4
  9. Jump up^ John Anderson, Religion, State and Politics in the Soviet Union and Successor States, Cambridge University Press, 1994, pp 3
  10. Jump up^ http://www.loc.gov/exhibits/archives/anti.html
  11. Jump up^ Protest for Religious Rights in the USSR: Characteristics and Consequences, David Kowalewski, Russian Review, Vol. 39, No. 4 (Oct., 1980), pp. 426–441, Blackwell Publishing on behalf of The Editors and Board of Trustees of the Russian Review
  12. Jump up^ Sang M. Lee writes that Albania was "[o]fficially an atheist state under Hoxha..." Restructuring Albanian Business Education Infrastructure August 2000 (Accessed 6 June 2007)
  13. Jump up to:a b Representations of Place: Albania, Derek R. Hall, The Geographical Journal, Vol. 165, No. 2, The Changing Meaning of Place in Post-Socialist Eastern Europe: Commodification, Perception and Environment (Jul., 1999), pp. 161–172, Blackwell Publishing on behalf of The Royal Geographical Society (with the Institute of British Geographers)
  14. Jump up^ "Pol Pot - MSN Encarta". Archived from the original on 2009-10-31.
  15. Jump up^ Cambodia - Society under the Angkar
  16. Jump up to:a b c Savada, Andrea Matles (1994). Laos: A Country Study. Washington, D.C.: GPO for the Library of Congress.
  17. Jump up^ Maley, William (1998). Fundamentalism reborn?: Afghanistan and the Taliban. NYU Press. p. 276. ISBN 0-8147-5586-0, 9780814755860 Check |isbn= value (help). p. 8
  18. Jump up^ http://www.vfw.org/resources/levelxmagazine/0203_Soviet-Afghan%20War.pdf
  19. Jump up^ http://www.historyofnations.net/asia/afghanistan.html
  20. Jump up^ Avakian, Bob (22 June 1997). "Early Christian Communalism and Real Communism"Revolutionary Worker (RW Online) (912). Retrieved 15-Nov-2008.
  21. Jump up^ "Communism and Islam". Oxford Islamic Studies Online. Retrieved 15-Nov-2008.
  22. Jump up^ Byrne, Gerry (17 March 2004). "Bolsheviks and Islam Part 3: Islamic communism". Retrieved 15-Nov-2008.
  23. Jump up^ Diner, Hasia R. (2004). Jews of the United States, 1654 to 2000. University of California Press. p. 279. ISBN 0-520-22773-5, 9780520227736 Check |isbn= value (help).
  24. Jump up^ http://seforim.blogspot.com/2008/03/rabbis-and-communism-by-marc-b.html Rabbis and Communism, a research article by Prof. Marc Shapiro
  25. Jump up^ Sharma, Arvind (1995). Our Religions: The Seven World Religions Introduced by Preeminent Scholars from Each Tradition. HarperCollins. pp. 82–83. ISBN 0-06-067700-7, 9780060677008 Check |isbn= value (help).
  26. Jump up^ MongoliaEncyclopædia Britannica Online.
  27. Jump up^ Communism Persecutes Religion. NoCommunism.com. Accessed 15 November 2008
  28. Jump up^ The Hidden Link Between Communism and Religion, by Gaither Stewart, World Prout Assembly 12/08/07
  29. Jump up^ Defining Religion in Operational and Institutional Terms, by A Stephen Boyan, Jr., Accessed 4-1-2010

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