नायपाल की दृष्टि में भारत
तरसेम गुजराल
इंडिया ए मिलियन म्यूटिनीस नाउ : वी.एस. नायपॉल, अनु.-शुचिता मीतल, पेंगुइन बुक्स,
पृ. सं.: 438, मूल्य: 299 रुपए
वी.एस. नायपाल की पुस्तक इंडिया ए मिलियन म्यूटिनीस (लाखों हवेलियों की कहानी) एक दिलचस्प भारत यात्रा है, जिसमें निराशा की दीवार फलांग कर भारत बेचैनी से भविष्य के मार्ग पर अग्रसर है। भारत को पहचानने और अंकित करने की राहह में यह उनकी तीसरी और अंतिम पुस्तक है। इससे पहले दो पुस्तकें 'एन एरिया ऑफ डार्कनेस' (1964) और 'इंडिया: ए वून्डेड सिविलाइजेशन' (1977) आ चुकी हैं।
एन एरिया ऑफ डार्कनेस के नॉयपाल को हर जगह गंदगी, लाचारी और हताशा नजर आती है। पुस्तक के नाम से ही जाहिर है कि उन्हें एक विवश अंधकार युग का भारत दीख पड़ता है। सामने उभरती चुनौतियों के सामने यह एक ऐसा उदासीन सा भारत है जिसमें चुनौतियों के सामने छाती खोलकर खड़ा होने का साहस नहीं है। उनके अनुसार भारतीयों की मुश्किलों से पीछे हटने की गजब की क्षमता है। ऐसी क्षमता जो देखे को अनदेखा करती है। एक ऐसी मनोवृत्ति जो दुनिया के लोगों के लिए विक्षिप्तता का कारण हो सकती है, भारतीयों के लिए एक महान दुखवादी दर्शन का आधार।' यानी गरीबी भारतीयों को संघर्षशील नहीं बनाती। उनकी निराशा हर दर्जे की है जो इन शब्दों में फूट पड़ती है—भारत हर जगह मूतता है, शौच करता है… यह एक ऐसा सामूहिक अंधापन है जो प्रदूषण के खतरे से पैदा होता है और ऐसी धारणा को जन्म देता है कि भारतीय दुनिया के शुद्धतम लोग हैं।" इतिहास की बाबत और भी ढुलमुल हैं कि भारतीयों को न तो इतिहास की कोई समझ है, न ही इतिहास की तमीज। भारत को जानने-समझने का उनका दूसरा चरण है 'इंडिया: ए वुण्डड सिविलाइजेशन' इस पुस्तक में विजयनगर साम्राज्य के खंडहर देखते हुए उन्हें भारत के जख्म का अहसास होता है जहां मध्यकालीन भारत का दर्द समझ आता है। महसूस करते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य और पहले मुसलमान हमलावरों ने काफी जख्त दिए हैं और उनकी भारत के प्रति निराशा और अवहेलना का पहले वाला स्वर कुछ विनम्र होता है। यहां भी भारत को पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानते नजर आते हैं।
इंडिया: ए मिलियन मयूटिनीस नाउ में पहले के संकोच पूर्वाग्रह से कुछ मुक्त होने की कोशिश में हैं परंतु कायाकल्प जैसे स्थितियां बहुत कम हैं 'म्यूटिनी' का हिंदी अर्थ है—बलवा, गदर। सैन्य विद्रोह। 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम न मानकर पश्चिम गद्दार या ठलवा का दर्जा देता रहा है। 150 साल गुजर चुकने पर हिंदी में जमकर अंगे्रज की इतिहास दृष्टि पर पुनर्विचार किया गया है। अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक निकले हैं। आज यह स्वीकार करने की जरूरत नहीं कि पश्चिम का ज्ञानोदय ही प्रथम और अंतिम है। क्या इसका आकलन जरूरी नहीं कि संबंधित ज्ञान मनुष्य की चेतना और समाज को सही दिशा में विकसित कर पाना है या नहीं? क्या ज्ञान से न्याय की व्यापक समझ दी है? या नकली घृणा, दमन, तथा सामाजिक विभेदों को जन्म दिया है? माओ-त्से-तुंग ने सवाल उठाया कि मानव प्रकृति जैसी कई चीज होती है? जवाब दिया—बिल्कुल होती है, लेकिन इस मानव प्रवृति का एक ठोस रूप होता है, कोई भी मानव प्रकृति अमूर्त नहीं होती है, वर्गीय समाज में वर्गीय चरित्र की मानव प्रवृत्ति होती है, वर्गों से उपर कोई भी मानव प्रकृति नहीं है।
म्युटिनी यानी बलवा, गदर सत्ता के विरुद्ध ही होगा। दलित के सामने ब्राह्मण की कोई सत्ता की तरह सत्ता नहीं। यहां क्रांतियों में से एक क्रांति का मतलब होगा कि दलित एक मनुष्य है उसे मनुष्य ही समझा जाना चाहिए। यह बात अब उसकी चेतना का हिस्सा है। नायपॉल ने नामदेओ के प्रसंग को बड़ी मार्मिकता से लिखा है। नामदेओ ने अपनी कविता का आवेग दलित पैंथर्स को दिया था। यह नाम ब्लैक पैंथर्स से लिया गया था। 'ब्लैक पैंथर्स के समान दलित आंदोलन अपनी सफलता के साथ बिखरने लगा था।' नामदेओ की पत्नी मल्लिका संवेदनशील महिला है। नामदेव के यौन रोगग्रस्त होने के बावजूद उसका पे्रम और आदर बना रहा। नकारात्मक गुणों के बावजूद। यह बात उभरकर आई कि दलित अपने नेतृत्व द्वारा भी कई बार छला गया। 'आंदोलन टूटा और फिर टूटा और विभिन्न स्रोतों से विभिन्न लोगों द्वारा पैसा लिए जाने के आरोप-प्रत्यारोप लगे। नतीजतन दलितों का अपने नेताओं पर से विश्वास उठ गया। (पृ. 91)
नामदेव ने दलित को व्यापक आधार देना चाहा। दलित आंदोलन में इसकी जरूरत आज भी बनी हुई है। वह कहते हैं—मैंने दलितों की परिभाषा को व्यापक करने की कोशिश की मैंने सिर्फ जातियों को ही नहीं। बल्कि सभी शोषितों को लेना चाहा। अगर आप वाकई अस्पृश्यता को तोडऩा चाहते हैं, तो आपको मुख्य धारा में आना होगा। …लेकिन दलितों के भीतर मौजूद प्रतिक्रियावादी मुख्य धारा में आना नहीं चाहते। उनका मानना था कि सांप्रदायिक भावनाओं को तोडऩे के लिए, आपको स्वयं सांप्रदायिक बनना होगा।" (पृ. 105)
'बांबे थिएटर' का बाबू कहता है कि उद्योग में मारक क्षमता जरूरी है, कारोबार में नहीं। वह किसी से अगर पैसा नहीं निकाल पाते तो पैसा निकलवाने के लिए माफिया के आदमी के पास नहीं जाएंगे। 1975 के बाद से श्रीमती गांधी के आपतस्थिति के समय सारे माफिया डान स्मगलिंग छोड़कर भवन निर्माण में आ गए। यह भारतीय राजनीति और व्यापार के 'अपराधीकरण का हिस्सा था। धारावी वोट-बैंक था, नफरत का बैंक जिसे बहुत से लोगों द्वारा कैश किया जाता था।
मि. सओते बताते हैं कि धर्म निश्चय ही हमें आत्मविश्वास देता है। यह हमारा चरित्र बनाता है। और यह थी कि 1966 में जब शिवसेना की स्थापना हुई तब शपथ ली गई थी कि धरती पुत्रों के साथ हो रहे अन्याय से लड़ेंगे। बाल ठाकरे के पिता ने शिवसेना का नमा दिया था। अनवर कहता है कि इस्लाम भेदभाव नहीं सिखाता। यह लोगों से लोगों की मदद करवाता है।
दरअसल नायपॉल औपनिवेशिक इतिहास लेखन में प्रचलित भ्रमपूर्ण स्थापनाओं के खंडन की वजह की तलाश में जूटते ही नहीं। हां, गंदगी जहां कहीं नजर आती है उनके कदम थम जाते है, "मुंबई कभी सुंदर नहीं होगी। कुछ अनुवंशिक कमियां हैं यहां। कुछ समय पहले नालियां साफ हुई थीं, लेकिन फिर फंस गई। समस्या लोगों के साथ है: एवसेंस ऑफ सिविक सेंस नागरिक भावना का अभाव।' (पृ. 55)
ब्रेकिंग आउट में सुब्रह्मयम से नायपॉल ने जाना कि विज्ञान स्वाभाविक रूप से भारतीयों में बसा हुआ है। बहुत से भारतीय स्वयं को उस परंपरा से जुड़ा मानना पसंद करते हें जो ज्ञान की खोज करती है, और विज्ञान ऐसा ज्ञान है जिसे भास्कर समझते थे जो कि हमारे प्राचीनतम वैज्ञानिकों में से एक हैं। आज भारत में अब 600-700 ईसापूर्व भास्कर द्वारा लिखा खगोल शास्त्र का ग्रंथ खरीद सकते हैं:
"1000 ईसापूर्व में भारतीय अपने ज्ञान के बारे में विश्वास से परिपूर्ण थे। हमारे पास इसके प्रमाण हैं, लेकिन 1800 तक दो विश्वास लुप्त हो गया।" (वही, पृ. 131) लेकिन इसके बाद वह अनुष्ठानों में गहरी दिलचस्पी लेने लगते हैं। नायपाल बहाने से दर्ज करते हैं कि भारतीयों की औसत महत्वाकांक्षा किसी की छाया के तहत विकसित होने की है।
भारत में अंगे्रज की गुलामी का अस्वीकार 1857 तक सामने आ चुका था। भारतीय जमीन से परे विदेश से पहली बार माक्र्स और एंगेल्स ने 'भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम' नाम दिया और कुछ सशस्त्र सिपाहियों की बगावत की जगह इसे भिन्न-भिन्न सामाजिक स्तर के लोगों के एक साथ लड़ मरने की बात को स्वीकार किया। …'यह पहली बार है कि सिपाहियों के रेजीमेंटों ने अपने आपसी विद्वेषों को भूलकर मुसलमान और हिंदू अपने सामान्य स्वामियों के विरुद्ध एक हो गए, जबकि हिंदुओं द्वारा आरंभ की गई उथल-पुथल ने दिल्ली के राज्य सिंहासन पर वास्तव में एक मुसलमान सम्राट को बैठा दिया है जबकि बगावत केवल कुछ थोड़े से स्थानों तक ही सीमित नहीं रहीं है।'
कर्नाटक में वह एक मंगी प्रकाश से मिलते हैं और पश्चिम तथा पूर्व का अंतर प्रकाश के शब्दों में इस तरह दिखाते हैं—पश्चिमी देशों में भी सत्ताधारी दिखना इंसान की सहज वृत्ति है। और भारत में यह कुछ ज्यादा ही है, क्योंकि यहां ताकत ही सब कुछ है। जब कोई अमेरिकी राष्ट्रपति व्हाइट हाउस से जाता है, तो जहां तक उसकी जीवन शैली और उसकी शारीरिक सुविधाओं का सवाल है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। भारत में अक्सर ऐसा नहीं होता, जब तक कि गांधीवादी युग के पुराने देवताओं की तरह गरीबी में रहने की आपकी इच्छा ही न हो।" साथ ही यह भी—बदलाव के इस दौर में, हम धीरे-धीरे अपने पुरखों के नैतिक मूल्यों से कर रहे हैं साथ ही अनुशासन और सामाजिक न्याय की पश्चिमी धारणा हमारे अंदर है नहीं।" (पृ. 161)
नैतिक मूल्यों का अनुपालन भेदभाव, अन्याय और शोषण आधारित समाज में असंभव है तो सामाजिक न्याय पश्चिम के पूंजीवादी समाज में कैसे सुरक्षित रह सकता है? मद्रास में वह पेरियार की कब्र के पास जाते हैं और उनके भाषण का आरंभिक अंश उद्धृत करते हैं—कोई ईश्वर नहीं है। कोई ईश्वर नहीं है। कोई ईश्वर नहीं है। जिसने ईश्वर की खोज की, वो मूर्ख था। जिसने ईश्वर का प्रचार किया, वो बदमाश है। जो ईश्वर की पूजा करता है, वो बर्बर है। उनके उपदेशों में समाजवाद की लाइन भी है—आधुनिक चरित्र की कलुषता संस्कृति, न्याय और अनुशासन पर आधारित है, जिन्हें लोगों के बीच जाति और वर्ग-भेद बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है… जब ये पूंजीवादी और वैयक्तिक स्थितियां लुप्त होंगी तो कलुषित चरित्र की जरूरत नहीं रहेगी।"
नक्सलवादी आंदोलन को समझने में वह सरलीकरण के बीच दुश्मनी पैदा करना था। (पृ. 233) यानी वह जमीन जिस पर नक्सलवाद का बीज गिरा कुछ भी नहीं। वह इसके व्यापक होने की बात स्वीकार भी करते हैं—यह अंतिम ही माओवादी गुट था जिसने किसान आंदोलन की शुरुआत की थी। विद्रोह कुचल डाला गया था। लेकिन जब आंदोलन चला इसने बंगाल और भारत के अन्य भागों में हजारों शिक्षित लोगों को आकर्षित और प्रभावित किया।" (पृ. 253)
1962 में कलकत्ता उन्हें मरणशील शहर नजर आता रहा कि इसके बंदरगाह में गाद भरती जा रही है कि इसकी पुराने तर्ज की इंडस्ट्री पतनोन्मुख है। इस यात्रा में उन्हें लगा कि शहर धमाके के साथ नहीं मरते हैं… शायद वो इस तरह मरते हैं: जब सब झेलते हैं, जब परिवहन इतना मुश्किल हो जाता है कि काम करने वाले लोग सफर की परेशानियों के डर से अपने लिए जरूरी नौकरियां छोड़ देते हैं, जब किसी को साफ पानी या हवा नहीं मिलती है, और कोई टहलने नहीं' जा सकता।
पंजाब यात्रा में नायपाल के नोट्स खून से गीले हो जाते हैं। यहां आतंकवाद का दौर है। भिंडरावाले के लिए 'राक्षस' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'धार्मिक व्यक्ति राक्षस बन गया।' इसे तीन कोणों से देखा जा सकता है। पहला यह कि संभव है अनुवादक सुचिता मीताल को अंगे्रजी के शब्द का अनुवाद के लिए उपयुक्त शब्द न मिला हो। दूसरा यह कि एक सुरक्षित दूरी तक रहकर और बड़े प्रकाशनतंत्र का पालन आपको खास प्रहारात्मक उत्तेजना देता है। विवाद बिक्री की मंत्र है। सुलेमान रुशदी, शैतान की आयतें की रचना करते हैं। नायपाल की अपनी दो पुस्तकें 'अमंग बिलीवर्स' (1981) बियांड बिलीफ (1998) बेहद विवादास्पद रही हैं। एडवर्ड सईद को 'बियांड बिलीफ' को 'बौद्धिक विनाश' कहना पड़ा। वह यहां पश्चिम से इस्लाम के खराव के बिंदुओं की तलाश करते हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार जगदीश चंद्र ने जब बल स्टार ऑपरेशन पर किताब लिखी तब उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। तीसरा यह कि भिंडरावाले व्यवस्था और विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियों की देन है।
वी.एस. नायपॉल पंजाब हिंदू-सिख के आपसी गहरे संबंध और सौहार्द को उस संवेदनाशीलता से समझने में कहीं असमर्थ रह जाते हैं, जिसकी आकलन के लिए जरूरत थी।
पूरी पुस्तक के पाठ के बाद हम कहीं कैरेबियाई कवि डेरेक वाल्कॉट के साथ खुद को सहमत पाते हैं कि नायपाल विकासशील देशों की समस्याओं को पश्चिमी पूर्वाग्रह के साथ देखते रहे। परंतु उनका यात्रा विवरण एक उपन्यासकार की रचनात्मकता का परिणाम है। उनके सूक्ष्म ब्यौरे ऐसे दिलचस्प हैं कि आपके लिए लगभग साढ़े चार सौ सफों का यह सफर आसान बना रहता है। कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह ने कहा है कि भारत जैसे विशाल मुल्क के लिए जिसकी शहादत की अपनी शानदार विरासत है, अपने श्रम-संबंधों को ठीक कर कृषि-क्रांति की जमीन तैयार करने की दृष्टि से उद्योग और व्यापार की प्रगति को विराट जनहित की दिशा में मोड़ ले जाने के सिवा मुकम्मल विकास और सुरक्षा का कोई और रास्ता नहीं हो सकता। उन पर चलने के लिए इतिहास दृष्टि से लैस फौलादी इरादे और रचनात्मक विश्वास की जरूरत पड़ेगी।"
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