अंक: 11 || 15 जनवरी से 31 जनवरी 2013 – 2
मुंहफट, बेबाक, दोस्तों का दोस्त और कलाकार : अनिल घिल्डियाल
सत्तर-अस्सी के उस दौर में नैनीताल में युगमंच, एकायन, तराना, क्रांति थियेटर, कुमार थियेटर, नवयुग सांस्कृतिक मंच, आयाम मंच अपनी प्रस्तुतियाँ गाहे-बगाहे करते ही रहते थे। जिस ग्रुप की प्रस्तुतियाँ हिट हो जातीं, वह ज्यादा जानकार माना जाने लगता। शायद उसके कलाकार विशेष होते भी। वजह, हमारी समझ में नहीं आती तो हम चुपचाप देखते और करते। बहस-मुबाहिसे सुनते। कभी-कभी बात पल्ले भी नहीं पड़ती पर व्यवस्था थी गुरुकुल जैसी। सौभाग्य ही था कि अच्छा काम करते रहे और कलाकार भी अच्छे मिलते चले आये।
इसी समय विनय कक्कड़ भी स्थानीय रंगमंच में सक्रिय थे। अपनी थिएट्रीकल एक्टिविटी के साथ। 'कन्टम्प्रेरी' और 'एक्सपरिमेन्टल' शब्द जैसे विनय कक्कड़ के लिये ही बने हों…….वे उनकी नाट्य प्रस्तुतियों में आखिर तक जीवन्त रहे। उस वक्त शायद सभी ग्रुप नाटकों के मंचन खर्चों और साधनों का वहन खुद अपने कलाकारों के साथ मिल कर करते थे। अब भी करते हैं। विनय कक्कड़ बाटा शू स्टोर, मल्लीताल में काम करते थे। घरेलू खर्चों का संघर्ष उनके साथ रहा। दिनभर स्टोर और शाम को रंगमंच…… इस बाबत कभी-कभी स्टोर मैनेजर से भी बकझक हो जाती। हम लोग दिन में भी स्टोर में आकर नाटकों की चर्चा शुरू कर देते थे। पर विनय उल्टा मैनेजर को झाड़ देते थे।
विनय कक्कड़ को पहले मैं कक्कड़ भाई और बाद में कड़-कड़ नाम से बुलाने लगा था। वे मुझे गिडियाल बुलाते। कड़कड़ नाम देने के पीछे कक्कड़ भाई के व्यक्तित्व की विशेषतायें हैं। तेजी से चलना, बोलना भी जल्दी-जल्दी और सोचना भी। किसी वक्त मुँह से क्या निकल पड़ा पता नहीं। निकल गया तो निकल गया…..कोई बुरा माने तो माने, चिन्ता नहीं। कोई औपचारिकता भी नहीं। उसी वक्त माहौल बदल देते। हाँ, स्वाभिमान के धनी! थियेटर पर कोई बड़े से बड़ा बहस कर ले…. उनके तर्क सॉलिड होते….. जैसे खुद विनय कक्कड़। जो उनके साथ रहे तमीज हो तो उन पर पोथियाँ लिख डाले। हँसमुख…. क्षण में गम्भीर तो क्षण भर में हँसोड़!
उनकी मृत्यु का समाचार भी मुझे मजाक लगा। मुझे याद है कभी वे खुद कहते थे-''अबे विनय कक्कड़ का राम नाम सत्य मत करो बे।'' उनकी मृत्यु के पहले दिन, 7 जनवरी की शाम मैं हसन रजा का परिचय कुछ साथियों को इस तरह दे रहा था …… ये हसन रजा है, कक्कड़ भाई का प्रोडक्ट। और सुबह होते ही हसन रजा का एसएमएस आ गया उनकी मृत्यु का समाचार लेकर! हे ईश्वर ये कैसा संयोग है….मैंने सोचा।
मुँहफट, बेबाक, दोस्तों के दोस्त, कलाकार भी, निर्देशक भी, संगीतकार भी, नाटक की हर विधा पर उनका कमाण्ड था। डॉ. अनिल पन्त 'युगमंच' से 'कबिरा खड़ा बजार में' निर्देशित कर रहे थे। सहायक के रूप में मैं उनके साथ था। एक दिन पन्त जी रिहर्सल पर नहीं आये थे। मैंने कक्कड़ भाई को रिहर्सल पर बुलाया था। रिहर्सल चल रही थी। कक्कड़ भाइ्र्र कब हॉल में आ गये पता ही नहीं। सीन था कि कबीर इकतारा लेकर एक जगह बैठ जाता है। ठीक उसी समय कोतवाल को आना है….. और आगे की रिहर्सल भी खत्म। कक्कड़ भाई ने कबीर और कोतवाल के सीन को पकड़ लिया। मुझसे बोले-''ये तो पन्ना जोड़ रहे हो बेटा। कोतवाल हैगा…. ऐसे ही आ जायेगा ?'' मैंने सीन समझाया, पर अड़े रहे अपनी बात पर। कुछ नये लड़के भी काम कर रहे थे। कक्कड़ भाई ने पूरा धो दिया। वैसे ही ऊँचा बोलते थे। पर मैं उनकी बात समझ गया था। सभी चले गये पर उनके और मेरे घर का रास्ता एक ही था तो उन्होंने पकड़ लिया। हॉल से ये बात उठते-उठते मामू हलवाई के सामने स्थित 'उपकार रेस्टोरेन्ट' तक आ गई। पहले तो रिहर्सल ही ग्यारह बजे छूटी थी और उपर से मौसम ठंडा था। रेस्टोरेंट की भट्टी गरम थी, वहीं चिपक गये। सुबह के 3.30 वहीं बज गये। 4 बजे मैं घर पहुँचा। भूखा रहना पड़ा सो अलग। दूसरे दिन मैंने कबीर और कोतवाल के सीन में पात्र के हिसाब से सिग्नेचर म्यूजिक को बराबर समय देकर बना लिया था। दूसरे दिन वे फिर रिहर्सल में आये। पहले वही सीन देखा और मुझसे बोले, ''बेट्टा देखा, आया न अलग। अब बनी बात।''
राजा का बाजा, जंगीराम की हवेली, किस्सा तोता मैना, त्रिशंकु और तमाम नाटकों को एक्सपेरिमेंटल विधा में मंच पर लाए। कक्कड़ भाई उस समय एक नाम बन गए थे। अल्मोड़ा स्थानांतरित हुए तो वहाँ भी मन्नू चौधरी और कई लोग इकट्ठे किये और नाटक शुरू। पाँव से रिदम, हाथ की चुटकी, खंजरी का गोला, फटा डिब्बा जो चीज भी हो कक्कड़ के हाथ में आकर बात करने लगती।
रुद्रपुर में एक नाट्य प्रतियोगिता थी। विनय कक्कड़ 'एकायन' की ओर से ब्रजमोहन शाह द्वारा लिखित नाटक 'त्रिशंकु' लेकर चल पड़े। उस टीम में मैं भी था। नैनीताल से पैदल बीरभट्टी होते हुए ज्योलीकोट…… सभी के हाथों में डंडे, पेटी के टुकड़े, प्रॉपर्टी का सामान हाथों में थमा दिया गया। फिर ज्योलीकोट से आगे के लिए गाड़ी पकड़ी गई, शाम को नाटक था। युगमंच 'एक था गधा अलादाद' करने वाला था और अनवर जमाल 'अंधेर नगरी'। स्व. अम्बा भाई (सरदार संस) को दोस्ती के रिश्ते से नाटक में कोई रोल न होने पर भी रोल देने की बात कह दी और साथ ले गये रुद्रपुर। अम्बा भाई भी मस्त, दुकान से छुट्टी। नाटक के एक सीन में मंच पर चौराहा बना था। असरार, शास्त्री बीच में थे। लाईट पर राकेश दुआ नीली लाइट दिए हुए थे। डाउन स्टेज पर भिखारी (दीप पन्त) 'अंधे को कुछ दे दो बाबा' कहते हुए एक विंग से निकला। कक्कड़ को अम्बा भाई को रोल देने का यहीं पर सूझा। अम्बा भाई से कहा गया कि दूसरे विंग से भिखारी को चवन्नी देकर सीधे चले जाना, बोलना नहीं। उन्होंने भिखारी को चवन्नी दी। अचानक भिखारी बोला-''बाबा ये चवन्नी तो खोटी है।'' बस, अम्बा भाई को जोश आ गया, पलट के पीछे आये और बोल ही पड़े-''तुम तो अंधे हो चवन्नी कैसे देखी! इसमें तेरा कसूर नहीं मेरा ही है, भगवान मुझे अगले जनम…..मत बनाना!'' डायलाग सुनते ही मंच पर कोई आया और असरार के चपत मार कर भाग गया। बस इसके बाद तो बलवा मच गया। बस किसी तरह से नाटक खतम हुआ और हमें पुलिस के घेरे में निवास स्थल तक ले जाया गया। पर न शिकन अम्बा भाई के चेहरे पर थी न कक्कड़ भाई के। क्योंकि कक्कड़ भाई ने अपने दोस्त को रंगमंच पर लाने की कसम पूरी कर दी थी।
जिन्दादिल कड़कड़ भाई को हमारी श्रद्धांजलि !
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दुनिया भी जल्दबाजी में छोड़ गया वह : अरुण रौतेला
रंगकर्मी मंजूर हुसैन ने रुंधे गले से बताया कि विनय कक्क्ड़ नहीं रहा…. दिल मानने को तैयार नहीं। लेकिन सच तो यही था। यह हादसा उदयपुर, राजस्थान में हुआ।
मुझे उसका एक ही चेहरा याद आता है। वह हमेशा जल्दबाजी में रहता था। वह एक स्थान पर एक क्षण के लिये नहीं टिक सकता था। कोई भी व्यक्ति उसकी गतिविधियों पर नजर रखे तो मुस्कुराये बिना नहीं रह सकता। कभी न मुस्कराने की कसम खाये व्यक्ति को भी उसके पास बैठा दिया जाये तो वह शर्तिया कसम तोड़ कर मुस्कुराने लगेगा। उसके हाव-भाव एवं बोलने का अंदाज ही कुछ ऐसा था।
गजब की उर्जा थी उसमें! रंगकर्म उसके खून में रचा बसा था। उसका उठना, बैठना, सोना, जागना सभी रंगकर्म ही तो था। बेहतरीन रंगकर्मी एवं निर्देशक होने के साथ वह आला दर्जे का आर्गनाइजर भी था। कैसी भी समस्या हो, उसका समाधान वह चुटकी भर में कर दिया करता था। सच एवं बिना लाग लपेट के बोलना, तुरंत निर्णय लेना, सभी की बातों को गंभीरता से सुनना एवं तर्कसंगत बातों को अपने नाटकों में स्थान देना उसे अलग दर्जा प्रदान करते थे।
वह जल्दबाजी में अवश्य रहता था, लेकिन रंगकर्म, परिवार एवं अपने दोस्तों के प्रति अत्यन्त जिम्मेदार था। उसे अपनी मां से विशेष लगाव था। उसे पहाड़ से बेइंतहा प्यार था।
हां, पहली नजर में वह लापरवाह, दो टूक कहने वाला व्यक्ति नजर आता था। वह निर्भीक और कड़क तो आदतन था ही, लेकिन अंदर से मोम की तरह मुलायम, गंभीर और सृजनशील रंगकर्मी था।
वह सालों से नैनीताल वापस लौटने के लिये छटपटा रहा था। लेकिन उसकी सेहत ने इजाजत नहीं दी। कई सालों से सप्ताह में दो बार डाइलिसिस करवाने वाला व्यक्ति लौट भी कैसे सकता था ? वह जब भी बोला तो रंगकर्म के लिये, नैनीताल शहर के हाल-चाल के लिये वह अपने साथियों को एक पल के लिये भी नहीं भूला और चला गया एक सहृदय इंसान।
शेखर दा ने उस दिन ठीक ही कहा कि वह जल्दबाजी में इस लिये रहता था, क्योंकि उसे अपनी पूरी आयु केवल 56 वर्षों में जीनी थी। समय कम था, काम ज्यादा….. जल्दबाजी न करता तो और क्या करता ?
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मन बोझिल कर गये बेरी जी : शम्भू राणा
करीब 9-10 साल पुरानी बात है। किसी मित्र ने यह कह कर मुझे एक आदमी से मिलवाया, ''ये बेरी जी हैं। कलाकार हैं। बगेट (चीड़ के पेड़ की छाल) से लाजवाब कलाकृतियां बनाते हैं।'' एक दुबले-पतले, लंबे से शख्स ने मुझसे हाथ मिलाया। इधर-उधर की बातों के बीच मैंने उनसे उनका काम देखने की इच्छा प्रकट की। कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे अपने घर बुलवाया। उनके काम करने के छोटे-से कमरे में हम दोनों एक-डेढ़ घंटा बैठे बातें करते रहे। वे अपने काम के बारे में बोलते रहे। कमरे में चारों ओर राफियां, हथौडि़यां, आरियां, शिकंजे, रंग-ब्रश, बने-अधबने चित्र, बगेट के शो-पीस बिखरे पड़े थे। इस मुलाकात के नतीजे में बेरी साहब के बारे में एक छोटा-सा लेख 'नैनीताल समाचार' में प्रकाशित हुआ था। आज फिर उन्हीं संजय बेरी पर कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूं। मगर अफसोस कि बेरी साहब इसे नहीं पढ़ पाएंगे। पिछले दिनों इलाज के दौरान दिल्ली में उनका देहान्त हो गया, महज पचासेक साल की उम्र में।
हम धीरे-धीरे अच्छे दोस्त बन गये थे। वे अक्सर बाजार में टकरा जाते। सादा, सुरुचिपूर्ण पहनावा। कंधे पर बैग, गर्मियों के दिन हों तो आंखों पर धूप का चश्मा और हल्की लचकती हुई चाल। मिलने पर मुस्करा कर हाथ मिलाते और कहते- क्या बात ? जैसे कि मैं विचित्र अवस्था में पाया गया होऊं। उसके बाद दूसरा वाक्य होता- अभी किधर को ? तीसरा व चौथा सवाल होता- चाय चलेगी ? और चाय चल जाती। बेरी जी के साथ दिक्कत यह थी कि चाय खत्म होते ही उठे, नहीं तो दो-एक मिनट बाद चाय फिर से चल पड़ती। कई बार सूरज ढलने के बाद वाली बैठक मेरे कमरे में हो जाती। ऐसी बैठक के लिए बेरी जी मेरे पसंदीदा साथी थे। बेकार की बहसबाजी और हो-हल्ला न उन्हें पसंद थी न मुझे रास आता है। ऐसी बैठकों से उन्होंने तीनेक साल पहले, अपनी शादी के बाद से तौबा-सी कर ली थी।
संजय बेरी को एक दुर्घटना ने कलाकार बना दिया। कई साल पहले वे मोटर बाईक समेत ट्रक से जा भिड़े। नतीजन उनका एक घुटना और जबड़ा टूट गये। कई महीने एम्स में रहे। बाद में घर में पड़े रहे। खाली समय में बगेट पर हाथ आजमाते रहे। धीरे-धीरे हाथ में सफाई आ गई। फिर जीवन ही इस कला को समर्पित कर दिया। कई लोग उन्हें बेरी बगेट के नाम से जानने लगे।
वे बड़े सीधे और सरल इंसान थे। कलाकारों वाला ठसका नाममात्र को नहीं। कम बोलने वाले, आवाज इतनी धीमी कि सुनने वाले को अपने कान खराब होने का धोखा हो जाये। कभी कोई अपशब्द मैंने उनके मुंह से नहीं सुना। उनके सीधेपन की मिसाल देखिये। एक बार उन्होंने एक व्यक्ति को पहले बगेट का काम सिखाया। फिर खुद गारंटर बन कर उसे बैंक से लोन दिलवा दिया, ताकि वह अपना काम आगे बढ़ा सके। लोन की रकम हाथ में आते ही वह आदमी चंपत! कड़कापन बेरी साहब का साया। किसी तरह बमुश्किल तमाम उन्होंने लोन चुकता किया। एक दिन कहने लगे कि मैं जानता हूँ वह आदमी कहाँ है। फलाँ जगह मजदूरी कर रहा है। मैंने कहा- तो जाकर पकड़ते क्यों नहीं ? कहने लगे- छोड़ो अब क्या कहें। वे इतने विनम्र और भलेमानस थे। कइयों को उन्होंने निस्वार्थ भाव से घर जाकर काम सिखाया। औजार खरीद कर दिये। बाद में उन नाशुक्रों ने कहा कि बेरी हमारे यहां सीखने आता था। बेरी साहब ऐसे किस्से सुनाते और मुस्कुरा देते। क्या मजाल जो किसी को भला-बुरा कहा हो। शिकायत वाला भाव न चेहरे में, न आवाज में, जैसे कोई लतीफा सुना रहे हों। सीधा-सरल होना अच्छी बात है। मगर जब यह हद पार कर जाये तो आत्मघाती हो जाता है और माफ कीजिये बेरी साहब, यह तकरीबन मूर्खता का रूप ले लेता है। ऐसे आदमी को लोग निरा भौंदू समझ लेते हैं, आपकी सरलता का बेजा फायदा उठाते हैं और आपको उचित सम्मान भी नहीं देते।
संजय बेरी जैसे लोग इस दुनिया में मिसफिट होते हैं। न तो यह दुनिया उनकी समझ में आती है, न दुनिया उन्हें समझ पाती है। ऐसे सरल मन के लोग हर दौड़ में पिछड़ते चले जाते हैं। बेरी जी तो बिछड़ भी गये। उनका सपना था कि अल्मोड़ा में बगेट का काम इतने व्यापक पैमाने पर होने लगे कि यह कला बाल मिठाई की तरह मशहूर हो जाये। अल्मोड़े का जिक्र होते ही बाल मिठाई के साथ बगेट का भी नाम आये। लोग मित्रों-रिश्तेदारों के लिए बाल मिठाई की तरह बगेट का भी एक पीस ले जायें। लोग फरमाईश करें कि अल्मोड़ा जा रहे हो तो बगेट का कोई सामान जरूर लाना। कम ही खुशनसीब लोग होते हैं जिनके सपने पूरे होते हैं। संजय बेरी उनमें नहीं थे।
मेरे एक मित्र बच्ची सिंह बिष्ट ने कोई तीनेक साल पहले पव्वाधार (गंगोलीहाट) में ग्रामीण बच्चों को बगेट का काम सिखाने के लिए बेरी जी का एक प्रशिक्षण शिविर लगाया। मैं और वह हफ्ता भर वहां रहे। बच्ची सिंह के पास कोई योजना बेरी साहब के काम को लेकर थी, जिसमें बेरीजी के अलावा औरों का भी लाभ हो सकता था। लेकिन बेरी जी ने ऐन मौके पर हाथ खींच लिये। उनमें यह बड़ी ही अजीब बात थी कि जो उनके भले की कहे उससे दूरी बना लेते थे और आसानी से ठगों-शोषण करने वालों के चंगुल में फंस जाते। उनकी यह प्रवृत्ति मेरे लिए एक पहेली ही रही।
उनका अंतिम संस्कार अल्मोड़ा में ही हुआ, लेकिन खबर न मिल पाने से मैं उसमें शामिल नहीं हो पाया। शोकसभा की भी खबर नहीं हो पाई। कुछ लोगों ने आनन-फानन में शोक सभा निपटा डाली। जैसे उनके अलावा किसी को बेरी जी के जाने का गम ही न हो। मुझे लगता है उनकी शोक सभा उनके काम और कद के अनुरूप होनी चाहिए थी, क्योंकि कलाकार पूरे समाज का होता है। और उस पर संजय बेरी जैसा आदमी, एकदम निर्विवाद और बेदाग!
संजय बेरी के असामयिक निधन से अल्मोड़ा शहर एक कलाकार से महरूम हुआ तो व्यक्तिगत रूप से मैंने एक ऐसा मित्र खो दिया जिसके पास मैं घण्टों बिना ज्यादा बोले और सुने बगैर इत्मीनान से बैठ सकता था, जो बिना कहे चाय पिला देता था और ऑफर करने पर ना भी नहीं कहता था। कोई मित्र जब एकाएक जीवन भर के लिये दगा कर जाता है तो मन बड़ा ही बोझिल और उदास हो जाता है।
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आशल-कुशल
मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने मकर संक्रांति के दिन गैरसैण में विधान सभा भवन का शिलान्यास करते हुए कहा कि यह कदम पर्वतीय क्षेत्र के विकास में मील का पत्थर सिद्ध होगा। कांग्रेस के ही प्रदीप टम्टा और विधायक राजेन्द्र सिंह भंडारी ने गैरसैण को स्थाई राजधानी बनाने की और मंत्री हरक सिंह रावत ने दीक्षित आयोग की सिफारिश के अनुरूप राजधानी के बारे में फैसला करने की मांग की। प्रतिपक्ष के नेता अजय भट्ट ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की मांग की। समारोह के दौरान ही हड़ताली सरकारी कर्मचारियों ने अपना विरोध प्रदर्शन कर प्रशासन को चौंकाया। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व राज्य सभा सदस्य तरुण विजय ने गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्म कालीन राजधानी बनाने की मांग करते हुए कहा कि इसके बिना राज्य के पर्वतीय जिलों का विकास संभव नहीं है। मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा ने राज्य के निवासियों को नव वर्ष के अपने बधाई संदेश में कहा कि अधूरे रह गए कार्यों को उनकी सरकार नए वर्ष में पूरा करेगी। केन्द्रीय निर्वाचन आयोग ने उत्तराखंड क्रांति दल के त्रिवेन्द्र सिंह पंवार गुट को असली उक्रांद के रूप में मान्यता दी है परन्तु क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त दल के रूप में दोनों ही गुटों की मान्यता खत्म कर दी। अब दोनों ही गुट क्षेत्रीय पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त दल माने जाएंगे। महिला सुरक्षा के नए उपायों के तहत अब उत्तराखंड में महिलाओं को अपनी शिकायतें दर्ज करवाने के लिए थाने में जाने की जरूरत नहीं होगी। राज्य में महिलाएं अब अपनी शिकायत पुलिस के टोल-फ्री नम्बर पर करवा सकेंगी। उत्तराखंड में गुटखे पर प्रतिबंध के आदेश के बाद प्रशासन ने प्रदेश के अनेक हिस्सों में छापे मार कर प्रतिबंधित निकोटीनयुक्त गुटखे व अन्य पदार्थों को जब्त किया। राज्य सरकार ने 2017-18 तक के लिए खाद्यान्न उत्पादन का रोड मैप तैयार किया है तथा किसानों को उन्नत बीज और आधुनिक तकनीकी सुलभ करवाने का फैसला किया है। हड़ताली मिनिस्ट्रीयल कर्मचारियों ने मंत्रिमंडल के काम नहीं तो वेतन नहीं के फैसले को दमनकारी बताया। मंत्रिमंडल ने अपने फैसलों से शिक्षित बेरोजगारों को दिए जाने वाले सह-कौशल विकास भत्ते की शर्तों में ढील दी है। लिपिक वर्गीय कर्मचारियों के लिए मुख्य सहायक के पद पर पदोन्नति के लिए सेवा अवधि घटाई गई। चिकित्सा शिक्षा से जुड़े लोग अब 70 साल की उम्र तक नौकरी कर सकते हैं। अब सात साल बाद अब सूचना के अधिकार अधिनियम को मंजूरी मिली है। विधान सभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने पहाड़ी क्षेत्रों व मैदानों के बीच विकास के असंतुलन को देखते हुए गैरसैंण में राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का सुझाव दिया है। अभूतपूर्व ठंड के बीच राज्य के मैदानी क्षेत्र कोहरे की चादर में लिपटे रहे जबकि पहाड़ी क्षेत्रों को दिन में गुनगुनी धूप का लाभ मिला।
नैनीताल
उत्तराखंड कोआपरेटिव डेयरी फेडरेशन के प्रबंध निदेशेक धीरज गब्र्याल ने अपने पद का कार्यभार संभाला। गौला संघर्ष समिति के आह्वान पर गौला में खनन की अनुमति देने की मांग को लेकर लालकुंआ में बंद का आयोजन किया गया। बाद में केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत के आश्वासन के बाद आंदोलन समाप्त कर दिया गया। बागेश्वर से रामनगर आ रही बस के चिमटाखाल के पास अनियंत्रित होकर खाई में गिर जाने से बस चालक की मौत हो गई और सात यात्री घायल हो गए। रामनगर में दो घरों में अजगर निकलने से हड़कम्प मच गया। वनकर्मियों की मदद से पकड़ कर उन्हें जंगल में छोड़ा गया।
अल्मोड़ा
मुख्य मंत्री जड़ी बूटी योजना के तहत जागेश्वर में निर्मित हर्बल गार्डन को सैलानियों के लिए खोला गया। आजादी बचाओ टीम और उत्तराखंड लोक वाहिनी ने पानी को निजी हाथों में सौंपने की सरकारी मुहिम के खिलाफ जनता की लड़ाई लड़ने का निश्चय किया है। ताड़ीखेत क्षेत्र में डढोली के पास एक मैक्स के खाई में गिर जाने से चालक की मौत हो गई। द्वाराहाट के समीप विजपूर, घड़गोली व दैरी ग्रामसभाओं के लिए स्वीकृत पेय जल योजनाओं पर छः साल बाद भी अमल न होने से क्षुब्ध ग्रामीणों ने जोरदार प्रदर्शन किया और मिनी नलकूप पर ताला जड़ दिया। उन्होंने बाद में वार्ता के लिए पहुँचे तहसील व विभागीय अधिकारियों को भी बैरंग लौटा दिया। आखिल गायत्री परिवार ने पशुबलि के खिलाफ गाँव-गाँव में अभियान चलाने का संकल्प लिया है। अल्मोड़ा के होटल के एक कमरे में युवक को मृत पाए जाने से सनसनी फैल गई। विद्युत विभाग में कार्यरत एक महिला की कार खाई में गिर जाने से मौत हो गई।
पिथौरागढ़
स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जयन्ती के अवसर पर जिले के अनेक स्थानों में शोभा यात्रा निकाली गई। ठंड के मौसम में जिले में रिकार्ड टूटा और तापमान शून्य डिग्री से नीचे पहुँच गया। जौलजीवी में ठंड के कहर के कारण दो लोगों की मौत हो गई। कनालीछीना क्षेत्र में बिजली की कटौती व अन्य समस्याओं को लेकर ग्रामीणों ने जिला मुख्यालय में प्रदर्शन किया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने प्रत्येक बेरोजगार युवक को बेरोजगारी भत्ता देने की माँग को लेकर पिथौरागढ़ महाविद्यालय में प्रदर्शन किया।
बागेश्वर
उमेश डोभाल स्मृति समारोह इस साल 7 अप्रेल को बागेश्वर में होगा। उमेश डोभाल स्मृति न्यास के ललित कोठियाल और बी. मोहन नेगी की उपस्थिति में सम्पन्न नगर के प्रबुद्ध नागरिकों की बैठक में यह निर्णय लिया गया। उत्तरायणी के अवसर पर परम्परागत मेला उत्साहपूर्वक मनाया गया। पूर्व संध्या पर मनमोहक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये गए। मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा के बागेश्वर आगमन पर उनका भव्य स्वागत किया गया। मुख्य मंत्री ने पार्टी कार्यकत्र्ताओं से संगठन को मजबूत बनाने का आह्वान किया। कपकोट के लोकनिर्माण विभाग के अधिशासी अभियंता जी.सी.आर्या के साथ अभद्रता करने वालों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति ने सांकेतिक गिरफ्तारी दी। इससे पहले उन्होंने चक्का जाम कर प्रदर्शन भी किया था। प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सड़क का निर्माण ग्रामीणों की जरूरतों के अनुरूप करने की मांग को लेकर 116 दिनों से चल रहा आंदोलन विधायक ललित फस्र्वाण के आश्वासन के बाद समाप्त किया गया। तहसील कपकोट के सोराग गाँव में एक अग्निकांड में 14 मवेशी जिन्दा जल गए और घर में रखे जेवरात व नगदी आग की भेंट चढ़ गए। कपकोट थाने के अन्तर्गत ग्राम हिचैड़ी में पुलिस ने एक शव बरामद किया।
चंपावत
गंगोलीहाट क्षेत्र में सिमलकोट मे वन पंचायत की जमीन की सुरक्षा के उपाय सरकारी स्तर पर न किये जाने पर क्षेत्र की महिलाओं ने श्रमदान कर स्वयं ही वन पंचायत के दो हेक्टेयर जंगल की घेरबाड़ का काम आरंभ किया है। युवा कांग्रेस ने लम्बे समय से बारिश न होने के कारण मुख्य मंत्री को ज्ञापन भेज कर चंपावत जिले को सूखाग्रस्त घोषित करने की मांग की है। लोहाघाट में बसपा के कार्यकर्ता सम्मेलन में प्रदेश की दुर्दशा के लिए भाजपा व कांग्रेस की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया गया। समाज कल्याण विभाग ने जिले के लिए वृद्धावस्था पेंशन के 490 तथा विकलांग पेंशन के 58 आवेदनों को मंजूरी प्रदान की है।
उधमसिंह नगर
विधायक डॉ प्रेम सिंह राणा ने नानकमत्ता में जलाशय के पास खत्तों में रात गुजार कर ग्रामीणों की समस्या सुनी और गरीब परिवारों को 150 कम्बल भी बांटे। दिनेशपुर में एक बाइक की टक्कर लगने से श्रमिक की मौत हो गई।
देहरादून
रायपुर में नगर निगम के बस अड्डे की जमीन पर हुए अतिक्रमण को भारी विरोध के बीच हटाया गया। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने डोईवाला में बताया कि हाथी प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा दीवार व मनरेगा के तहत बाढ़ सुरक्षा कामों को राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अन्तर्गत शामिल किया गया है। मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा और केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने राज्य के विकास के मुद्दों पर अलग से आधे घंटे तक चर्चा की। मुख्यमंत्री ने चिन्यालीसौड़ में भागीरथी के ऊपर मोटर वाहन पुल का निर्माण कार्य तेज करने का निर्देश दिया। अवैध खनन पर रोक की माँग को लेकर जन संघर्ष मोर्चा ने विकास नगर में प्रदर्शन किया। जन संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष ने सरकार पर सूचना के अधिकार पर अंकुश लगाने का आरोप लगाया है। प्रतिपक्ष के नेता अजय भट्ट ने पर्यटक स्थल औली में रोपवे समेत अन्य गतिविधियों को पी.पी.पी. मोड में देने को सरकारी सम्पत्ति खुर्द-बुर्द करने की कोशिश करार दिया। मसूरी, रायपुर व डोईवाला की कुछ ग्राम पंचायतों को नगर निगम देहरादून में शामिल किये जाने के प्रस्ताव से नाराज क्षेत्रीय जन प्रतिनिधियों ने शहरी विकास मंत्री प्रीतम सिंह पंवार से मुलाकात की। लाखामंडल क्षेत्र के मौठी पंचायत में आधा दर्जन से ज्यादा पशुपालकों के लगभग 400 मवेशी अज्ञात बीमारी की चपेट में हैं। मसूरी में छुट्टियां बिताने के बाद सचिन तेंदुलकर मुंबई लौट गए। उन्होंने 23 साल के एक दिवसीय क्रिकेट के अपने सफर को अविस्मरणीय बताया। जौनसार बाबर क्षेत्र में एक माह का माघ मरोज पर्व आरंभ हुआ। ऋषिकेश के समीप चोपड़ा श्यामपुर क्षेत्र में 12वीं कक्षा की एक छात्रा ने मां द्वारा डांटे जाने पर फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। राजाजी नेशनल पार्क में सत्यनाराण बीट के जंगलों में नरकंकाल मिलने से सनसनी फैला गई। सहसपुर के सभावाला के जंगल में दुष्कर्म के बाद वृद्ध महिला की हत्या के सिलसिले में पुलिस दोषियों को दबोचने में सफल रही। चारा लेने जंगल में गए एक वृद्ध को हाथी ने कुचल कर मार डाला। लालतपड़ माजरीग्रांट मार्ग में सड़क दुर्घटना में एक व्यक्ति की मौत हो गई। राजाजी नेशनल पार्क के बीच से गुजर रहे रेलवे टैªक पर देहरादून से दिल्ली जा रही जन शताब्दी एक्सप्रेस के हाथियों के झुंड से टकरा जाने से एक हथिनी की मौत हो गई और रेल का इंजन पटरी से उतर गया। इससे यातायात में भारी बाधा उत्पन्न हुई और यात्री परेशान रहे। ऋषिकेश में मुनिकीरेती में एक भिक्षुक की ठंड लगने के कारण मौत हो गई।
चमोली
मकर संक्रांति के अवसर पर आदिबदरी के कपाट श्रद्धालुओं के लिए खोले दिए गए। कर्णप्रयाग में अपने अभिनन्दन समारोह में बोलते हुए विधान सभा के उपाध्यक्ष डाॅ.ए.पी. मैखुरी ने कहा कि गैरसैंण में विधान सभा भवन का निर्माण क्षेत्र के विकास में मील का पत्थर साबित होगा। तहसील गैरसैंण क्षेत्र में जंगल में लकड़ी बीनने गई मूक बधिर विधवा के साथ एक युवक द्वारा बलात्कार का मामला दर्ज करने के बाद युवक को गिरफ्तार किया गया। थराली में हाईटेंशन लाइन की चपेट में आने से एक संविदा बिजली कर्मचारी की मौत हो गई। क्षेत्र पंचायत बैठक जोशीमठ की बैठक में विकासखंड को पिछड़ा क्षेत्र घोषित करने की मांग की गई। भाजपा ने सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरोध में गोपेश्वर में प्रदर्शन किया।
उत्तरकाशी
संसदीय सचिव विजयपाल सिंह सजवाण ने बताया कि प्रस्तावित देवीसौड़ पुल के लिए राज्य सरकार ने 35 करोड़ रु. मंजूर किये हैं जिससे टिहरी झील से प्रभावित क्षेत्र के लोगों को सुविधा मिलेगी। आठाली के ग्रामीणों ने झूला पुल के पुननिर्माण की मांग को लेकर गंगोत्री हाई वे पर जाम लगाया। पुरोला में आपदा से क्षतिग्रस्त तीन पुलों के निरीक्षण के लिए केन्द्रीय टीम अब पहुंची है। बी.पी.एड. प्रशिक्षितों ने नियुक्ति की मांग को लेकर प्रदर्शन किया और राज्य सरकार का पुतला फूंका। नाकुरी बरसाली मोटर मार्ग समेत बारह सूत्रीय मांगों को लेकर ग्रामीण तहसील भवन डुण्डा में अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए। पशुपालन मंत्री प्रीतम सिंह पंवार ने अस्सी गंगा में ट्राउट मछलियों के बीज डाले। अगस्त में आई बाढ़ में अस्सी गंगा में इस प्रजाति की मछलियां पूरी तरह से समाप्त हो गई थीं। बड़कोट के निकट सरूखेत में निर्माणाधीन मकान में काम कर रहे मजदूर की वहाँ से गुजर रही 11 के.वी. की लाइन छू जाने से मौत हो गई।
पौड़ी
साल के पहले ही दिन धूमाकोट को जिला बनाने की मांग को लेकर धूमाकोट जिला निर्माण संघर्ष समिति द्वारा जोरदार प्रदर्शन का आयोजन किया गया। कोटद्वार में रेलवे स्टेशन के समीप एक व्यक्ति का सिर कटा शव मिलने से सनसनी फैल गई। देवप्रयाग से सबधरखाल पौड़ी की ओर जा रही मैक्स के खाई में गिर जाने से तीन लोगों की मौत हो गई जबकि एक गंभीर रूप से घायल हो गया। कोटद्वार में बी.ई.एल. कालोनी में एक नवविवाहिता संदिग्ध परिस्थितियों में गंभीर रूप से झुलस गई। श्रीनगर बेस अस्पताल में अव्यवस्था के खिलाफ कांग्रेस के सदस्यों ने क्रमिक अनशन आरंभ किया। पौड़ी-श्रीनगर मार्ग में एक वाहन के खाई में गिरने से चालक की मौत हो गई जबकि दो अन्य लोग घायल हो गए। गढ़वाल विश्वविद्यालय के चैरास परिसर को जाने वाले अलकनन्दा पुल व सम्पर्क मार्ग की दुर्दशा के विरोध में क्षुब्ध छात्रों ने अधिशासी अभियन्ता को उनके कार्यालय में ही बंद कर दिया बाद में एस.डी.एम. के आने पर उनको मुक्त करवाया जा सका।
रुद्रप्रयाग
रुद्रप्रयाग गढ़वाल मंडल का ऐसा पहला जिला बन गया जहां विकास योजनाओं के भौतिक सत्यापन की योजना आरंभ की गई है। इसके अन्तर्गत विकास क्षेत्र की वीडियोग्राफी कर कम्प्यूटर पर पूरा रिकार्ड रखा जाएगा जिससे विकास कार्योें की बेहतर निगरानी संभव होगी।
टिहरी
बेरोजगार भत्ते और मुआवजे की मांगों को लेकर किसान सभा ने नई टिहरी में प्रदर्शन किया। चंबा क्षेत्र में कई दिनों से चल रही बिजली कटौती से परेशान व्यापारियों और ग्रामीणों ने प्रदर्शन किया और ऊर्जा निगम के कार्यालय पर ताला लगा कर विरोध दर्ज कराया। एन.एच.पी.सी. की कोटलीभेल जल विद्युत परियोजना में बाहरी ठेकेदारों को काम दिये जाने के विरोध में स्थानीय बेरोजगारों ने नारेबाजी की और धरना दिया।
हरिद्वार
मकर संक्रांति के अवसर पर पांच लाख श्रद्धालुओं ने गंगा में डुबकी लगाई। ज्वालापुर ऊँचे पुल के पास अवैध रूप से बनाये जा रहे भवन में काम कर रहे श्रमिक की भवन से सट कर जा रहे हाई टेंशन लाइन को छू जाने से मौत हो गई। रुड़की में एक युवक का शव नाले में बरामद किया गया। मनरेगा के अन्तर्गत जाब कार्ड न बनने से नाराज पनियाला गांव की महिलाओं ने रुड़की विकास खंड कार्यालय में हंगामा किया। उक्रांद कार्यकर्ताओं ने महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में रामनगर चैक में जाम लगाया। इकबालपुर चीनी मिल से गन्ना तुलवा कर आ रहे किसान की टैªक्टर – ट्राली पलटने से मौत हो गई।
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टिहरी का सांस्कृतिक पुल टूट गया पुण्डीर जी के जाने के साथ : सुरेन्द्र पुण्डीर
टिहरी नगर की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के लिये एक पुल बने रहने वाले बंशी लाल पुण्डीर का 88 वर्ष की उम्र में 25 नवम्बर 2012 को देहरादून में देहान्त हो गया। पुरानी टिहरी के उजड़ने के पश्चात् वे विस्थापित होकर नई टिहरी चले गये। परन्तु उनके भीतर समाई हुई पुरानी टिहरी की पीड़ा हर क्षण उनके भीतर घाव करती रहती थी। अन्ततः वे देहरादून के वासी हो गये। नई टिहरी जब भी आते, उन्हें टिहरी की झील बार-बार दिखती और वे यादों में कहीं खो जाते। उनके भीतर बेचैनी बढ़ जाती।
जब कभी मैं पुरानी टिहरी के बारे में सोचता हूँ तो बरबस बहुत सारे लोग पिछली धूप की तरह याद आते हैं। जिन चेहरों की स्मृति भी उष्मा देती है, उनमें सरदार प्रेम सिंह, सत्यप्रसाद रतूड़ी, डॉ. महावीर प्रसाद गैरोला, सावन चन्द रमोला, गोविन्द सिंह नेगी, भूदेव लखेड़ा और बंशी लाल पुण्डीर प्रमुख हैं। पुंडीर जी का भगीरथ प्रकाशन गृह, सुमन चौक आज भी डूबती टिहरी के उजली लहरों में मुझे साफ दिखाई देता है।
बंशीलाल पुण्डीर पेशे से वकील होने के साथ-साथ टिहरी की साहित्यिक गतिविधियों से अभिन्न रूप से जुड़े थे। इसी क्रम में उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर भी हुआ और उन्होंने पुण्डीर प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। बचपन में बालसभा के जरिये मास्टर सत्यप्रसाद रतूड़ी ने उनमें जो संस्कार भरे थे, उसके फलस्वरूप प्रताप हाई स्कूल में पढ़ते हुए वे उन तीन छात्रों में से एक रहे, जिन्होंने छात्रों में जागृति पैदा करने के लिये यूनियन बनाने की बात सोची। फिर राजशाही के खिलाफ छात्र आंदोलन में कूद पड़े और सन् 1942 से लेकर 44 तक टिहरी जेल में रहे। तत्पश्चात् उच्च शिक्षा के लिये देहरादून गए, वकालत पास की और फिर यहीं से अपने सामाजिक-राजनैतिक जीवन की शुरूआत की। 1952 में नारायण दत्त तिवारी के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए और चुनाव भी लड़ डाला। लेकिन राजनीति की हवा उन्हें रास न आई तो फिर सामाजिक सरोकारों से अपना नाता जोड़ लिया। भगीरथ प्रकाशन गृह की स्थापना कर उत्तराखंड के साहित्यिक, सांस्कृतिक परिवेश को जिन्दा रखने की कोशिश की। मसूरी से जब हुकम सिंह पंवार ने 'मसूरी टाइम्स' का प्रकाशन प्रारम्भ किया तो लगातार उसके लिये लिखते रहे। युगवाणी, नया जमाना, टिहरी टाइम्स व सीमान्त प्रहरी के लिये भी उन्होंने नियमित लिखा।
जब मैं कभी टिहरी जाता तो मास्टर जी (सत्यप्रसाद रतूड़ी) कहते कि भई, सरदार प्रेम सिंह, बंशी लाल पुण्डीर और राम प्रसाद डोभाल से जरूर मिल कर आना। सरदार प्रेम सिंह ने ही उनसे मेरी भेंट करवाई। मैं उन दिनों श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम, टिहरी में स्वामी मनमथन के साथ रहता था। मेरा साहित्य एवं पत्रकारिता की ओर रुझान देख कर वे बहुत खुश हुए और प्रोत्साहित करने लगे। मैं उन दिनों जौनपुर के लोक देवताओं पर काम कर रहा था। उन्होंने इस संबंध में बहुत सी जानकारी दी और मेरा लेखन भगीरथ प्रकाशन गृह से प्रकाशित करने की इच्छा भी जताई। उन दिनों वे 'सीमान्त प्रहरी' के लिये 'चर्चा अपने नगर टिहरी की' का एक कॉलम हर हफ्ते लिखते थे, जिसमें टिहरी की सामाजिक, सांस्कृतिक राजनैतिक घटनाओं के अलावा ज्वलन्त समस्याओं का विश्लेषण भी होता था।
टिहरी शहर की अन्तिम विभूतियों में से एक, बंशीलाल पुण्डीर जी को मैं भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
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एक सीधे पहाड़ी के नुकीले सपने .5 : चन्दन डांगी
ग्वाला जाते हुए मुझे कोट भ्योव, बुरुशिपाँख, ब्यारा भ्योव जैसे खतरनाक स्थानों पर चढ़ना पड़ा। इन 'भ्योव' पर बकरियाँ तो पार हो जातीं, मगर गाय और बैल कभी-कभी अपना संतुलन खो बैठते थे। एक बार 'ब्यारा भ्योव' से हमारा एक बैल फिसलकर करीब पचास फुट नीचे गधेरे में जा गिरा। एक पशु की इतनी दर्दनाक मौत देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। उसके खाई में गिरने, पलटने और सींग टूटने की कल्पना ही मुझे मर्मान्तक पीड़ा दे रही थी। मैं जब तक हिम्मत जुटा कर 'प्यारा' नाम के उस कमाऊ बैल के पास पहुँचा, उसने प्राण त्याग दिए थे। दर्जनों गिद्ध वहाँ पर चक्कर लगा रहे थे। उसकी दोनों आँखें गिद्धों ने निकाल ली थीं। मैंने दिल को मजबूती देने की कोशिश की और निराशा पर नियंत्रण करता हुआ लौट आया। गिद्धों को भगाने के प्रयास में थक कर हार चुका हमारा छपुआ कुत्ता भी मेरे साथ हो लिया।
रानीखेत हमारे गाँव से 14 किमी. है। मुझे दसवीं की बोर्ड परीक्षा के फॉर्म के लिए फोटो खिंचवानी थी। मजखाली बस स्टेशन तक करीब डेढ़ किमी. पैदल जा कर वहाँ से मैंने कालिका तक जाने के लिए बस का 30 पैसे का टिकट खरीदा। कालिका से रानीखेत 6 किमी. है, मगर वहाँ पर कैण्ट बोर्ड का टौल टैक्स देना पड़ता था। इसलिए पैसा बचाने के लिये वहाँ से आगे पैदल जाना जरूरी हो जाता था।
फोटोग्राफर की दुकान के साथ लगी एक दुकान थी, जहाँ पर साइकिल किराये पर मिल जाया करती थी। मेरा दिल साइकिल चलाने को मचलने लगा। दुकानदार ने एक घंटे के लिए साइकिल का किराया पच्चीस पैसे बतलाया। लेकिन मेरे पास न उतने पैसे थे और न समय ही। मैंने दुकानदार से पूछा कि दस पैसे में वे मुझे कितनी देर के लिए साइकिल दे सकते हैं ? दुकानदार ने घूर कर मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। मेरी खद्दर की नई कमीज को देखकर उसे लगा होगा कि मैं रानीखेत शहर का ही कोई लड़का हूँ और उनके साथ मजाक कर रहा हूँ। या फिर मेरे पुराने फटे और कई जगह टल्ले लगी निकर को देख कर शक हुआ होगा कि पता नहीं मेरे पास 10 पैसे भी हैं या नहीं। बहरहाल उन्होंने कहा, ''चल निकाल दस पैसे और दस मिनट में खड़ी बाजार तक एक चक्कर लगा कर साइकिल लौटा दे।'' साइकिल पर संतुलन बनाना मुझे ठीक से नहीं आता था, क्योंकि मेरा अब तक का अभ्यास एक स्थान पर खड़ी और ताले लगी साइकिल पर था। मैंने दुकानदार को पटाया कि मैं बाजार से दूर किसी खाली सड़क पर ही आधा घंटा साइकिल चलाउँगा। वह किसी तरह मान गया। फिर मैंने पूछा कि क्या उसके पास लड़कियों के चलाने वाली साइकिल नहीं है, जो ऊँचाई में थोड़ी छोटी भी होती है और जिसकी आगे की डंडी थोड़ी झुकी रहती है। उसने मुझे फिर से घूरा और सबसे ऊपर की पंक्ति में रखी साइकिलों की ओर इशारा किया। मैं सबसे छोटे साइज की साइकिल ढूँढने में उलझ गया तो वह गुस्से में बोला कि तुम्हारे पाँच मिनट तो यहीं खत्म हो गए हैं। आखिर में 12 बजे से पहले साइकिल लौटा देने की ताकीद कर उसने मुझे 22 इंच ऊंची ए-वन साइकिल पकड़ा दी। वह अच्छा जमाना था, भोले-भाले लोग थे। अतः जमानत या गारन्टी की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी।
'दीवान' सिनेमा हॉल में लगी 'गोस्वामी तुलसीदास' का विज्ञापन देखकर मेरा मन एकाएक फिल्म देखने का हो पड़ा। साइकिल सिनेमा हॉल के सामने खड़ी कर मैं फिल्म देखने चला गया और साइकिल के बारे में पूरी तरह भूल गया। फिल्म खत्म होने के बाद मैं साइकिल पर बिना चढ़े बड़ी सावधानी से उसे नरसिंह ग्राउण्ड वाली सड़क तक घसीटते हुए ले गया। वहाँ गाडि़यों की आवाजावी कम रहती थी। साइकिल की गद्दी ऊँची थी, मेरे पैर पैडल तक नहीं पहुँच पा रहे थे। कोशिश कर, एक पैडल को ऊपर की ओर लाकर मैंने जोर लगाया और साइकिल चल पड़ी। आगे सड़क पर ढलान था, तो साइकिल खुद ब खुद ब खुद लुढ़कने लगी। मैं मस्ती में चूर था कि अगले ही मोड़ पर दूर से अपनी ओर आता हुआ सेना का एक ट्रक दिखाई दिया। साइकिल की रफ्तार काफी थी। दाहिनी ओर खाई थी। मैंने पूरे जोर से ब्रेक लगाया, लेकिन ब्रेक इतने कमजोर थे कि साइकिल ने रुकने का नाम ही नहीं लिया। ट्रक अब काफी करीब था। मैंने खाई में गिरने की बजाय दीवार से टकराना बेहतर समझा और गलत दिशा को मुड़ कर दीवार से टकरा गया। ट्रक के आने तक मैं साइकिल को नाली में घुसा चुका था।
कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई। मगर साइकिल की शक्ल खराब हो चुकी थी। मैं जैसे-तैसे उसे खींचकर दुकानदार के पास ले गया। अब दुकानदार का बौखलाना स्वाभाविक ही था। मैं आधा घंटे के बदले साढ़े तीन घंटे में साइकिल वापस लाया था और वह भी तोड़-मरोड़ कर। साइकिल की मरम्मत पर आने वाले खर्चे का तखमीना लगा कर बताया गया कि मुझे हर्जाने के रूप में चार रुपये देने होंगे। लेकिन कहाँ ? मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। सारे पैसे तो मैं फिल्म देखने में खर्च कर चुका था। दुकानदार मुझ पर चिल्ला रहा था, हालाँकि उसका गुस्सा बनावटी ज्यादा था, क्योंकि उसे मेरी हालत पर दया भी आ रही होगी। उसे अपनी गलती का अहसास भी हो गया था कि उसे एक गँवार, नौसिखिए लड़के को साइकिल नहीं देनी चाहिए थी। लेकिन अब क्या हो सकता था ? वह अपनी दुकान पर काम करने वाले लड़कों पर भी खीझ निकालने लगा।
इस पूरे घटनाक्रम में, मैं यह भी भूल गया था कि शाम के पाँच बज चुके हैं और मेरा गाँव 15 किमी. दूर है। मेरी जेब में पैसे भी नहीं हैं। मेरी मिन्नतों से पिघल कर जैसे ही दुकानदार ने मुझे छोड़ा, मैं दौड़ता हुआ बस अड्डे पहुँचा। अल्मोड़ा की तरफ जाने वाली सभी गाडि़याँ जा चुकी थीं, लेकिन शायद डाक वाली गाड़ी आनी अभी बाकी थी। मेरा इरादा था कि रानीखेत डिपो बस स्टेशन पर काम करने वालों से मदद की गुहार लगाउँगा। क्या पता पिताजी के मित्र डुंगर सिंह ताऊजी, जो बरेली-गोलूछीना या रानीखेत-अल्मोड़ा बस चलाया करते थे, ही मिल जायें। लेकिन उस मनहूस दिन वहाँ कोई भी परिचित चेहरा नहीं दिखाई दिया।
अब डिपो में खड़ी रोडवेज की एक बस में रात गुजारने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। डिपो के एक कर्मचारी ने मुझे आश्वस्त किया कि अक्सर लोग पैसे न होने या देर हो जाने के कारण इसी तरह रात काट देते हैं। मैं अपनी समस्या में इतना जकड़ा हुआ था कि बिल्कुल भूल गया कि पिताजी कितना गुस्सा हो रहे होंगे…..ईजा कितनी व्याकुल होगी। यहाँ तक कि मैं अपनी भूख-प्यास तक भूल चुका था।
अंधेरा बढ़ने के साथ सन्नाटा भी बढ़ने लगा। डिपो के चारों और चीड़ के पेड़ थे, जिनसे निकल रही स्वाँ-स्वाँ की आवाज अंधेरे में डर पैदा कर रही थी। मैं जिस रोडवेज की बस में था, उसकी खिड़कियाँ भी अच्छी तरह बंद नहीं होती थीं। अतः हवा बदन को चीरती हुई निकल रही थी। निकर में घुटनों से नीचे टाँगे ठिठुरने लगीं। पर इन सब पर रात भर बस की सीट पर अकेले सोने का डर ज्यादा भारी पड़ रहा था। कहीं दूर के गाँव…. शायद खनिया धोलीखेत से सियारों की आवाजें सुनाई दे रही थीं। रानीखेत कैण्ट के एकाध घरों से आने वाली कुत्तों के भौंकने की आवाजें भी कानों में पड़ रही थीं। इन सबके बीच मैं चिन्ता से मरा जा रहा था कि अगले दस घंटे किस तरह से काटूँगा!
तभी एक अधेड़ सा ड्राइवर गाड़ी के भीतर आया और उसके पीछे-पीछे एक दूसरा युवक। उन्हें देखकर पहले तो मुझे बेहद खुशी हुई कि मैं अब अकेला नहीं रहा। मगर जैसे ही ड्राइवर मेरी बगल में बैठा, उसके मुँह से आती हुई शराब की गंध ने मुझे और ज्यादा भयभीत कर दिया। उसने मुझसे मेरे गाँव का नाम आदि पूछा। मुझे लगा कि इन लोगों को मुझ पर दया आ रही है। ड्राइवर का साथी ''कुछ खाने के लिये ले आता हूँ,'' कह कर अंधेरे में खो गया। अपने आप को ड्राइवर बताने वाला व्यक्ति सीटों से गद्दियाँ निकाल बीच में बिस्तर बिछाते हुए मेरा उत्साह बढ़ाता रहा…..हाँ मजखाली तो काफी दूर है….. अच्छा किया जो यहीं रुक गये…..सुबह पाँच बजे सबसे पहले यही बस चलेगी….मैं तुम्हें मजखाली पड़ाव पर उतार दूँगा। उसकी बातों से मेरा भय खत्म हो गया। अब मुझे भूख भी लगने लगी। कुछ ही समय बाद अपने को कण्डक्टर बताने वाला युवक आया और बोला…. ये थोड़ा सा गुड़ और चने मिले हैं…… एक पुराना कम्बल भी लाया हूँ तेरे लिए। उन दोनों के प्यार-दुलार ने मुझे मोहित कर दिया। थोड़ी देर के बाद अधेड़ आदमी बस से बाहर निकला। जब वह लौटा तो उसके पास शराब की एक बोतल थी। उसने मुझसे पूछा…..चखेगा, इससे ठंड नहीं लगेगी। मैंने मना कर दिया। अब गाड़ी में शराब की इतनी बदबू हो गई थी कि मेरे लिये साँस लेना भी मुश्किल होने लगा। लेकिन मजबूरी थी। कुछ समय बाद उन दोनों ने मेरे साथ जिस प्रकार का व्यवहार करना शुरू किया, अपनी जो इच्छा जताई और मेरे आपत्ति करने पर जिस तरह जिस प्रकार मुझे धमकाना शुरू किया, उससे मैं बुरी तरह आतंकित हो गया।
मगर शराब के नशे में होने के कारण वे कमजोर पड़ रहे थे। अपने विवेक और साहस से मैं उनकी जोर-जबर्दस्ती और बलात्कार के दुष्प्रयास को विफल कर किसी तरह बच निकला। यह नशे में धुत्त विषय भोग के भूखे भेडि़यों पर एक बालक के संघर्ष की जीत थी। जिस शराब की गंध से मुझे साँस लेने में भी तकलीफ हो रही थी, उसी ने मुझे बचाया। उस अंधेरे में, आतंक और ठंड से थरथराता मैं एक दूसरी बस के भीतर पूरी रात छुपा रहा।
अगली सुबह पौ फटने से पहले ही मैं पैदल अपने गाँव की ओर चल पड़ा…..
आम पहाड़ी परिवारों की तरह हमारे परिवार में भी कुत्ता परिवार का एक सदस्य हुआ करता था। बाघ अक्सर किसी न किसी का कुत्ता उठा ले जाता। लेकिन फिर एक दूसरा पिल्ला परिवार में शामिल हो जाता था। वह परिवार के साथ रहता और हमेशा दहलीज पर बैठा रहता। उसे लाँघ कर भीतर जाना पड़ता था। मैं ईजा से पूछता रहता कि आखिर कुत्ते दहलीज पर ही क्यों बैठते हैं ? ईजा कहती, तुम्हें निस्संकोच और बगैर डरे कुत्ते को लाँघ कर चले जाना चाहिये। लाँघने से कुत्ते का ही भला होगा। उसे कुत्ते की योनि से छुटकारा मिल जाएगा। ऐसा करना मनुष्य का धर्म है।
मेरा पहला कुत्ता 'झपुवा' था। दो साल तक उसे पाल-पोस कर मैंने उसे बंदरों को भगाने के काबिल बनाया ही था कि एक शाम उसे बाघ उठा ले गया। उस समय मेरी उम्र सात-आठ साल की रही होगी। फिर पिताजी एक भूरे रंग की कुतिया ले आए। मैंने उसे बड़ी हिफाजत से पाला। शाम होने से पहले ही घर के अंदर प्रवेश द्वार के नजदीक खूँटे से उसे बाँधने का तो जैसे नियम बना लिया। घर में दूध-दही की इफरात, परिवार के सात लोगों के बचे भोजन और देख-रेख से यह पिल्ला जल्द ही सेहतमंद और पिल्ला जवान हो गया।
असोज-भदौ का महीना आते ही हमारी कुतिया के पीछे पास-पड़ौस के कुत्तों की लाईन लग जाती थी। सुबह-सुबह घर से बाहर निकलता तो एक कुत्ते की कुत्तिया से जुड़ी हुई पूँछ को देख कर मैं हैरानी में पड़ जाता। कुछ लोग उन्हें पत्थर मारते और अपनी तरह से उनकी पूँछें अलग करने का प्रयास करते। वे दर्द से 'क्याँया …क्याँया…' की आवाज करते तो मुझे उन पर दया आती थी। बरसात बीतने के बाद पेड़ों की पत्तियाँ झड़तीं और हल्की ओस व फिर पाला पड़ने लगता था। हमारी कुतिया गर्भ में बच्चों का भार होने से हिलने-डुलने में असहजता महसूस करती। इन दिनों घर में कुतिया को पहले से ज्यादा खाना दिया जाता, लोग अपने-अपने खाने में से थोड़ा और खाना कुतिया के लिए छोड़ देते थे। कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) के महीने में हमारे परिवार की यह सदस्या छः या सात बच्चों को जन्म देती। मुलायम बालों और मासूम त्वचा वाली प्रकृति की ये अनमोल कृतियाँ मेरे लिए कौतुहल और उल्लास का विषय होतीं। पिल्लों की आँखें नहीं खुल पाती थीं और वे चूँ-चूँ करते हुए अपनी माँ के थनों से लिपटकर दूध पीने में मग्न रहते थे। कुतिया भी एक ही बार में सबका पेट भरने में सक्षम थी।
कुत्तों को उनकी निकृष्ट योनि से मुक्ति दिलाने की बात को मेरे दिमाग में इस तरह ठूँस-ठूँस कर भर दिया गया था कि उन शावकों को जिन्दा गाड़ने से भी मुझे अपराध बोध नहीं होता था। तर्क दिया जाता था कि एक ही शावक जिन्दा रहेगा तो स्वस्थ रहेगा और कुत्तों की आबादी पर भी नियंत्रण रहेगा। अगली बार फिर नये शावक पैदा होंगे। इसलिए शावकों को जिन्दा गाड़ने में कोई पाप नहीं है। इन शावकों में से एक को छोड़कर बाकी को मैं एक पुरानी टूटी डलिया में उठा कर ले जाता। उस दौरान कुतिया को खूँटे से बाँध देता और लालच के रूप में उसके सामने दूध या रोटी डाल आता। भूमिया मंदिर के पास खेत के किनारे, नींबू के पेड़ की जड़ में गहरा गड्ढा खोद कर चूँ-चूँ, क्यूँ-क्यूँ करते उन जीवित शावकों को एक-एक करके गड्ढे में डाल देता। मैं उनकी बंद आँखों को देख सकता था, उनकी आवाज को सुन सकता था लेकिन फिर भी सब कुछ अनसुना-अनदेखा कर मिट्टी डालकर उन्हें दफना देता था।
उस समय मैं यह सोचकर बहुत खुश होता कि मैंने पाँच कुत्तों की योनि उनके पैदा होने के कुछ ही घंटों बाद बदल दी है। मगर घर लौट कर अपने पिल्लों को तलाश रही कुतिया की आँखों में देखता तो सिहर उठता। मेरे कानों में उन बच्चों के मिट्टी में दफन होने से पहले की दर्द भरी आवाजें सुनाई देतीं। रात भर उनकी आवाजें डराती भी थीं। लेकिन मुझे अपने किए पर कोई अपराध बोध नहीं होता था।
साल भर बाद यह घटना फिर से दोहराई जाती।
बाद में नींबू के उस पेड़ पर पके हुए नींबुओं को दिखाते हुए मुझे बताया जाता कि अब उन शावकों की आँखें खुल चुकी हैं और वे नींबू के रूप में चमकदार पीले मोहक रंग में दिख रहे हैं!
उम्र के इस पड़ाव पर अब वह बात याद आने पर मुझे बेहद पश्चाताप होता है। हमारे विकृत सामाजिक रिवाज हमसे कैसे-कैसे गलत काम करवाते रहे हैं ?
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