हिन्दुत्व का रथ निकलेगा तभी कमल खिलेगा
भाजपा के भीतर से ही विरोधाभासी खबरों का दौर जारी है। एक तरफ यह सुनाई दे रहा है कि भाजपा एनडीए घटक दलों का एका कायम रखने के लिए अपने न केवल मोदी को पीएम प्रोजेक्ट करने से बचने की कोशिश कर रही है बल्कि वह प्रखर राष्ट्रवाद से ओत प्रोत हिन्दुत्व के मुद्दे को भी दरकिनार करने के बारे में सोच विचार कर रही है। दिल्ली दरबार से लेकर प्रयाग के कुंभ तक भाजपा और संघ के सहयोगी संगठनों के बीच विचार विमर्श साफ तौर पर संशय की स्थिति पैदा करती है। प्रेम शुक्ल का मानना है कि यह भ्रम और संशय भाजपा ही नहीं एनडीए के लिए भी नुकसानदेह साबित होगा। इस उहापोह और संशय से सीधे सीधे कांग्रेस ही फायदे में रहेगी।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार एवं तथाकथित सेकुलर सरकारें एक बार फिर १९८४-८९ वाले राजीव गांधी के शासनकाल के कालखंड में पहुंच चुकी हैं। १९८४ में जब राजीव गांधी को इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति लहर में अभूतपूर्व जनादेश प्राप्त हुआ था तब कांग्रेसियों ने स्वयं को अपराजेय मान लिया था। अपनी अपराजयेता के भ्रम में राजीव गांधी की सरकार ने एक के बाद एक लगातार ऐसे फैसले किए जिनके कारण आज दिन तक गांधी वंश का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री नहीं बन पाया है। इस देश के सहिष्णु बहुसंख्यक समाज को पहली बार लगा था कि हिंदुस्तान में उसकी अपनी हैसियत दोयम दर्जे के नागरिक की है। इसका परिणाम था कि कांग्रेसी विचारधारा को पुनर्जीवित करने के लिए सोनिया गांधी को सन् २००० में प्रयाग के महाकुंभ में त्रिवेणी संगम में डुबकी लगानी पड़ी थी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को हिंदू संतों-महंतों को बटोर कर धर्म सम्मेलन आयोजित करना पड़ा था। मुस्लिम तुष्टीकरण को ही अपनी 'ब्रांड इक्विटी' मानने वाले अर्जुन सिंह को कांग्रेस में हाशिए पर फेंकना पड़ा था। तब कहीं कांग्रेस लोकसभा में सैकड़ा की भी संख्या से भी नीचे जाने से बची थी। २००४ के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस का साथ यदि आंध्रप्रदेश ने न दिया होता और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व के मुख्य एजेंडे से हट कर यदि सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर जातियों की गोलबंदी करने वाले नेताओं के अहंकार के टकराव में न उलझ गई होती तो कांग्रेस का बेड़ा गर्वâ ही रहता।
भाजपा का फीलगुड
२००४ के लोकसभा चुनावों को याद कर लें। उस समय 'इंडिया शाइनिंग' के चकाचौंध विज्ञापन अभियान में मुख्यधारा की मीडिया की आंखें इतनी चौंधियाई हुई थी कि तमाम प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विशेषज्ञ सर्वेक्षण एजेंसियों के आंकड़ों के आधार पर दावे ठोंक रहे थे कि भाजपा की पहली और दूसरी पंक्तियों के नेताओं की ऐसी सशक्त तटबंदी है कि उसके सामने कांग्रेसी लड़े बिना ही हथियार डाल चुके हैं। चीख-पुकार चल रही थी कि भाजपा अकेले के बल पर भी बहुमत हासिल कर सकती है। मीडिया ने भाजपा के रणनीतिकारों को इतना 'फीलगुड' करा दिया था कि वे यह गणना ही नहीं कर पा रहे थे कि आखिर वे राज्य कौन से हैं जहां उनकी सीटों की संख्या बढ़ रही है। यह अनुमान अकेले भाजपा नेताओं का ही नहीं था कांग्रेस के बड़े-बड़े तुर्रम नेता भी भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को अपराजेय मान रहे थे। जिन दिग्विजय सिंह को आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के शिविरों में हिंदू आतंकवाद के प्रशिक्षिण का 'इल्हाम' हो रहा है वह दिग्गीराजा अपने छोटे भाई कुंवर लक्ष्मण सिंह को भाजपा में भेज चुके थे, यह सोच कर कि इससे भाजपा में भी उनके परिवार की मजबूत पकड़ बनी रहेगी। खुद अर्जुन सिंह अपने पुत्र अजय सिंह को जो कि इन दिनों मध्य प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता हुआ करते हैं, को भाजपा में प्रवेश दिलाने की जुगाड़ फिट कर रहे थे। द्रविड़ मुनेत्र कजगम के प्रमुख करुणानिधि आखिरी दिन तक इंतजार करते रहे कि भाजपा वाले उनके पास आएंगे और चुनावी गठबंधन कर लेंगे। जब प्रमोद महाजन ने तमिलनाडु में एआईएडीएमके को अपना चुनावी साथी चुन लिया तब द्रमुक ने कांग्रेस से हाथ मिलाया था। १९९९ के लोकसभा चुनावों तक भाजपा को अस्पृश्य समझने वाले तेलुगु देसम ने तब भाजपा से चुनावी गठबंधन करने में कोई संकोच नहीं किया था। ममता बनर्जी को भी भाजपा पर भरोसा था और नवीन पटनायक भाजपा को अपना बड़ा भाई मानने को तैयार थे।
जिन नीतिश कुमार को आज गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर आपत्ति है वही नीतिश कुमार अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में तब भी बने रहे जब उनके साथी रामविलास पासवान ने मोदी को मुद्दा बना कर वाजपेयी सरकार से अलग होकर कांग्रेस से हाथ मिला लिया था। तब तक मुलायम सिंह यादव ने भी मुस्लिमों की मसीहाई त्याग दी थी और जॉर्ज फर्नांडिस तथा अमर सिंह को मध्यस्थ बना कर अटल बाबा के आशीर्वाद से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे।
जेठमलानी की शरण में मुलायम
२००४ चुनावों के कुछ माह पहले लखनऊ में मायावती की सरकार थी। मायावती के खिलाफ उन्हीं दिनों ताज कॉरिडोर का मामला आया। उसके ठीक पहले मायावती की सरकार ने मुलायम सिंह यादव के खिलाफ कई जिलों में आपराधिक मामले दर्ज करा दिए थे। इन मामलों में गिरफ्तारी से बचने के लिए तब मुलायम और अमर सिंह कानूनविद राम जेठमलानी की शरण में गए थे। जेठमलानी की मेहरबानी से मुलायम की गिरफ्तारी टली थी। मायावती की सरकार का पतन होते ही मुलायम सत्ता में आए तो मायावती पर भी ताज कॉरिडोर मामले में गिरफ्तारी की तलवार लटक रही थी। तब मधुकर जेटली, मायावती की गिरफ्तारी बचाने के लिए जेठमलानी की मेहरबानी की दरकार कर रहे थे। मुलायम और मायावती दोनों को आशंका थी कि केन्द्र की सरकार से पंगा लिया गया तो उनको खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। सो, जब २००४ के चुनावों के ठीक पहले सोनिया और मायावती के बीच ब्यूटीशियन शहनाज हुसैन के माध्यम से 'चाय राजनय' चल रही थी तब भी लखनऊ से अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ राम जेठमलानी को साझा उम्मीदवार के रूप में समर्थन देने से मायावती डर गई थीं। जेठमलानी को लगता था कि कम से कम मुलायम सिंह तो उनका साथ जरूर देंगे। तब मुलायम की सपा ने मधु गुप्ता को प्रत्याशी बनाया था। जब जेठमलानी के दूत मुलायम सिंह के पास मधु गुप्ता की उम्मीदारी उनके पक्ष में वापस लेने का प्रस्ताव लेकर गए तो मुलायम सिंह का जवाब था कि 'चाचा (जेठमलानी) मेरी सरकार को खतरे में क्यों डालना चाहते हैं?'
क्यों सरकी भाजपा के पैरों तले की जमीन?
सनद रहे कि मुलायम सरकार बनवाने के लिए बसपा के विधायक दल को तोड़ उसको संवैधानिक जामा पहनाने का काम भाजपा के नेता केसरीनाथ त्रिपाठी ने किया था। मुलायम सिंह अटल बाबा के उपकार और सीबीआई के भय से मुक्त नहीं हो पा रहे थे। ऐसे तमाम समीकरण थे जिसके चलते सोनिया गांधी समेत कांग्रेस का कोई दिग्गज नेता यह मानने को तैयार नहीं था कि वे सब मिलकर भाजपा को पराजित करा पाएंगे। शरद पवार ने कांग्र्रेस से समझौता तो कर लिया, पर चुनाव भर जब कोई पूछता कि प्रधानमंत्री पद का संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का उम्मीदवार कौन? 'तो उनका जवाब हुआ करता था कि यह पैâसला चुनाव के बाद ही लिया जा सकेगा। द्रमुक का भी कमोबेश यही सुर था। कांगे्रस का कोई नेता भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में कोई नाम लेने से घबराता था। तब अरुण जेटली के सामने कपिल सिब्बल बौने लगते थे और सुषमा स्वराज के मुकाबले अंबिका सोनी की औकात कोई मानता ही नहीं था। जयराम रमेश कांग्रेस की बजाय चंद्राबाबू नायडू के करीबी नजर आते थे। चुनाव परिणाम आते ही सारे समीकरण गड्डमड्ड थे। शरद जिन सोनिया गांधी के विदेशी नस्ल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ कर भाग गए थे उन्होंने अपनी पार्टी के संसदीय दल का हस्ताक्षर युक्त पत्र सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव समेत चुपचाप दे दिया था। अमर सिंह माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की उंगली पकड़ कर बिना बुलाए कांग्रेस की दावत में बेआबरू होने पहुंच गए थे। भाजपा के पैर के तले की जमीन क्यों सरक गई थी? क्योंकि उसने १९९९ में 'हिंदुत्व' के तीन प्रमुख मुद्दों रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण, कश्मीर से धारा ३७० हटाने और समान नागरिक कानून पर केवल अस्थाई तौर पर समझौता किया था। २००४ के चुनावों में उसने इन मुद्दों को तिलांजलि देने का संदेश दे दिया था। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को सेकुलर साबित करने के लिए मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक बहुप्रदेश व्यापी रथ निकला था। तब बृजेश मिश्रा समेत प्रधानमंत्री कार्यालय हिंदूवाद को भाजपा की राह का रोड़ा साबित कर रहे थे। आम हिंदू मतदाता ने जब देखा कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मापदंड पर भाजपा वही सब कुछ कर रही है जिसके चलते उसने १९९६,१९९८ और १९९९ में कांग्रेस को हराया था तब उसने खुद को ठगा महसूस किया। सो, कभी जिस यूपी से भाजपा के ५६ सांसद लोकसभा पहुंचा करते थे उस यूपी से उसको केवल १० सांसद जितवाने में सफलता मिली। १९९६ से १९९९ के बीच उदारवादी धारा में बहने से भाजपा को केवल २० सीटों का फायदा हुआ था, पर जैसे ही उसका हिंदुत्व संदिग्ध हुआ भाजपा १८२ से १३८ पर आ गिरी। यूपी से उसकी १९ सीटें २००४ में घटी तो २७ सीटें १९९९ में। आज दिन तक भाजपा उत्तर प्रदेश की हार से उबर नहीं पाई है। मुसलमान भाजपा पर न पहले भरोसा करता था और न बाद में किया। उलटे दो नावों पर इकट्ठे सवारी के चक्कर में रहीम तो मिले नहीं राम भी वनवास को चले गए।
कांग्रेस जयपुर में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से 'हिंदू आतंकवाद' पर बयान दिलाकर और उसे मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह से समर्थन दिला कर शाहबानो वाले मोड़ पर खड़ी हुई है। सवाल सिर्फ इतना है कि क्या भाजपा नरेंद्र मोदी को १९९० वाला लालकृष्ण आडवाणी बना पाएगी? तब सोमनाथ से आयोध्या का रथ रोक कर बिहार के लालू यादव ने भाजपा को मुख्य विपक्षी दल बना दिया था। मोदी का रथ रोकने के लिए तो तमाम लोग खड़े हैं, मोदी को आडवाणी का बाना पहनाया जा चुका है तलाश है उस वाजपेयी की जिसका रग-रग हिंदू हो और इस बार वह सत्ता में बैठते ही लाहौर के लिए बस में न चढ़ जाए। जब भी भाजपा का रथ गुजरात से यूपी चलता है कमल खिल जाता है और वही रथ जब पाकिस्तान की ओर मुड़ जाता है तो कमल मुरझा जाता है। हाथ तो जुआ खेल रहा है क्या उससे जीतने का दांव विपक्ष लगाने को तैयार है?
कांग्रेस की गलतफहमियां
यही गलती १९८५ से १९८९ के बीच कांग्रेस ने की थी। राजीव गांधी पहले शाहबानो मामले में मुल्लों की दाढ़ी में उलझे फिर हिंदू वोटों को सुलझाने की फिराक में रामजन्मभूमि मंदिर का शिलान्यास कराने लगे। मुस्लिम पर्सनल लॉ वाले चले गए विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ और शिलापूजन वाले 'कमल' पर मुहर लगा आए। कांग्रेस इन दिनों एक तरफ 'हिंदू आतंकवाद' का शिगूफा छेड़ कर मुस्लिम वोट बैंक के पुष्टीकरण का दांव चल रही है तो दूसरी तरफ उसे राहुल और सोनिया गांधी को वुंâभ स्नान कराने की सूझ रही है। कांग्रेसी इस बात पर पूâले नहीं समा रहे हैं कि उनके पास तो प्रधानमंत्री का निर्विवाद उम्मीदवार है और भाजपा और राजग के पास तो अभी भावी प्रधानमंत्री पर कोई सहमति नहीं है। उन्हें भी लग रहा है कि मुलायम और मायावती उनको छोड़ कर आखिर जाएंगे कहां? ममता बनर्जी चिढ़ कर भी मुस्लिम वोट बैंक की लालच में भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगी। द्रमुक एक बार फिर उसी दोराहे पर खड़ी है जहां २००४ में उसे भाजपा ने छोड़ा था। यूपी में २००४ तक माया और मुलायम भाजपा से समन्वय बना कर चलते रहे।
भाजपा को जाति का कार्ड कभी काम नहीं आया
भाजपा के दिग्गज चाहते थे कि यूपी से किसी भाजपा नेता का राष्ट्रीय स्तर पर उदय न होने पाए ताकि लालकृष्ण आडवाणी, प्रमोद महाजन, जसवंत सिंह आदि को वेंâद्र में कोई चुनौती न बचे। चुनौती खत्म करने की राजनीति ने उत्तर प्रदेश से भाजपा की चुनौती खत्म कर दी और भाजपा के वोट बीते १० वर्षों में सपा और बसपा के हवाले हो गए। तबसे राजनाथ सिंह दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हैं और कल्याण सिंह दूसरी बार भाजपा में वापस लौटे हैं पर दोनों की जातीय सोशल इंजीनियरिंग भाजपा के १९९१ से १९९८ वाले वोट बैंक की वापसी की गारंटी नहीं दिला पा रहा। कल्याण सिंह ने हिंदुत्व की बजाय पिछड़ी जातियों का कार्ड खेला था तो राजनाथ सिंह अपने कार्यकाल में ओबीसी की बजाय एमबीसी (मोस्ट बैकवर्ड क्लास) का कार्ड ले आए थे। भाजपा को जाति का कार्ड कभी काम नहीं आता। यही हाल कांग्रेस का भी है। उसने जब भी अति मुस्लिम परस्ती की है उसका पराभव सुनिश्चित हुआ है। २००४ से २००९ के बीच कांग्रेस सच्चर आयोग की मच्छरनीति और शिक्षा में आरक्षण के अर्जुन सिंह फॉर्मूले या मनरेगा की बजाय आर्थिक सुधार के लुभावने कार्यक्रमों की बदौलत शहरी इलाकों में बढ़ी थी। मनमोहन सिंह की आर्थिक तारणहार की इमेज ने मध्यवर्ग को आकर्षित कर उसे लोकसभा में २०० सीटों का आंकड़ा पार कराया था। वह मध्यवर्ग नरेंद्र मोदी की ओर आकर्षित हो सकता है बशर्ते भाजपा हिंदुत्व को विकास का पर्यायवाची बनाकर पेश कर सके।
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