सच स्वरूपम विश्वरूपम
यह सच है कि कमाल हासन की फिल्म विश्वरूपम पर उठे विवाद ने जहाँ एक ओर तामिलनाडु में तय तिथि पर प्रदर्शित न हो पाने के कारण उसे आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा हो पर इसी से उठी चर्चा के कारण से इस बहुभाषी फिल्म को देश के दूसरे हिस्सों में समुचित दर्शक भी मिले। फिल्म के प्रदर्शित होते ही इसे देखने का मौका मिला। पहली बार भारत में कोई फिल्म ऐसी सामने आई है जो नाम के अनुरूप अपने कथानक और फिल्मांकन में भी विश्वस्तरीय मानकों पर खरी उतरती है।
निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक और अभिनेता कमल हासन की इस फिल्म में कहानी कम से कम है, वहीं इस फिल्म को अफग़ानिस्तान में तालिबानों के तैयार होने, उनके प्रशिक्षण शिविरों और उन पर होने वाले अमेरिकन हमलों के शानदार चित्रण के लिए याद किया जा सकता है। अगर इसमें कहानी तलाशना हो तो यह कहा जा सकता है कि एक जासूस के रूप में कथानायक जब कठोर वास्तिविकताओं से परिचित होता है तो उसे आतंकी तरीकों से नफरत हो जाती है। इस नफरत का प्रभाव फिल्म के दर्शक भी अपने साथ ले कर आते हैं। फिल्म में आतंकी सरगना अपने पुत्र को भी पढाने की जगह उसको आतंकी बनाने की कोशिश करता है और अपनी बीमार पत्नी का इलाज इसलिए रोक देता है क्योंकि विश्व स्वास्थ संगठन की अमेरिकन लेडी डाक्टर अपने शरीर को पूरी तरह से ढके हुए नहीं है। मुखबरी के लिए जब मुखबिरों की हत्याएं होती हैं या उन्हें फाँसी पर लटकाया जाता है तो वे दहला देने वाले दृश्य बहुत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। अमेरिकन हेलीकाप्टरों से होने वाले हमलों से उजड़ते गाँव टूटते घर और मरते लोगों के दृश्य बहुत ही दारुण हैं।
फिल्म में जहाँ अफगानिस्तान की कहानी फ्लेश बैक में चलती है वहीं मूल कहानी अमेरिका में चलती है जहाँ तालिबानों के केम्प से लौटा हुआ जासूस परमाणु वैज्ञानिक लड़की से शादी करके नर्तक के रूप में अमेरिका जा बसा होता है और इतना चुपके चुपके अपना काम करता रहता है कि उसकी पत्नी तक को भनक नहीं लगती। अमेरिकन संस्कृति के प्रभाव में उसकी पत्नी उसे तलाक देना चाहती है, पर उसका कोई कारण उसे नहीं मिलता। आखिर बहाना तलाशने के लिए उसके पीछे एक प्राइवेट जासूस लगा देती है। यही जासूस अपने काम में भटक कर अमेरिका में तालिबानों के अड्डे तक पहुँच जाता है जहाँ उसकी तलाशी में मिली फोटो के विश्लेषण से विश्वरूप नाम रखे वसीम का पता चल जाता है और फिर उसका पीछा शुरू होता है। न्यूयार्क के भवन, सड़कें, ही नहीं पीछा करती कारों की दौड़ें भी रोमांचक हैं बशर्ते अब हिन्दी फिल्मों के दर्शकों के लिए ये बहुत नई न रह गयी हों। फिल्म के अमेरिका वाले हिस्से में हिंसा के दृश्य आम स्टंट हिन्दी फिल्मों की तरह के हैं, पर अच्छी फोटोग्राफी के कारण अपेक्षाकृत अधिक प्रभावकारी हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कमल हासन एक अच्छे अभिनेता है और प्रारम्भ के कुछ दृश्यों तक सीमित उनकी कामेडी अच्छी है। फिल्म में एक डायलाग है जिसमें नायिका कहती है कि पुरुष तो अब भी बन्दर ही हैं बस उनकी पूंछ आगे हो गयी है।
यह सवाल बार बार उठाया जा रहा है कि इस फिल्म में ऐसा क्या था जिसके कारण तामिलनाडु के कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसके प्रदर्शन के पूर्व से ही इसका विरोध किया। इस बात की गहरी जाँच होनी चाहिए क्योंकि यह एक गम्भीर मामला है। उनका यह बेतुका विरोध परोक्ष में संघ परिवार की अफवाहों के लिए मददगार साबित हो सकता है जो भारत के मुस्लिमों और आतंकियों को एक ही बताने का कोई मौका नहीं चूकते हैं जिससे कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ उठा सकें।
आज पाकिस्तान में आतंकवाद का जो रूप है वह आम मुसलमानों को ही नुकसान पहुँचा रहा है, आये दिन मस्जिदों में बम विस्फोट हो रहे हैं व स्कूल शिक्षा की पक्षधर बालिकाओं से लेकर पोलियो की दवाई पिलाने वाली खातूनों तक को मारा जा रहा है। अगर तालिबानी आतंकवादियों की निर्ममतापूर्वक हत्याओं को दिखाये जाने के कारण मुस्लिम संगठन के लोग विरोध कर रहे हैं यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनकी सहानिभूति इनके साथ क्यों है, जबकि विस्फोट करता हुआ बम किसी की जाति या धर्म पूछ कर नहीं फटता। उल्लेखनीय है कि तालिबानी कट्टरता के विरोध को नकारते हुए एक अच्छी फिल्म पाकिस्तान में बनी थी जिसका नाम "खुदा के लिए" था व इस फिल्म को न केवल हिन्दुस्तान/पाकिस्तान के दर्शकों का भरपूर समर्थन मिला था अपितु दोनों देशों के फिल्म समीक्षकों और बुद्धिजीवियों ने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की थी।
असल में आम लोगों की धर्मभीरुता के कारण ही धर्म के नाम पर दलाली करने वालों की पूरी जमात पैदा हो गयी है जो स्वयंभू नेतृत्व हथिया लेती है, जबकि सच यह है कि ये ही लोग बार बार जनता को हिंसा के लिए उकसाते रहते और अपनी इसी नुकसान पहुँचानी की क्षमता की दम पर वोटों के सौदे करते रहते हैं। चाहे पूंजीवादी राजनीति के व्यापारी नेता हों या व्यावसायिक लाभ के लिए दंगा फैलाने वाले हों वे सब मानवता के हत्यारे हैं और उन्हें उसी के अनुरूप सजा भी मिलनी चाहिए।
इन दिनों यह बहुत सामान्य बात हो गयी है कि फिल्मों या किताबों के व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए उस पर विवाद पैदा कर दिया जाये। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसे व्यक्तियों को दण्डित अवश्य किया जाना चाहिए। कुछ वर्ष पूर्व भोपाल में एक फिल्म अभिनेता सह निर्माता अपनी फिल्म को लोकप्रिय करने के लिए हिंसक प्रदर्शन की सुपारी देते हुए पकड़ा गया था पर राजनेताओं ने मामले को रफा दफा करा दिया था। अपने व्यापार के लिए लाखों लोगों को हिंसा के मुहाने पर खड़ा कर देने की कोशिश को अपेक्षाकृत बड़ा अपराध माना जाना चाहिए और उसकी उपेक्षा नहीं होना चाहिए।
आतंकियों की ज़िन्दगी जिस तरह से संगीतशून्य हो जाती है उसी तरह से इस फिल्म में भी संगीत का कोई स्थान नहीं है व बैक ग्राउंड में जो संगीत है वह बहुत अच्छा नहीं है। आम फिल्मों की तरह यह फिल्म आतंकी खलनायक की पराजय पर खत्म नहीं होती अपितु खलनायक के बच निकलने और इस संघर्ष के जारी रहने की सूचना के साथ खत्म होती है जिससे संकेत मिलता है कि फिल्म 'गैंग्स आफ वासेपुर' की तरह इसके कई अंक बन सकते हैं।
No comments:
Post a Comment