विशेष : श्रद्धांजलि : युग का इतिहासकार
नलिनी तनेजा
एरिक हॉब्सबॉम (1917-2012) हमारे दौर के सबसे महत्त्वपूर्ण इतिहासकार हैं। उनकी प्रतिष्ठा और मान्यता भिन्न वैचारिक आग्रहों वाले बौद्धिक समुदायों के बीच भी समान है। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एक अच्छा समाज विज्ञानी होने की सारी कसौटियों पर वह खरे उतरते हैं। उनके स्रोत-संदर्भों की विश्वसनीयता असंदिग्ध और संपूर्ण है। उनकी व्यापक दृष्टि से कोई भी विवरण छूटता नहीं है। उनकी लिखने की शैली ऐसी है जो इतिहासकारों के बीच भी उतनी ही स्वीकार्य है जितनी कि उस सामान्य पाठक के बीच लोकप्रिय जो इतिहास का विशेषज्ञ नहीं है।
लेकिन उनका महत्त्व लोकतंत्र और एक बेहतर दुनिया में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए मूलत: इसीलिए नहीं है। हम उन्हें इसलिए अहम मानते हैं क्योंकि जिस दुनिया में हम रहते हैं, उसे उन्होंने हमारी आंखों के सामने लाकर सजीव खड़ा कर दिया है और उसकी व्याख्या करके हमें बताया है कि आज यह दुनिया जैसी है, वैसी क्यों है। वह हमें अपनी दुनिया के प्रति एक समझ बनाने में मदद करते हैं।
इतिहास में उनका शोध 19वीं सदी के योरोप पर केंद्रित था, लेकिन उनकी दृष्टि कभी भी योरोप-केंद्रित नहीं रही। उन्होंने 19वीं सदी के योरोप को अपना शोध क्षेत्र इसलिए चुना क्योंकि यही वह जगह है जहां बहुत सारे ऐसे विकास सबसे पहले हुए जिन्होंने सदा के लिए हमारे जीवन को बदल दिया और कालांतर में बाकी दुनिया यानी एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका को भी अपने दायरे में ले लिया। पूंजीवाद के सभी आयामों और चरणों तथा प्रभावों के वह महान इतिहासकार हैं। जिन देशों में पूंजीवाद की पैदाइश हुई और जो देश इसकी वजह से अल्पविकसित रह जाने को बाध्य हुए, इन सभी देशों की कामगार जनता के लिए पूंजीवाद के प्रभावों को उन्होंने अपने इतिहास लेखन का अनिवार्य हिस्सा बनाया।
यही वजह है कि उनके ऐतिहासिक विषय देश-काल के संदर्भ में हमसे बिल्कुल अलहदा और दूर होने के बावजूद वे हमारे लिए तब तक ही प्रासंगिक नहीं बने रहेंगे जब तक पूंजीवाद और गैर बराबरी हमारे साथ होंगे बल्कि यदि हम किसी तरह अपने लिए बेहतर दुनिया का निर्माण कर भी सके, तब भी वे हमारे लिए प्रासंगिक बने रहेंगे। उनका कृतित्व तब भी हमें याद दिलाता रहेगा कि मानवता की लड़ाई किसके खिलाफ थी, यह लड़ाई कितनी लंबी चली और इस संघर्ष के नायक व खलनायक कौन हैं।
महान नेताओं की ही तरह महान इतिहासकारों भी महान दौर की उपज होते हैं और वे उस दौर में अकेले नहीं उभरते बल्कि बड़ी संख्या में पैदा होते हैं। हम खुद अपने अनुभव से इस बात को जानते हैं। 1917 में हुई रूसी क्रांति चमत्कारी प्रभाव और उसके बाद हिटलर की विजयों की बढ़ती लहरों के खिलाफ जन्मे फासीवाद विरोधी लोकप्रिय मोर्चों ने एक ऐसे बौद्धिक जमीन का निर्माण किया जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में न सिर्फ प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन को उभारा, बल्कि डीडी कौसांबी, सुशोभन सरकार, ए.आर. देसाई, आर.पी. दत्त, रामशरण शर्मा, के.एम. अशरफ तथा अन्य के माध्यम से रेडिकल समाजविज्ञान ने अभिव्यक्ति पाई। इन लोगों ने अतीत और समकालीन समाज को परखने-समझने के नए व वैकल्पिक तरीके अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया। ये रेडिकल राजनीतिक माहौल में वयस्क हुए लोग थे। इंग्लैंड में इन के समकालीनों में, एरिक हॉब्सबॉम तथा अन्य कई लोग थे।
हॉब्सबॉम योरोप में पली-बढ़ी उस पीढ़ी का हिस्सा थे जिसकी शिक्षा बर्लिन की फासीवाद विरोधी प्रदर्शनों से प्रकंपित बर्लिन की सड़कों पर उतनी ही हुई थी जितनी की पाठशाला की कक्षाओं में जहां इम्तिहानों की कड़ी कसौटी से गुजरना होता था। वह मेधावी छात्र थे और छात्रों द्वारा निकाले जाने वाले एक वामपंथी अखबार में समसामयिक घटनाओं पर तीखी टिप्पणी भी करते थे। बाद में कैंब्रिज में वह ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध बुद्धिजीवियों के उस अनूठे समूह का हिस्सा बन गए, जिनके अलग-अलग क्षेत्रों में किए काम आज तक मील का पत्थर हैं। रोडनी हिल्टन, क्रिस्टॉफर हिल, ए.एल. मॉर्टन, ई.पी. थॉम्पसन, जॉन सैविले, विक्टर केर्नन, राफेल सैमुएल, जॉर्ज रूदां और मशहूर उर्दू विद्वान राल्फ रसेल इस समूह का हिस्सा थे। इन्होंने मिलकर वामपंथी पत्रिका पास्ट एंड प्रेजेंट (विगत और वर्तमान) शुरू की, जो अब भी अत्यंत प्रतिष्ठित अकादमिक पत्रिका मानी जाती है।
अपने जीवन और लेखन की प्रेरणाओं का संदर्भ देते हुए उन्होंने 1993 में एक व्याख्यान में कहा था, "हर इतिहासकार के जीवन में एक निजी अटारी (पर्च) होती है, जहां से वह दुनिया का मुआयना करता है। मेरा मंच जिन स्मृतियों से बना है, उनमें 1920 के दशक में वियना में बीता मेरा बचपन है जो कि बर्लिन में हिटलर के उभार के वर्ष थे, इसी ने मेरी राजनीति को तय किया और इतिहास में मेरी दिलचस्पी पैदा की।" तीस के दशक में इंग्लैंड, खासकर कैंब्रिज के उनके अनुभवों ने राजनीति और इतिहास लेखन के बीच रिश्ते को मजबूत और प्रोत्साहित किया। वह हमें बताते हैं कि किशोरावस्था में ही उन्हें कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़ा दी गई थी। इसका उन पर गहरा असर पड़ा, जो जीवनपर्यंत रहा। तीस के दशक में इन लोगों ने सोचा कि पूंजीवाद का आखिरी संकट आ चुका है। जब इन्हें अहसास हुआ कि ऐसा नहीं था, तो दूसरों की तरह वह भी एक समाजवादी विकल्प की दिशा में अपने काम में और गहरे धंसते चले गए। हॉब्सबॉम ने कभी कम्युनिस्ट पार्टी नहीं छोड़ी और वह खुद को हमेशा समाजवाद के अंतरराष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा मानते रहे, उपनिवेशीकृत देशों की मुक्ति जिसका अनिवार्य हिस्सा था। जैसा कि एक प्रेक्षक ने कहा है, उनका काम संकलित रूप से "प्रगतिशील लोगों और दुनिया भर के 'सामान्य-समझदार व्यक्तियों' के बौद्धिक उपकरण का एक हिस्सा है।"
हॉब्सबॉम का काम कई अंतरदृष्टियां देता है जो देश-काल से इतर हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैं। उनका शुरुआती काम इंग्लैंड के मजदूर वर्ग की जीवन स्थितियों पर निबंधों का संकलन है जो दो खंडों में वल्र्ड्स ऑफ लेबर (श्रम के संसार) और लेबरिंग मैन (श्रम करनेवाले) के नाम से है। जिन तमाम विषयों से वह जूझे, उनमें वे कारक हैं जो वर्ग चेतना का निर्माण करते हैं, और हमारे लिए जो दिलचस्प चीज हो सकती है, कि उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इंग्लैंड जैसे देशों के मजदूरों में क्रांतिकारी उत्साह का इसलिए लोप हो गया है क्योंकि बेहतर जीवन शैली के तौर पर साम्राज्यवाद के कुछ फायदे उन तक रिस कर पहुंच गए हैं। उपनिवेशों के दोहन और वहां की संपदा की लूट ने साम्राज्यवादी देशों के पूंजीपतियों को अवसर दिया कि वे अपने मजदूरों को बेहतर कार्य स्थितियां प्रदान कर सकें। आज वैश्वीकरण के प्रसार के साथ हम देख सकते हैं कि किस तरह दुनिया भर में मजदूर वर्ग की एकजुटता का न सिर्फ क्षरण हो रहा है, बल्कि असंगठित आर्थिक तंत्र के फैलने के चलते हमारे देश में भी असंगठित क्षेत्र के और कारखाना मजदूरों के जीवन और राजनीति के बीच समरसता नहीं रही है।
उनकी पुस्तक इंडस्ट्री एंड एंपायर (उद्योग और साम्राज्य) जिसमें वह इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति की पड़ताल करते हैं वह कृषि क्षेत्र में आए बदलाव व औद्योगिक की प्रगति के बीच के रिश्तों पर गहरा प्रकाश डालते हैं। वह बताते हैं कि कृषि क्षेत्र से बाहर हुए कामगार कैसे शहरों में आकर मजदूर बन जाने को विवश हैं। उनका सबसे मशहूर काम 19वीं सदी के विकासक्रम का अलग-अलग खंडों में अध्ययन है। उनकी पुस्तक एज ऑफ रेवॉल्यूशन 1789-1848 (क्रांति का युग 1789-1848) औद्योगिक और फ्रांसीसी क्रांति के दोहरे प्रभावों, लोकतंत्र और असमानता से बनी आधुनिक दुनिया में इनके योगदान तथा लोकरंजक राजनीति और संप्रभुता के विचार के उभार पर केंद्रित है जिसने शासकों को जनता के करीब लाने का काम किया। एज ऑफ कैपिटल 1848-1875 (पूंजी का युग 1848-1875) दुनिया भर में पूंजी की फतह की कहानी कहती है कि कैसे इसने लोगों के आंतरिक जीवन, परिवार और सांस्कृतिक मूल्यों को रूपांतरित किया और कैसे पूंजी ने अपने आईने में इस दुनिया को ढाला। एज ऑफ एंपायर 1875-1914 (साम्राज्यवाद का युग 1875-1914) में साम्राज्यवादियों द्वारा आपस में दुनिया के बंटवारे और पहले विश्व युद्ध को पैदा करने वाली वैश्विक स्थितियों का ब्योरा है जिसमें मजदूर वर्ग, समाजवादी आंदोलनों और महिला आंदोलन द्वारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व व समान अधिकारों के लिए पैदा की गई चुनौतियों का विवरण मौजूद है। इस शृंखला का आखिरी खंड है एज ऑफ एक्सट्रीम्स 1914-1991 (चरमों का युग 1914-1991) हमें समकालीन देश-काल और अपने जीवन, बल्कि उस दौर के भी करीब लाता है जिसने हॉब्सबॉम की अपनी जिंदगी को इतने निर्णायक तरीके से गढ़ा था। एक इतिहासकार के तौर पर वह इस खंड में रूसी क्रांति और उसके विचलनों का विश्लेषण करते हैं जबकि निजी तौर पर सोवियत संघ के पतन के साथ इस प्रक्रिया के अंत का दर्द भी वह खुद में समाहित किए चलते हैं। इस खंड में उन्होंने जर्मनी और इटली में फासीवादी सत्ता के उभार, योरोप के फासीवाद विरोधी साहसिक संघर्ष, स्पेन के गृह युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध और उपनिवेशों के अंत, शीत युद्ध और कम्युनिस्ट आंदोलन के पतन जैसे विषयों का विश्लेषण किया है। ये घटनाएं हमारे इतने करीब हैं कि इन्हें हॉब्सबॉम की दृष्टि से पढ़ते हुए ऐसा लगता है गोया हम अपनी आंखों के सामने अपने दादा-परदादा से लेकर खुद अपनी जिंदगियों के पन्ने खुलते हुए देख रहे हों। सुदूर घटने वाली घटनाएं हमें खुद से जुड़ी जान पड़ती हैं, जो लगता है कोई और नहीं कर सकता है।
अपनी तीन बेहद महत्त्वपूर्ण पुस्तकों प्रिमिटिव रिबेल्स (आदिकालीन विद्रोही), बैंडिट्स (डाकू) और कैप्टेन स्विंग (अंतिम किताब माक्र्सवादी इतिहासकार जॉर्ज रूड के साथ मिल कर लिखी उनकी आखिरी पुस्तक) में 18वीं सदी के लोकप्रिय संघर्षों की चर्चा करते हुए हॉब्सबॉम नई सामाजिक श्रेणियां गढ़ते हैं। जिसे आज तक अराजक 'भीड़' माना जाता रहा, उसे वह आकार, स्वर, तार्किकता और वर्ग चरित्र प्रदान करते हैं तथा इतिहास में उनकी भूमिका पर बात करते हैं। ये अध्ययन 'अल्पविकसित देशों' और 'परिस्थितियों' के संदर्भ में बेहद महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं जहां आज भी बगैर किसी ट्रेड यूनियन के झंडे तले होने वाले लोकप्रिय विरोध प्रदर्शनों को 'दंगे' की श्रेणी में रखा जाता है और उन्हें विनाशक, अतार्किक व अराजक माना जाता है। संक्रमणकालीन सामाजिक स्थितियों में वंचितों और निर्धनतम लोगों की चेतना ही इन अध्ययनों के केंद्र में है जिसके निहितार्थों को हम अपने यहां नजरंदाज नहीं कर सकते हैं।
राष्ट्रवाद पर हॉब्सबॉम का लेखन संभवत: ज्यादा ध्यान खींचे। उनकी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक नेशंस एंड नेशनलिज्म (राष्ट्र और राष्ट्रवाद) तथा उनके द्वारा संपादित पुस्तक द इनवेंशन ऑफ ट्रेडीशन (परंपरा का आविष्कार) की भूमिका पिछले तीन दशक के हमारे पूर्वाग्रहों से ऐसे मेल खाते हैं, लगता है मानो हमारे लिए ही लिखी गई हों। इसमें इतिहास के विभिन्न चरणों में आए राष्ट्रवाद के विभिन्न रंगों का विश्लेषण और वर्गीकरण है, जैसे आरंभिक और उन्नीसवीं सदी के मध्यकालीन योरोप में एकता और लोकप्रिय संप्रभुता (राष्ट्र लोगों से मिलकर बना होता है और इसलिए उनकी आकांक्षाएं ही सर्वोपरि हैं) के विचारों से युक्त आदिम राष्ट्रवाद, संविधानवाद के लिए चलाए गए उदारपंथी आंदोलनों से जुड़ा प्रगतिशील मध्यवर्गीय राष्ट्रवाद और अंतत: साम्राज्यवादी बुर्जुआजी का उग्र राष्ट्रवाद जिसने दुनिया को अपने बीच बांट लिया और विश्व युद्ध हुए। वह बताते हैं कि उपनिवेश विरोधी आंदोलनों का स्वरूप इन सबसे अलहदा था और योरोप के समाजवादी आंदोलनों के साथ उनके रिश्ते थे। इनवेंशन ऑफ ट्रेडीशन ने दिखाया कि राष्ट्रवादी ताकतें किस तरह वैधता और राजनीतिक फायदे के लिए हमारे अतीत पर और हजारों साल पुरानी संस्कृति की निरंतरता पर अपना दावा ठोकती हैं तथा ऐसे दावों का शिकार बन जाने के क्या खतरे हो सकते हैं। हमारे यहां राष्ट्रवाद आज जिस मोड़ पर खड़ा है, यह कहना गलत नहीं होगा कि हॉब्सबॉम की ये किताबें हमें अपनी नव-उदारवादी बुर्जुआजी और उसके सरोकारों को बेहतर तरीके से समझने में मदद कर सकती हैं तथा इतिहास में आरएसएस व बीजेपी की घुसपैठ व हिंदू राष्ट्र के उनके दावों के खतरों के प्रति हमें चेता सकती हैं।
हमारे लिए इस आदमी की प्रासंगिकता के बारे में कोई और क्या कह सकता है। यह कि उन्होंने कभी बस अब काफी हो गया नहीं कहा? कि वह "जिंदगी भर कम्युनिस्ट" बना रहा? कि उसने इंटरेस्टिंग टाइम्स (दिलचस्प दौर) नाम सेअपनी ऐसी आत्मकथा लिखी जो सबक है कि प्रतिबद्धता भरा जीवन कैसे जिया जा सकता है? कि वह जीवन के अंत तक 95 बरस की अवस्था में भी अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं में दिलचस्पी लेते रहे? कि वह ताजा वित्तीय संकट, पूंजीवाद की अमानवीयता, लोकतंत्र और समाजवादी आदर्शों की प्रासंगिकता पर व्याख्यान देते रहे? कि पिछले ही साल उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम हाउ टु चेंज द वर्ल्ड: टेल्स ऑफ माक्र्स एंड मार्कि्सज्म (दुनिया को कैसे बदलें: माक्र्स और माक्र्सवाद की कथाएं) लिखी थी? यह इस बात का प्रमाण है कि उनका हम से कि तरह जुड़े थे कि पश्चिम बंगाल के पिछले चुनावों की संभावनाओं (जिसमें वाम मोर्चे की हार हुई थी) और उसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं पर उन्होंने प्रकाश करात से चर्चा की थी। आखिर ऐसी कौन-सी चीज थी जो इस शख्स – हमारे समय के सबसे सक्रिय बुद्धिजीवी, हमारी चेतना के रक्षक और हमारी सदी के विश्वसनीय गवाह को लगातार लिखते रहने और राजनीतिक बने रहने को प्रेरित करती रही? अपने जीवन के अंत में वह इस रहस्य को अपने शब्दों में कुछ यूं रखते हैं: "मेरे भीतर अक्टूबर क्रांति का स्वप्न अब भी जिंदा है।" उनकी किताबों को पढ़ कर हम शायद उस सपने को आत्मसात कर पाएं।
अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव
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