मंटो कुछ अनछुए पहलू
नलिन रंजन सिंह
गुनहगार मंटो: सआदत हसन मंटो: अनु .: शकील सिद्दीकी,
वाणी प्रकाशन पृष्ठ-188, मूल्य: 150
मुश्किलें इतनी पड़ीं मुझ पर कि आसां हो गईं…
अपने अफसानों के सिलसिले में मुझ पर चार मुकद्दमें चल चुके हैं। पांचवां अब चला है जिसकी रूदाद (वृत्तांत) मैं बयान करना चाहता हूं।
पहले चार अफसाने, जिन पर मुकद्दमा चला, उनके नाम हस्बे जैल हैं:
"एक: काली शलवार
दो: धुआं
तीन: बू
चार: ठंडा गोश्त और
पांचवां: ऊपर, नीचे और दरम्यान
पहले तीन अफसानों में तो मेरी खलासी हो गई; 'काली शलवार' के सिलसिले में मुझे दिल्ली से दो-तीन बार लाहौर आना पड़ा।
'धुआं' और 'बू' ने मुझे बहुत तंग किया, इसलिए कि मुझे बंबई से लाहौर आना पड़ता था…
…लेकिन 'ठंडा गोश्त' का मुकद्दमा सबसे बाजी ले गया। इसने मेरा भुरकस निकाल दिया।
यह मुकद्दमा गो यहां पाकिस्तान में हुआ, मगर अदालतों के चक्कर कुछ ऐसे थे जो मुझ ऐसा हस्सास (संवेदनशील) आदमी बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि अदालत एक ऐसी जगह है जहां हर तौहीन बर्दाश्त करनी ही पड़ती है।
खुदा करे, किसी को जिसका नाम 'अदालत' है, उससे वास्ता न पड़े। ऐसी अजीब जगह मैंने कहीं भी नहीं देखी।
पुलिसवालों से मुझे नफरत है। उन लोगों ने मेरे साथ हमेशा ऐसा सुलूक किया है जो घटिया किस्म के अखलाकी मुल्जिमों से किया जाता है।" (गुनहगार मंटो, पृ. 132)
यह आपबीती उर्दू-हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण कथाकार माने जाने वाले सआदत हसन मंटो की। उनकी कहानियों पर चले मुकद्दमों का वृत्तांत और कानून के अंतर्गत आई कहानियों की प्रस्तुति शकील सिद्दीकी द्वारा उनके 'लज्जते संग' के उर्दू संस्करण के अनुवाद से संभव हुई है। इस पुस्तक से सआदत हसन मंटो की जिंदगी के उन अनछुए पहलुओं पर रोशनी पड़ती है जिन्होंने उन्हें जिंदगी भर परेशान रखा। पुस्तक के आरंभ में ही लाहौर के चार महानुभावों द्वारा मंटो पर की गई सख्त टिप्पणियां छपी हैं। नफरत भरे लोगों का गुस्सा इनमें साफ दिखाई देता है, वह भी उस शख्स के खिलाफ जिसने लंबी जिंदगी नहीं जीया और गंभीर रूप से बीमार रहा। शब्द और कथ्य के सम्मान का संघर्ष बयान करते हुए शकील सिद्दीकी लिखते हैं, मंटो को अपने इक्कीस वर्ष के छोटे-से साहित्यिक जीवन में लगभग दस वर्ष अदालतों के चक्कर लगाना पड़े। थाना, जेल-अदालत, वारंट, खाना तलाशी और सम्मन पर सम्मन। सब कुछ कितना यातनाप्रद रहा होगा, हम अनुमान लगा सकते हैं; वह भी एक संवेदनशील नाजुक और बीमार व्यक्ति के लिए। सृजनधर्मी व्यक्ति के लिए समय का क्या महत्त्व व मूल्य होता है, सृजन से तआल्लुक रखने वाला कोई भी इनसान उसे आसानी से समझ सकता है। मंटो के साथ ही उनके पूरे परिवार को दहशत में डाला गया।
पांचवें मुकद्दमें के पहले जब पुलिस उनके घर पर आई तो वे 'सवेरा' के दफ्तर में एक अफसाना लिख रहे थे। बमुश्किल दस सतरें लिखी होंगी कि उन्हें सूचित किया गया कि पुलिस उनके घर पर घेरा डाले हुए है और घरवालों के लाख समझाने के बावजूद उसका मानना है कि वे घर के अंदर ही हैं। इसलिए पुलिस जबरदस्ती घर के अंदर दाखिल होने की कोशिश कर रही है। उन्हें अफसाना अधूरा छोड़कर घर लौटना पड़ा। पांचवां मुकद्दमा तय हो गया लेकिन तारीख पर जाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। सख्त बीमारी की हालत में खाली हाथ ही उन्हें कराची जाना पड़ा।
'गुनहगार मंटो' में मंटो की कुल छह कहानियां छपी हैं। पांच वे कहानियां हैं जिन पर मुकद्दमे चले और छठी कहानी है- 'खोल दो।' 'खोल दो' पर कोई मुकदमा तो नहीं चला लेकिन जिस पत्रिका में यह प्रकाशित हुई थी उस पर छह माह के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया था। इन कहानियों की पाठ-प्रक्रिया से गुजरने के बाद एक बात स्पष्ट हो जाती है कि बंद समाज में रहने वाले बेहद तंग खयालातों के लोग किस तरह संवेदना को तार-तार करते हैं। श्लील और अश्लील रचना का प्रमाण पत्र बांटने वाले समाज के प्रतिक्रियावादी और नैतिकता के स्वयंभू ठेकेदार एक बेहतरीन लेखक को ना समझने की लगातार भूल करते रहे और वह लेखक उनकी ईष्र्या और नफरत का लगातार शिकार होता रहा। जब आप न चाहते हुए जबरदस्ती किसी की हरकतों को झेलने के लिए बाध्य होते हैं तो आपकी रचना धर्मिता उससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकती। आपका समय, श्रम, सम्मान, शरीर, परिवार और धन सब प्रभावित होता है। इन सारी बाधाओं से लगातार घिरे रहने के बावजूद मंटो का साहित्यिक अवदान जारी रहा। इससे उनके आत्मसंघर्ष और लेखकीय जुनून को समझा जा सकता है। ये तमाम मुकदमें उन्हें तल्ख सच्चाई बयान करने वाली कहानियां लिखने से नहीं रोक सके। मुकदमें चलते रहे, कहानियां आती रहीं।
मंटो अदबे जदीद (आधुनिक साहित्य) को तरक्की पसंद मानते हैं और कहते हैं- 'हर इनसान को तरक्की पसंद होना चाहिए।' वे पुरानी और नई शायरी के बीच का भेद बताते हुए परंपरागत आलोचकों को अपनी शैली में जवाब देते हैं। मंटो अपने लिखने का यथार्थवादी दृष्टिकोण भी स्पष्ट करते हैं- 'चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मीनान से सो जाती है, मेरे अफसानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखियाई रंडी हो सकती है जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाजे पर दस्तक देने आया है।' उन्हें इत्मीनान और सुस्ती के संदर्भ प्रिय नहीं थे। वे हर हलचल और तकलीफ को अपनी कहानियों का विषय बनाना चाहते थे। इसीलिए शायद उनके अंतरमन में एक दर्द हमेशा समाया रहता था जिससे उन्हें मुक्ति नहीं थी, लेकिन वे घुट के मरने वाली जिंदगी को कभी पसंद नहीं करते थे। 'यह जिंदगी जो बसर कर रहा हूं, जेल से कम तकलीफदेह नहीं। अगर इस जेल के अंदर एक और जेल पैदा हो जाए और मुझे उसमें ठूंस दिया जाए तो चुटकियों में मेरा दम घुट जाएगा। जिंदगी से मुझे प्यार है। हरकत का दिलदादा हूं। चलते-फिरते सीने में गोली खा सकता हूं लेकिन जेल में खटमल की मौत नहीं मरना चाहता।' (पृ. 20)
'गुनहगार मंटो' में श्लीलता और अश्लीलता पर हुई अदालती बहस का पूरा ब्यौरा मिलता है। इसी बहाने मुकदमें से जुड़ी कहानियों की समीक्षा हो जाती है। 'धुआं' और 'काली शलवार' को लेकर दिया गया उनका तहरीरी बयान उनके कथाकार ही नहीं कथा-आलोचक रूप को भी सामने लाता है। एक कहानीकार अपनी कथावस्तु को कहां से उठाता है, उसका पर्यवेक्षण कितना सूक्ष्म है, उसकी संवेदना की परतें कितनी गाढ़ी हैं और तनाव को वह किस सीमा पर ले जाकर उसका अंत करे कि पाठक को वह झकझोर सके और ऐसा सवाल छोड़ दे कि पाठक उस समस्या को लेकर खुद सवाल-जवाब ढूंढने लगे- यह लेखकीय ताकत होती है। यह सारी सामथ्र्य मंटो में मौजूद थी। इसके लिए वे बहुत विस्तार में नहीं जाते, न ही शिल्प की अनावश्यक खींचतान करते हैं। कहानियों में सब कुछ सायास-अनायासता की शैली में चलता है। जो मंटो के उद्देश्य को नहीं पकड़ पाते, उन्हें सब सायास और अश्लील लगता है; जो उनकी शैली के सूक्ष्म संदर्भों से परिचित हो जाते हैं, उनकी कहानियों के अंत से कांप उठते हैं- उन्हें उसमें हिंसा, तकलीफ और नफरत के धागों के सिरे मिल जाते हैं जिन्हें उधेड़कर खत्म करना जरूरी लगता है। जिन्हें 'सकीना' के बेजान हाथों से इजारबंद खोलने और शलवार नीचे सरकाने में अश्लीलता दिखती है वे सिराजुद्दीन की खुशी और उसकी चीख से निकले शब्दों 'जिंदा है, मेरी बेटी जिंदा है…' को कभी नहीं सुन सकते। 'धुआं' पर लगे अश्लीलता के आरोपों को लेकर मंटो ठीक ही बयान करते हंै- 'एक मरीज जिस्म, एक बीमार जेहन ही ऐसा गलत असर ले सकता है। जो लोग रूहानी, जेहनी और जिस्मानी लिहाज से तंदुरुस्त हैं, असल में उन्हीं के लिए शाइर शे'र कहता है, अफसानानिगार अफसाना लिखता है और मुसव्विर (चित्रकार) तसवीर बनाता है। मेरे अफसाने तंदुरुस्त और सेहतमंद लोगों के लिए हैं, नार्मल इनसानों के लिए जो औरत के सीने को औरत का सीना ही समझते हैं और इससे ज्यादा आगे नहीं बढ़ते। जो औरत और मर्द के रिश्ते को इस्तेजाब (आश्चर्य) की नजर से नहीं देखते, जो किसी अदबपारे को एक ही दफा निगल नहीं जाते…' (पृ. 35)
दरअसल मंटो की 'खोल दो', 'धुआं' अथवा 'काली शलवार' जैसी कहानियां मनोरंजन के लिए नहीं लिखी गई हैं। ये कहानियां हमसे लगातार सवाल करती हैं। पढऩे पर ऐसा असर छोड़ती हैं जहां इनसानियत से बढ़कर कुछ नहीं, जहां गरीबी हिंसा और अंधविश्वास से बुरा कुछ नहीं। उन्हीं के शब्दों में 'नीम के पत्ते कड़वे सही, मगर खून जरूर साफ करते हैं।' (पृ. 52) परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व को मंटो बखूबी उभारते हैं, उस पर खुलकर बहस करते हैं और रूढि़वादियों को आइना दिखाते हैं। वेश्याओं पर लिखा हुआ गलत मानने वालों से वे कहते हैं- 'हर औरत वेश्या नहीं होती लेकिन हर वेश्या औरत होती है। इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए।' (पृ.64) इस बहाने वे औरत की सबसे तकलीफदेह जिंदगी पर रोशनी डालते हैं। कुछ इस तरह कि आप उनकी दुर्दशा को देखकर उनसे हमदर्दी करने लगें, आपको लगे कि उनकी दुनिया में तफरीह कम, तकलीफ ज्यादा हैं। आप उन्हें आम इनसान समझ सकें। इसे उनका हाशिए का विमर्श भी कह सकते हैं। अगर हाशिए के विमर्श में सुल्ताना, सकीना, कुलसुम नहीं हैं तो आधी आबादी का विमर्श अधूरा है। इस विमर्श पर बंद समाज के दकियानूस लोग ही नाक-भौं सिकोडेंग़े जो पिृतसत्तात्मक बुर्जुआ समाज के नुमाइंदे हैं। जाहिर है बुर्जुआ समाज को कम्युनिस्ट मंटो कभी पसंद नहीं आएगा।
इन सब बातों के बावजूद मंटो की जिंदगी के कुछ पक्ष दुखद भी हैं। इस दुख में अदालतें और जलालतें नहीं हैं, उनकी अपनी जिंदगी जीने के तरीके हैं जो उन्हें बीमार करते हैं, परेशान करते हैं। उनके मस्तमौला इनसान के भीतर एक जिद्दी और आत्ममुग्ध इनसान भी था। अपनी कमियों, कमजोरियों का उन्हें भान तो था लेकिन अफसोस नहीं। मैं अगर शराब पीता हूं तो मैं इससे क्यों इनकार करूं, मैंने अगर किसी से उधार लिया है तो मुझे इससे भी इनकार नहीं होना चाहिए, अगर मुझे दुनिया इस लिहाज से बुरा समझती है तो समझा करे।" (पृ. 137) पांचवें मुकदमें तक आते-आते मंटो का हाथ खाली था, उधारी चल रही थी और शराब उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुकी थी, वह भी कुछ इस तरह कि कराची जाते हुए ट्रेन के डिब्बे में भी पीने से बाज नहीं आए। खुद को शराबी कहा और कम्पार्टमेंट के जोड़े को दूसरी जगह तलाशने की राय दी। कराची पहुंचने पर होटल में रुकने के पैसे नहीं थे और अदालत का जुर्माना नसीर अनवर ने अदा किए, फिर भी लाहौर से कराची के बीच बोतलें खाली होती रहीं। उनकी इस आत्महंता प्रवृत्ति का मूल क्या था? शायद उनकी जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव, बंटवारे का दर्द, सच कहने की वजह से छूटते हुए लोग और मुकदमें पर मुकदमें- जो भी हो, धीरे-धीरे शराब ने उनको पीना शुरू कर दिया था और उनकी जिंदगी के एक-एक दिन कम होते चले गए।
'गुनहगार मंटो' में जनाब इनायतउल्लाह खां साहिब के अंग्रेजी में दिए गए फैसले के उर्दू रूप का हिंदी अनुवाद शामिल है। हाईकोर्ट का जजमेंट और दो अन्य फैसले भी दिए गए हैं। इन अदालती फैसलों को पढऩे से पता लगता है कि उस समय के तमाम विद्वान कहे जाने वाले लोग भी अपनी समझ में कितने तंग थे। मंटो के समकालीन फैज अहमद फैज, इस्मत चुगताई, कृश्न चंदर और देवेंद्र सत्यार्थी की चर्चा बताती है कि उस समय नए पाठक की तलाश में नया लिखने वाले प्रगतिशील लेखक पुराने लेखकों और परंपरागत पाठकों के निशाने पर थे। आखिर क्या था उन कहानियों में जिसने मंटो को अदालतों के चक्कर लगवा दिए?
इन कहानियों में 'ठंडा गोश्त' विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई है, 'काली शलवार' एक वेश्या सुल्ताना की जिंदगी के उतार-चढ़ाव से जुड़ी है। 'धुआं', 'बू' और 'ऊपर, नीचे और दरम्यान' मनोविश्लेषण से जुड़ी कहानियां हैं।
'ठंडा गोश्त' का ईशर सिंह बंटवारे के दंगे में एक मकान पर धावा बोलता है और साथ में से छह आदमियों को मौत के घाट उतार देता है। सातवीं एक लड़की थी जिसे कंधे पर उठाकर वह बलात्कार की नीयत से थोहर की झाडिय़ों के पास लिटा देता है, लेकिन वह कुछ कर नहीं पाता क्योंकि लड़की मारे दहशत के पहले ही मर कर ठंडा गोश्त बन चुकी थी। ईशर सिंह एक कामुक व्यक्ति था किंतु इस हादसे ने उस पर ऐसा गहरा असर डाला कि उसके अंदर की वासना ही मर गई। विभाजन की त्रासदी और उसमें जिबह होती इनसानियत के बीच भी कहीं न कहीं कुछ बचा था। ऐसा लम्हा ईशर सिंह जैसे इनसान के ऊपर भी असर छोड़ता है। स्वाभाविक है कि अब भी उसमें इनसानियत बची थी जिसने उसे ही ठंडा कर दिया। दंगे के दौरान औरतों के साथ किए जाने वाले अपराधों में उनकी अस्मत लूटने के तमाम किस्से मौजूद हैं। ऐसे किस्से जुगुप्सा पैदा करते हैं। इनसानियत के नाम पर ये काले धब्बे हैं। 'ठंडा गोश्त' कहानी उस परिस्थिति, वातावरण और घटना के प्रति घृणा पैदा करती है और यह अहसास जगाती है कि दंगे कितने वीभत्स और निकृष्ट मानसिकता की ओर धकेलते हैं। इसलिए हमें उनसे बचना चाहिए। अफसोस! इस कहानी को फिर भी अश्लील मानने वाले लोग कम नहीं थे। दरअसल विभाजन के दर्द बयान करने वाले हिंदी-उर्दू के कथाकारों को दोनों तरफ के अतिवादियों ने नापसंद किया। यशपाल, भीष्म साहनी, मोहन राकेश और शानी के भी दुश्मन कम न थे। 'झूठा-सच', 'तमस', 'मलबे का मालिक' और 'बीच के लोग' को भी कुछ कट्टर लोगों ने नापसंद किया था।
'काली शलवार' की सुल्ताना चकले की एक औरत थी। दिल्ली आने से पहले वह अंबाला छावनी में थी जहां उसका धंधा बहुत अच्छा चलता था। खुदाबख्श नामक आदमी उसकी जिंदगी में आया तो सुल्ताना का कारोबार चमक उठा। उसने समझा खुदाबख्श बड़ा भागवान है जिसके आने से इतनी तरक्की हो गई। खुदाबख्श को एक दिन पता नहीं क्या सूझा कि वह सुल्ताना को लेकर दिल्ली आ गया। बड़े शहर में धंधा और चमकेगा की अभिलाषा से दोनों दिल्ली आ तो गए लेकिन हुआ एकदम उल्टा। दोनों के धंधे चौपट हो गए। हालात ये हो गए कि मुहर्रम के दिन पहनने के लिए सुल्ताना के पास 'काली शलवार' तक नहीं थी। ऐसे में एक आवारामर्द शंकर उसकी मदद करता है, खुदाबख्श नहीं, जो किसी फकीर के पीछे मारा-मारा फिरता है कि शायद वह उसका भाग्योदय करा देगा। शंकर सुल्ताना के बुंदे मुखतार को और मुखतार की 'काली शलवार' सुल्ताना को दे देता है। दोनों को इसका पता तब चलता है जब दोनों एक-दूसरे से मिलती हैं; लेकिन दोनों इसे जाहिर नहीं करतीं और खामोश रहती हैं। स्पष्ट है कि 'काली शलवार' वेश्याओं की जिंदगी की तकलीफ, उनकी तन्हाई और गरीबी को बयान करती है और यह भी कि भाग्योदय परिश्रम से होता है, फकीरों के पीछे भागने से नहीं। समाज के इस हिस्से पर मंटो ने जिस संवदेनशील तरीके से कलम चलाई है वह काबिले तारीफ है, लेकिन बीमार दिमाग के लोगों को वेश्या शब्द में ही अश्लीलता दिख सकती है। वे लोग मुकद्दमा कर सकते हैं और किए भी।
इसी प्रकार 'बू', 'धुआं' और 'ऊपर, नीचे और दरम्यान' भी अलग तरीके से विश्लेषण की मांग करती हैं। सिग्मंड फ्रायड, एडलर और कार्ल गुस्ताफ जुंग के मनोविश्लेषणवादी विचारों ने योरोप में धूम मचा दी थी। सारी दुनिया का साहित्य फ्रायड के दर्शन से प्रभावित हुआ। हिंदी में तो मंटो के समय ही मनोविश्लेषणवादी कथाकारों की त्रयी (अज्ञेय, जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी) प्रसिद्धि पा चुकी थी। ऐसे में मसऊद, कुलसुम, बिमला, मसऊद के मां-बाप (धुआं), रनधीर, घाटन लड़की (बू), बेगम साहिबा, मियां साहब (ऊपर, नीचे और दरम्यान) जैसे चरित्रों को मनोविश्लेषणवादी नजरिये से देखने की जरूरत थी। लेकिन तीनों कहानियों में सहज मानवीय संबंधों, चाहतों, उत्सुकताओं और जरूरतों को देखने की जगह औरत और मर्द को छिछले स्तर पर रखकर देखा गया और मुकदमें चले। और तो और विद्वान न्यायधीशों को भी मंटो के तर्क समझ में नहीं आए जबकि उन्होंने अपने तहरीरी बयान में फ्रांस के कहानीकार मोपासां की एक कहानी की चर्चा भी की है। हारकर मंटो को हमेशा न्याय का दुर्बल पक्ष ग्रहण करना पड़ा।
कुल मिलाकर 'गुनहगार मंटो' सआदत हसन मंटो और उनके समय को जानने-समझने का एक जरूरी दस्तावेज है। और इसीलिए संग्रहणीय भी।
No comments:
Post a Comment