समाज विज्ञान : जनसंख्या समस्या का स्त्री पाठ
गायत्री आर्य
जनसंख्या समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते: रवीन्द्र कुमार पाठक, पृ.स. : 195, मूल्य: रु.125, राधाकृष्ण प्रकाशन
ISBN 978-81-8361-264 -7
ऐसा बेहद कम होता है कि किताब के शुरू में दिए गए समर्पण में आपका नाम दर्ज ना होने के बावजूद आप खुद को वहां पाएं। रवींद्र कुमार पाठक अपनी किताब का समर्पण अपने किसी खास को ना करके उस आम 'स्त्री' को करते हैं, जो कि उनके लिए कितनी ज्यादा खास है, किताब का हर पन्ना इसकी गवाही देता है। अपने समर्पण में वह लिखते हैं, "दुनिया की तमाम स्त्रियों की मूक नासमझ पीड़ाओं (जो परिवार व समाज की पितृसत्तात्मक संरचना ने उन्हें दी हैं।) तथा आज की लड़कियों की तनी रीढ़ और शर्म-मुक्त आंखों के बहादुर सपनों को!" यहां लड़की की शर्म-मुक्त आंखें कोई विवादास्पद बयान नहीं है। असल में लेखक बताना चाहता है कि लड़की की शर्म-मुक्त आंखे ही स्वतंत्र और बहादुर सपने देख सकती हैं। जिन आंखों में पितृसत्ता की (जबरन) दी गई शर्म है वहां सिर्फ पितृसत्ता के देखे सपने पूरे होते हैं, लड़की के खुद के नहीं!
रवींद्र कुमार एक ऐसी समस्या से गुजरते हैं जिससे ना सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया त्रस्त है, वह है जनसंख्या की अधिकता। लेकिन जनसंख्या समस्या को समझाने के लिए रवींद्र कुमार हमें जिन रास्तों व पगडंडियों से लेकर चलते हैं वे बेहद नई हैं। सिर्फ बनी-बनाई पगडंडियां, रास्ते, सोच-विचार ही साफ-सुथरे और चुनौतियों रहित होते हैं। यहां पुराने लक्ष्य (जनसंख्या समस्या) को नए रास्तों, नई सोच के साथ खंगाला गया है। इसी से रास्ते लहुलूहान कर देने वाले हैं, खासतौर से 'खांटी मर्दो' के लिए। इस खूनखराबे से बचने के लिए ही लेखक का विनम्र निवेदन है कि "आप जैविक रुप से चाहे कुछ भी हों (स्त्री या पुरुष) पर इसे अपने 'मर्द' मन से न पढ़कर 'मनुष्य' होकर पढि़ए। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जनसंख्या समस्या का जो स्त्री पाठ लेखक ने पेश किया है वह अपनी ही तरह का संभवत: दुनिया में पहला है। यह भी संभव है कि सीमित ज्ञान के कारण मेरा ऐसा सोचना हो। खैर… ,
विषय प्रवेश करते ही लेखक जनसंख्या समस्या को सिर के बल खड़ा कर देता है और स्त्री को केंद्र में ले आता है। "जनवृद्धि इसलिए समस्या है कि सीमा से अधिक बच्चों को पालने, रखने आदि की भौतिक सुविधाएं 'समाज' और सरकार के पास नहीं हैं, इसलिए नहीं कि एक भी बच्चा फालतू होने का अर्थ है स्त्री के स्वास्थ्य, व्यक्तित्व या कैरियर के ह्रास में बढ़ोतरी। बच्चे पैदा करते-करते, स्त्री अपने मनुष्य होने की पूरी संभावना (चाहे देह के क्षेत्र की हो या मन के क्षेत्र की) पर ग्रहण लगाकर, एक फैक्ट्री में तब्दील हो जाती है।… यानी इसमें सैकेंडरी (आर्थिक असुविधा) को प्राइमरी बनाकर, प्राइमरी (स्त्री पीड़ा) को सैकेंडरी भी नहीं रहने दिया गया है।"
अपनी किताब स्त्रीत्व से हिंदुत्व में चारु गुप्ता ने बताया है कि कैसे हिंदू स्त्री की कोख को हिंदू सांप्रदायवादियों ने अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिए कारगर हथियार के रुप में देखा। साथ ही विधवा को 'व्यर्थ कोख' के रूप में या फिर मुस्लिम जनसंख्या में इजाफा कर सकने वाली 'खतरनाक कोख' के रूप में देखा। रवींद्र कुमार स्त्री के इस 'बच्चेदानीकरण' को और भी ज्यादा गहराई और विस्तार के साथ सामने लाते हैं। न सिर्फ हिंदू-मुस्लिमों ने पत्नियों को अपने संप्रदाय की जनसंख्या वृद्धि का साधन भर माना बल्कि अलग-अलग दौर में अलग-अलग मुल्कों की राज्य सत्ताओं द्वारा भी स्त्री के प्रति ऐसा ही व्यवहार किया गया। "रूस की वर्तमान सरकार भी अपने यहां जनसंख्या बढ़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है-अधिकाधिक बच्चों की मां को अधिकाधिक इनाम तथा पालन-शिक्षा आदि में सहारा देकर।… आज इजरायल, ब्राजील, अर्जेटीना आदि भी तीव्र जनवृद्धि के पक्ष में हैं, अरब ने कृत्रिम गर्भनिरोध उपायों तथा ब्राजील ने निजी परिवार-नियोजन संस्थाओं पर रोक लगा रखी है।"
रवींद्र कुमार जनसंख्या वृद्धि-जनसंख्या वृद्धि चिल्लाने वालों को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं। "सबकी सोच में सुविधाओं के संकट का डर है, न कि स्त्री के प्रति करुणा।" वह जनसंख्या समस्या को मूलत: पितृसत्तात्मक समस्या मानते हैं। जनसंख्या नियंत्रण कि जिम्मेदारी में पुरुष पूरी तरह से मुक्त है। "आज सिर्फ1 प्रतिशत पुरुष नसबंदी कराते हैं और महिलाओं पर इसका 37 से 41 गुना ज्यादा भार है। यह तो सिर्फ नसबंदी का भार हुआ। बाकी गर्भ-निरोधकों (आई.यूडी., या कॉपर टी, गोलियों, सुइयों) का भार भी तो स्त्री को ही झेलना पड़ता है।… परंतु 'मर्दानगी' के भ्रामक जाल में उलझे होने के कारण पुरुष नसबंदी कराना अपनी हेठी समझते हैं।… हर तरह से संत्रस्त अपनी पत्नी को ही बाध्य कर देते हैं बंध्याकरण के लिए। "जिस समाज में" गर्भपात भी एक उपाय के रुप में स्वीकृत हो "वह समाज अपनी स्त्रियों के प्रति कितना संवेदनशील है इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेखक ने जनसंख्या वृद्धि का इकलौता जिम्मेदार पुरुष की 'निर्मर्याद हवस और बेटे की चाह' को ठहराया है। वह पुरुष और पितृसत्ता को उनके (स्त्री को बार-बार गर्भभार व अनावश्यक प्रसव पीड़ा में डालने, उनके स्वास्थ्य, पोषण व कैरियर के लिए चुनौती खड़े करने के) 'अक्षम्य अपराध' के लिए बार-बार कोसता है!
स्त्री का चूंकि अपनी देह पर कोई अधिकार नहीं इस कारण कोख पर भी नहीं। वह कब और कितनी बार मां बनना चाहती है, यह बात गर्भ ठहराने वाला पति आजीवन नहीं जानता और न ही जानना चाहता है। पितृसत्ता ने कुछ इस तरह से चक्रव्यूह निर्माण किया है कि पुरुषों के सारे कर्मो-कुकर्मों की सजा स्त्री को मिलती जाती है। वह चाहे बलात्कार के बाद स्त्री की दुर्गति हो या फिर बेटी को जन्म देने वाली मां की दुर्गति। "एक बूंद-एकै मलमुत्तर एक चाम एक गूदा। एक ज्योति से सब उपजानी।" एक ही गर्भधारण प्रक्रिया, एक ही जनन प्रक्रिया, एक हीप्रसव पीड़ा, एक ही स्तनपान प्रक्रिया, एक ही पालन-पोषण प्रक्रिया लेकिन फिर भी बेटी और बेटे के जन्म के परिणाम में कितना फर्क है किसी बेटी की मां से पूछिए।
रवींद्र कुमार जनसंख्या की समस्या के बहाने से मातृत्व की संस्कृति पर बेहद सटीक और धारदार टिप्पणी करते जाते हैं। मातृत्व से जुड़ी भाषा पर भी ध्यान देने से लेखक नहीं चूकता। "वह गर्भवती हो गई' या 'मां बन गई' ..इस फूहड़ प्रयोग पर सिर पटक देने का मन करता है। 'हो गई' या 'कर दी गई' ? 'बन गई' या 'बना दी गई' ? क्या 'खुश/नाराज हो गई' या 'उसे ठंड/लू लग गई' की तरह ही सहज घटना है गर्भवती होना? उसके अपने सहज अधिकार में है यह? क्या अपनी इच्छा से वह हुई? "पुरुषों की मर्दानगी पर तर्क और तथ्य की घोर बमबारी के बाद लगता है जैसे पाठक सीधे किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ के कमरे में पहुंच गए हों।… जहां बिना फीस के, साथ ही पूर्वाग्रह मुक्त, पितृसत्तामुक्त सलाह का दोहरा लाभ उठाते हुए हम खुद को पाते हैं।" हर तरह के गर्भनिरोधकों की जानकारी तो पाठकों को और भी बहुत जगह मिल सकती है, लेकिन इस किताब में पाठक गर्भनिरोधकों के स्त्री-विरोधी चरित्र से रूबरू होंगे।
स्त्रियों द्वारा पुरुषों की अंतहीन कामेच्छा को कोसना तो सहज ही सुनने को मिलता रहता है। किंतु किसी पुरुष द्वारा पुरुषों की कामुकता को इतनी कड़क लताड़ पड़ते संभवत: पहली बार देखा जाएगा। "स्त्री के मासिक-चक्र चार… दिन गर्भधान के हैं। पर कितना बड़ा आश्चर्य है कि मात्र चार दिनों का नतीजा है कि विश्व की जनसंख्या छह अरब को पार कर गई है, 1999 ई. के 12 अक्टूबर को ही। इसका अर्थ है कि स्त्री-देह को भोगने में मर्द महीने में चार-पांच दिन भी उसे बख्श न सके।… 'नारी नरक का द्वार है', तो उस नरक के द्वार में घुसने को इतने उतावले क्यों बने रहते हो कि चार दिन भी नहीं ठहर सकते? धिक्कार है तुम्हे सांस्कृतिक मर्दों! "सभी पुरुष नहीं, लेकिन खांटी मर्दों के लिए पूरी किताब में कटाक्ष, धिक्कार, कड़ी उलाहना और घृणा है। जिन मर्दों ने अपनी पत्नियों को नहीं बख्शा, इस किताब में उन मर्दों को लेखन ने नहीं बख्शा है। ये किताब अपनी पत्नियों को इनसान न समझने वाले, स्त्री को बार-बार गर्भवती करने वाले दामादों को उनकी सास की तरफ से एक कोसना है! मैं दावे से कह सकती हूं कि तमाम भुक्तभोगी पत्नियों, माओं को इस किताब को पढ़ते वक्त एक सहलाने की-सी सुखद अनुभूति होगी। चलो किसी आदमी ने तो अंतहीन तरीको से हमें सताए जाने की बात स्वीकारी… वो भी डंके की चोट पर, सार्वजनिक होकर। पूरी किताब पढ़ते हुए 'मां की सी पुचकार का सा भाव मन में बना रहता है। खांटी मर्दों और पितृसत्ता के लिए हर एक पेज पर बिखरे कटाक्ष बीच-बीच में जैसे जख्म पर मरहम का काम करते हैं। "चर लो चाहे जिस खेत को चाहो (स्त्री को उनके धर्मशास्त्र ने क्षेत्र-खेत कहा ही है) भोग लो बहादुरो! वीरभोग्या वसुंधरा!"
किताब भावुकता में किया गया बखान नहीं है। गहन शोध, तर्क, चिंतन, नई मानवीय सोच इसकी बुनियाद हैं। न सिर्फ स्त्री के अनचाहे गर्भभार और प्रसव पीड़ा को लेखन का मुद्दा बनाया है बल्कि लिंगभेद, लिंगानुपात, बाल-विवाह, वैधव्य, मासिक-धर्म संबंधी पाखंड, पर्दा, सेक्स वर्कर, श्रम का शोषण, प्रचलित मातृत्व का सच, जनसंख्या नियोजन, जनसंख्या नियंत्रण के भटकते नारों और योजनाओं पर भी बहुत बेबाकी से लिखा है। समाज में पसरी हर उस चीज की लेखक ने अच्छे से खबर ली जिसने स्त्री की हैसियत एक गुलाम जैसी बना रखी है। यहां तक कि स्त्री विरोधी भाषा को भी वह नहीं बख्शते। कन्या वध का विरोध करने वाले प्रचलित नारों पर उन्हें सख्त आपत्ती है। "सभी नारों की जात एक ही है-मर्द जात। क्या मादा भू्रण-हत्या इसलिए रोकना जरूरी है कि मर्दों को 'प्यार या रोमांस' नहीं मिलेगा? स्वयं भूखे रहकर खिलाने वाली 'मां' नहीं मिलेगी? अपनी जन्मजात उपलब्धि (संपत्ति-अधिकार) को अपने भाई पर कुर्बान करने और स्वयं राखी बांधकर उससे दया की भीख मांगती दयनीय बहन नहीं मिलेगी? कन्यादान का पुण्य उपलब्ध कराने वाली बेटी न मिलेगी? भावना व देह के रोमांस से तुम्हे सेंकनेवाली पे्रमिका न मिलेगी? अथवा, पति के लिए 'कार्येषु दासी… शयनेषु रंभा..' के रूप में आदर्शीकृत बड़े काम की मजेदार चीज, पुत्र-जनन की मशीन बनी पत्नी न मिल पाएगी? क्या इसी के लिए स्त्री को बचना चाहिए?… क्या इसके लिए स्त्री को नहीं बचना चाहिए की भारतीय संविधान के 21वें अनुच्छेद ने बिना भेदभाव किए सबको जीवन का हक दिया है, जिसकी लड़की भी उतनी ही भागीदार है?"
लेखक का प्रबल विश्वास है कि "भाषा ठीक करना, मनुष्य को ठीक करने का महत्त्वपूर्ण तरीका है।" इसी कारण उन्होंने स्त्री को केंद्र मे रखकर जनसंख्या नियंत्रण के कई नारे भी सुझाए हैं। "काफी है पहली संतान। /बेटा-बेटी एक समान, संतानों की लगती भीड़-तो नारी की बढ़ती पीर। /पति को नसबंदी स्वीकार-तब पत्नी से सच्चा प्यार।।" लेखक स्वीकार करता है कि समाज में 'प्रत्यक्ष वध की तुलना में स्त्री की उपेक्षा-मौत ज्यादा होती है।' स्त्री की सामाजिक उपेक्षा को बेहद शिद्दत से महसूसने का ही परिणाम है कि लेखक हर एक जगह स्त्री की उपस्थिति को लेकर बेहद चैकन्ना है। यह किताब इस मामले में भी अपवाद है कि इसकी भाषा में स्त्रियों, पाठिकाओं को भी संबोधित किया गया है। इस संबोधन के प्रति न तो कोई आलस बरता गया… नही महज 'स्वाभाविक ही कि स्त्री-पुरुष दोनों से कहा जा रहा है' सोचकर पुरुषवादी संबोधन मात्र से गुजारा किया गया है।… स्त्री का वजूद किसी पुरुष की सोच में इस तरह से और इस कदर ठसक से भी शामिल हो सकता है विश्वास नहीं होता।
पूरी किताब के शीर्षक, उप शीर्षक एक खास तरह की लयात्मकता और तुकबंदी से गुंथे हुए हैं। "मर्द का मजा: औरत को सजा, देह की जेल में गर्भ को झेल, संस्कृति का बेटावादी जहर-स्त्री की कोख व जान पर कहर, पितृसत्ता से लाचार क्या करेगी सरकार… "ये शीर्षक 'नारे' का सा होने का आभास दे रहे हैं। शायद अप्रत्यक्ष रूप से लेखक 'स्त्री सहयोगी इन नारों को पाठकों के माध्यम से समाज में स्थापित करना चाहता है। स्त्री विरोधी नारों, जुमलों, कथनियों, मुहावरों, लोकोक्तियों जवाब में खड़े… उनका स्वस्थ विकल्प स देते हुए लगते शीर्षक।
इस किताब से गुजरना एक भयानक बवंडर में घिरे रहने जैसा है। स्त्री के तन-मन को इतनी पुचकार, ममता, सहानुभूति… और (सभी नहीं लेकिन अधिकांशत:) पुरुषों के अंतहीन लंपटपने का इतना विस्तृत स्वीकार व धिक्कार… अहा! मन करता है बार-बार उन शब्दों को, पक्तियों को रंग-बिरंगी कलमों से रेखांकित करती रहूं। अपनी आंखों से उन शब्दों को बार-बार छूती रहूं जो स्त्री की तकलीफ को महसूस कर उसे पुचकारते हैं, उसके अव्यक्त गुस्से और खीज को अभिव्यक्त करते हैं और उसे संभलने और अपने हक में तनकर खड़े होने का हौंसला देते हैं।
आंकड़े पुस्तक रूपी 'विचार के पैर-हाथ होते हैं।' लेकिन इस किताब में आंकड़ों की अति पाठक के सहज प्रवाह को बाधित करती है। संभवत: खांटी मर्दों और पितृसत्ता के कच्चे चिठ्ठे खोलने के लिए जिस सुरक्षा कवच, और पैने हथियार की जरुरत थी, ये आंकड़े उसी लेखकीय जरुरत को पूरा करने के लिए इस तरह पूरी किताब में बिछाए दिये गए हैं। हम सब जो अपने बच्चों के लिए सभ्य सुरक्षित मानवीय समाज की चाहत रखते हैं उस दिशा में एक कदम की तरह ऐसी किताब का खुले दिल से स्वागत करना चाहिए। एक झकझोरने वाली, बेहद पठनीय किताब।
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