हिन्दूवादी आतंकवाद
केसरिया आतंक पर जयपुर में गृहमंत्री के बयान के बाद भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दू आतंकवाद पर केन्द्र सरकार को सड़क पर घेरने के बाद अब हो सकता है संसद में भी इसे तूल देने की कोशिश करे। उसका ऐसा करना राजनीतिक रूप से उसके लिए फायदे का सौदा होगा। जितना वह "हिन्दू आतंकवाद" के मुद्दे को बढ़ावा देगी उतना ही देश के नागरिकों में विभाजन पैदा करके अपने वोटबैंक में इजाफा कर सकेगी। भारतीय जनता पार्टी जानबूझकर हिन्दू और हिन्दुत्व में घालमेल कर रही है और हिन्दुत्ववादी आतंकवाद को हिन्दू धर्म से जोड़ने की कोशिश कर रही है। आरएसएस का हिन्दुत्व जिसे उग्रता को अपना आदर्श मानता है वह भारत के बहुसंख्य हिन्दू धर्म का स्वभाव नहीं है। सीताराम येचुरी का मानना है कि हमें हिन्दू धर्म और हिन्दुत्ववादी आतंकी समूहों के बीच फर्क करना चाहिए।
भारत में आतंकवादी हिंसा और हिंसा की राजनीति में भी उतनी ही विविधता है, जितनी विविधताएं इस देश में हैं। इसलिए, बजाय इसके कि आतंक को किसी खास खाने में ही फिट करके देखने की कोशिश की जाए, जरूरत इसकी है कि हर तरह के आतंक का समझौताहीन तरीके से मुकाबला किया जाए तथा उसे शिकस्त दी जाए। देश की एकता व अखंडता की रक्षा करने तथा उन्हें मजबूत करने का यही रास्ता है। लेकिन, कांग्रेस के जयपुर के चिंतन शिविर में केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की 'केसरिया आतंक' संबंधी टिप्पणी पर उठा शोर अभी थमा भी नहीं था कि फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के एक विदेशी प्रकाशन में छपे लेख को लेकर विवाद खड़ा हो गया। बहरहाल, जाने-माने अभिनेता ने फौरन यह साफ कर दिया कि कम से कम उसने अपनी तरफ से इसकी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी कि कोई विवाद खड़ा हो और न ही उसने इस तरह का कोई इशारा किया था कि वह, ''भारत में असुरक्षित, परेशान या अशांत'' अनुभव कर रहा है। लोगों से शोर मचाने से पहले मूल लेख पढ़ने का आग्रह करते हुए, अभिनेता ने कहा कि उसने तो सिर्फ इतनी बात दोहरायी थी कि, ''कभी-कभी धर्मांध तथा तंग नजर लोग, जिन्होंने धार्मिक विचारधाराओं की जगह पर क्षुद्र लाभों की चिंता को बैठा दिया है, मेरे एक भारतीय मुस्लिम फिल्मी सितारा होने का दुरुपयोग करते हैं।'' विडंबना यह है कि जैसे खान की इसी बात को सच साबित करने के लिए, पाकिस्तान के आंतरिक मामलों के मंत्री, रहमान मलिक ने भारतीय फिल्मी सितारे की सुरक्षा की चिंता जता दी। उधर, शिव सेना और भाजपा ने जैसे दूसरी ओर से उसी बात को सच साबित करने के लिए, खान से ही सफाई देने की मांग उठा दी। बहरहाल, इस सारे शोर-गुल के बीच भारत के गृहसचिव ने मलिक को एकदम मौजूं जवाब दे दिया। वास्तव में भारत सरकार ने और देश की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने पाकिस्तान से साफ-साफ कह दिया है अपने काम से मतलब रखे और अपने नागरिकों की सुरक्षा की चिंता करे, जो आतंकवाद की तेजी से फैलती आग में झुलस रहे हैं।
इसी तरह, इससे पहले जैसे यही साबित करने के लिए कि अलग-अलग रंगों के आतंकवाद एक-दूसरे के लिए खाद-पानी जुटाने तथा एक-दूसरे को बल पहुंचाने का ही काम करते हैं, मुंबई के 2611 के आतंकी हमले का मुख्य आरोपी हफीज सईद, जो इस समय पाकिस्तान में शरण लिए हुए है, गृहमंत्री की 'केसरिया आतंक' संबंधी टिप्पणी को ले उड़ा, जैसे यह उस जैसों की आतंक की राजनीति को सही ठहरा सकता हो। याद रहे कि 1999 के आम चुनाव की पूर्व-संध्या में जब लश्कर-ए-तैयबा के सूचना सचिव से सवाल किया गया कि उसके ख्याल में भारत में अगली सरकार किस की होनी चाहिए, उसका दो-टूक जबाब था: ''भाजपा हमारे लिए माफिक बैठती है। एक साल के अंदर-अंदर उन्होंने हमें (पाकिस्तान को) एक नाभिकीय तथा मिसाइल शक्ति बना दिया। भाजपा के बयानों के चलते लश्कर-ए-तैयबा को अच्छा समर्थन मिल रहा है। हालात पहले बहुत अच्छे हैं। हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि वे (भाजपा) फिर से सत्ता में आएं। तब हम और भी मजबूत होकर सामने आएंगे।'' (हिंदुस्तान टाइम्स, 19 जुलाई 1999)
पैंसठ साल पहले, 30 जनवरी को, एक हिंदू कट्टरपंथी ने गोलियां चलाकर महात्मा गांधी की हत्या की थी। 29 बरस पहले, 1984 में खालिस्तानी आतंकवादियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी। अब से 22 बरस पहले, 1991 के आम चुनाव के दौरान, लिट्टे के 'मानव बम' के हमले ने, पूर्व-प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जान ले ली थी।
जरूरत इस बात की है कि हर तरह के आतंक का मुकाबला किया जाए और इसमें 'हिंदुत्ववादी आतंक'(हिंदू-आतंक नहीं) भी शामिल है। कहने की जरूरत नहीं है कि किसी धर्म के मानने वाले व्यक्तियों की आतंकवादी करतूतों के लिए, पूरे के पूरे किसी समुदाय को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है। बहरहाल, यह बात उसी तरह दूसरे सभी धर्मों पर भी तो लागू होती है। लेकिन, आर एस एस के हिसाब से दूसरे धर्मों को इस नजर से नहीं देखा जा सकता है। तभी तो वह आए दिन इस आशय के प्रस्ताव पारित किया करता है कि, 'इस्लामी आतंकवाद को सख्ती से कुचलो।' यह सिर्फ दोहरे पैमाने अपनाने का ही मामला नहीं है। यह तो धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक भारतीय गणराज्य को, आरएसएस की कल्पना के 'हिंदू राष्ट्र' में तब्दील करने के आरएसएस के लक्ष्य की ही विचारधारात्मक जड़ों को खाद पानी देने का मामला है। याद रहे कि आरएसएस की कल्पना का हिंदू राष्ट्र, धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा पर आधारित होगा।
केंद्रीय गृहमंत्री का 'केसरिया आतंक' संबंधी बयान, पिछले गृहमंत्री द्वारा संसद में 2010 की जुलाई में की गयी आतंकवादी गतिविधियों की छानबीन से संबंधित घोषणा पर आधारित लगता है। तत्कालीन गृहमंत्री ने यह घोषणा की थी कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एन आइ ए) समझौता एक्सप्रेस पर आतंकवादी हमले की छानबीन करेगी और इस हमले के पीछे काम कर रही पूरी साजिश का पता लगाएगी जिसमें मालेगांव (8 सितंबर 2006), हैदराबाद की मक्का मस्जिद (18 मई 2007), अजमेर शरीफ दरगाह (11 अक्टूबर 2007) के आतंकवादी हमलों के साथ इस कांड के अभियुक्तों के रिश्ते भी शामिल हैं। याद रहे कि 18 फरवरी 2007 की मध्य-रात्रि में दिल्ली-लाहौर समझौता एक्सप्रेस के दो कोचों में बम विस्फोट में, 68 लोग मारे गए थे। इससे भी पहले, आर एस एस से जुड़े संगठनों को देश के विभिन्न हिस्सों में हुए बम विस्फोट की घटनाओं से जोड़नेवाली रिपोर्टों की ओर केंद्र सरकार का ध्यान खींचा गया था। राष्ट्रीय एकता परिषद की 13 अक्टूबर 2008 की बैठक में, सी पी आई के नोट में रेखांकित किया गया था: ''पिछले कुछ वर्षों में पुलिस ने देश के विभिन्न हिस्सों में बम विस्फोटों में बजरंग दल या आर एस एस के अन्य संगठनों की संलित्पता दर्ज की है2003 में महाराष्ट्र के परभणी, जालना तथा जलगांव में; 2005 में उत्तर प्रदेश में मऊ में जिले में; 2006 में नांदेड़ में; 2008 में तिरुनेलवेली में तेनकाशी में आर एस एस के कार्यालय पर विस्फोट; 2008 में कानपुर में विस्फोट, आदि आदि।'' इस सब की ओर से आंख मींचकर भाजपा अब गृहमंत्री को हटाने की मांग कर रही है। उसके प्रवक्ता के शब्द थे: ''अगर समझौता विस्फोट के पीछे आतंकवादी हैं, सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र है। अगर संघ परिवार का कोई पूर्व-स्वयंसेवक शामिल हैं, मेहरबानी कर के उनके खिलाफ कार्रवाई कीजिए। लेकिन, आप एक राष्ट्रवादी संगठन की छवि पर दाग नहीं लगा सकते हैं...।''
इस तरह, वे एक बार फिर यही दावा कर रहे हैं कि हो सकता है कि इस तरह की आतंकवादी करतूतें चंद 'भटके हुए तत्वों' की करनी हों, लेकिन उसके लिए समूचे संगठन को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है। बेशक, इन ताकतों की तरफ से इस तरह का दावा कोई पहली बार नहीं किया जा रहा है। वास्तव में, महात्मा गांधी की हत्या के बाद, नाथूराम गोडसे के बारे में भी उनकी ओर से ठीक ऐसा ही दावा किया जा रहा था। बहरहाल, बाद में नाथूराम गोडसे के भाई ने मीडिया से एक बातचीत में बाकायदा यह माना कि उसके सभी भाई, आर एस एस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। स्वतंत्र भारत के पहले गृहमंत्री, सरदार पटेल ने गांधी हत्या के प्रकरण के बाद, आर एस एस पर प्रतिबंध की घोषणा करते हुए, 4 फरवरी 1948 को जो सरकारी विज्ञप्ति जारी करायी थी, उसमें यह दर्ज किया गया था: ''बहरहाल, संघ परिवार की आपत्तिजनक तथा नुकसानदेह गतिविधियां अनवरत जारी रहीं और संघ परिवार की गतिविधियों से प्रेरित व प्रायोजित हिंसा के पंथ ने बहुतों की जानें ली हैं। उसके ताजातरीन तथा सबसे मूल्यवान शिकार, खुद गांधीजी हुए हैं।''
आरएसएस और उसकी कार्यपद्धति का इतिहास, 'मूलाधार' और 'हाशिए' के बीच विभाजन के ऐसे सैद्धांतिक खेल की गुंजाइश नहीं देता है। सचाई यह है कि हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण देने और हिंसा को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का आर एस एस का अपना लंबा इतिहास है। सावरकर ने ही (जिसने जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत पेश करने से पूरे दो साल पहले यह सिद्धांत पेश किया था कि यहां दो राष्ट्र हैंइस्लामी और हिंदू) नारा दिया था कि, ''सारी राजनीति का हिंदूकरण करो और हिंदुत्व का सैन्यीकरण करो।'' इसी से प्रेरणा लेकर डा. बी एस मुंजे ने, जो आर एस एस के संस्थापक डा. हेडगेवार के गुरु थे, फासीवादी तानाशाह मुसोलिनी से मुलाकात करने के लिए इटली की यात्रा की थी। 19 मार्च 1931 को उनकी मुलाकात हुई थी। अपनी निजी डायरी में 20 मार्च को मुंजे ने जो कुछ दर्ज किया था, इतालवी फासीवाद जिस तरह युवाओं (स्टार्म ट्रूपरों) को प्रशिक्षित कर रहा था, उस पर उनके फिदा हो जाने को ही दिखाता था। भारत लौटकर मुंजे ने 1935 में नासिक में सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजूकेशन सोसाइटी की स्थापना की थी। यह सोसाइटी, 1937 में स्थापित उस भोसले मिलिट्री स्कूल का पूर्ववर्ती था, जिस पर अब हिंदुत्ववादी आतंकियों को हथियारों का प्रशिक्षण देने के आरोप लगे हैं। इसी प्रकार, गोलवालकर ने 1939 में नाजीवाद के हिस्से के तौर पर हिटलर द्वारा यहूदियों का सफाया किए जाने की खूब तारीफ की थी और भारतीयों को परामर्श दिया था कि यह, ''हम हिंदुस्तान के लोगों के लिए, सीखने तथा लाभान्वित होने के लिए एक अच्छा सबक है।'' और आगे चलकर बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री ने, जिसकी अभी हाल ही में एक बार फिर भाजपा में वापसी हुई है, इसकी शेखी मारी थी कि कार सेवकों ने ध्वंस का जो काम चंद घंटो में ही पूरा कर दिया था, किसी ठेकेदार ने उसे पूरा करने में कई दिन लगा दिए होते!
वास्तव में इसे इतिहास की एक गहरी विडंबना ही कहा जाएगा कि 80 बरस पहले, 1933 में 30 जनवरी के ही दिन, फासीवादी तानाशाह एडोल्फ हिटलर को, जिसने आतंक को अपने शासन की नीति ही बना दिया था, जर्मनी के चांसलर के रूप में शपथ दिलायी गयी थी। भारत को इस विश्वास पर अटल रहना चाहिए कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है। यह तो बस राष्ट्रविरोधी होता है और देश को इसके प्रति 'शून्य सहिष्णुता' का प्रदर्शन करना चाहिए। पुन: अलग-अलग रंग के आतंकवाद, एक-दूसरे को खाद-पानी देने तथा मजबूत करने का ही काम करते हैं और हमारे देश की एकता तथा अखंडता को ही नष्ट करने की कोशिश करते हैं। आज के दिन हमें अपने देश में आतंकवाद की बीमारी को खत्म करने के अपने संकल्प को दोगुना करना चाहिए।
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