शताब्दी वर्ष : पसमंजर : सआदत हसन मंटो
Author: समयांतर डैस्क Edition : March 2013
कोरिया की?
जी नहीं।
बेगम जूनागढ़ की?
जी नहीं।
कत्लो-गारत की किसी नई वारदात की?
जी नहीं, सआदत हसन मंटो की।
क्यों, क्या मर गया?
जी नहीं, कल गिरफ्तार कर लिया गया।
फांसी के सिलसिले में।
जी हां, पुलिस ने उसकी खाना-तलाशी भी ली।
कोकीन या नाजायज शराब वगैरह निकली?
नहीं, अखबारों में लिखा था कि उसके मकान से कोई नाजायज चीज बरामद नहीं हुई।
लेकिन उसका वजूद बजाते-खुद नाजायज है।
जी हां, कम अज कम हुकूमत तो यही समझती है।
फिर उसे बरामद क्यों नहीं किया गया?
यह बरामद और दरामद का मामला हुकूमत के अपने हाथों में है जिसे चाहे बरामद करे, जिसे चाहे दरामद करे। सच पूछिए तो यह काम हुकूमतों के हाथ में ही होना चाहिए। तो इसका सलीका जानती हैं।
इसमें क्या शक है।
क्या खयाल है आपका? इस मर्तबा तो मंटो को फांसी की सजा जरूर मिलनी चाहिए।
मिल जाए तो अच्छा है, रोज-रोज का टंटा खत्म हो।
आपने ठीक कहा है। 'ठंडा गोश्त' के बारे में हाईकोर्ट ने उसके खिलाफ जो फैसला दिया है, उसके बाद तो इस कमबख्त को खुद-ब-खुद मर जाना चाहिए था – मेरा मतलब है खुदकुशी कर लेनी चाहिए थी।
अगर वह इस कोशिश में नाकाम रहता?
तो उस पर यकीकन मुकदमा चलता कि उसने अपनी जान लेने की कोशिश क्यों की।
मेरा खयाल है, यही वजह है कि वह खुदकुशी से बचा रहा, वरना तो बाज रहने वाला आदमी नहीं।
तो इसका मतलब है कि वह अपनी फांसी जारी रखेगा।
अजी हजरत, ये उस पर पांचवां मुकदमा है। अगर उसे बाज रहना होता तो पहले मुकदमे के बाद की ताइब (तौबा करना) होकर कोई शरीफाना काम शुरू कर देता। मिसाल के तौर पर गवर्नमेंट की मुलाजिमत कर लेता या की बेचता या मुहल्ला पीर गीलानी के गुलाम अहमद साहब की तरह कोई दवा ईजाद कर लेता।
जी हां, ऐसे सैकड़ों शरीफाना काम हैं। मगर वह पहले दरजे का हठधर्म है, लिखेगा और जहर लिखेगा।
मालूम है आपको, उसका अंजाम क्या होगा?
कुछ बुरा ही नजर आता है।
छह मुकदमे पंजाब में उस पर चल रहे होंगे, दस सिंध में, चार सूबाए-सरहद, तीन मशिकी पाकिस्तान में – वह इन की ताब न लाकर पागल हो जाएगा।
दो मर्तबा तो पागल हो चुका है।
यह उसकी दूर-अंदेशी थी – वह रिहर्सल कर रहा था कि जब सचमुच पागल हो जाएगा तो पागलखाने में आराम से रहेगा।
पागल होकर क्या करेगा?
पागलों को होशमंद बनाने की कोशिश करेगा।
यह भी जुर्म है।
मालूम नहीं, यह तो कोई वकील ही बता सकता है कि ताजी राते-पाकिस्तान में इसके लिए कोई दफा मौजूद है या नहीं।
होनी चाहिए। पागलों को होशमंद बनाना दफा 292 की रोशनी में तो बहुत खतरनाक जुर्म मालूम होता है।
दफा 292 के बारे में तो अब हाईकोर्ट ने 'ठंडा गोश्त' का फैसला करते हुए साफ तौर पर कह दिया है कि कानून को मुसन्निफ की नीयत से कोई वास्ता नहीं, वह नेक हो या बद, कानून को तो सिर्फ यह देखना है कि मेलान क्या है।
इसीलिए तो मैं अर्ज कर रहा था कि पागलों को होशमंद बनाने के फेल में नीयत कैसी भी हो, उसके मेलान को जैरे-गौर रखना पड़ेगा। और जाहिर है कि इस फेलल का मेलान किसी सूरत में भी बेजरर नहीं करार दिया जा सकता।
यह कानूनी भू-शिगाफियां हैं, हमें इनसे दूर रहना चाहिए।
आपने बहुत अच्छा किया जो बरक्ततंबीह कर दी क्योंकि ऐसी बातों के बारे में सोचना भी खुद एक संगीन जुर्म है।
लेकिन हजरत, मैं सोचता हूं अगर मंटो सचमुच पागल हो गया तो उसके बीवी बच्चों का क्या होगा?
उसके बीवी बच्चे जाएं जहन्नुम में, कानून को उनसे क्या वास्ता?
दुरुस्त है। लेकिन हुकूमत क्या उनकी मदद नहीं करेगी?
हां हुकूमत… हुकूमत की बात जुदा है। मेरा खयाल है कि उसे मदद करनी चाहिए। और कुछ नहीं तो अखबारों में इस बात का ऐलान कर देना चाहिए कि वह इसके मुताल्लिक गौर कर रही है।
जब तक गौर होगा, तब तक मामला साफ हो जाएगा।
जाहिर है, अब तक तो ऐसा ही होता रहा है।
लानत भेजिए मंटो और उसे बीवी बच्चों पर। आप यह बताइए कि हाईकोर्ट के फैसले का उर्दू अदब पर क्या असर होगा?
उर्दू अदब पर भी लानत भेजिए।
नहीं साहब, ऐसा न कहिए, सुना है अदब कौम का बहुत बड़ा सर्माया होता है।
होगा भाई, हम तो उसे सर्माया कहते हैं जो नकदी के सूरत में बैंक में पड़ा हो।
लाख रुपए की बात कही आपने – तो मोमिन, मीर, मीर हसन, शौक, सादी, हाफिज वगैरह सबको दफा 292 साफ कर देगी?
करना चाहिए, वरना इसके वजूद का मतलब ही क्या है? ये जितने शायर, अदीब बने फिरते हैं, अब इनको चाहिए कि होश में आएं और कोई शरीफाना पेशा इख्तियार करें।
लीडर बन जाएं?
सिर्फ मुस्लिम लीग के?
जी हां, मेरा मतलब यही था। किसी और लीग का लीडर बनना फहश है।
बेहद फहश।
लीडरी के अलावा और भी शरीफाना पेशे मौजूद हैं… डाकखानों के बाहर बैठकर पाकीजा इबारत में खुतूत नवीसी करें, दीवारों पर इश्तहार लिखें, बेरोजगारों के दफ्तर में क्लर्क हो जाएं… नया-नया मुल्क बना है, हजारों आसामियां खाली पड़ी हैं, कहीं भी समा जाएं।
जी हां, इतनी खाली जमीन पड़ी हैं।
हुकूमत सोच रही है कि तबायफों और रंडियों के लिए रावी के पास एक बस्ती बना दे ताकि शहर की गिलाजत दूर हो। क्यों न इन शायरों, अफसाना-निगारों और अदीबों को भी इनमें शामिल कर लिया जाए?
बहुत अच्छा खयाल है। ये लोग खुश रहेंगे।
लेकिन, अंजाम क्या होगा?
अंजाम की कौन सोचता है – जो होना होगा, हो जाएगा।
हां, वहां पड़े झक मारते रहेंगे। लोहे को लोहा काटता है। फांसी को फांसी काटती रहेगी।
बड़ा दिलचस्प सिलसिला रहेगा।
मंटो को तो खासतौर पर वहां अपनी दिलचस्पी का मनभाता सामान मिल जाएगा।
लेकिन वह कम्बख्त उनका मुजरा सुनने के बजाय उन पर लिखेगा। कई सौगंधियां, कई सुल्तानाएं पेश करेगा।
और कई खुशिया, कई ढोंडू (मंटो की कहानियों के दलाल) मालूम नहीं कम्बख्त को ऐसे गिरे हुए इनसानों को उठाने में क्या मजा आता है। सारी दुनिया उन्हें जलील और हकीर समझती है, मगर वह इनको सीने से लगाता है, इनको प्यार करता है।
इसकी बहिन इस्मत (चुगताई) ने इसके मुताल्लिक (बारे में) ठीक ही कहा था कि मंटो को अजीबो-गरीब, तहलका डाल देने वाली और सोतों को चौंका देने वाली चीजों से बड़ी रगबत है। वह सोचता है कि अगर बहुत से लोग सफेद कपड़े पहने बैठे हों और कोई कीचड़ मलकर वहां चला जाए तो सब हक्का-बक्का रह जाएंगे… सब लोग रो-पीट रहे हों, वहां एक ऊंचा कहकहा लगा दो तो सब दम साधकर टुकुर-टुकुर मुंह देखने लगेंगे। बस धाक बैठ जाएगी, सिक्का जम जाएगा।
उसका भाई मुम्ताज हुसैन कहता है – वह नेकी की तलाश में निकलता है और उसकी एक किरण ऐसे इनसान के पेट से निकालता है जिनके बारे में आप इस तरह की कोई तवक्को ही नहीं रखते। यह है मंटो का कारनामा।
यह बड़ी लग्व हरकत है, बल्कि फहश हरकत है कि ऐसे इनसानों के पेट से रोशनी की एक किरण निकाली जाए, जिसमें सिवाय अंतडिय़ों और फुजले के और कुछ न हो।
और कीचड़ मलकर सफेदपोश लोगों के दरम्यान कूद पडऩा।
यह और भी फहश है।
यह इतनी कीचड़ लाता कहां से है?
मालूम नहीं, कहीं न कहीं से ढूंढ निकालता है।
गंदगी का गव्वास ठहरा।
आइए हम दुआ मांगें कि खुदा हमें इसके लानती वजूद से निजात (छुटकारा) दिलाए… इसमें खुद मंटो की भी निजात है :
"ए खुदा, ए रब्बुल आलमीन, ए रहीम, ए करीम, हम दो गुनहगार बंदे तेरे हुजूर (सामने) गिड़गिड़ाकर दुआ मांगते हैं कि तू सआदत हसन मंटो को, जिसके वालिद का नाम गुलाम हसन मंटो है और जो बहुत शरीफ, परहेजगार और खुदातरस आदमी था, इस दुनिया से उठा ले, जहां वह खुशबुएं छोड़ देता है और बदबुओं की तरफ भागता है। नूर में वह अपनी आंखें नहीं खोलता है लेकिन अंधेरे में ठोकरें खाता फिरता है। सतर (पर्दा) से उसको कोई दिलचस्पी नहीं, वह सिर्फ इनसानों को नंगा देखता है। मिठाइयों से उसे कोई रगबत नहीं, कड़वाहटों पर अलबत्ता जान देता है। घरेलू औरतों की तरफ वह आंख उठाकर भी नहीं देखता, लेकिन बेश्याओं से घुलमिल कर बातें करता है। साफ और शफ्फाफ पानी छोड़ के बदरौओं में नहाता है। जहां रोना है, वहां हंसता है और जहां हंसना है, वहां रोता है। कोयलों की दलाली में जो अपना मुंह काला करते हैं, उनकी कालिख साफ करके हमें दिखाता है। तुझे भूलकर उस शैतान के पीछे मारा-मारा फिरता है जिसने तेरी हुक्मउदूली की थी…
ए रब्बुल आलमीन, इस शरअंगेज, नजिस पसंद और शरीर इनसान को इस दुनिया से उठा ले, जिसमें वह बदकिरदारों और बदअतवारों के नामाए-आमाल की स्याहियां मिटाने की कोशिश में मसरूफ है।
ए खुदा, वह बहुत शरपसंद है। अदालतों के फैसले इसका सबूत हैं। लेकिन यह अरजी अदालतें हैं। तू इसे दुनिया से उठा और अपनी आस्मानी अदालत में इसके खिलाफ मुकदमा चला और इसको करार वाकई सजा दे। लेकिन, देख, इसे अदाएं बहुत आती हैं, ऐसा न हो तुझे इसकी कोई अदा पसंद आ जाए… तू सब कुछ जानने वाला है। हमारी सिर्फ यह दुआ है कि वह इस दुनिया में न रहे। रहे तो हम जैसा बनकर रहे – हम जो एक दूसरे के ऐबों पर पर्दा डालते हैं।
ईं दुआ अजमन व अज जुमला जहां आमीन बाद।"
उर्दू से लिप्यांतरण : खालिद अशरफ
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