Monday, November 4, 2013

सिखों के संहार पर राष्ट्र खामोश क्यों है? क्या इतिहास पर चर्चा राष्ट्रद्रोह है? या इतिहास को दुहराने का दुश्चक्र करने वाले युद्धअपराधी राजनेता हैं राष्ट्रद्रोही?


सिखों के संहार पर राष्ट्र खामोश क्यों है? क्या इतिहास पर चर्चा राष्ट्रद्रोह है?

या इतिहास को दुहराने का दुश्चक्र करने वाले युद्धअपराधी राजनेता हैं राष्ट्रद्रोही?


पलाश विश्वास

दुनियाभर में बसे सिखों के लिए भारत विभाजन की त्रासदी से  कहीं ज्यादा भयावह स्मृतियां अस्सी और नब्वे के दशक में रक्काक्त आजाद बारत के शस्य श्यामला पंजाब और बाकी देश  में लहूलुहान सिख आबादियों से जुड़े हैं।


अभी पिछले दिनों जब हम 1984 के दंगों के अपराधियों को फांसी देने की फेसबुक वाल पर अपने अग्रज मित्र राजीव नयन बहुगुणा के एक पंक्ति के परमाणु बम को डिकोड किया और अपने ब्लागों में इसपर चर्चा की तो रोबोटिक्स नियंत्रित इन ब्लागों के लिंक जाम कर दिये गये।


मैं नैनीताल की तराई में जन्मा पला बढ़ा हूं। सिखों और पंजाबी बिरादरी की एकता कितनी चट्टानी है,उसका गवाह मेरा सारा बचपन और कालेज जीवन है।


बसंतीपुर बंगाली शरणार्थी उपनिवेश के एकदम किनारे  पर अंतिम गांव है और आसपास सारे गांव पंजाबियों और सिखों के हैं।


पारिवारिक वजह से पूरे नैनीताल और पहाड़ों में भी हम सामाजिक तौर पर सक्रिय रहे हैं।


सिख,पंजाबी शरणार्थी बच्चों के साथ साझा बचपन रहा है हमारा।हम लोग साथ साथ बड़े हुए।


साथसाथ स्कूल गये। साथ साथ कालेज और और साथ साथ वहीं से निकले।


यह साथ कितना प्रचंड है कि समझ लीजिये कि सविता के बजाय इस वक्त कोई पंजाबी या सिख कन्या हमारे जीवन संघर्ष में साथ निबा रही होती तो कोई अजूबा नहीं होताय़


यह महज संयोग है कि ऐसा नहीं हुआ।

क्योंकि हमारा वह समय आंदोलन का रहा है। प्रेम उत्सव का नहीं।


अपरेशन ब्लू स्टार के वक्त में रांची में था। लेकिन 31 अक्तूबर, 1984 को मैं मेरठ में था। हमने सारे पश्चिम उत्तर प्रदेश और दिल्ली के साथ बाकी देश को सिखविरोधी हिंसा में जलते देखा।


31 अक्तूबर को पिताजी दिल्ली में थे और इंदिराजी को देखने अस्पताल में पहुंच गये थे। नारायण दत्त तिवारी अस्पताल के पिछले दरवाजे से उन्हें लेकर आये थे।


नवंबर 84 के दिल्ली दंगों के चश्मदीद गवाह रहे हैं मेरे दिवंगत पिता भी। जो शरणार्थियों के अपने वक्त के सबसे बड़े राष्ट्रीय नेता थे।


उनका कहना था कि यह भारत विभाजन से ज्यादा बड़ी त्रासदी है।


मेरठ शहर तब भी भारी तनावों वाला शहर था और वहां लगातार दंगे हो रहे थे। लेकिन मेरठ शहर में सिखों के खिलाफ हिंसा हुई नहीं क्योंकि वहां मुसलमान निशाने पर थे,जो मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहारों से साबित हुआ।


दंगों का दुश्चक्र क्या होता है,मेरठ में अपने भोगे हुए यथार्थ का खुलासा मैंने अपनी कहानियों में लगातार किया है,लेकिन शायद कला कौशल में कमतर होने के कारण उन कहानियों की चर्चा तक नहीं हुई।


सांप्रदायिक हिंसा की राजनीति तो होती ही है और उसका अर्थशास्त्र भी होता है,यह सबक हमने मेरठ में अस्सी के दशक में सीखा।


मेरे उस सबक में साझीदार मरे पिता भी थे,जिन्हें हमने जलते हुए मेरठ में मेडिकल कालेज में इलाज के लिए बाकायदा कैद कर रखा था।


मेरे पिता भी मानते थे कि भारत को गुलाम बनाने के लिए ही,कारपोरेट राज कायम करने के लिए ही पंजाबियों और सिखों की एकजुटता खत्म करने के लिए सिखों को अलगाव में डालने के लिए वर्चस्वावादी जातिवादी प्रभुत्व के लिए सिखों का यह नरसंहार हुआ।


हम दिवाली या विजया दशमी नहीं मनाते।सम्राट अशोक के विजयापर्व का देश में मूलनिवासी बहुजन समाज में अभी चलन नहीं है।


हम इसीलिए भारत का इतिहास सत्ता षड्यंत्र में जी रहे हमारे हितैषियों की त्योहारी शुभकामनाओं का जवाब नहीं दे पाते। वे हमें माफ भी करें।


हमारी मजबूरी है कि इस हालत में हम अपने गुरुओं का आशार्वाद भी स्वाकीर नहीं सकते।


दिवाली की दोपहर और शाम हमने गड़िया में अंडमान से प्रकाशित द्वीप कथा पत्रिका पर हुई एक साहित्यिक पत्रिका पर आयोजित संगोष्ठी में बितायी।जहां बांग्ला दलित साहित्य आंदोलन के संस्थापक व मौजूदा अध्यक्ष मनोहर मौलि विश्वास मुख्य वक्ता थे। वहां साहित्य और पत्रकारिता के सरोकार को जनता के विरुद्ध सैन्य राष्ट्र की युद्धघोषणा के विरुद्ध अविराम प्रतिरोध के रणकौशल के बारे में सिलसिलेवार चर्चा हुई। उत्तर आधुनिक मनुस्मृति विधाओं और व्याकरण,सौंदर्यबोध की चीरफाड़ भी हुई।


इसकी रपट वीडियो हाथ में आने पर विस्तार से आपके साथ शेयर करेंगे।


यह संगोष्ठी चंडाल आत्मकथा लिखने वाले देशभर में मशहूर अपढ़ कथाशिल्पी मनोरंजन व्यापारी के मार्मिक आत्मकथ्य के लिए खासतौर पर यादगार रहेगी।


उनका पूरा वक्तव्य हमने रिकार्ड किया है,जिसे हम यूट्यूब पर डालेंगे।


अब कुछ समय पहले हमारे अग्रज ग्राम्यभारत के सबसे मुखर प्रवक्ता पी साईनाथ से हमारी लंबी बातचीत कोलकाता में हुई थी और उस चर्चा में मरीचझांपी प्रसंग पर विस्तार से चर्चा हुई थी।


बंगाल में एकाधिकारवादी वर्चस्व का इससे बड़ा कोई समीकरण है ही नहीं।


जबसे मरीचझांपी नरसंहार का भी इस्तेमाल करके शरणार्थियों और अनुसूचितों,मतुआ समुदाय के वोट बैंक से माकपा को बेदखल करके अग्निकन्या ममता बनर्जी सत्ता में आयी हैं,तबसे हम लगातार मरीचझांपी का मामला उठा रहे हैं।


हमारे फिल्मकार मित्र तुषार भट्टाचार्य ने प्रत्यक्षदर्शियों से लोकर नरसंहार के आयोजकों के साक्षात्कार समेत तमाम सबूतों को लेकर जो फिल्म बनायी,सत्तादल ने चुनाव के वक्त उसका भरपूर इस्तेमाल माकपा के खिलाफ किया।


अब जब दीदी फेसबुक पर हैं, तो बिना नागा हम रोज उन्हें सीधे मरीचझांपी के नाना सबूत भेज रहे हैं।


पर जैसा कि वे बार बार घोषणा करती रही हैं कि ,1979 जनवरी में ङुए इस नरसंहार के अपराधियों को वे सजा दिलायेंगी,ऐसी कोई पहल उन्होंने नहीं की है।


मरीचझांपी में मारे गये लोग बंगभूमि से बेदखल कर दिये गये मूलनिवासी बहुजन है। बंगाल में नोशूद्र और पौंड्र जातियों के लोग 60 -70 लाख से ज्यादा अब हैं नहीं।जबकि बंगाल के बाहर इनकी तादाद कम से कम तीन करोड़ से ज्यादा है।


बंगभूमि से बेदखल कर दिये गये मूलनिवासी बहुजन मातृभाषा के अधिकार से वंचित हैं।


आरक्षण का लाभ भी इन्हें बंगाल से बाहर नहीं मिलता और न इनका कोई सामाजिक राजनीतिक आर्थिक प्रतिनिधित्व या सशक्तिकरण हुआ है।


इसलिए मरीचझांपी के लिए न्याय की गुहार लगाने वाले हम लोग एकदम अल्पसंख्यक हैं और सत्ता की चहार दीवारी से हमारी आवाज टकराती भी नहीं है।


हमारे मित्र तुषारदा ने उपलब्ध और शूट किये सबूत का दस फीसद का इस्तेमाल भी अपनी फिल्म और पुस्तक में नहीं किया।


ऐसा इसलिए किया गया कि गवाहों पर पहले से दबाव नहीं पड़ें।


जांच चलेगी तो सारे सबूत और गवाह पेश किये जायेंगे।


गड़िया की संगोष्ठी में चंडालकथा के लेखक ने खुलासा किया कि मरीचझांपी का प्रसंग अपने रचनाकर्म के जरिये उठाने के एवज में उन्हें लगातार तीस मोबाइल नंबरों से धमकियां दी जाती रही हैं।


उन्होंने चंडाल कथा भाग दो में इन तमाम आतंकी  नंबरों का उल्लेख किया है।


हिंदी के पाठकों तक बहुत जल्द उनका रचनाकर्म अनूदित होकर पहुंचा रहे हैं हमारे दिल्लीवाले चंडाल मिंत्र मंडल।


इसीसे समझ लीजिये कि बंगाल में सत्ता का आतंकी चेहरा कितना भयानक हैं।


हमारी जड़ें हिमालय के ग्लेशियरों और घाटियों में गहरी न पैठी होती, हम अगर हिंदी और अंग्रेजी के भी लेखक नहीं होते,तो हमारे लिए आवाज निकालना भी मुश्किल होता।वैसे भी बंगाल में हमारा लिखा बांग्ला तो दूर,हिंदी और अंग्रेजी कोई कांट्टेट कहीं भी छपने पर अघोषित निषेधाज्ञा है।


हम तो बंगाल के बाहर अपनी चंडाल चौकड़ियों की बदौलत जिंदा हैं।


हमें पेशेवर तरीके से मारने में बंगाली प्रगतिशीलों और समाजवादियों ने माननीय प्रभाष जोशी का इस्तेमाल भी कर लिया, लेकिन स्टेटस से कलम की औकात बनती बिगड़ती नहीं है और इसी वजह से बखूब जिंदा है हमारी कलम।


एक अर्ध सरकारी स्कूल में बतौर रसोइया सुबह शाम काम कर रहे मनोरंजन व्यापारी भी खामोश नहीं हुए। हम तो जेएनयू तलक हो आये। एक बड़े ब्रांडेड अखबार में स्थाई नौकर भी हैं। पिता के कारण भारत भर में सर्वत्र मेरे ठहराव का इंतजार है।फिर वैकल्पिक मीडिया के जरिये संपादकों,प्रकाशकों और आलोचकों की ऐसी तैसी करते हुए हम व्यापक पाठकों से सीधे संवाद करने की स्थिति में भी हैं।


इसके विपरीत हमारी तुलना में मनोरंजन व्यापारी के संघर्ष की सोचिये और तनिक भी भाषा और संस्कृति से लगाव हो तो उनको लाल सलाम कहिये।


मनोरंजन व्यापारी निरंतर धमकियों,यहां तक कि तथाकथित दलित समाज के दबाव और बहिस्कार के बावजूद,भयंकर अस्तित्व संकट के बावजूद न थके हैं और न हारे हैं।


पलाश विश्वास के हाथ में बमुश्किल दो साल हैं,फिर एक्सपायर हो जाना है।


क्योंकि हम कालजयी कोई करिश्मा करने नहीं निकले घर से।


हमें लड़ना था अने लोगों के लिए, सो हम लड़ रहे हैं।


जब तक सांस है,आखिरी दम तक लड़ते रहेंगे।


हमें रचना नहीं था,जीना था और जीने के लिए ही रच रहे हैं।

आत्मरति के लिए कतई नहीं।


लेकिन माध्यमों से बहिस्कृत होने के कारण हम क्षणजीवी ही हैं और यह हमारी अंतिम सीमा है।


हमारे मुकाबले चरम विपरीत परिस्थितियों में मातृभाषा और माध्यमों में अकेले लड़कर टिके हैं और टिके रहेंगे मनोरंजन व्यापारी।


लोग अमेरिका से सावधान भूल गये हैं।


लेकिन उम्मीद है कि लोग चंडाल कथा भूल न पायेंगे।


सिखों की स्थिति समझाने के लिए इस चंडालकथा की बेहद प्रासंगिकता है।चंडालों की तरह सिखों का भूगोल भी खत्म करने का उपक्रम हुआ।


चंडालों का इतिहास भूगोल खत्म कर दिया गया।


लेकिन भारत विभाजन और अस्सी व नब्वे के दशक के पार भी सिखों की लड़ाई खत्म हुई नहीं हैं।


गुरु के लड़ाके वैसे भी सवा लाख के मुकाबले एक ही काफी होते हैं।


हमारा मानना है कि चंडातों के खात्म के बाद सिखों के सफाया के लिए ही योजनाबद्ध तरीके से अस्सी और नब्वे दशक का इतिहास रचा गया।


लेकिन खास बात तो यह है कि वर्चस्ववादी  इतिहास के विरुद्ध लड़ते हुए समूचा हिमालय डूब में शामिल है, समूचा पूर्वोत्तर और काश्मीर सैन्य शासन के मातहत और समूचा आदिवासी भूगोल अनंत वधस्थल है,सारे आदिवासी अल्पसंख्यक और अनुसूचित असुर महिषासुर बनकर वध्य हैं,लेकिन सिखों के भूगोल को वधस्थल बनाने में नाकाम रहा है सत्ता वर्चस्व।


क्योंकि सिखों ने भूगोल की सीमाबद्धता तोड़ने मे महारत हासिल कर ली है।


दुनियाभर में सिखों का वास है।


कनाडा में गुरमुखी दूसरी भाषा हैं और वहां सिखों और पंजाबियों के मुकाबले गोरे अल्पसंख्यक लगते हैं।



जाहिर है,सिख संहार का मामला दूसरा है।


मरीचझांपी से कहीं बहुत ज्यादा संवेदनशील।


बंगाल में और भारत भर में  बंगाली शरणार्थी शुरु से अलगाव में हैं।


हर बंगाली शरणार्थी अपनी लड़ाई अकेले लड़ने के लिए अभिशप्त है। न जातियां एकजुट हैं और न बंगाल और बंगाली ब्राह्मनी वर्चस्ववादी हेजेमनी ने शरणार्थियों की कभी कोई मदद की।बल्कि उनकी तबाही का हर सामान जुटाया जाता रहा।


मतुआ आंदोलन,नील विद्रोह,सन्यासी विद्रोह,मुंडा संथाल विद्रोह,चुआड़ विद्रोह ने,चंडाल आंदोलन और तेभागा आंदोलन ने बंगाल की किसान जातियों को जैसे एकजुट किया और हाशिये पर रहे वर्चस्ववाद की वापसी भारत विभाजन से सुनिश्चित हुई, वहीं करिश्मा पंजाब की हिंदू,सिख और पंजाबी एकता को तहस नहस करने के लिए अस्सी और नब्वे के दशक में दोहराया गया।


भारत विभाजन की त्रासदी से सिखों ने अकेले नहीं,बल्कि पूरे पंजाबी बिरादरी ने एकजुटता से लोहा लिया और उसके पार निकालने का युद्ध भी जीत लिया।


राजनीतिक तौर पर बंगाल,महाराष्ट्र और दक्षिण भारत को गुलाम बनाने का एजंडा दिल्ली की सत्ता ने चुटकी बजाते ही पूरा कर लिया।


लेकिन पंजाब को जीतना तब तक असंभव था,जबतक पंजाबी बिरादरी की चट्टानी एकता तोड़कर सिखों को अलगाव में जाल कर आदिवासियों की पांत में खड़ा नहीं कर दिया जाये।


इसी लिए हरित क्रांति के औजार का बखूब इस्तेमाल करते हुए विध्वंसक आत्मघाती अकाली जंगी राजनीति की फसल तैयार करने में दिल्ली की सत्ता ने खून पसीना एक कर दिया, क्योंकि बंगाल,महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के गुलाम बन जाने,मध्य भारत,पूर्वोत्तर और काश्मीर को अलगाव में डाल देने के बाद,पूरे हिमालयको डूब में शानमिल कर देने के बाद सत्तावर्ग को सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती महज पंजाब से मिल सकती थी।


उस संभावना का गर्भपात करने के लिए आपरेशन ब्लू स्टार की परिस्थितियां रची गयी और सिख संहार कौ वैज्ञानिक तरीके से अंजाम दिया गया।


पंजाब की गुलाम अकाली राजनीति से इस रणनीति का साफ साफ खुलासा हो गया है।


लेकिन जैसा मैंने पहले भी लिखा,खेती के सबसे दक्ष कारीगर और कलाकार सिखों ने भौगोलिक सीमाबद्धता तोड़ते हुए ग्लोबल दुनिया में अपने वजूद के झंडे मजबूती से गाड़ दिये हैं। इसलिए मरीचझांपी की तरह सिखों की न्याय की गुहार खामोश नहीं की जा सकती।


1984 के दंगा पीड़ित अब भी हत्यारों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।


दुनियाभर से सिखों की लड़ाई 1984 के विरुद्ध न्याय के लिए जारी है। इसे अनसुनाकरना बेहद खतरनाक खेल हैं। भारत से बाहर जो सिख हैं, वे कोई दबी छुपी जुबान से सिख राष्ट्र की मांग नहीं कर रहे हैं।


खालिस्तान आंदोलन को कुचल देने का दावा भारतीय परिप्रेक्ष्य में सच है लेकिन यह आंदोलन बाकी दुनिया में अब भी जिंदा है।इस हकीकत को नजरअंदाज करना राष्ट्रद्रोह है।सरासर राष्ट्रद्रोह।


क्योंकि सिखों के साथ न्याय नहीं हुआ तो कभी भी फिर अस्सी और नब्वे के दशकों की वापसी असंभव नहीं है। इस असंभव को संभव में बनाने में लगे हुए हैं अपने हत्यारों औपर मानवताके विरुद्ध अपराधी नेताओं के बचाव में एकजुट देश बेचो वर्चस्ववादी सत्ता गिरोह।


खतरा यह नहीं है कि भारत में सिखों को न्याय दिलाने की मांग हो रही है।


बल्कि असली खतरा यह है कि सिख संहार और मरीचझांपी  जैसे नरसंहारों के जरिये जो मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था है,उसके विरुद्ध महाविद्रोह से कहीं इस भारतीय लोक गणराज्य के परखच्चे न उड़ जाये।


हकीकत तो यह है कि यह खतरा किसी मानव बम से नहीं बल्कि इस देश के कारपोरेट गुलाम शासकों से हैं।


यह खतरा कितना बड़ा है,इसका जायजा लेने के लिए अवतार सिंह शेखों का ताजा लेख इस आलेख के साथ पेश है।


Surendra Grover
क्या पंजाब में उस दौर में चल रही हिंसा के लिए क्या सिर्फ अलगाववाद और अलगाववादी नेता ज़िम्मेदार थे, या फिर ज़िम्मेदारी थी शासक वर्ग की वो राजनीति जिसके तहत संजय गांधी और जैल सिंह ने जरनैल सिंह भिंडरावाला को चुना और इंदिरा गांधी सरकार ने भिंडरावाला को वो असीमित ताकत दे डाली कि उसे रोकना ख़ुद उनके लिए भी मुश्किल हो गया...
http://mediadarbar.com/23583/indira-gandhi-and-bhindra-wala/

इंदिरा-भिंडरावाला, ख़ुदाओं की जंग में इंसानियत की मौत...

mediadarbar.com

पिछले अंक से आगे (इंदिरा गांधी की का जिस्म गोलियों से छलनी हो कर 1, सफ़दरजंग रोड के द्वार पर पड़ा था, आर के धवन कुछ समझ

Surendra Grover
1984 में दिल के बादशाह सरदारों का कत्ल ए आम इन्हीं दिनों चल रहा था.. आज लाखों सिक्ख परिवार उस क़त्ल ए आम में बेमौत मार दिए गए अपने परिजनों की याद में आंसू बहा रहे होंगें.. उनके इस दुःख को समझते हुए हमारे परिवार ने यह दिवाली बड़े सादगी पूर्ण ढंग से मनाई है और कोई आतिशबाजी नहीं की..

Manish Mahajan
कोंग्रेसी हर समय आरएसएस वालों के खिलाफ बोलते हे
पर नेहरू भी कभी आरएसएस मे था !
नेहरू की जान इंगलेंड वालों से आरएसएस वालों ने बचाई थी !
अगर आरएसएस वाले नहीं होते तो नेहरू पीएम बनने से पहले मर जाता !
फिर ना इंदरा होती
ना राजीव होता
ना सोनिया होती
ना पप्पू होता !
ये दोगले कोंग्रेसी हर समय आरएसएस वालों को आतंकी कहते हे !
कोंग्रेसियों आरएसएस वालों के अहसानो को भूल गए क्या?

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Twenty-nine and one-half (29.5-year) and 29-year After the Sikh Genocides in the Predominantly Brahmins-Hindus India

Dr Awatar Singh Sekhon (Machaki)

First of all, on behalf of the "Robbed" Sikh Nation of 15th August, 1947, aliasthe Guru Khalsa Panth, the write would like to offer his congratulations (Vadhaiin) to the Chief Scoundrels (jathedars) and their associated scoundrels, wandering in The Darbar Sahib Complex premises, Amritsar ji, the Supreme Seat of Sikh Polity, The Akal Takht Sahib, executive committees of Gurdwaras in the Sikhs Holy and Historic Homeland of the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947, throughout the incredible, progressive, and largest democracy of the world, predominantly India, the Chief Minister Prakash Sinh Badal and his cabinet of Punjab State, the members of the Akali Dal-Badal Private Limited, other Akalis and non-Sikh members of the Sikh (Akali Dal factions) and non-Sikh political parties (Congress, Bhartira Janta Party or BJP, Bajrang Dal, Shiv Sena, the Hindus Mahasabha alias the mother of all evils), Manmohan Sinh, Chief, Council of Ministers (Prime Minister, so to speak), New Delhi administration (NDA), the members of the Lok Sabha (Indian parliament and the Upper House alias Rajya Sabha) and the provincial legislative assemblies, the highly politicized judiciary system of the Indian democracy and the non-Sikh citizens, especially the members of the BJP and the Hindu Mahasabha, the state executives and members of the predominantly Brahmins-Hindus India have not been able to prosecute anyone who carried out the "Genocides of the Sikhs of the "Robbed" PUNJAB of 15th August, 1947, and outside the "Robbed" PUNJAB of 15th August, 1947, in the remaining provinces and Union Territories of the predominantly Brahmins-Hindus India. These Genocides of Sikhs and their Homeland, PUNJAB, had been in the form of an 'undeclared' war in the form of a brutal military "Operation Bluestar" of June, 1984 and the Genocide started on 31st October-November, 1984. Congratulations to the predominantly Brahmins-Hindus' of the secular India.

Second, the predominantly Hindus India deserves commendation and congratulations that the incredible, progressive and largest democracy's executive and judicial system failed to protect the lives of more than hundreds of thousands citizens under the Article 14 of the Indian Constitution of 1950; although more than 3.2 to 3.4 million Sikhs have been slaughtered since the fateful day of the 15th August, 1947. The Government of India and States failed to do so because the citizens who were brutally and mercilessly slaughtered had not been the Brahmins-Hindus. Unfortunately, they had been the Sikhs, followers of Guru Baba Nanak Sahib to Sahib Guru Gobind Singh ji, their teachings inscribed in Guru Granth Sahib, the 5th largest religion of the world. Why should the Government of India, Indian armed personnel and the Sikhs, so to speak, care about the Genocides of Sikhs, their human rights violations and abuses? These kinds of abuses have not happened in any part of the civilized and democratic world.

Third, the question arises why should the Indian administration worry about the Sikhs, whose democratically elected representatives "rejected" the Indian Constitution in its drafts and final forms, in the Indian parliament in 1948, 26th November 1949, 1950 and 6th September, 1966? Since the Sikhs of the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947, have no constitutional rights, because of their "rejection" of the Indian Constitution 1950, the Brahmins-Hindus (only 10% of over 1.2 billion hungry mouths) feel that it is the Brahmins-Hindus' India and they are the masters of the alleged Indian democracy.

Fourth, the Chief Scoundrels (jathedars; Vedanti Joginder Sinh Sran; Puran Sinh of Luv and Kush, etc.), Gurbachan Singh and his associate scoundrels, have given any programme to the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947? So did the Chief Minister, Prakash Sinh Badal and his cabinet? Does the Chief Scoundrel (jathedar) of The Akal Takht Sahib know that he has his responsibility to the Sikh Nation, "Robbed" Punjab? Does he know that he is the Chief Servant (Sewadar) of the Guru Khalsa Panth? Does he know that the State is under the Sikh religion and Sikh Traditions and not otherwise around? Does he know that the Chief Minister of Punjab has imprisoned more than 5600 Sikhs (infants, children, male and female folks, elderlies, etc.) since the days of an 'undeclared' war on the "Robbed" Punjab of 15th August, 1984, in the high security jails of the "Robbed" Punjab and outside "Robbed" Punjab; supposedly, with the consent of the Chief Minister, Prakash Sinh Badal, his "joe boys and joe girls" of the (Robbed) Punjab administration since 15thAugust, 1947. Does the Chief Scoundrel know that the Chief Minister, his Akalis in parliament and upper house of parliamentary members, have merely become the mouthpieces of anti-Sikh political parties? As such, the Chief Scoundrels and the Prakash Sinh Badal gang have demonized the Sikh religion and have had no respect for the Sikh Traditions, the Sikh Way of Life, Guru Granth Sahib and the Chief Minister himself desecrated The Darbar Sahib Complex on 7th February, 1998, while deposing the democratically installed Chief Jathedar of The Akal Takht Sahib? Does the Chief Scoundrel of The Akal Takht Sahib know the Sikhs' History from the Sikh point of view? Does he know it is his responsibility and duty to save the Sikhs' religious, historical and the Sikh institutions from any desecration by the non-Sikhs? The Chief Scoundrel and the Chief Minister of the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947, must know the teachings of the founder of the Sikh religion: "Mathe Tikka Terrh Dhotti Kakhaii Hath Chhurri Jagat Kasaii;" which is the real definition of the Brahmin "Brahmin is the Butcher

of our peaceful world.

Fifth, is it not the duty of the Chief Scoundrel (jathedar) of The Akal Takht Sahib that the "Sikh children must abide by the Sikh Way of Life and they do not follow the Bollywood style culture. The Sikh Culture is the prime culture of the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947. The Chief Scoundrel and his associates must think what they have been doing to "Save the Sikh Culture" from the challenge of the Sikhs' enemy, the Brahmins-Hindus? The Scoundrel and his associates are there to save the Sikh religion and culture and from the impact and attack of the anti-Sikh forces. What do you think the Chief Scoundrel and his associates?

Sixth, why did the Chief Scoundrel of The Akal Takht Sahib asked Sardar Karnail Singh Peer Mohammad and other Sikhs to contact the United Nations to get 'justice' from the involvement of the U N, after a lapse of 29- to 29.5-year? Have you been sleeping for the last three decades almost, the Chief Scoundrel of The Akal Takht Sahib? Would you, the Chief Scoundrel, ever believe in your own integrity, seek guidance from Guru Granth Sahib (as Guru Gobind Singh Sahib ordered his Khalsa "Guru Manyo Granth." Would you ever believe in Guru Sahib Gobind Singh's teachings: "Koi kisi ko raj naa deh hai, jo bhi le hai Nij bal se le hai." Are you and your Chief Minister, Prakash Sinh Badal not in the contempt of the 10th Master's teachings, Gurbachan Singh, Chief Scoundrel (jathedar)? What kind of the examples you are setting to the 'torch bearers' of the Guru Khalsa Panth alias the "Robbed" Sikh Nation, PUNJAB, of 15th August, 1947? Further, have you ever thought about the citizens of the Internationally Disputed Areas of Jammu and Kashmir (IDA:JK). The IDA:JK has been struggling to "Regain its Sovereignty and/or the Self-Determination for their future for more than 66-year, under the auspices of the United Nations." However, more than 200,000 Muslim Kashmiris of the IDA:JK have been killed by the Indian armed forces and despite all these killings, the IDA:JK is not any closer to their future under the U N: Security Council Resolution of 1948.

Have you and the Chief Minister Prakash S Badal ever displayed with solidarity with the demands, human rights violations and abuses with the sufferer of the IDA:JK, Muslims of Muzaffarnagar, U P, Assam and 7-sisters people, rape victims of the Manipuri females, Dalits, Bodos, Christians, Buddhists, and the people of Bihar? You did not think that it was your duty to express sympathies with the non-Sikh and non-Brahmins-Hindus, the Chief Scoundrel (jathedar) of the Guru Khalsa Panth?

Why did you wait, the Chief Scoundrel, for more than 29-year to seek the U N involvement to get 'justice for the Sikhs', which remains denied since 15thAugust, 1947? Should you find yourself unable to get the answer to the Sikh question of the "Robbed" Punjab of 15th August 1947, why do you not resign from the apex political institution of the Sikhs, The Akal Takht Sahib, and ask the Chief Minister of the "Robbed" Punjab and other Sikh electorates to do so? The Sikhs of the Brahmins-Hindus Indian democracy will never be served with the justice to the Sikh question and other matters that have been pending with the judiciary of the secular India.

Seventh, what have you, the Chief Scoundrel of The Akal Takht Sahib (Supreme Seat of Sikh Polity) and the Chief Minister Prakash Sinh Badal of the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947, have ever raised your voice, the voice of the Guru Khalsa Panth, in favour of Bhai Satvant Singh (martyred), Bhai Kehar Singh (Martyred), Bhai Dilavar Singh Babbar (Martyred), Bhai Hawara. Bhai Balwant Singh Rajoana (on the death row of the Brahmins-Hindus' highly politicized judicial system), Bhai Daljit Singh Bittu, Bhai Paramjit Singh Bheora and other Sikhs imprisoned in the high security jails of the "Robbed" Punjab and outside Punjab? Why would you raise your voice on the Sikh Nation's issues, the issues of the "Robbed" PUNJAB of 15th August, 1947?

Do not ever forget the Chief Scoundrel and your associate scoundrels as well as the Chief Minister Prakash Sinh Badal the teachings of Guru Granth Sahib: "Change Marg Chal dian Ustat kare Jahan; …Avar updese aap naa Kare avat jave janme marre… nothing is going for ever in this world, etc."

How would you ask when you are a member of the Rashtriya Sikh Sangat, a Branch of Hindus-Brahmins' Rashtriya Swamsewak Sangh and, maybe, other political parties of anti-Sikhs fundamentalists and militant Brahmins-Hindus? Please prove wrong for my assumptions, the Chief Scoundrel (jathedar) Gurbachan Singh.

You must not have forgotten the slogan of the Brahmins-Hindus raised in the early 1980s, "Kachha Karrah Kirpan, Inko Bhejo Pakistan." What does it mean to you and the Chief Minister Prakash Sinh Badal? This relates to the "Robbery of the Sikhs' Holy and Historic Homeland, PUNJAB of 15thAugust, 1947. Indeed, the Sikh nation has been made landless by the robbery of the 15th August, 1947, The Brahmins-Hindus have grabbed your Homeland (Punjab) and now "you go to Pakistan." What a play of the deceitful Brahmins-Hindus! One of you has been believing in "Money For Votes" because he would like to be the Chief Minister of PUNJAB regardless what would be future of the Sikhs and their present and future generations.

In summation, you both owe answers to the above questions, relating to the Guru Khalsa Panth and its Holy and Historic Homeland, presently under the occupation of the incredible, progressive and the largest democracy ruled by the Brahmins (3%) – Hindus (7%), to the Guru Khalsa Panth alias the "Robbed" Sikh Nation, PUNJAB, of 15th August, 1947, as well as to the Sikh Diaspora.

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